इश्क-ए-बनारस / शैलेश त्रिपाठी

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          इश्क-ए-बनारस                     शैलेश् त्रिपाठी   इश्क... हाँ साहेब.! इश्क आज के दौर में मोहेन्जोदारो के टाइम में लगने वाली ...

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          इश्क-ए-बनारस
                    शैलेश् त्रिपाठी

 

इश्क... हाँ साहेब.! इश्क आज के दौर में मोहेन्जोदारो के टाइम में लगने वाली जंगल की आग की तरह हो गया है.! या फिर यूँ कह लीजिए कि आज के टाइम में इश्क एक क्राँन्ति टाइप से फैल रहा है.! या फिर एक रोग... जैसे कि डाइबिटीज.! हाँ जी.. कुछ ऐसा ही.! क्योंकि उमर की एक सीमा के बाद यह रोग हो जाना लगभग तय होता है.! ठीक वैसे ही ये इश्क भी न साहेब... एक नाजुक उम्र के बाद उफान मारना शुरू कर देता है.! हाँ... मानते हैं हम कि इश्क का कोई उम्र नहीं होता.. कोई जाति-पाँति नहीं होती.. कोई सीमा नहीं होती.. ऊँच-नीच.. धर्म-अधर्म कोई भेद-भाव नहीं.! ये किसी को बेड़ियों में नहीं बाँधता.! इनफैक्ट... इसको एक्सपेक्ट भी नहीं किया जा सकता.! ये हो जाता है बस.. बिना किसी मतलब के... बिना किसी स्वार्थ के... बिना किसी कपट के.! ये बस हो जाता है.. किसी को भी.. किसी से भी... कहीं पर भी... अनवरत.!

ये परवान चढ़ता है घर के सामने वाले मिश्रा जी की कन्या से... किसी सिंपल सी रहने वाली सहेली से... क्लास के कॉर्नर सीट वाली क्यूट लड़की से... जूनियर क्लास की डिंपल वाली बालिका से... या फिर किसी शहर से.! जी हाँ... किसी शहर से.! किसी ऐसे शहर से... जहाँ के हर एक कण में अपनापन छुपा होता है.. जहाँ पर सब मालिक होते हैं नौकर कोई नहीं... जहाँ पर सब गुरू होते हैं चेला कोई नहीं... 

जहाँ प्रेम ही प्रेम है, जब सब मिलता है तो बस महादेव गुरु! का हाल बा लगता ही नहीं है की कोई पराया भी है सब मस्ती में सराबोर है जहाँ पर गंगा की धारा उलट जाती है... जहाँ पर आम भी लँगड़ा हो जाता है... जहाँ पर बात बतरस में बदल जाती है और बतरस किस्से व कहावतों में तब्दील हो जाते हैं... जहाँ पर गप्प सच बन जाता है और सच गप्प बन जाता है.! हाँ साहेब... हम बनारस की बात कर रहे हैं.! सभी को इश्क हो जाता है बनारस से.! यहाँ के अपनेपन से.. यहाँ की बातों से.. यहाँ के सच माने जाने वाले गप्पबाजी से.. यहाँ के मन्दिरों से.. घाट पर के गंगा आरती से.. मन्दिरों से आने वाली घन्टियों की आवाजों व शंखनादों से.. यहाँ की अल्हड़बाजी से.. हर कण से... इनफैक्ट पूरे बनारस से.!

बनारस... जी हाँ! ये वही शहर है जो गंगा जी के किनारे लगभग पाँच किलोमीटर तक विस्तृत है.! ये वही शहर है जिसे काशी भी कहा जाता है.! ये वही शहर है जो संसार के प्राचीनतम शहरों में से एक एवं भारत का बसा हुआ प्राचीनतम शहर है.! ये वही शहर है जो सभी धर्मों के लिए पवित्र है.! ये वही शहर है जो शैक्षणिक.. धार्मिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र कहा जाता है.! ये वही शहर है जिसे भारतीय शास्त्रीय संगीत का जन्मदाता कहा जाता है.! ये वही शहर है जिसे भगवान शिव की नगरी के नाम से जाना जाता है.! और बात है इसी शहर से इश्क की.! इस शहर से इश्क का न साहेब... कोई ओर या कोई छोर नहीं है.! इसकी दुनिया गोल नहीं है.. समानान्तर  है.! ये अनन्त तक साथ जाता है.. और मुकम्मल भी होता है.! कितने किस्से खतम हो जाते हैं जाति-पाँति के चलते... कितने ऊँच-नीच के चलते... कितने धर्म-अधर्म के चलते और कितने न जाने क्यों.! लेकिन इस इश्क का किस्सा ही कुछ अलग ही होता है मियाँ.! क्योंकि ये इश्क... प्रेम... प्यार... मुहब्बत... लगन की सीमाओं से हट कर है.. इनसे परे रहता है.! जितना भी आप बाँधना चाहेंगे न.. उतना ही इस रस की गहराई में खोते चले जाएँगे.! ये जो लगाव है न इस शहर से... वो बिल्कुल रेत जैसा है... मुट्ठी में बन्द करना चाहेंगे तब भी वो बाहर निकल ही जाएगी और हाथ में बस धूल रह जाएगी.! सिर्फ पछतावे की धूल.!

यहाँ सब आते तो अपनी मर्जी से हैं.. लेकिन जाते नहीं हैं.! एक चीज होती है... बनारस की हवा.! हाँ साहेब .! ये हवा जिसे लग गई.. समझ लीजिए कि उसे लग गई.! फिर वो बन्दा बनारस का होकर रह जाता है.! बनारस पर कोई अपना हक नहीं जमा सकता है.! कहते हैं न कि बनारस न इसका है.. न उसका है.. न किसी का है... . जो बनारस का है.. बनारस उसका है.! मने कि कहने का मतलब है.. आप बनारस के रंग में उतरो.. बनारस आपको अपने रंग में रंग देगा.!

बात करें सुबह-ए-बनारस की.! हर शहर की तरह बनारस में भी सुबह सूर्य भगवान ही उदय होते हैं.! तो फिर अलग क्या है इसमें.? अलग है जनाब... अलग ये है कि हर शहर गंगा के किनारे नहीं बसा हुआ है... अलग ये है कि हर शहर में सूरज एक गोल थाली के जैसे गंगा के झिलमिल करते हुए पानी के पीछे के नीले.. स्वच्छ.. सुर्ख आसमान उस नाज व अभिमान से नहीं चढ़ता है जैसे कि बनारस में... बिल्कुल हौले-हौले एवं धीरे-धीरे से.! अगर भरपूर आनन्द लेना है तो भोर फूटने से पहले ही अस्सी घाट पर चले जाना.. नाव किराए पर लेना और गंगा जी के बीचों-बीच पानी की धार पर नाव को छोड़ देना.! बाबा विश्वनाथ की सौगन्ध... बात बताएँ साफ-साफ... संसार का सारा ब्रह्मज्ञान आपको मिल जाएगा... मात्र गंगा के उस धार पर बहती नाव में बैठ कर.!

ऐसे में अगर तब भी लगे कि अभी भी कुछ बाकी रह गया है तो घाट पर उतर कर किसी चाय व पान की ज्वाइंट शॉप पर चले जाना.! वहाँ पर जब कोई मुँह में पान घुलाए ठेठ बनारसी बोली में मुखरित होता है तो उसकी वाणी से कइयों दफा साहित्य के नौ-नौ रस टपक पड़ते हैं.! न जाने कौन सी बात है.. जो किसी बनारसी के मुख से ही ऐसी बातें सुनना अच्छा लगता है.! किस्मत से अगर कोई ऐसा मिल गया जो सुबह शाम भाँग छानता हो... शीत की भयंकर नहली में भी गंगा माँ की धारा में डुबकी लगाता हो... तो कसम महादेव की... बता रहे हैं गुरू.. ऐसे आदमी की धारा प्रवाह बोली से मुखरित होने व साहित्य के नौ-नौ रसों के रसपान के पश्चात जो ब्रह्मज्ञान अभी तक अधूरा लग रहा होता है न वो अब पूर्ण लगने लगता है.!

बात करें बनारस के रास्तों की... वैसे तो ये कुछ खास नहीं हैं पर घाट के अलावा असली बनारस के दर्शन करना है तो यही बेहतरीन जगह होती है.. और अगर महादेव की कृपा जबर है तो जाम लग जाना सोने पर सुहागा होने जैसा.! होता कुछ यूँ है कि जाम में किसी पैदल को साइकिल से.. किसी साइकिल वाले को बाइक से.. किसी बाइक वाले को कार से छोटी भी टक्कर लगती है तो फिर शुरू होती है असल कहानी ! एक तो इनकी बातें बिना गाली के पूरी नहीं होती हैं.. अरे महाराज यही तो इनका तकिया कलाम होता है.. दूसरे उनकी उस झिड़क में भी अपनापन.. प्यार.. लगाव छुपा होता है.! एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं और आखिर में हंसते हुए विदा देकर निकल लेते हैं.! कुछ बनारसी जाम के बीच से ऐसे आड़े-तिरछे होकर बिना किसी को स्पर्श किये बाइक के साथ निकलते हैं जैसे कि दुश्मनों की मिसाइल्स के बीच से एयर फोर्स का पॉइलट.! कुछ चाणक्य टाइप वाले दिमाग की पुरजोर आजमाइश के पश्चात गलियों में से निकलने का निर्णय लेते हैं.! इसका परिणाम होता है कि जाना कहीं और होता है.. पहुँच कहीं और जाते हैं.! मल्लब कि जाना होता है लहुराबीर और चले जाते हैं कलकत्ता.!

बात करें बनारस की गलियों की.! कहा भी है किसी ने... . .. 
"गलियाँ हो तो शहर-ए-बनारस की... और आवारा हो तो बनारस की गलियों का.!"

बनारस की गलियों से भी इश्क हो जाता है.. वो साइलेंट वाला.. वन साइडेड टाइप.! कचौड़ी गली... खोवा गली... ठठेरी गली... यहाँ गलियों के नाम उन्हीं चीजों पर हैं जो कि वहाँ मिलती हैं या फिर मिला करती थी.. किसी दूर के जमाने में.! यहाँ हर एक तंग गली के किसी न किसी कोने में कुछ न कुछ अफसाने हुए मिलते हैं.! किसी गली में गौहर जान की अदाओं के सदके... किसी गली में मरहूम बिसमिल्लाह खान साहब के किस्से... तमाम ठुमरियाँ... तमाम कजलियाँ... तमाम दादरे इन गलियों की हवा की बूढ़ी फिजाओं में तैरते हुए मिलते हैं.! इन गलियों मे आभास होता है बिसमिल्लाह जी के बचपन के किस्सो का... आभास होता है इंग्लैड की महारानी का बनारसी मिठाई प्रेम के किस्सो का.!  बात कर रहे हैं गलियों की.! बात का क्या है साहेब.. एक तरफ निकल गई तो उधर ही चलती जाती है.! अगर निकलते हैं बनारस घूमने... जो कि सबका सपना होता है... गलियों में ही खो जाते हैं.! निकलते हैं बाबा के दर्शन करने और सोचते हैं कि घाट पर जाएँगे.. मगर जो एक बार खो जाएँ तो कोई छोर ही नहीं मिलता है.!

वैसे घाट तो बहुत हैं यहाँ पर... लेकिन जो सबका मन पसन्द घाट है... वो है अस्सी घाट.! एक चीज है बनारस की लत.. और दूसरी है फुर्सत.! पहली वाली कहीं दिखाई तो नहीं देती है पर अगर लग गई तो कभी छूटती भी नहीं.. और जो दूसरी बात है वो अस्सी घाट पर दिखाई दे जाती है.! दिखता है कि कहीं कोई बैठ कर बाँसुरी बजा रहा है... दिखता है कि वहाँ शतरंज की बाजी तो दो लोग लगाते हैं पर उनको घेर कर बीस लोग खड़े रहते हैं.. दिखता है कि कोई बैठा है और बगल वाला ही उसका स्केच तैयार करने में मगन है... दिखता है कि कहीं कोई अंकल एक कटिंग चाय पर ही पूरी कायनात के जम्हूरी मसले हल करने में भिड़े पड़े हैं.! एक कहावत बहुत मशहूर है... 

"पढ़ल लिखल सब गइले, पोथी मोरा छुटले बनारस"

हाँ महाराज.! इस कहावत का असल मतलब केवल बनारस में ही दिखता है.! इस कहावत का वास्तविक परिचय यहाँ के घाट पर हो जाता है.! अगर किसी को भरसक प्रयास से भी कहावत का मतलब समझ में नहीं आती तो बस घाट पर आ जाने की देरी होती है... कसम गंगा माँ की... कहावत क्या पूरा बनारस उसके आँखो के सामने होता है.!

अगर ज्ञान की बात करें... तो ये शहर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय... सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय... महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ नामक तीन सार्वजनिक विश्वविद्यालयों से सुसज्जित है.! काशी हिन्दू विश्वविद्यालय.. ये अपने आप में ही एक सुव्यवस्थित नगर है.! ये परिसर समेटे हुए है प्रकृति की वास्तविक सुन्दरता को... जो कि वर्तमान समय में विरले ही देखने को मिलती है.! लम्बे.. हरे.. वृक्षों की घनी छाँव में बसा ये विश्वविद्यालय समेटे हुए है आदरणीय महामना जी स्वप्नों को.! इसके परिसर का कण-कण गवाह है उनके त्याग का.! गवाह है मालवीय जी के संगम पर लिये गये संकल्प का.! जिनका उद्देश्य नवयुवकों को केवल शिक्षा देना ही नहीं... उद्देश्य था शिक्षा के साथ-साथ उनको सुन्दर चरित्र से सुशोभित करने का... ताकि वे एक बेहतर समाज का निर्माण करें.! ये परिणाम है उनकी घोर एवं कठिन तपस्या का कि यहाँ पर वे सभी ज्ञान प्राप्त होते हैं जिनकी निजी जीवन में आवश्यकता होती है.!

बात सत्य की हो... तो सर्वविदित है कि गौतम बुद्ध ने प्रथम उपदेश इसी शहर के सारनाथ नामक स्थान पर दिया था.! यहाँ केवल बेहतर चरित्र का निर्माण नहीं किया जाता है.! यहाँ केवल जीवन जीने के तरीके नहीं सिखाए जाते.! ये शहर परिचय करवाता है जीवन के वास्तविक एवं अटूट सत्य से... मृत्यु से.! जी हाँ.. मृत्यु.. जो कि एक अटल सत्य है.! अगर देखना हो कि जीवन खाक में कैसे मिलता है तो मणिकर्णिका घाट इसका जीता-जागता सबूत होता है.!

प्रेम.. लगाव.. अपनापन... जो भी हो.. यहाँ पर रहने वाले हर एक इन्सान को यही लगता है कि उसका बनारस से कुछ पुराना है.! कुछ बहुत ही पुराना एवं गहरा.. जिसकी न कोई सीमा है और न कोई माप है.! क्योंकि यहाँ पर आने के बाद इन्सान किसी की कमी महसूस नहीं करता है.! यहाँ तक कि ये शहर उसको माँ की कमी का एहसास नहीं होने देता.! अगर इसका सबूत चाहते हैं तो तुलसी घाट पर सबसे निचली सीढ़ियों पर घुटनो तक पानी में पैर डाल कर बैठने मात्र से ही एहसास होने लगता है कि ये संसार इस पवित्र नदी को माँ कहकर क्यों संबोधित करता है.!

क्या आपने कभी दिल्लीपन या कलकत्तापन सुना है.? नहीं न.. ऐसा सिर्फ और सिर्फ बनारस में है.! बनारस और बनारसीपन दोनों ही अपने आप में अनूठे शब्द हैं.! शायद ही विश्व में ऐसी कोई जगह हो जिसका नाम एक विशिष्ट जीवनशैली से जुड़ जाये.! बनारस और बनारसीपन एक दूसरे के पर्याय हैं.! जो इसे समझ गया वो यही का होकर रह गया.!
इसीलिए तो कहते हैं... 
''ये बनारस है मेरी जान... यहां की बात ही कुछ और है.!"

तो इश्क कीजिए साहेब.! बनारस की सड़कों पर होने वाली मीठी झड़प से... गलियों की भूल-भुलैया से... घाटों के फुर्सत से... यहाँ की अल्हड़बाजी से... यहाँ की गप्पबाजी से... यहाँ के अपनेपन से... कण-कण से... पूरे बनारस से.! क्योंकि ये इश्क अब सीमित नहीं रहता है.. बहुत आगे तक चलता जाता है.! अनन्त तक... बेपरवाह.!!
 

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नाम- शैलेश् त्रिपाठी
जन्म-21/10/1992
स्थान- भरलाई शिवपुर वाराणसी
शैक्षणिक योग्यता- स्नातक(हिंदी)-2013 ,स्नातकोत्तर(हिंदी)-2016-
दो वर्षीय पी0जी0 डिप्लोमा(चीनी भाषा) 2016-2017 सम्पूर्ण योग्यता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी-221003
वर्तमान-शोध छात्र,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी।
हिंदी भाषा प्रचारक एवम् भारतीय प्रतिनिधि,क्वांगचौ चीन,(संचेतना पत्रिका हेतु)

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रचनाकार: इश्क-ए-बनारस / शैलेश त्रिपाठी
इश्क-ए-बनारस / शैलेश त्रिपाठी
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