रचना समय - अप्रैल मई - 2016 / पुस्तक समीक्षाएँ

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  राकेश मिश्र ग़लत हिन्दुस्तानी * मध्य एशिया के तमाम उथल-पुथल की हाहाकारी सूचनाओं से हम वाकिफ़ हैं। लेकिन समकालीन सूचनाओं के घटाटोप ने इन ...

 

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राकेश मिश्र

ग़लत हिन्दुस्तानी *

मध्य एशिया के तमाम उथल-पुथल की हाहाकारी सूचनाओं से हम वाकिफ़ हैं। लेकिन समकालीन सूचनाओं के घटाटोप ने इन सूचनाओं के पीछे घटने वाली त्रासदी के प्रति संवेदनशीलता से हमें वंचित कर रखा है। ऐसे में युवा इराकी लेखक अब्बास खिदर का पहला जर्मन उपन्यास क्मत थ्ंसेबीम प्दकमत जो अंग्रेजी में द फाल्स इंडियन और अब हिन्दी में ‘ग़लत हिन्दुस्तानी’ के नाम से प्रकाशित हुआ है- कई अर्थों में हमारी संवेदनाओं, और मनःस्थितियों को झकझोरने वाला साबित होता है।

समकालीन राजनैतिक शब्दावली में ‘शरणार्थी’ एक आम प्रचलन का शब्द है, लेकिन इस उपन्यास में यह शब्द, अपनी समूची अर्थवत्ता के साथ उद्घाटित होता है। इसकी अर्थवत्ता, उसके दैनंदिन जीवन में, एक-एक साँस के लिए लड़ने और जीवन की ख़ूबसूरती में यक़ीन करते हुए, समूची जिजीविषा के साथ संघर्ष करने में व्याख्यायित होती है। उपन्यास के समर्पण के शब्दों में कहें, तो जो मौत से एक लम्हा पहले भी दो पंखों के उग आने के सपने ले रहे होते हैं।

अब्बास खिदर अपने ‘कहन’ के लिये अन्य पुरुष का सहारा लिये बग़ैर इसे शरणार्थियों की व्यापक समस्या से जोड़ देते हैं। अपनी शैली में आत्मकथात्मक होते हुए भी यह उपन्यास अपने शिल्प के कारण सामूहिकता और सार्वजनीनता का बोध कराता

है। लेखक जर्मनी में बर्लिन से म्युनिख जाने वाली इंटरसिटी ट्रेन में बैठता है, और उसे सामने एक बंद लिफ़ाफ़ा दिखता है, जो हस्बमामूल तरीके से लावारिस साबित होता हुआ लेखक के कब्ज़े में आ जाता है। उस लिफ़ाफ़े में किसी ‘रसूल हमीद’ की यादों का कच्चा चिट्ठा है जो इराक के सद्दाम हुसैन सरकार की गिरफ़्त से भाग हुआ है, और प्रतिदिन अपने स्वप्न, अपनी कविता और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए निर्णायक जंग लड़ रहा है।

उपन्यास अपने पन्ने-दर-पन्ने जिन बारीकियों और ब्यौरों के साथ उपस्थित होता है, पाठक उसके साथ-साथ एक बिल्कुल अलग और ख़तरनाक दुनिया में ग़ालिब होता चला जाता है, जहाँ दुश्मन और दोस्तों की कोई ख़ास शक्ल नहीं है, सब कुछ एक विराट और अमानवीय तंत्र का एक अनवरत चल रहा दस्तूर जैसा महसूस होता है, जिसमें यदि कुछ अलग और नया है, तो वह है- मनुष्य की अपनी ख़ूबसूरती के अधिकार के जीने की अदम्य इच्छा। उपन्यास अपने अंत में, आरंभ की आवृत्ति के साथ ख़त्म होता है, और लेखक के साथ-साथ पाठक भी यह जानकर सन्न रह जाता है कि ‘रसूल हमीद’ के उस कच्चे चिट्ठे का एक-एक ब्यौरा उपन्यासकार अब्बास खिदर का ब्यौरा है। विवरण का साम्य नहीं, बल्कि एक एक ब्यौरा! यहीं यह उपन्यास अपने विन्यास में ‘आत्मकथा’ के दायरे से बाहर निकलकर एक वृहत्तर शरणार्थी समस्या और उनकी जिजीविषा का प्रमाणिक दस्तावेज़ बन जाता है। उपन्यास का नायक रसूल एक सीधा-सादा स्वप्निल-सा इराकी नवयुवक है, जिसकी इच्छाएँ आकांक्षाएँ सब कुछ सामान्य हैं। किसी भी हमउम्र नवयुवक के समान उसमें भी प्रेम करने और प्रेम पाने की तीव्र इच्छा है। ‘एक सुनहले बालों की लड़की की इच्छा, जिसके साथ उद्दंड खेल खेला जा सके।

किसी भी सामान्य नवयुवक की तरह उसके स्वप्न टूटते हैं, दिल टूटता है, और सबकी तरह वह दुखी भी होता है। लेकिन असामान्य है उसका देश इराक जिसकी राजधानी है बगदाद जिसका असली नाम मरीनात-अ सलाम है, मतलब अमन का शहर। ऐसा अमन का शहर जिसे कभी अमन नसीब नहीं हुआ। ‘एक जंग दूसरी से गले मिलती है, एक मुसीबत दूसरी का पीछा करते आती है। हर बार पूरे इराक में, बगदाद में आसमान या धरती जल रहे होते थे : 1980 से 1988 के पहले खाड़ी युद्ध में, 1988 से 89 तक कुर्दों के ख़िलाफ़ अल बाथ की हुकूमत के जंग में, 1991 में दूसरे खाड़ी युद्ध में और बीच-बीच में सैकड़ों आगजनियों, लड़ाइयों, ख़िलाफतों और मुठभेड़ों में। आग इस मुल्क की नियति है, जिसे बुझाने की ताक़त दोनों बड़ी नदियों युफ्रात और टिग्रिस में भी नहीं है।’ निरंतर जलते रहने की नियति से शापग्रस्त भय से एक राजनैतिक शरणार्थी के तौर पर भागा हुआ रसूल एक लावारिस पोत की तरह बिना किसी लास्य के एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश। इस अनवरत भागमभाग और भटकाव में (हालाँकि भटकाव कहना सही नहीं, यह जानलेवा भटकाव है) जो चीज शिद्दत से रसूल को जिंदा रखे हुए है वह है कविता लिखने की उसकी अदम्य इच्छा। यहाँ कविता की उपस्थिति मात्र भाषिक न होकर अपनी समूची ऐंद्रिकता और मांसल ऐश्वर्य के साथ है। यह लिखना वस्तुतः एक दुआ की तरह से है, कि ऐ खुदा, मुझे मेरे ख़ालीपन से बचा। ख़ालीपन से बचने की इस कोशिश और अदम्य चाहना में लिखना एक जूनून की शक्ल में सामने आता है। जेल की दीवारों पर लिखी इबारतों के मायने इतने डरावने और खौफ़नाक थे कि लेखक का यह निष्कर्ष कि ‘भाषाओं की क्या तकदीर होती है कि वे बदख़्वारी की तरह धरती पर आती थीं।

खुदा की बद्दुआ, जिसने इंसानियत पर अपना गुस्सा उतारा है।’ तमाम भाषा के बारे में अब तक की हमारी सारी रूमानियत धो डालता है। लेकिन यही एक चीज है, चाहे वह बद्दुआ की ही शक्ल में हो, मनुष्य को अपनी तमाम गज़ालत और परेशानियों से निकलने का रास्ता भी सुझाता है। तमाम विपरीत और लगभग गर्क हो चुके वक़्त में जब ज़िन्दगी और मौत के बीच टायर के फट जाने के कारण बच जाने का चमत्कार हो और एक एक साँस इसी तरह के चमत्कारों की मोहताज हो वहाँ ज़िन्दगी जीने की इच्छा अपने आपको बचा ले जाने की इच्छा ही किसी कविता से कम नहीं। यहाँ कविता लिखने की इच्छा दरअसल अपने होने को, अपने भीतर किसी स्त्री-आकर्षण को और उसके मार्फत दुनिया के प्रति अपने आकर्षण को अभिव्यक्त करता है। यह एक आदिम भूख की तरह उपन्यास में आती है, एक अदम्य, दुर्दमनीय आदिम भूख, लगभग वासना की हद तक।

‘इस लड़की ने जिसका नाम मैं पता नहीं कर सका था, मेरे अंदर अचानक एक प्रचंड तूफान को जगा दिया था। मेरा व्यसन आनन-फानन पूरे जोर से लौट आया था। मैं चुम्बक की तरह कालीनों के सौदागर की दुकान की तरफ खिंचा चला गया था। कालीनों को लपेटने के लिये जितने पीले और सफेद काग़ज़ों का ढेर लगा था, सबको फटाफट इकट्ठा किए मैं भागा।’

ये काग़ज़ लेखक के लिये उसके भीतर उठते तमाम जज्बातों को ज़ाहिर करने का एकमात्र ज़रिया था। ‘‘मैं उन दिनों पागलों की तरह लिख रहा था, और जब भी मुझे कोई जिप्सी औरत या लड़की नज़र आती तो मैं ऐसे कांपता था जैसे मधुरस चूसती मधुमक्खी। कालीनों की तकरीबन हर दुकान से मैंने कागज पार किया।’’ लिखने की यही ज़िद और और कविता के बारे में नायक की स्वीकारोक्ति जैसी परिभाषा जीवन का जीवाधार, जिससे मैं साँस लेता हूँ, साँस छोड़ता हूँ।

दरअसल इस छोटे से उपन्यास में लिखना, ख़ासकर कविता लिखने की इच्छा की उसकी कोशिशों के ब्यौरे ही इस उपन्यास को एक भिन्न अर्थ देते हैं। शरणार्थी, उसकी पीड़ा, उसका दमन, और उसकी नारकीय स्थितियाँ शायद हमें उतना उत्प्रेरित न करें क्योंकि हमने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का जो त्रासद साहित्य (खासकर यहूदियों का) पढ़ रखा है उसके मुकाबले इसकी पीड़ी और वर्णन कमजोर लग सकते हैं। दरअसल ‘जीनोसाइड’ और होलोकास्ट के अनुभवों ने जिस कदर एक इंडस्ट्री का रूप ले लिया था, उसने आगे चलकर हमारी संवेदना को भोथरा करने का ही काम ज्यादा किया। लेकिन फिर भी, हमें ‘एनफ्रेंक की डायरी’ जैसी किताब, और ‘लाइफ इज ब्यूटीफुल’ जैसी फिल्म याद रह जाती है, तो उसमें वर्णित या चित्रित आतंक या गज़ालत के कारण नहीं बल्कि जीवन के प्रति उसकी अदम्य लालसा और लास्य के कारण। यह किताब भी हमें लोमहर्षक और शरणार्थियों के जीवन के ख़तरनाक रोजमर्रा के अनुभवों से ज़्यादा, जीवन को ख़ूबसूरत बनाने, उसकी सुंदरता और अद्वितीयता को महसूस करने, कविता और प्रेम को पाने की अदम्य और असीम लालसा के कारण लंबे समय तक याद रहेगी। यह एक ऐसे लेखक की रचना है जिसे धरती के अनेक सूरजों के द्वारा पकाया गया और नमक लगाया गया है।

और सबसे अंतिम बात इस किताब के शीर्षक ‘ग़लत हिन्दुस्तानी’ के बारे में। नायक कभी हिन्दुस्तान नहीं गया है, लेकिन हर बार उसके ‘रूप रंग’ की वजह से उसे हिन्दुस्तानी समझ लिया जाता है। लेकिन उसके इंकार करने पर और अपनी वास्तविक पहचान ‘इराकी’ बताने पर उपेक्षा का दंश भी सहना पड़ता है, लेकिन आखिर हिन्दुस्तान का होने न होने का नायक का क्या संबंध है। इस बारे में नायक एक दिलचस्प नतीजे पर पहुँचता है।

बीसवीं सदी के आरंभ में जब अंग्रेज इराक आये थे तो हमारे साथ उनका हिन्दुस्तान पर भी कब्जा था। बाद में वे बहुत से हिन्दुस्तानी फौजी भी ले आये थे, जिन्होंने हमारे देश के दक्षिण में ताड़ के विशाल वनों में अपने कैम्प लगा दिये थे। क्या पता कि दक्षिण इराक में रहने वाली मेरी दादी को भी कोई ऐसा फौजी जंगल में मिल गया हो, और जिसका नतीजा शायद मैं हूँ : दो ब्रिटिश उपनिवेशों के मेल का उत्पाद।

यह नतीजा दिलचस्प होने के साथ साथ कोई अर्थों में मानीखेज भी है, और उपनिवेशवाद के प्रति अपनी ‘उत्पीड़ित अस्मिता’ बनाने में इराक को भी साथ-साथ ले चलने की एक नई दृष्टि का आह्वान भी करता है।

अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग,

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी

वि.वि. वर्धा - (महाराष्ट्र)

मो. - 9970251140

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बसंत त्रिपाठी

मायालोक का अनावरण *

मैं स्त्रियों द्वारा लिखी कविताओं को, कविता पढ़ने की अपनी स्वाभाविक ललक के अलावा इस आतुरता से भी पढ़ता हूँ कि मेरे अपने जीवन के वे कौन से अलक्षित कोने हैं जिनसे होकर मैं गुज़रा तो हूँ लेकिन ठहरा नहीं या जिन तक मैं पहुँच नहीं पाया। और हर बार यही महसूस होता है कि एक स्त्री की सांसत के ओर-छोर को विचार की आँख से परिभाषित और व्याख्यायित तो किया जा सकता है लेकिन उसे पूरा जानना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। विशेषकर भारतीय समाज में, जहाँ स्त्री पर पहरेदारी के कई-कई स्वयंभू और तैनाती पहरुए हैं। समाज-शास्त्रीय अर्थ में जिन्हें ‘संस्थाएँ’ कहते हैं। आरती के पहले संग्रह ‘मायालोक से बाहर’ की कविताओं के भीतर भी मैं इसी आतुरता के साथ घुसा और जो लोक मेरे सामने खुला, वह कर्ई तरह से आश्चर्य पैदा करने वाला था।

आरती की कविताएँ चीखने की इच्छा से पैदा हुई हैं और इस इच्छा के तल में जो संसार है वह प्रेम, असुरक्षा, मातृत्व, स्वप्न, परिवार, स्मृति और रोमान के लौकिक धागों से बुना हुआ है। उस संसार को आरती ने नहीं बुना है। वह उन धागों में उलझती-सुलझती हुई एक ऐसे प्रतिकार को अपने लिए निहायत ज़रूरी मानने के बोध तक पहुँचती हैं जो चीखने या चिल्लाने का पूरक भी बन जाए तो उन्हें कोई मलाल नहीं! संग्रह की पहली ही कविता ‘आवाज़’ में वे लिखती हैं -

दो ढाई बजे रात जब सब सो रहे हैं कुत्ते भी

मेरा मन करता है ज़ोर की आवाज़ लगाऊँ

दसों दिशाओं को कँपा देने वाली आवाज़

 

इस घोर सन्नाटे को भंग करके मैं

चुप्पियों के चीरकर रख देने वाली

चाँद के गूँगेपन के ख़िलाफ़ एक आवाज़

परिणाम की प्रतीक्षा करना चाहती हूँ

इस तेवर की कई कविताएँ संग्रह के आरंभ में ही हैं। बावजूद चीखने की इस इच्छा के, और संग्रह की पहली ही कविता में इसे रखकर जैसे अपने मंतव्य को व्यक्त करती हुई भी, वे चीखती नहीं। बहुत मद्धिम और संयत स्वर में उस दुनिया को रेशा-रेशा करती हैं, जो बहुत ठोस और अंतिम निर्णायक सच की तरह हमारे सामने फैला हुआ है। ऐसे में यह देखना ज़रूरी हो जाता है कि एक युवा कवयित्री का पहला संग्रह यानी उसके स्त्री-अनुभव के काव्य-रूपांतरण का प्रथमोद्गार क्या कुछ ऐसा नया कहने की कोशिश कर रहा है जो उसके पहले कहा नहीं गया या कम से कम उस रूप में नहीं कहा गया?

‘मुर्दा मौन’ कविता में आरती ने बोलते जाने को रस्सी बटना कहा है-

तुम्हारा बोलते जाना अच्छा है

जैसे कि रस्सी बटना, लंबी सी

यह मुझे बिल्कुल नया ही प्रतीक लगा। बोलते जाने की तुलना रस्सी बटने से करने के पीछे यह प्रतीत होता है कि ज्ञात या अज्ञात रूप में उनके भीतर ज़रूर एक अतल गहरा वाला कुआँ है, शब्दों की रस्सी को थामकर जिससे वह बाहर आना चाहती हैं! इसी चाहत को जैसे साकार करती हुई वह ‘धरती से भारी’ कविता में लिखती हैं-

वह एक कदम जैसे धरती से भारी था

वही कदम, आगे बढ़ाते हुए

मैंने वादा किया था खुद से

पीछे मुड़कर नहीं देखूँगी

हालाँकि इसी कविता में आगे एक रूपक में वह चूक भी करती हैं-

यह आगे बढ़ना कई अर्थों में धरती के सापेक्ष था

जैसे वह आगे बढ़ती है

निरंतर घूमती रहती है

और घूमते हुए धुरी पर लौटती है फिर...फिर...

धरती अपनी धुरी पर ही घूमती है और अपनी कक्षा में सूर्य का चक्कर भी लगाती है। पहले घूमते में दिन और रात का रहस्य छिपा है और दूसरी तरह के घूमने में वर्ष का। पृथ्वी धुरी छोड़कर नहीं घूमती है इसलिए धुरी पर लौटने की बात बेमानी है। ख़ैर, वे जो कहना चाहती हैं वह यह कि उन्हें घूमते हुए भी बार-बार अपनी स्मृतियों में लौटना है। उनका इस तरह से लौटना स्मृति-रागी की तरह का लौटना नहीं है। स्मृति-रागी के लिए हर तरह का लौटना अपने खुशनुमा पलों में लौटना होता है। आरती ऐसा नहीं करतीं। ‘लय की तरह’ कविता में कहती भी हैं -

स्मृतियाँ फर्श पर बिखरी पानी की बूँदें नहीं

जो मिटा दी जाएँ पोछा फेरकर

वे कंकड़ हों तो भी

समा जाती हैं मिट्टी में

चलो यही सही मैं पी जाती हूँ पानी सा उन्हें

रक्त में मिला लेती हूँ जीवन में उतार लेती हूँ

एक लय की तरह

आखिर ये भी क्या फ़लसफ़ा हुआ

कि कड़वा कड़वा थू...

यहीं पर आरती मुझे अन्य कवयित्रियों से अलग लगती हैं। स्मृतियों से न दुराव न छिपाव, उन्हें स्वीकार करने का साहस भी और स्मृतियाँ जिस जीवन को गढ़ती हैं उससे बाहर आने का माद्दा भी।

हिंदी की अधिकांश स्त्री कविता की यह ख़ूबी भी है और सीमा भी, कि वह अपने अस्तित्व को पाने की जद्दोजहद से गुज़रती हुई स्त्री का विकल विलाप है। और इसी विलाप में समाज और परिवार का वह चेहरा दिखाई पड़ता है जिसे पुरुष-निर्देशों ने रचा है। इसलिए इसमें रोज़-ब-रोज़ के अनुभवों में धँसे हुए सवाल अधिक हैं। आरती की कविताएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। हालाँकि मैंने पहले भी कहा कि उनका स्वर बहुत ही संयत और सधा हुआ है। शायद इसकी मुख्य वजह यह एहसास हो कि उन्हें कविता के दायरे में ही सवाल उठाना है। वे सवाल उठाती हैं और आईना भी दिखाती हैं लेकिन कविता की चौहद्दी का अतिक्रमण नहीं करतीं। बोलना या चीखने की इच्छा उनके भीतर अनायास नहीं पैदा हुई। इसके पीछे कहने, न कहने, सहने और चुप रहने जैसी मार्मिक अनुभूतियाँ हैं जो अनतः अस्तित्वहीनता के बोध से जन्म लेती हैं। यह अंदरूनी तौर पर गहरी असुरक्षा का व्याकुल कर देने वाला एहसास है। यह निहायत निजी लगते हुए भी मध्यवर्गीय भारतीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों का सच है। अपनी एक छोटी-सी कविता ‘कोई और तो नहीं’ में वे लिखती हैं -

तुम सौंप दोगी जिस दिन

उसे अपना सम्मान तक

वह तुम्हारे अंतःदेश की एक एक अंतड़ियाँ हिला हिलाकर देखेगा

‘वहाँ को और तो नहीं!’

कितना विचित्र और मर्मांतक एहसास है यह! पूर्ण समर्पण के बावजूद संदेह का आक्रमण।

इस संग्रह की प्रेम कविताओं में स्त्री के स्वप्न, रोमान और अनुभूतिमयता के दर्शन होते हैं। स्त्रियों द्वारा लिखी हुई प्रेम कविताएँ मुझे निराला, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, नेरुदा और नाजिम हिकमत के बावजूद ज्यादा सच्ची और जेनुइन लगती हैं। क्योंकि उनमें जिए गए और न जी पाए पलों की उपस्थिति बहुत ही आत्मीय होती है। प्रेम में जिस तरलता-सरलता-सघनता और निजता का होना ज़रूरी है वह मुझे स्त्री कविता में ज्यादा स्वाभाविक तरीके से मिलता है। और इसके साथ-साथ बहुत दबे-छिपे रूप में वे आशंकाएँ भी, जिनके भीतर स्त्रियों का जीवन पसरा पड़ा है। वे रोमान के भीतर से ही कितने स्वाभाविक तरीके से यथार्थ की ज़मीन पर हौले से अपने पाँव रख देती हैं यह ख़ास तौर पर देखने लायक है। ‘मायालोक से बाहर’ के बीच में यानी प्रतिकार और आशंकाओं से बिद्ध कविताओं के बाद आरती की छोटी-छोटी तेरह प्रेम कविताएँ भाव की गहराई और कलात्मकता दोनों ही लिहाज से बहुत ही प्रभावपूर्ण कविताएँ हैं। ये कविताएँ ऐसी हैं जिनमें उपस्थित समर्पण मीरा और महादेवी की याद दिलाता है। इन कविताओं में जिस प्रेम की उपस्थिति है वह बहुत साधारण होते हुए भी विशिष्ट है। कविताओं में प्रेम की शायद यही विशिष्टता होती है कि वह अपने साधारण में ही असाधारण होता है। आरती की प्रेम कविताओं में संतों की सी निर्मलता है। उदाहरण के लिए ‘एक बूँद इत्र’ कविता को देखें -

जैसे बूँद भर इत्र बिखर गई हो मेजपोश पर

जैसे छलक गया हो प्याला शराब का

ऐसी ही कोई मिली जुली सी

गमक

फैल गई है मेरे भीतर

मैं अभी इतनी फुरसत में नहीं हूँ कि

नफा नुकसान को माप तौल सकूँ

प्रेम में नफा नुकसान का हिसाब न करने की बात जब वे कहती हैं तो प्रकारांतर से यह भी कहती हुई लगती हैं कि प्रेम में नफा नुकसान का कारोबार भी चलन में है। यदि ऐसे प्रेम का हश्र ऐसा हो तो क्या आश्चर्य -

मीरा गाती रही

साँसों के झाँझ मजीरे बजा बजाकर

समझाती रही प्रेम की पीर

‘मेरो दरद न जाने कोय’

न प्रेम जाना किसी ने न दीवानगी

बस, एक मूरत और जोड़ दी मंदिर में

बहुत तल्ख टिप्पणी है यह। प्रेम में निहित विद्रोह भी कैसे भक्तिजनित आस्था में डूबकर अपनी मूल चेतना को खो देता है मीरा इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। यदि आरती ने अपनी प्रेम कविताओं में मीरा को याद किया है तो ज़ाहिर है कि समर्पण और विद्रोह के दोनों छोरों को वे प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से महसूस करती हैं और अपनी कविताओं में व्यक्त भी करती हैं।

स्त्री जीवन के अनुभवों और उसके स्वप्नों को आरती ने कई-कई तरह से समझने की कोशिश की है। बचपन के किस्से कहानियों, समझाइशों, परिवार के भीतर के अनुभवों और अपेक्षाओं को पकड़ने में उन्होंने जिस दृष्टि का परिचय दिया है वह हिंदी की स्त्री कविता को समृद्ध करता है। कविता उनके लिए एक कलात्मक अनुभव से गुज़रने के साथ-साथ एक ऐसी पीड़ा भी है जिस पर सदियों से लगातार कहा जा रहा है लेकिन उसकी तीव्रता कम नहीं हुई है। ऐसे में यदि कविता ‘उस चादर के नीचे’ में एक मादा श्वान से अपनापन पाए तो क्या आश्चर्य! यह दरअसल एक वक्तव्य भी है हमारे समय की मानव-केन्द्रित क्रूरता पर।

संग्रह के अंत में आरती की अपने मूल स्वभाव के विपरीत, ‘उस चादर के नीचे’, ‘कबाड़खाना’, ‘क्षत विक्षत’, ‘मैं दरख्त बनूँगी’, ‘इस तट पर कोई नहीं अब’ जैसी कुछ लंबी कविताएँ हैं। इन कविताओं में स्त्री संसार की कश-म-कश ही रेखांकित हुई है। साथ ही वे आशंकाएँ भी दुःस्वप्न की तरह यहाँ दिखाई पड़ती हैं जिनसे उनका जीवन घिरा घिरा सा है। हालाँकि वे अपनी छोटी कविताओं में जितनी स्वाभाविक और अचूक हैं उतनी लंबी कविताओं में नहीं। संग्रह की अंतिम कविता, जो अपनी संरचना में सबसे लंबी है, में वे स्त्री जीवन की साँसत और उसकी उपेक्षा के भाव का नदी से मिलान करते हुए सहसा भारत की राजनीति, अर्थतंत्र और भूमंडलीय व्यवस्था के उपक्रमों को एक साथ रखती हैं। थोड़ी बिखरी बिखरी सी होने के बावजूद इसमें वह चिंता झलकती है जिसमें अपने अस्तित्व को नदी के बहाने उन्होंने एक व्यापक पृष्ठभूमि में देखा है।

संग्रह की शीर्षक कविता ‘मायालोक से बाहर’ का कथ्य यद्यपि धर्म के व्यावसायीकरण और उसके पाखंड का है। लेकिन यह शीर्षक मुझे संग्रह के लिहाज से बहुत ही आकर्षक और महत्त्वपूर्ण जान पड़ा। स्त्री को विरासत में जो संसार मिलता है उसे माया का लोक नहीं तो और क्या कहा जाएगा सबकुछ है भी और नहीं भी। इस नजर से इस संग्रह को एक बार फिर देखें तो लगता है कि आरती आरंभ में जिस संसार के ख़िलाफ़ ज़ोर से बोलना या चीखना चाहती हैं, पूरे संग्रह में उसी संसार का खाका खींचती हैं। यहाँ तक कि मातृत्व जैसे विषय में छुपी अंतर्कथा को भी वे देख लेती हैं। स्वेटर बुनने जैसे अनुभव के माध्यम से ‘उल्टे सीधे घर’ कविता में वे कहती हैं -

कितनी चतुरता से माँएँ

सौंप देती हैं बेटी को घर

उसे आकार देने

सजाने सँवारने का काम

उँगलियों में घट्टे पड़ जाने से अधिक

घर छूट जाने का डर लगा रहता है

घर और परिवार स्त्री के जीवन की सुरक्षा भी हैं और उसके अस्तित्व को शून्यता की ओर ढकेलने वाले प्रकल्प भी। ऐसे में यदि स्त्रियाँ इस पर विश्वास व्यक्त करते हुए सवाल भी उठाती हैं और आशंकाएँ भी व्यक्त करती हैं तो यह अस्वाभाविक नहीं है। जरूरत है इन सवालों के भीतर छुपी हुई स्त्री की सांसत को समझा जाए। रघुवीर सहाय ने अपनी कई कविताओं में इसके बेचैन करने वाले पक्षों को रखा है। आरती की कविताएँ भी यही करती हैं। उनके सवाल नई सदी के नए सवाल नहीं हैं। वे शाश्वत सवाल उठाती हैं। यद्यपि नई सदी में उनके सवाल अप्रासंगिक नहीं हुए हैं। इसलिए उनकी कविताएँ हमें इतनी निकट की कविताएँ लगती हैं।

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* मायालोक से बाहर (काव्य संग्रह): आरती

प्रथम संस्करण (2015)/ प्रकाशक : रचना समय, भोपाल

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रचना समय - अप्रैल मई - 2016 / पुस्तक समीक्षाएँ
रचना समय - अप्रैल मई - 2016 / पुस्तक समीक्षाएँ
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/08/2016_6.html
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