व्यंग्य के बहाने-5 : अनूप शुक्ल

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व्यंग्य के बहाने-5 ---------------------- कल Arvind Tiwari जी ने लिखा : "कविता और व्यंग्य में सर्जिकल स्ट्राइक का दौर शुरू। " ...

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व्यंग्य के बहाने-5
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कल Arvind Tiwari जी ने लिखा :

"कविता और व्यंग्य में सर्जिकल स्ट्राइक का दौर शुरू। "

इस पर कई टिप्पणियां आईं। Nirmal Gupta जी ने लिखा :

"लेकिन जो हो रहा है वह यकीनन दुखद है। "

Subhash Chander जी ने अपना दु:ख इन शब्दों में बयान किया:

"व्यंग्य में बस बढ़िया लिखना ही कम हो रहा है ,बाकी सब तो खूब ही चल रहा है। "

अरविन्द तिवारी ने मुद्दे की तरफ़ इशारा करते हुये जबाब दिया :

"बिलकुल आज की तारीख़ में तो तलवारें निकल आयीं हैं ।अपना अपना आउट लुक है। "

इत्ता इशारा काफ़ी था अपन के लिये। मल्लब यह निकाला गया कि आउटलुक में कुछ छपा है जिसमें व्यंग्य का सर्जिकल स्ट्राइक हुआ है।

इसके बाद तो ज्यादा खोजना नहीं पड़ा। पता चला सर्जिकल स्ट्राइक Suresh Kant जी ने की है। उनका ही लेख आउटलुक में छपा है। पता चला कि उन्होंने आउटलुक में "दांत पर दतंगड" नाम से लेख लिखा है। उसमें उन्होंने एक भूतपूर्व लेखक के ऊपर व्यंग्य ’टाइप’ कुछ लिखा है। व्यंग्य में लेखक चुका हुआ बताया गया है, उसकी एक पत्रिका है, कुछ ’आंख के अंधे -गांठ के पूरे चेले हैं, भूतपूर्व लेखक अपने लिये और अपने चेलों के लिये इनाम इकराम हासिल करने की बात लिखी है। कुल मिलाकर एक बहुत साधारण सा लेख। लेकिन अब चूंकि किसी का नाम तो है नहीं इसलिये कोई कह नहीं सकता कि यह हमारे लिये है। कोई हल्ला मचायेगा या विरोध करेगा तो कहा जा सकता है कि भाई यह लेख तो प्रवृत्तियों पर है।

रमानाथ अवस्थी के गीत :

मेरी रचना के बहुत से हैं,
तुम से जो लग जाये लगा लेना।

लोग अपने जिसाब से कुछ गलत-सलत अन्दाज न लगा लें इसलिये सुरेश कांत जी ने पाठकों के भले के लिये अलग से टिप्पणी लिखकर बता दिया:

"मेरा यह व्यंग्य चुके हुए लेखकों द्वारा अपने को चर्चा में बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर है| ज्ञान ने इसे प्रेम जनमेजय से जोड़कर मेरी निंदा करने के बहाने प्रेम को 'चुका हुआ लेखक' बता दिया है|

ज्ञान भाई, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर क्यों चला रहे हैं? क्या इसलिए कि अब तक यही करते आए हैं? "

बाकी की टिप्पणियां सुरेश कांत जी की कल की पोस्ट पर पढ सकते हैं।

कथा साहित्य में चरित्रों के बहाने लोगों पर लिखने की परम्परा थी। उदय प्रकाश जी की कई कहानियां किन-किन कवियों-लेखकों पर केंद्रित हैं इसके कई किस्से हैं।

व्यंग्य में परसाई जी ने भी लेखकों पर व्यंग्य करते हुये लिखा। लेकिन उन्होंने या तो साफ़ नाम लेकर लिखा ताकि गफ़लत न रहे किसी को या फ़िर प्रवृत्तियों पर लिखा तो ऐसे लिखा कि कोई उसे अपने से जोड़ न सके। ’दो लेखक’ लघु कथा में वे लिखते हैं:

"दो लेखक थे। आपस में खूब झगड़ते थे। एक दूसरे को उखाड़ने में लगे रहते। मैंने बहुत कोशिश की कि दोनों में मित्रता हो जाए पर व्यर्थ।

मैं तीन-चार महीने के लिए बाहर चला गया। लौटकर आया तो देखा कि दोनों में बड़े दाँत काटी रोटी हो गई है। साथ बैठते हैं साथ ही चाय पीते हैं। घंटों गपशप करते हैं। बड़ा प्रेम हो गया है।

एक आदमी से मैंने पूछा-'क्यों भाई, अब इनमें ऐसी गाढ़ी मित्रता कैसे हो गई इस प्रेम का क्या रहस्य है?'

उत्तर मिला-'ये दोनों मिलकर अब तीसरे लेखक को उखाड़ने में लगे हैं।"

लेखकों की प्रवृत्तियों पर लिखने की परम्परा लगता है परसाई जी के साथ ही विदा हो गयी। अब कोई व्यंग्य लेखक लिखता है किसी लेखक की प्रवृत्ति पर तो उसके सूत्र हालिया किसी घटना में पाये जा सकते हैं।

ऐसे ही जून के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में एक व्यंग्य गोष्ठी हुई। दिल्ली और आसपास के कुछ व्यंग्य लेखक उसमें शामिल हुये थे। उसके बाद 3 जुलाई को जनसत्ता में ज्ञान चतुर्वेदी जी की व्यंग्य लेख ’विचारक के किस्से’ के नाम से छपा। मुझे लगा कि ज्ञान जी ने वह लेख उस गोष्ठी में शामिल हुये लोगों की खिल्ली उडाते हुये लिखा है।

वह लेख जब सुशील सिद्धार्थ जी ने अपनी फ़ेसबुक वाल पर साझा किया तो मैंने उसकी कड़ी वाली आलोचना करी। सुशील जी ने उस समय ज्ञानजी की भक्ति भावना में डूबे थे इसलिये उनको अच्छा नहीं लगा कि इस तरह की आलोचना उनकी वाल पर हम करें। उन्होंने मेरी टिप्पणी मिटा दी। हमने फ़िर की। उन्होंने फ़िर मिटा दी। हमने फ़िर की उन्होंने फ़िर मिटा दी। इस तरह कई बार टिपियाने-मिटाने के बाद सुशील जी ने आजिज आकर मुझे फ़ेसबुक से अमित्र किया और फ़िर ब्लॉक किया। मतलब - "न मैं देखूं तोये को न तुझ देखन देऊं" ।

लेकिन अपनी टिप्पणी तब तक मैं वलेस ग्रुप में भी पोस्ट कर चुका था। जिसको Gyan जी ने भी पढ़ा और शायद अगले दिन ही जबाब भी लिखा। जबाब का लब्बो लुआब यह था कि उन्होंने जो लिखा उसका उस तथाकथित गोष्ठी से कोई लेना देना नहीं है जिसका जिक्र मैंने किया ( मतलब जो मैंने समझा वह मेरा बचकानापन था) उन्होंने यह भी लिखा उनके पास इन सब फ़ालतू की बातों के लिये समय नहीं है। प्रेम जी से और (शायद हरीश नवल जी से भी ) रोज बात होने का जिक्र भी किया था मैंने।

बाद में Harish Naval जी ने ज्ञान जी के लेख पर प्रतिक्रिया करते हुये लिखा:

" जनसत्ता में छपा ज्ञान भाई का लेख पढ़ते हुए जो अनुभूति हुई आपसे शेयर करना चाहता हूँ ....
ऐसा लगा कि अरे यह तो मेरे जागरण हेतु मुझ पर लिखा हुआ है ...असली लेखन लक्ष्य छोड़ कर या उसके होते भी क्यों मैं गोष्ठियों के मोह जाल में हूँ .....
जानता हूँ ऐसा भीतर से कुछ अन्य रचनाकारों को भी लगा होगा...मुझे तो ज्ञान भाई का सूक्ष्म ऑब्ज़र्वेशन हमेशा चमत्कृत करता है ,वे थोड़े में अत्यधिक आब्ज़र्व करने की क्षमता रखते हैं ...दिन भर व्यस्त रहने वाला डॉक्टर कैसे कितना भाँप लेता है यह उसकी प्रतिभा और बेधक सूक्ष्म दृष्टि का कमाल है .....

बहुत बहुत सही आकलन किया है भटके हुए बुद्धिजीवियों का......
भाव की विशिष्टता के साथ शैली का ओज ज्ञान भाई के व्यंग्यकार के पास भरपूर है .....सच कहूँ विगत ५० वर्ष से निरंतर हिंदी गद्य व्यंग्य के परिदृश्य से जुड़ा हूँ ,ज्ञान जैसा लेखन कौशल किसी के पास नहीं ....कई मायनो में ज्ञान ,परसाई जोशी आदि से आगे निकल चुके हैं ,ऐसा स्वीकार करने में मुझे सत्य का आभास होता है ....
प्रिय ज्ञान भाई तुम्हारे इस लेख से आँखें खुल रही हैं ....
....आभार दोस्त आभार ... "

यह किस्सा इसलिये कि सुरेश कांत जी का यह कहना समझ में नहीं आता और सही भी नहीं लगता कि ज्ञानजी ने सुरेश कांत जी का लेख पढकर उनकी भूरि-भूरि भर्त्सना की होगी। यह शायद किसी ने उनको ऐसे ही कह दिया मजे लेने के लिये। सुरेश जी ने लिख भी मारा इस पर। इसे अरविन्द तिवारी जी ने सर्जिकल स्ट्राइक कहा तो अपन भी उधर गये जहां यह हो रहा था। हरि जोशी जी भी भयंकर वाले खफ़ा हैं उन लोगों से जिन लोगों ने सब इनाम उनके पहले कब्जिया लिये। बाकी लोगों को मौका नहीं दिया।

यह मजेदार बात है! व्यंग्य में कुल जमा आठ-दस इनाम हैं। वे भी देर-सबेर सबको मिल ही जाने हैं अगर यहां लिखते-पढते रहे। लोगों ने इनको सम्मानित किया और कोई रहा नहीं होगा जिसको सम्मानित करते। तो इसमें सम्मानित लोगों का क्या दोष! clip_image001:)

व्यंग्यकारों द्वारा प्रवृत्तियों के बहाने में लेखकों पर लिखने का चलन देखकर यह भी लगता है व्यंग्यकारों का अनुभव संसार अपने साथियों की गतिविधियां नोट करने उनकी विसंगतियां उजागर करने तक ही सीमित होता गया है। सुशील सिद्धार्थ जी के बहुचर्चित व्यंग्य संग्रह ’मालिश महापुराण’ (जिसकी 40 से अधिक समीक्षायें हुयीं जो कि शायद एक व्यंग्य संग्रह के लिये गिनीज बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में आ सकती है) के सत्रह लेख लेखकों पर केन्द्रित हैं। एक तरफ़ यह उनके लेखकों के गहन संपर्क में रहने का परिचायक है तो साथ ही उनकी सीमा भी बताता है कि उनका अनुभव संसार साथ के लेखकों तक ही सीमित है। लेकिन उसके बारे में अलग से विस्तार से। अभी उसकी समीक्षा लिखनी है मुझे।

इतना सब लिखने के बाद मैं भूल गया कि किस लिये लिखना शुरु किया था लिखना। कहना शायद यह चाहता है कि आज के समय में व्यंग्य लेखन में प्रवृत्तियों के बहाने जो व्यक्तियों पर लिखने का चलन है उसमें इतना अनगढपन है कि साफ़ समझ में आ जाता है कि यह किसके खिलाफ़ लिखा गया है। जो कहीं समझ में नहीं आता तो लेखक इशारा करके बता देता है कि किसके लिये लिखा गया है यह सब !

लेकिन यह तय है इस तरह का लेखन बहुत आगे तक नहीं जाता। कूड़ा-करकट की तरह समय की डस्टबिन में पड़ा रहता है। शायद खाद बनने लायक भी नहीं रहता।

क्या कहना है आपका ?

डिस्क्लेमर: व्यंग्य के बहाने का यह लेख किसी के प्रति दुर्भावना से नहीं लिखा गया। सभी के प्रति मन में आदर, उत्साह है मेरे मन में। जो लिखा निर्मल मन से लिखा। नाम लेकर इसलिये लिखा कि कोई गलतफ़हमी न रहे।

रही इनाम-विनाम वाली बात तो उसका अलग गणित होता है। इनाम हमेशा छंटे हुये लेखक को ही मिलता है। उसके बारे में इसकी पहली पोस्ट में लिख चुका हूं ! clip_image001[1]:)

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शीर्ष टिप्पणियाँ

23Arvind Tiwari, Nirmal Gupta और 21 अन्य लोग

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टिप्पणियाँ

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Nirmal Gupta मेरे नज़दीक इशारतन शैली के व्यंग्य लिखना और उन्हें छपवना पाठकों के साथ सीधा सादा छल है।लेखकों की निजी दुनिया में कितनी क्षुद्रतायें हैं ,इसे कोई पाठक क्यों जानना चाहेगा यदि इसके जरिये आप मानवीय दुर्बलताओं की निशानदेही करते हैं तो बात भिन्न है।
व्यंग्य वही होता है जो खिसियानी हंसी से इतर होता है।पर मैं देख रहा हूँ कि अनेक व्यंग्य शिरोमणियों के चेहरों पर खिसियाहट स्थाई भाव की तरह चिपकी दिखाई देती है।यदि यकीन न हो तो इस तरह के लेखकों की तस्वीर एक बार फिर गौर से देखे ।हाँ ऐसे भी हैं जिनके चेहरे पर खिसियाहट भले न दिखे पर अजब सा गुरूर उनकी तिरछी मुस्कान में दिख ही जाएगा।
व्यंग्य में अनेक दारुल उलूम बन गए हैं जहाँ फतवे जारी करने की फैक्ट्री लगी हैं ।धड़ाधड़ इसके उसके पक्ष और विपक्ष में फतवों के प्रिंट आउट निकलते रहते हैं।
प्रेम जी और अनूप श्रीवस्तव जी अपनी पत्रिकाओं के जरिये व्यंग्य का जो अलख जगाएं हैं,उसकी यदि आप तारीफ नहीं कर सकते तो न करें लेकिन उन पर तंज करना किसी भी तरह उपयुक्त नहीं।
अंत में अंततः सुरेश कांत जी दांत या दाढ़ किसी की भी चीस सकती है इसको व्यंग्य का केंद्र बिंदु बनाना यकीनन हास्यस्पद है।
फ़िलहाल इतना।
(मेरे लिखे में कोई डिस्क्लेमर नहीं होता और न इसमें है।)

2 · 12 अक्टूबर को 10:38 पूर्वाह्न बजे · संपादित

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Arvind Tiwari बेहतरीन विश्लेषण।इससे ज्यादा सटीक कुछ और हो ही नहीं सकता ।व्यंग्यकारों तक विषय को सीमित कर देने से व्यंग्य का ज्यादा भला होना भी नहीं है।जिन व्यंग्यकारों ने शुरू में अपनी कृतियों से चमत्कृत किया उनमे सुरेश कान्त जी भी हैं और प्रेम जनमेजय भी।कहना न होगाकी ब से बैंक और राजधानी में गंवार हिंदी व्यंग्य की अमूल्य धरोहर हैं।पाठकों को इन लेखकों से इसी तरह की7 कृतियों का इंतज़ार है।जहां तक उदय प्रकाश जी का प्रसंग है तो उनकी कहानियाँ भले ही किसी पर लिखीं गयीं हों मगर अपने शिल्प और कन्टेन्ट में हिंदी की अद्वितीय कहानियाँ हैं जबकि व्यंग्य किसी पर लिखा जा रहा है उसमें व्यंग्य तत्व मौजूद ही नहीं है।आपकी टिप्पणियाँ व्यंग्यकारों के लिए आँखें खोलने वाली हैं।

2 · 11 अक्टूबर को 02:57 अपराह्न बजे

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Subhash Chander यह सब कुछ ज्यादा नहीं हो रहा ?

2 · 12 अक्टूबर को 10:36 पूर्वाह्न बजे

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Mahendra Khandelwal clip_image010clip_image010[1]clip_image010[2]

2 · 12 अक्टूबर को 08:05 अपराह्न बजे

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रचनाकार: व्यंग्य के बहाने-5 : अनूप शुक्ल
व्यंग्य के बहाने-5 : अनूप शुक्ल
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https://www.rachanakar.org/2016/10/5.html
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