जवाबी कीर्तन –लोक संगीत / मनीष कुमार सिंह

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जवाबी - कीर्तन – लोक संगीत “ वो गीत जो तुमने सुना ही नहीं , मेरी उम्र भर का रियाज था ! मेरे दर्द की थी वो दांस्ता , जिसे तुम हंसी मे...

मनीष कुमार सिंह
जवाबी-कीर्तन – लोक संगीत
वो गीत जो तुमने सुना ही नहीं , मेरी उम्र भर का रियाज था !

मेरे दर्द की थी वो दांस्ता , जिसे तुम हंसी में उड़ा गए !! शायर अहमद फ़राज ‘अहमद ’ का यह शेर , ‘उत्तर-प्रदेश’  की एक अनूठी , बेमिशाल परन्तु गुमनाम लोक-साहित्य की विधा “जवाबी –कीर्तन “ की दशा पर सटीक बैठता है !

जवाबी कीर्तन यानी विशुद्ध-साहित्यिक-मनोरंजन-प्रतियोगिता ! कथाए बताती है की – इस लोक-गायन की विधा का जन्म हुआ जब एक बार हनुमान जी राम-कथा और बाबा सूरदास जी कृष्ण–कथा , कई दिनों तक अनवरत गाते रहे ! वही से ऋषियों – मुनियों ने इस परम्परा की शुरुवात मानी !
वर्तमान में उत्तर – प्रदेश के बहराइच , बलरामपुर , लखीमपुर ,सीतापुर , हरदोई , सुल्तानपुर ,लखनऊ और कानपुर तथा मध्य-प्रदेश के कई जिलो – छतरपुर ,सतना आदि में आज भी यह विधा गायी जाती है ! दार्शनिक विषयों , पारंपरिक कथाओं , सामाजिक –कुरीतियों को गीतों में पिरोकर गानें वाले इसके कलाकार त्वरित ही मंच पर अपना गीत गाते है ! और विपक्षी – पार्टी के गीत का जबाव भी तुरंत लिख कर देते है !
आप कल्पना भी नहीं कर सकते है कि अगर किसी कलाकार (जवाबी की भाषा में –पार्टी )ने अगर दूसरी पार्टी के गए गीत का जबाव अच्छा नहीं दिया ! तो सामने बैठी 2-3 हजार जनता और दूसरी पार्टी क्या जबरदस्त हूटिंग करती है ! और लगभग 10 घंटे तक चलने वाली इस प्रतियोगिता में एक पार्टी विजयी घोषित होती है ! यानी मै दावे से कह सकता हूँ कि लोक-साहित्य की सबसे कठिन विधाओं में यह एक है !
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जवाबी के बेहद – खूबसूरत गीत , जिनमें शब्द-चयन , काव्य –सौंदर्य द्रष्टव्य है ! फिर चाहे दार्शनिक अंदाज में लिखा लखनऊ के शोला ‘शबनम’ का गीत –
अरे ! बोल मछरिया बोल मछरिया कित्ता पानी है !
कितने जाल मछेरे डाले , कितने मिले पराये अपने !

तुझे पता घाट-घाट में एक वित्ता पानी है ! ” जिसमे संसार को तालाब और जीव को मछली से संबोधित किया गया है ! सच में कितने अपने–पराये निकले , और पराये-अपने मिले !
या जिन प्रभु श्री राम पर लोग महिला –विरोधी होने का तमगा लगा देते है ! वे राम जब हनुमान जी द्वारा लंका से लायी माँ सीता की ‘चूड़ामडी’ को देखते है तो विलख –विलख कर रोते है ! संडीला , हरदोई के कीर्तनकार रतिराम ज्ञानी इस मनोभाव को कुछ यूँ लिखते है –
दुसह दुःख दारुण , कहे का हिया का !
विजय भानु भूषण ,विभूषण सिया का !
लखन लख के पायल , लगे प्रभु को लखनै !
लखन को लखा तो लगे प्रभु विलखनै  !
हनुमान की मूक बानी पे रोये ....!
रमापति रमा की निशानी पे रोये ...!

और यही राम जब मरणासन्न “जटायु ” को गोद में लिए बैठे है तब –
विहग वेदना ना छिपी विकल रघुवीर से !
उसको नहलाते नवल नयनो के नीर से !
धीरज बढ़ने वाले दिखतें अधीर से !
सारा जग चकित है इस पक्षी की तकदीर से !

ऐसे है राम ! यकीन मानिये अमरनायक – महानायक श्री राम ने अपना सारा जीवन ही दूसरों की ख़ुशी के लिए न्योछावर कर दिया ! कम से कम उनकी आलोचना करने से पहले उनके जीवन का मर्म समझिये तो एक बार !
इसके अलावा वर्तमान सामाजिक कुरीतियों और भ्रष्टाचार में भी अपना संयम बनाये रखने की हिम्मत देने वाला प्रयाग के जवाहर जिद्दी का यह गीत अपने आप में एक लैंडमार्क है –
स्वारथ में रत हो गोदी के बेच ललन तक लेते है !
ऐसे है कुछ मुर्दों तक के बेच कफ़न तक लेते है !
सुनी होगी बिकने की तुमने कहानी , काशी में बिक गए हरिश्चंद्र दानी !
बिके ये दुनिया पर मान न बिकेगा , कट जाये बोटी बोटी सत्य ईमान न बिकेगा !
पुतले बिकते होंगे पर वो भगवान न बिकेगा ,बिके ये दुनिया ........!

जवाहर ‘जिद्दी’ अपने साज और शब्द चयन के लिए बहुत प्रसिद्ध थे ! इन्होने एक बाप जब अपनी बेटी को विदा करता है तो उसे बिटिया कैसी लगती है ! कुछ यूँ लिखा  –
ममता सी , रमता सी , समता सी , देवताओं की असीसी !
सत्यता सी , भव्यता सी , दिव्यता सी , सभ्यता सी !
खिली रहे पूर्णमासी सी , सुखी रहे सुखरासी सी !!

यह एक पिता का नजरिया था ! पर वही बेटी जब ससुराल जाती है तो पति का नजरिया देखे –
कमला सी , नवला सी , चपला सी , विमला सी !
और मुख पर है चन्द्र हंसी सी !
रूप भरी है शीशी , यानि रम्भा , सिया उर्वशी सी 

कुछेक और गीतों में जैसे गोडा के नादान किंकर का गीत - जब गोपियाँ कृष्ण को माखन चरते हुए पकड़ने के लिए घंटियाँ लगा देती है जहा माखन रखा ! पर कृष्ण ऐसी माया रचते है की गोपियों को लगता है की हवा से घंटी बज रही है ! और वह माखन ले कर के चले जाते है ! इस गीत में कई ऐतिहासिक जगहों के नाम ऐसे प्रयोग हुए है –
जंतर मंतर पल में , लाल के लाल के छल में !
यदुकुल ताज महलमें , कि बंद बुलंद दरवाजा!
घंटा घर घर बजा , पकड़ ना आया रे ...!

अरे भूलभुलैया बनवारी की माया रे .......! इस गीत को आप ‘लाल चुनरिया वाली पर दिल आया रे’ की तर्ज पर गुनगुना कर देखे फिर आपको इसके सौन्दर्य का अंदाजा होगा !
इसी क्रम में अगर मै लखनऊ के दादा स्व . अमर लखनवी ‘ का जिक्र न करूं तो जवाबी -कीर्तन पर की गयी कोई भी बात अधूरी है ! इनको जबावी का ‘भीष्म-पितामह’ माना जाता है ! आपने सुनने में सरस , पर दुसरें कीर्तनकार को जबाव लिखने में छठी का चावल याद दिला देने वाले गीत लिखते थे ! क्योकि भैया ! जबावी , तो जबाव की होती है ! इनके गीतों के कुछ नमूने पेश है –
पत्थर के भगवान, कलयुग के दरम्यान , कहलाये पत्थर के सनम !
पत्थर के शिव महान , शिव सर्वशक्तिमान , सत्यम शिवम् सुन्दरम !
कि पारस पत्थर से लोहा भी सोना हो गया , पत्थर से प्रभावित कोना कोना हो गया !
पत्थर भी पानी पर तैरने लगे , श्री राम नाम का असर करने लगे !
पत्थर के सालिग्राम , शिवलिंग भी तमाम , पत्थर के रामेश्वरम !
पत्थर के राधा-कृष्ण है लक्ष्मी गणेश है ! पत्थर में देवी देवता करते प्रवेश है !
पत्थर की पिंडियाँ तीन महादेवियाँ(माँ वैष्णो देवी) , अमर सदा बन्दे मातरम
रामेश्वरम हो या मन कामेश्वरम .... पत्थर के भगवान................................! 

यह इनके एक बड़े गीत का छोटा सा अंश है ! आप सोचिये इस गीत का कोई कलाकार क्या जवाब लिखेगा ! आपके गीतों में अलंकार , रस , और प्रायः एक ही शब्द हरेक पंक्ति में आता है ! यह आपकी विशेषता है ! आपकी लिखी गणेश-वंदना अवध में घरों में गयी जाती है –
अग्र आराधना आपकी है ! सिद्धि ये साधना आपकी है !
शिवललाय नमः , गजमुखाय नमः , श्री गणेशाय नमः !
भाव में भावना आपकी है ! पूज्य प्रस्तावना आपकी है !
शिवललाय नमः , गजमुखाय नमः , श्री गणेशाय नमः !
हे गणपति हे गजानन !! हे गजतन- हे गिरिजानंदन !
हे आशुतोष के ललन ! है आपका अभिनन्दन !
आइये अर्चना आपकी है ! सर्व प्रथम-प्रार्थना आपकी है !
शिवललाय नमः , गजमुखाय नमः , श्री गणेशाय नमः

ऐसे ही न जाने कितने जवाब कीर्तन में गाये गए अनमोल लोकगीत/गीत , और इसके कीर्तनकार जैसे – मातादीन विश्वकर्मा ‘सरस’(छतरपुर , म०प्र० ) , बाबूलाल राजपूत (म०प्र० ) , कल्पना दुबे (म०प्र०) , राखी आजाद (जालौन , उ०प्र० ) , अजय ‘विजय ‘(जालौन , उ०प्र० ) , गुडिया भारती (कानपुर ,उ०प्र०) , लालमन चंचल (कानपुर उ०प्र०) , शंभू ‘हलचल ‘(कानपुर उ०प्र०) , रोशनी अन्जान (लखनऊ , उ०प्र०) , पागल सुल्तानपुरी (सुल्तानपुर ,उ०प्र०) , शशि राजकमल (रायबरेली , उ०प्र० ) , राजकमल ‘खुरपेंची’(बाराबंकी , उ०प्र०) , हरीश ‘मधुकर’ (बहराइच , उ०प्र०) , कुंवर ‘झनकार’(बहराइच , उ०प्र०) ,रामकरण मिश्र ‘सैलानी ‘(बहराइच , उ०प्र०), और न जाने कितने , जिनके नाम मुझे नहीं पता है , इस दम तोड़ रही परम्परा को जीवित रखने में लगे हुए है !

खैर , सिर्फ जवाबी -कीर्तन  ही क्यों ? उत्तर प्रदेश में तो नौटंकी , आल्हा , कजरी और रास जैसी लोक-साहित्य की परम्पराएँ भी तो गुम होती जा रही है ! वैसे भी हमारी तो जैसे फितरत सी हो गयी है ! भूल जाने की , भूला देने की ! अपना पहला प्यार- जरा सा कष्ट आने पर , माँ-बाप का संघर्ष – जरा सा बड़े हो जाने पर , प्राइमरी के मास्टर जी जिनसे  “अ” लिखना सिखा- जरा सा पढ़ जाने पर , पत्नी के सक्रिफ़िएस – जरा सा गुस्सा होने पर , भाई का दुलार- जरा सी ज़मीन के लिए , बहन का प्यार – जब वह अपने मन से जीना चाहती थी , वह रिक्शावाले अंकल – जो तुम्हे रोज स्कूल ले जाते थे ! और वह दोस्त – जिसे तुम कभी समझ ही न पाए !
सबको भुला दिया हमने ! तो लोग जब इतना सब-कुछ अपनी एक छोटी सी कभी भी ख़त्म हो जाने वाली जिन्दगी में ही भूल जाते है ! तो यह लोक-परम्पराए क्यों याद रखंगे जिसे तो पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजना  पड़ता है ! बच्चों को सिखाना पड़ता है ! पर इस युग में जहाँ आगे जाने की अंधी दौड़ हो , जब रिश्तें-मर्यादाएं तार-तार हो रही हो , कौन सहेजेगा इन गुम हो रही लोक-परम्पराओं को ...........???
आखिर में –
हाँ , अगर हो सके तो बगल से गुजरते हुए आदमी से कहो
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था !
इस वक़्त इतना ही काफी है !!-(धूमिल)

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लेख़क परिचय
जन्मस्थली बहराइच,उत्तर-प्रदेश ! वर्तमान में कंप्यूटर साइंस परास्नातक में अध्यनरत ! शिक्षा,साहित्य,दर्शन और तकनीकी में रूचि !  संपर्क-सूत्र -8115343011


































































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रचनाकार: जवाबी कीर्तन –लोक संगीत / मनीष कुमार सिंह
जवाबी कीर्तन –लोक संगीत / मनीष कुमार सिंह
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