वैभव सिंह / ‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

SHARE:

कथा कसौटी (आलोचना) वैभव सिंह ‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में कहानी पढ़ना और उसपर विचार करना जितना आसान काम है, उतना ही ...

कथा कसौटी (आलोचना)

वैभव सिंह

‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में

कहानी पढ़ना और उसपर विचार करना जितना आसान काम है, उतना ही मुश्किल काम है कहानी के बारे में अपनी अपेक्षाएं प्रकट करना। यह वैसे ही है जैसे हम फूल की सुगंध तो ले सकते हैं पर फूल में सुगंध क्यों हो, कैसी हो, कैसी न हो आदि के बारे में कोई निबंधनुमा टिप्पणी लिखना। मेरे ख्याल से तो कहानियों का दिलचस्प होना उनका सबसे बड़ा गुण है और फिर उसके बाद विचार, यथार्थ या सामाजिक सरोकार आदि चीजें आती हैं। खुद को पढ़वा ले जाना उसकी सबसे बड़ी शक्ति हो सकती है। कई बार कुछ कहानीकार कला-चेतना को ही कथा के लिए सबसे जरूरी मानते हैं। वे अपनी कहानी को चित्रकला, मूर्तिकला या संगीत बनने का लोभ पाल लेते हैं और कहानी जैसी विधा की बुनियादी बनावट से दूर जाने लगते हैं। कहानी को संगीत-चित्रकला का दयनीय डुप्लीकेट बनने के स्थान पर ठेठ तरीके से कहानी होना चाहिए, भले ही कुछ अन्य कलाओं के लक्षणों का वह अपनी शर्तों पर उपयोग कर ले जाए। उनमें समाज के साथ सच्ची सहानुभूति मौजूद रहनी चाहिए। हमारे दिलों में सो रही मोहब्बत, प्यार, त्याग और समझदारी की भावनाओं को जगाने की शक्ति होनी चाहिए। कहानियों में मनुष्य के उल्लास, रुदन और संकट व्यक्त होते हैं जो वास्तव में इंसान की धूसर-पीली ज़िंदगी को सहने लायक बना देते हैं। इंसान की ज़िंदगी में न जाने कितनी पराजय और संघर्ष हैं, जिन्हें व्यक्त करने के लिए कहानी से अच्छी विधा कोई नहीं हो सकती। पर यह सब करते हुए वे किसी नीरस उपदेश में नहीं घटित होनी चाहिए। कारण यह कि चारों ओर सिद्धांतकार, सत्य का उपदेश देने वाले महात्मा और चिंतक व ज्ञानीजन काफी बड़ी मात्रा में रहते हैं जो हमेशा इंसान को सही मार्ग पर लाने का दावा करते रहते हैं। पता नहीं क्यों सभी ज्ञानीजनों को लगता है कि इंसान में बड़ी ख़राबियां हैं और उन्हें नहीं ठीक किया गया तो दुनिया चलेगी नहीं। इसलिए वे दिन-रात मनुष्य को सुधारने के लिए बेचैन रहते हैं। वे खुद को ‘सामाजिक नियंत्रण’ की किसी एजेंसी में बदले बिना जीवन को व्यर्थ मानते हैं।

यानी, दुनिया की आधी मुसीबतों की जड़ तो यह विश्वास है कि हमारा काम दूसरों को सही रास्ते पर लाना है। कोई किसी के इश्क में पड़ जाए तो लोग बताने आते हैं कि इश्क कितनी बुरी चीज है और इससे कैसे बचें। कोई किसी की मदद करे तो भी बताने वाले आकर बताने लगते हैं कि किसी की मदद करने का ज़माना नहीं रहा अब। कोई लगातार अपठनीय होते अख़बारों की जगह कविता-कहानी पढ़ने लगे तो उसमें भी बुराई के लक्षण ढूंढ लिए जाते हैं। यानी, हर तरफ स्वनामधन्य उद्धारकर्ताओं की फौज घूम रही है। दुनिया को जरूरत से ज्यादा उद्धारक मिल चुके हैं जो दुनिया के लिए नई तरह की परेशानी है। लेकिन कहानीकार का काम इन सभी से जुदा है। वह इंसान को सही मार्ग पर लाने का दावा नहीं करता बल्कि वह इंसान को तसल्ली, आराम और सहजता के साथ जीवन जीना भी सिखाता है जो बड़ी मुश्किल से अब नसीब होते हैं। इस सभ्यता ने इंसान के आराम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है और आगे भी नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार बैठी है। लोग गधे का सबसे ज्यादा मजाक उड़ाते थे पर शायद उस गधे की आह लगी कि अब अधिकांश लोग गधे की तरह खटने के लिए मजबूर हो गए हैं। पुराने धर्माचार्यों व पंडितों ने भी इंसान के आराम में खलल डाला है जो लगातार यही प्रवचन देते थे कि ईश्वर या गॉड को प्राप्त किए बगैर मिलने वाला सुख-चैन किसी काम का नहीं है। इस तरह सुखी लोगों के घर में धर्म ने भी काफी आग लगाई है। ज्यादातर पुराने किस्से मनुष्य के आराम व फुर्सत के पलों से जुड़े हैं। मुल्ला नसीरुद्दीन के किस्से काफी मशहूर हैं। उन्हीं में से एक किस्सा है कि एक दरवेश एक सूनी जगह पर ध्यान लगाए बैठा था। अचानक उसे लगा कि कोई और भी आसपास मौजूद है। उसके पास दिव्य दृष्टि थी। उसने उसी दृष्टि के सहारे देखा कि एक शैतान पास ही में एक पेड़ के नीचे आराम से लेटा है। दरवेश को आश्चर्य हुआ। उसने शैतान से पूछा- ‘दुनिया में लड़ाई-झगड़े, पाप और खुराफात फैलाने के बजाय तुम यहां आराम से क्यों लेटे हो। शैतान ने ठंडी सांस भरकर कहा- इंसान तरक्की कर रहा है, नई-नई बातें सीख रहा है। सत्य की बात करने वाले चिंतक-उपदेशक चारों ओर घूम रहे हैं। अब मुझे कुछ करने की क्या जरूरत है।’ वो शैतान काफी चालाक था और उसने बगैर ज्यादा बहस किए दरवेश को इशारे में ही समझा दिया कि इंसान जिस तरह की तरक्की और सच्चाई के लिए पागल हो रहा है, वह अपने आप शैतान के हिस्से का काम कर देगी। इसलिए अब उसे आराम से सो जाना चाहिए। कहानियां भी उसी शैतान की तरह होती हैं जो हमें बताती हैं कि इंसान को ज्यादा झंझट, उपदेश या सचाई की खुराक की जरूरत नहीं है बल्कि फुर्सत के पलों की जरूरत है। तरक्की के ज्यादातर फार्मूले इंसान से उसके सुख को छीनने के लिए ईजाद कर दिए गए हैं।

अच्छी कहानियां आज भी वही हैं जिन्हें पढ़ना स्कूल का होमवर्क करने या जिम्मेदारी की तरह न लगे बल्कि जिनमें भरपूर किस्सागोई हो। कहानी पढ़ना स्वयं में काम न हो बल्कि हम लोग जिन ढेरों दूसरे कामों में मसरूफ रहते हैं, कहानी पढ़ने के बाद उन्हें पूरा करने में आसानी हो। उनमें गप, विट, मौजमस्ती और रूमानियत के गुण मौजूद हों। जो हमारे जीवन में बचे-खुचे आराम के पलों को भी बोझिल न बना दें। जो हमें समाज के बारे में इस मुश्किल ढंग से सचेत न करें कि हम यह मान लें कि समाज के बारे में सचेत होने की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है। उन्हें पढ़कर ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारा समाज अबूझ पहेली है और हमारी कहानियां उसे सुलझाने के ऐतिहासिक मिशन पर निकली हैं और हमारा काम उस मिशन में योगदान देना है। एक सफल कहानी वह भी है जो हमारे भीतर चरित्र का बोध पैदा करती है। आम ज़िदंगी में हम लोगों से मिलते हैं, बात करते हैं और उनके बारे में कुछ न कुछ जान लेते हैं। पर कहानी चरित्र-बोध को इस तरह से पैदा करती है कि वह चरित्र किसी खास परिस्थिति या यथार्थ को पूरी तरह से आलोकित कर देता है। उस चरित्र के जरिए एक ही समय में लिपटे-गुथे बहुत सारे कालखंडों की झलक मिल जाती है। न वे इस दंभ से लिखी जानी चाहिए कि वे किसी सुधारवादी मिशन के माध्यम के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं और न इस आत्मतोष के साथ कि कहानीकार के अपने अनुभव स्वयं में संपूर्ण हैं और उसे विचारधारा व विजन स्पर्श से खुद को बचाना चाहिए।

चेख़व की कहानी ‘वार्ड नंबर छह’ मेरी सबसे पसंदीदा कहानियों में से है। वही कहानी जिसे पढ़कर लेनिन क्रांतिकारी हो गए थे और उन्होंने कहा था कि जारशाही के अधीन पूरा रूस ही वार्ड नंबर छह में बदल गया है। यह कहानी पढ़ने के बाद किसी को भी ट्रैजडी का भरपूर अहसास हो सकता है। एक ऐसे समाज की सारी नीचताओं का अहसास हो सकता है जहां पागलों के साथ बेरहमी से पेश आया जाता है और छल-कपट में किसी सामान्य इंसान को भी पागलों के वार्ड में डालकर उससे छुटकारा पाया जा सकता है। कहानी के नायक डाक्टर आंद्रेई येफी मिच को दवाई खिलाकर लकवाग्रस्त बना दिया जाता है और उसकी मौत हो जाती है। उसका अपाहिजपन और मौत समाज के उदात्त और ईमानदारी के प्रति आकृष्ट लोगों की समाप्ति का सूचक बन जाता है। पागलखाने और कैदखाने प्रतिभाशाली लोगों से छुटकारा पाने का सबसे आसान जरिया बन जाते हैं। रूस की हालत का बयान इन शब्दों में आता है- ‘रूस में किसी तरह की दर्शन प्रणाली नहीं है, फिर भी यहां हर कोई दार्शनिकतापूर्ण बातें करता है, यहां तक कि सर्वसाधारण भी।’ यानी एक बुरी तरह लुटा-पिटा, दरिद्र समाज झूठी दार्शनिकता जताकर अपनी सारी क्रूरताओं से आंख चुरा रहा है। यह कहानी इसलिए याद रह जाती है क्योंकि यह इंसानियत की कसमें खाने वाले समाज में इंसानियत की रूटीन मौतों को दर्शाती है। सारे चर्च, वैराग्य के उपदेश या धर्म-कथाएं उसकी रक्षा करने में नाकाम हो रही हैं। यह उन लोगों की मक्कारी को सामने लाती है जो प्रायः बड़े पदों पर बैठकर जिम्मेदारियां पूरी करने का ढोंग कर रहे हैं लेकिन असल में वे समाज की सबसे सुंदर चीजों को शालीन और कानूनसम्मत तरीकों से नष्ट कर रहे हैं। यहां अपराधी केवल अपराधियों के वर्ग से नहीं आते हैं बल्कि सफेदपोश लोगों के वर्ग से निकल रहे हैं। यानी, कहानी की कसौटी यह भी हो सकती है कि वह इंसान की सारी धूर्तता और नीचता को सामने ला दे। उसे पढ़कर यह लगना चाहिए कि इंसान के देवत्व के दावे कितने झूठे हैं और उसका पतन किसी ‘कमजोर क्षण’ का मामला नहीं बल्कि पूरी सभ्यता में निहित चक्र-कुचक्र की देन है। वे कहानियां सबसे रद्दी और बोझिल होती हैं जो इंसान की अच्छाई के बारे में हमें विश्वास दिलाती हैं। उनमें इंसान को साधु-संत बना डाला जाता है और वह साधु-संत से ज्यादा निरीह इंसान प्रतीत होने लगता है। इंसान अच्छा है, उसमें अच्छा होने की संभावना भी है पर असल में वह अपनी बुराइयों पर पर्दा भी डालता रहता है। चौबीस घंटे में हमारे भीतर कितने ही बुरे विचार उठते हैं। कितने ही समाजविरोधी काम करने की इच्छाएं जन्म लेती हैं। लालच, हवस, वासना, हिंसा की न जाने कितनी ही गोपनीय भावनाओं को हम भीतर ही भीतर प्रतिबंधित (सेंसर) कर डालते हैं। धर्म और रीति-रिवाज तो पहले ही उसकी बुराइयों पर पर्दा डालते रहते हैं, साहित्य का काम उन पर्दों को नोचकर निकाल देना है। इस तरह हर अच्छी कहानी में ‘स्टिंग आपरेशन’ की तकनीक नहीं तो कम से कम उसका गुण जरूर होना चाहिए। उसमें रंगे हाथों पकड़ने का कौशल दिखना चाहिए। उसमें लिपे-पुते चेहरों को धो डालने का चालाक हुनर भी होना चाहिए।

हिंदी में जो हाल में दो कहानियां मस्तिष्क में देर तक रहीं वे थीं अनिल यादव की कहानी ‘दंगा भेज्यो मौला’ और शिवमूर्ति की ‘तिरियाचरित्तर’। अनिल यादव की कहानी में बाढ़-बर्बादी के बीच घिरे लोगों की भयावह दशा सामने आती है तो शिवमूर्ति की कहानी में दलित स्त्री का शोषण व्यक्त होता है। दोनों ही कहानियां अल्पसंख्यकों व दलित स्त्री के उत्पीड़न व धीमे-धीमे चलती उनकी तबाही को व्यक्त करती है पर ख़ास बात है तो दोनों ही कहानियां अस्मिता विमर्श के नाम पर कला-शिल्प या कथ्य के स्तर पर किसी आलोचकीय रियायत की मांग नहीं करती हैं। इन कहानियों को पढ़कर आपको कहानियों की ताकत का आभास हो सकता है। आप यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं कि अच्छे अस्मितावादी विचारों के फ्रेमवर्क में कमजोर कहानी लिख दी गई है। कहने का मतलब है कि सामाजिक रूपांतरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ दलित, स्त्री, किसान, मुस्लिम, जनवाद आदि की जो साहित्यिक श्रेणियां स्पष्ट तौर पर निर्मित हुई हैं उनमें कथाओं को भी संजीदा ढंग से प्रस्तुत होना चाहिए और कहानियों को श्रेष्ठ विचार का प्रतीक नहीं बल्कि श्रेष्ठ कला का प्रतीक भी बनाने का प्रयास करना चाहिए। हम यह नहीं कह सकते कि किसी महान आंदोलन के लिए लंबे समय तक बुरे साहित्य को भी बर्दाश्त कर लेना चाहिए। साहित्य वही सफल होता है जिसमें सामाजिक-चेतना और कला-चेतना का मेल उपस्थित रहता है।

इसी प्रकार कहानी से हमें बहुत ज्यादा डिमांड भी नहीं करनी चाहिए कि वह एक साथ ही दृश्यात्मक, बिंबात्मक, रोमांटिक, चरित्र प्रधान, नैतिकतावादी, मनोविश्लेषणवादी या यथार्थवादी आदि हो। जो कमजोर कहानीकार हैं, वे सबसे ज्यादा यह बताते हैं कि उनकी कहानियों में कौन-कौन से गुण हैं। वे खुद ही आलोचकों को फोन कर बताते हैं कि हमारी कहानी के इन गुणों पर ध्यान दीजिए। जबकि जो परिपक्व कहानीकार हैं उन्हें बस यह पता होता है कि उन्होंने एक कहानी लिखी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उन्हें कहानियों को चीर-फाड़ विभाग में ले जाए जाने और फिर ‘मनोवैज्ञानिक अन्वेषण’, ‘ऐतिहासिक उत्कृष्टता’ और ‘समाजशास्त्रीय गुणवत्ता’ आदि के लेबल के साथ बाहर लाने की कार्रवाई अश्लील लगती है। कहानी की उत्कृष्टता इससे नहीं पहचानी जाती कि वह कितना हमारे समाज को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि इससे पहचानी जाती है कि वह हमारे भीतर छिपे समाज के बिंब को किस प्रकार से समृद्धकारी विस्तार, नई ऊंचाई और नई गहराई प्रदान करती है। साहित्य से बढ़ती हुई मांगें साहित्य-कला की सत्ता की उपेक्षा कर उन्हें केवल सामाजिक चेतना के माध्यम के रूप में देखने की प्रवृत्ति की भी परिचायक है। साहित्य का समाजशास्त्र लिखने वालों ने इस समस्या का हल सुझाने के स्थान पर इसे बढ़ावा दिया। कविता लिखने वाले से हम मांग करते हैं कि वह हमें पूरे विश्व की झलक दिखा दे। कहानी लिखने वाले से मांग करते हैं कि वह कुछ क्रांति, सुधार आदि के रास्ते के बारे में भी हमें बताता चले। निबंध लिखने वाले से मांग करते हैं कि वह भारी ज्ञान हमें जल्द से जल्द प्रदान कर दे। काव्यशास्त्र के सारे नवरस हमें किसी एक ही कहानी या कविता से चाहिए, तो इसका मतलब है कि हमारी अपेक्षाओं में ही कुछ खोट है। इस चक्कर में न तो विधा कुछ ज्यादा प्रदान कर पाती है और न हमारी अपेक्षाएं ही पूरी हो पाती हैं। इन अतिरिक्त अपेक्षाओं के लिए केवल पाठक नहीं बल्कि लेखक भी दोषी हैं जो विमोचनों या परिचर्चाएं आयोजित कराकर इस बात को सिद्ध कराना चाहता है कि उसने जो लिख दिया है, उसमें समूचा अनुभव जगत समा गया है। रचना ब्रह्म है जिसमें पूरी सृष्टि का वास है। हिंदी के एक ऐसे ही बदनाम किस्म के विमोचनी समारोह में मैंने हाल में ही एक आलोचक को कहते सुना था कि कहानी वह विधा है जिसमें समाज का संपूर्ण सत्य समा जाता है। ऐसे पवित्र मुखोद्गार व्यक्त करने वाले उन आलोचक महोदय से पूछा जा सकता था कि यह ‘संपूर्ण सत्य’ अभी खोजा नहीं गया है तो कहानी में कैसे समा गया? संपूर्ण सत्य की चिंता पुरी के शंकराचार्य जी करें तो समझ में आता है, साहित्यकार करे तो चिंतित होने की जरूरत होती है। इसलिए कमजोर कथाकार व कमजोर आलोचक, दोनों ही अक्सर संपूर्ण सत्य के पीछे भागते हैं, जबकि जेन्युइन कथाकार अपने संपर्क में, सहजता से समझे जाने वाले और संवेदित किए जाने वाले सत्य को कहानी में व्यक्त करते हैं, न कि किसी संपूर्ण सत्य को खोजने की चेष्टा करते हैं। ऐसे करते हुए जटिल तर्क नहीं बल्कि सरलता का भी साधक हो सकता है।

यह सही है कि पिछली पूरी एक सदी में विकसित हुआ ‘व्यक्ति’ ज्यादा तर्क करने वाला व्यक्ति है और वह दुनिया के निर्माण के पीछे काम करने वाली सारी तार्किक योजनाओं को समझने की कोशिश करता है। यह बात भी सही है कि उसकी बौद्धिकता का लगातार विकास हो रहा है। पर ये सारी सही बातें भी इस तथ्य को झुठला नहीं सकती हैं कि वह बौद्धिकता, सरलता व तार्किकता को भी सरल बनाने का प्रयास करता रहता है। हमारे साधारण जन ही नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ मेधाएं भी जटिलता को ग्रहण करने के लिए सरलता की मांग कर सकती हैं। इसलिए कहानी बहुत पेचीदा विधा बनने के स्थान पर सरल विधा बनने की तरफ बढ़े, तो उसका भविष्य ज्यादा प्रकाशमय रहेगा। लेकिन सरलता का गुण कहानी के रूपगत पक्ष में होना चाहिए, दृष्टि में नहीं। सरलता का अर्थ उथलेपन, मूर्खता या सपाटपन में नहीं ढूंढा जाना चाहिए। वह अल्पज्ञता या मानसिक श्रम के अभाव को भी व्यंजित करने वाली नहीं होनी चाहिए। सरलता संप्रेषण की समस्या से जुड़ा मसला है, न कि दृष्टि या समझदारी से जुड़ा हुआ। एक गहरी बेधक, यथार्थ को तार-तार कर देने वाली, उसकी सारी जटिलता को उभार देने वाली सरल संप्रेषणीयता की हमें जरूरत होती है और इसीलिए हम सरलता को आवश्यक समझते हैं। हमें उल्टा नहीं चलना है कि दृष्टि तो सरल है, पर संप्रेषण में जटिलता है। एक मँजी हुई बौद्धिकता के बगैर हम न अपने शहरी समाज का ठीक से चित्रण कर सकते हैं, न गांवों का। जैसे कि इधर गांव पर लिखी कुछ कहानियों को पढ़ा तो लगा कि गांव के किसान का चित्रण केवल इतने तक सीमित रह जाता है कि वह कितना भला है और अपने जानवरों को कितना सच्चा प्यार करता है। उसे अपने हल-बैल या जमीन से कितना लगाव है। वह अपने मरकहे बैलों को कसाई से बचाता है। पर ये किसान की बेहद मासूमियत से भरी छवि है और इससे किसान जीवन या गांव की असल चुनौतियां नहीं उभरती हैं। प्रेमचंद ने भी ऐसे मासूम किसान का चित्रण नहीं किया है बल्कि उनका किसान भी चालाकी से डांडी मारने वाला, भाई की गाय को ज़हर देकर मार डालने वाला, जमींदार को खुश रखने की चिरौरी करने वाला और कैसे भी हो पर अपनी ‘मरजाद’ को बचाने वाला जटिल सामाजिक प्राणी है। अर्थात कहानीकार को किसी विषय का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके पास उसे लेकर एक सधी हुई सामाजिक दृष्टि भी हो, वरना वह उस विषय को लेकर एक अपरिपक्व रचना गढ़ देगा।

--

संपर्क:

ईमेल- vaibhavjnu@gmail.com

फोन- 9711312374

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: वैभव सिंह / ‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
वैभव सिंह / ‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
https://lh3.googleusercontent.com/-DRzVXs-I45s/V10agxe-mtI/AAAAAAAAuVs/3Fmuhc7WJe8/image_thumb%25255B3%25255D.png?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-DRzVXs-I45s/V10agxe-mtI/AAAAAAAAuVs/3Fmuhc7WJe8/s72-c/image_thumb%25255B3%25255D.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/06/2016-1_9.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/06/2016-1_9.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content