भारतीय वांगमय में जनकनंदिनी जानकी का चरित्र अद्वितीय है ,अदभुत है ,असीम सामाजिक मर्यादाओं में भी बंधा हुआ है ,फिर भी उन्मुक्त है,उनकी अपनी...
भारतीय वांगमय में जनकनंदिनी जानकी का चरित्र अद्वितीय है ,अदभुत है ,असीम सामाजिक मर्यादाओं में भी बंधा हुआ है ,फिर भी उन्मुक्त है,उनकी अपनी सोच है ,उनका परिमार्जित विचार है ।वाल्मीकि जी तो स्वयम सीता जी के चरित्र से आविर्भूत दिखते हैं। उनका कहना भी है कि रामायण में रामजी का नहीं ,श्रीसीताजी का ही चरित्र मुख्य है। रामायण से सीताजी का चरित्र निकाल दिया जाय ,तो रामायण के राम में कोई विशेषता नहीं दिखती है। वह वास्तव में महान हैं। पूर्णतः सिर से पाँव तक एक सम्पूर्ण भारतीय नारी ,जिसके जीवन की मंजिल पितृ गृह के बाद पति गृह ही होती है ,लेकिन उसके वावजूद उसका स्वयम का भी अस्तित्व सर्वथा प्रखर रहता है।
शास्त्र में लिखा गया है कि “पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ” पुत्र बहुत योग्य हो तो एक कुल का ही –पितृ कुल –का उद्धार करता है। परंतु स्त्री बहुत योग्य हो ,स्वधर्म का बराबर पालन करती हो ,तो वह पति और पिता दोनों कुल का उद्धारक बन सकती है। सीताजी ने जगत को स्त्री धर्म समझाया है। वास्तव में साधारणतया ,महिलाएं पुरुषों से ज्यादा सहनशील ,विचार एवं उदार होती है। वह अपना जन्म स्थान ,अपने माता पिता को छोड़कर ,दूसरे परिवार को अपना कर दत्तचित से उसको सँवारने में लग जाती है। {अपवाद छोड़ कर। }
वैदेही का परिचय देते हुए सासुमाता कौशल्या कहती हैं ,“पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।पति रबिकुल कैरब विपिन बिधु गुण रूप निधानु”॥{अयोध्याकाण्ड दोहा 58,पृष्ठ 331} अर्थात ,इनके पिता जनक जी राजाओं के शिरोमणि हैं ,ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं ,और पति सूर्यकुल रूपी कुमुदवान को विकसित करनेवाले चंद्रमा तथा गुण और रूप के भंडार हैं ,ऐसी विलक्षणा स्त्री सीता का सौभाग्य तो अपरम्पार है।
रामचरित मानस में वैदेही की विशिष्ट लक्षणों से हमारा साक्षात्कार बाल कांड से ही प्रारम्भ हो जाता है।
पुष्प वाटिका में सखियों के साथ पूजा के लिए फूल तोड़ते समय उनका बालिका सुलभ उन्मुक्त व्यवहार झलकता है। सखियों के कहने पर कि अयोध्या के राजा दशरथ के दो अत्यंत ही सुदर्शन राजकुमार राम और लक्षमण भी इस वाटिका में पधारे हुए हैं।उनके सौन्दर्य का वर्णन सुनकर वैदेही का नारी सुलभ हृदय मचल उठता है, उन्हें देखने के लिए।चकित हिरनी की भांति वह इधर उधर देख रही होती है कि तभी लतागुल्म के मध्य से दोनों भाई प्रकट होते हैं।उनकी भी दृष्टि इन्हीं पर अवस्थित विराम की मुद्रा में समाहित है। उन्हें देखते ही वैदेही अपनी सुधबुध खो बैठती है। एक क्षण के लिए सकुचाकर अपने कमल के समान दो खूबसूरत आँखें बंद कर लेती है ,फिर खोल देती है ,सामने आपादमस्तक रूप के अथाह सागर ,सावले सलोने श्री राम खड़े उन्हीं को निहार रहे हैं।उनकी चोरी पकड़ी गई ,ऐसा सोच कर वह एक पल के लिए कुछ विचलित सी अवश्य हो जाती हैं ,मानिनी ये कैसे स्वीकार कर ले कि वह उनसे ,उनके परम विशिष्ट व्यक्तित्व से मूर्छित सी हो रही है। झटके से अपनी आँखों को उन गुलाब के विकसित पुष्पों पर केन्द्रित कर लेती हैं जिसके पार्श्व में रघुनाथ खड़े हैं। फिर किसी विशिष्ट की वहाँ उपस्थिति से लापरवाह सी , अत्यंत चतुराई से अपने आप को संभालती हुई ,अपना आंचल ठीक करती हुई ,वह इधर उधर ,मृग ,पक्षी ,और वृक्षों को देखने के बहाने बार बार घूम कर राम की छवि नैनों में बसाए पुलकित हो रही है ,उनका दृदय भावविभोर हो रहा है। प्रेम की अमूल्य भावनाओं का स्वार्गिक आभास होने लगा है। क्या इस अद्भुत प्रेम की यह सुमधुर ध्वनि उनके हृदय प्रदेश में भी अनुगुंजित हो रही होगी ? वे भी मेरे संदर्भ में कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे क्या ? अनायास उन्हें अपने पिता के कठिन प्रण स्मरण हो जाता है ,और उनके चंद्रमा समान मुखमंडल पर समशितोष्ण मौसम में भी श्वेद बिन्दुओं की झालरें लटकने लगती हैं। व्याकुल सी वह चपल गति से वहाँ से निकल कर आगे आ जाती है ,जहां नित्य प्रातः काल उनका एक प्रहर व्यतीत होता है अर्थात अपनी आराध्या माँ भवानी के समीप।
पुष्पवाटिका के दाहिने ओर , अवस्थित माँ पार्वती की मंदिर में जाकर घुटने टेक कर प्रार्थना करती है “ जय जय गिरिबर राजकिशोरी , के समक्ष अपनी इस प्रेमाधीरता पर स्वयं सकुचा जाती है ,मगर फिर उनके मन में अपने इस नवजात स्नेह पर असीम भरोसा भी हो उठता है ,और वह आश्वस्त हो जाती है कि ‘ जेही के जेही पे सत्य सनेहू, से तेइ मिलई न कछु संदेहु’। माँ पार्वती भी मुग्ध हो गई है।‘सुनू सिय सत्य असीस हमारी’ :,और ‘ख़सी माल मूरत मुसकानी’। माँ आशीर्वचन देती है ,’पुजही मन कामना तुम्हारी’। भगवान में उनकी असीम भक्ति है।
उधर धनुष नहीं तोड़ पाने के दुख में पराजित बाहुबली नरेशों की कुंठाए बढ़ती जा रही है ,वे श्रीराम को ईर्ष्या और द्वेष से देखते हुए ,वैदेही को बलात ले जाने या युद्ध में विजयी होकर ले जाने की बात ज़ोर ज़ोर से करने लगे थे। राम अपने गुरु वशिष्ठ के पास चले गए और सीता अपनी माता के पास आकर दुष्ट राजाओं के अनैतिक ताओं के विषय में सोचने लगी ,कि न जाने विधाता ने क्या सोच रखा है। क्रोध से बंकिम भृकुटि किए झरोखे से वह राजाओं की ओर देख रही है ,राम के बारे में अब किसी भी प्रकार की अप्रिय बातें सुनना उन्हें तनिक भी पसंद नहीं है। मन ही मन भवानी को स्मरण करती वह उनसे श्रीराम को विजयी घोषित करवाने की प्रार्थना लगातार करती जा रही हैं। उनकी प्रार्थना सुन ली गई , उन महान उपस्थित महारथिओं के सामने कोमल किसलय समान बालक ने धनुष खंडित करने का गौरव हासिल कर लिया है। चारों ओर हर्ष ध्वनि की एक सु मधुर गर्जना सी होने लगी। जानकी से बढ़ कर आज कौन यहाँ प्रसन्न और भाग्यशाली है ?
जानकी जी कितनी मृदुभाषी हैं ,ममता मयी और कर्तव्यपरायण हैं इसकी सूचना दशरथ जी को राजा जनक से मिल जाती है। जो विवाह का पत्री लेकर अयोध्या राजा दशरथ के दरबार में आता है। राजा अपने पुत्रों का कुशल जानकर और उनके विवाह का समाचार पाकर अत्यंत भावुक होकर ,अपने गले से मुक्तादल निकाल कर सेवक को ईनाम देने लगे तो वह बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर देता है कि बेटी के ससुराल का तो पानी भी नहीं पी सकता है। राजा हैरान !उन्हें असमंजस में पड़ा देखकर सेवक कहता है , “ ठीक है ,बेटी तो राजा जनक की है किन्तु सीताजी सं सेवकों को भी पिता के समान सम्मान देती है ,तो वह बेटी ही न हुई ”। राजा दशरथ की आँखें भर जाती है ,इतनी विचारवान, शीलवान सीता उनकी पुत्रवधू बना कर आने वाली हैं।
स्वभाव से शर्मीली भी हैं। वरमाला के समय भी अत्यंत भाव विह्वलता और लज्जा के मारे उनसे श्री राम के गले में माला पहनाई ही नहीं जा रही है।
विवाह के पश्चात भी सखियों के बार बार कहने पर गौतम पत्नी अहिल्या का स्मरण कर वह श्रीराम का चरण स्पर्श नहीं कर पा रही थी।
पितृ गृह की आज्ञाकारिणी ,सबकी दुलारी ,प्रिय वैदेही अयोध्या ,अपने पतिगृह आकर भी अपना सदाचार ,सदविवेक ,संस्कार ,और मर्यादा नहीं भूलती। सासससुर की मन सम्मान ,छोटे देवरों से ,देवरानियों ,सगे संबंधियों के अलावा महल के दास ,अनुचर ,प्रजा से उनका सौहार्द पूर्ण व्यवहार हुआ। अत्यंत मृदुभाषिणी ,कोमलांगी ,माधुर्य रस से ओतप्रोत ,वैदेही सिर्फ और सिर्फ वैदेही है।
श्रीराम के वन गमन की खबर सुनकर अत्यंत व्याकुल होकर वैदेही अपनी सास कौशल्या माता के समीप आकर ,उनकी दोनों चरणों की वंदना करके सिर झुकाए चुपचाप खड़ी है। राम वहीं हैं। सास उन्हें अनंत आशीष दे रही है ,मगर वैदेही का ध्यान तो कहीं और क्षितिज के सामने वाले कोने में टंगा हुआ है। जीवन नाथ वन जाएंगे ,देखें उनके साथ कौन जाता है ,शरीर और प्राण दोनों या केवल प्राण। विधि के विधान को कौन समझ सका है। उनकी मनोव्यथा को माता कौशल्या भली भांति परख रही हैं। वे श्रीराम से कहतीं हैं “हे तात सुनो ,वैदेही अत्यंत सुकुमारी है एवं सास ससुर संग अन्य कुटुंबी जनों की भी दुलारी हैं। महान जनक की पुत्री और दशरथ की पुत्रवधू और श्रीराम आप की अर्धांगिनी हैं। यह तो परम सौभाग्य शाली स्त्री है। मैंने रूप की राशि ,गुण और सौभाग्यशाली पुत्रवधू पाया है। वैदेही ने ,,गोद पलंग और हिंडोले को छोड़कर कभी ऊबड़ खाबड़ धरती पर पाँव भी नहीं रखा। जनक पुर के वाटिका में भी मुलायम घास के गलीचे बिछाए गए थे। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान ,सावधानी से उनकी रखवाली करती हूँ।कभी दीपक की बाती हटाने के लिए भी नहीं कहा। वही सुकुमारी ,आप के साथ वन जाना चाहती है ,मेरा तो मन व्याकुल हो रहा है ,आपकी क्या आज्ञा हैं ?” जानकी को पता है , इस भीषण परिस्थिति में श्रीराम कितने दुविधाग्रस्त हो उठे हैं।
बाहर की जटिल ,दुर्गम ,भयानक दुनिया , जंगल में तो सिर्फ कोल भील महिलाएं ,तपस्विनी और राक्षसी ही रह सकती है। वैदेही की ओर तिरछे नयन से देख उनका हृदय द्रवित हो उठा था।
उन्होने अपनी तरफ से भरसक प्रयास किया जानकी महल में ही रहे ,इससे माताओं की भी सेवा हो जाएगी ,और परिवार में सबकी भलाई भी। उन्होने एकांत में ,बाहर की दुनिया की जटिलताओं का ,परेशानियों का ,वैदेही के समक्ष भयानक चित्रण प्रस्तुत किया। वन की धूप ,शीत और वर्षा सभी भयानक हैं।पर्वतों की गुफाएँ नदियां ,नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर भय से देखा भी न जाए। रीक्ष,भालू ,बाघ ,भेड़िए सिंह और हाथी ऐसे भयानक शब्द करते हैं ,जिन्हें सुनकर बड़े से बड़े वीर बांकुड़ों का भी धैर्य डगमगा जाता है। जमीन पर शयन करना ,कंकड़ ,पत्थर ,काँटों पर चलना ,पेड़ों कि छाल के ,पत्तों के वस्त्र पहनना ,कांड ,मूल का भक्षण करना ,ऊपर से आदम खोर जानवरों का राक्षसों का भांति भांति के मायावी रूप धरण कर छलना।
यह ऐसी परीक्षा की घड़ी थी ,मगर जानकी के हृदय में तनिक भी अकुलाहट नहीं है। कोई भय नहीं है ,कोई उन्हें अपने लक्ष्य से डिगा नहीं सकता है। कुछ समय पश्चात अपनी सासु माता से अपनी ठिठाई के लिए क्षमा मांगते हुए कहती है , “ छमही देबि अबिनय मोरी’ परंतु मैंने समझ लिया है कि पति के वियोग के समान संसार में कोई दूसरा दुख नहीं होता’। पुनः पति कि ओर उन्मुख होकर कहती हैं “ हे प्राण नाथ ! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के ही समान है।शरीर ,धन ,घर ,पृथ्वी ,नगर और राज्य स्त्री के लिए पति के बिना शोक के समान है। नाथ ! बाल्यावस्ता में एक तपस्वी ब्रांहन ने मुझे कहा था कि तुम पति के साथ वन में रहोगी। उस तपोनिष्ठ ब्रांहन का वचन मिथ्या न जाय इसलिए मेरा आपके साथ वन गमन करना नितांत अपरिहार्य है। वहाँ वन में ,आपके साथ पशु पक्षी भी मेरे कुटुंबीजन होंगे।कंद मूल ही अमृत के समान होंगे। वन पहाड़ ,कन्दरा भी अयोध्या के सैकड़ों महलों के समान होंगे। अतः ,हे दीनबंधु ! यदि आपने मुझे चौदह वर्ष अपने से विलग अयोध्या में रखा तो ,निश्चय ही मेरे प्राण नहीं बचेंगें”।
श्रीराम को उस मानिनी स्त्री का मान रखना ही पड़ा था।
वन में इतने साल तो वह पति की प्रतिच्छाया बन कर अपने हिसाब से प्रसन्न थी। मगर होनी तो कहीं बैठा ,कुछ और लिखने की तैयारी में लगा था। जब छल से रावण ने उनका अपहरण कर लिया उस समय भी उनकी प्रखर मेधा शक्ति ने उनका साथ नहीं छोड़ा। उन्हें आभास था ,श्रीराम अवश्य उन्हें ढूँढने का प्रयास करेंगे ,कहीं रास्ता का कुछ तो पहचान होना चाहिए। उन्होने थोड़ी थोड़ी दूर पर अपने नाम मात्र के आभूषण फेंकने प्रारम्भ कर दिया था , जो बाद में श्रीलंका तक पहुँचने का माध्यम बना।
कहाँ भयानक दशकंधर ,और कहाँ कोमलांगी ,सुमुखी सीता ,
अपरिचित अशोक वाटिका में भीषण पहरे में बैठी वैदेही। भांति भांति का रूप बन कर रावण अपने अनुचरों के साथ उन्हें डराने ,धमकाने ,प्रलोभन देने ,अपनी बात मनवाने के लिए आता है।, रावण ,परम ऐश्वरवान ,जिसकी संपूर्ण लंका ही स्वर्ण निर्मित थी , राम के पास अयोध्या में मात्र एक सोने का भवन कनक भवन।मगर वह निडर बनी आँख तक उठा कर उसे नहीं देखती है उसकी निगाह में श्री राम से बड़ा महान इस धरती पर और कोई नहीं है। रावण जितना भी वैदेही के मानसिक जगत को जीतने का प्रयास करता ,उतनी ही प्रबल असफलता उसे हाथ लगती। उनके सामने वह खुद को अस्तित्व विहीन पाकर और भी क्रोध से दहकने लगता। साम, दाम,भय,क्रोध के वावजूद वैदेही ने कभी उसकी ओर आँख उठा कर नहीं देखा। कुछ कहना जब परम आवश्यक हो जाता तब “तृण धरि होठ ,कहत वैदेही ,सुमरि अवधपति परम सनेही ,अपने प्रियतम का स्मरण कर के नीची निगाहों से ही उनके मुख से कुछ शब्द प्रस्फुटित हुए थे।
मंदोदरी आदि सब रानी को उनकी सेवा में रखने का प्रलोभन ,लांखा कि पटरानी बनाने का परताव देकर भी वह उनके विश्वास को श्री राम क चरणों से नहीं डिगा पाया। यह था मिथिला की बेटी का परम उज्ज्वल चरित्र।
जब हनुमान को सीताजी को ढूँढने का दायित्व सौंपा गया। तब श्रीराम ने उनका परिचय देते हुए कहा ,कि वो जहां भी होगी उस,छत से ,उस दीवार से ,यहाँ तक की उसके शरीर से भी राम राम की ध्वनि निकल रही होगी। उन्हें भीअपनी हृदयेश्वरी सीता जी के प्रेम पर अटूट विश्वास था।
लंका में हनुमान के परम विशिष्ट कार्य से अति संतुष्ट होकर सीता जी ने “अष्ट सिद्धिनव निधि के दाता’ का आशीर्वाद दिया था।कृतज्ञता उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी। दया ,दान ,वरदान के माध्यम से वह सदा अपने हृदय का उद्गार प्रगट करती रहती थीं।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार ,लंका विजय के बाद जब श्रीराम ने जानकी को देखते ही { ऐसा उन्होने मात्र संसार को दिखाने के लिए कहा था } कहा कि” हे भद्रे! मैंने संग्राम में यह जो परिश्रम किया है ,यह तुम्हारे लिए नहीं किया है। मैंने स्वयम को अपवाद से बचाने के लिए और अपने प्रख्यात वंश पर लगे लांछन के परामर्जन हेतु यह युद्ध किया है। ऐसा कौन पुरुष होगा जो दूसरे के घर में रही स्त्री को स्वीकार करेगा। रावण के अंक में ली गई ,दुष्ट [कामी] नेत्रों से देखी गयी तुम्हारी जैसी स्त्री को कौन स्वीकार करेगा ? अतः हे भद्रे ! मैंने बहुत सोच समझ कर यह निर्णय लिया है कि लक्ष्मण वा भरत के साथ ,अथवा वानरों के राजा सुग्रीव ,अथवा राक्षसराज विभीषण के साथ सुखपूर्वक रहो ,अथवा अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा तुम्हारा मन चाहे वहाँ निवास करो”। प्रत्युत्तर में वैदेही कहती है “ प्रभु ! मेरे शरीर का जो स्पर्श हुआ उसमें काम का कोई संदर्भ नहीं था। मै विवश थी।अतः इसमें मेरा नहीं ,मेरे भाग्य का अपराध है। जब तुमने वीर हनुमान को लंका में मेरे पास भेजा था। तब क्यों नहीं सूचित किया था कि तुम्हारा यह आचरण होगा। तब मैं वानरेन्द्र के इस बात को सुनते ही अपना प्राण त्याग देती। तुम जैसे नरश्रेष्ठ को क्रोध के वशीभूत होकर छोटे मनुष्य के समान आचरण नहीं करना चाहिए। तुमने मेरे स्त्रीत्व को जो यह पुरस्कार दिया है ,वह तुम्हारे योग्य नहीं है। मेरी उत्पत्ति की कथा को जानते हुए भी तुमने इस प्रकार का आचरण किया है और इसका भी ध्यान नहीं रखा कि हम विवाहित हैं और मैं तुम्हारे प्रति सर्वथा समर्पित हूँ। तुमने मेरी भक्ति और शील सबकुछ भुला दिया”। {आलोचना त्रैमासिक पृष्ठ 66 सहस्राब्दी अंक तैतीस }इसके पश्चात भी उनके मन में अपने आराध्य के लिए रत्ती भर भी कड़ुवाहट नहीं उत्पन्न हुआ।
पति से परित्यक्त आसन्नप्रसवा ,सिर्फ अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए जीने वाली नारी के रूप में भी उनका चरित्र अनुकरणीय है । बच्चों के चारित्रिक विकास में उन्होने बहुत बड़ा योगदान दिया था। उन्हें अपने महान रघुकुल रीति के अनुरूप शिक्षा दिया। कहीं भी ,कभी भी अपने दंभ से ,अपनी मानसिक पीड़ा से , भीषण अपमान से,व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर उन्होने उन बच्चों के कोमल ,स्निग्ध ,मधुर ,विचारों को नहीं प्रदूषित किया।
एक हिम्मती ,दृढ़ निश्चयी और कर्तव्यपरायण ,विवेकमयी स्त्री के चरित्र का दूसरा पहलू भी था जो उन्हें कठोर और अपने हित के लिए जागरूक बनाता रहा था। रावण ,जो एक सिद्ध हस्त वैद्य भी था ,उनकी अस्वस्थता पर जब उन्हें खाने के लिए ,जड़ी बूटी से निर्मित लड्डुनुमा औषधि दिया ,तो जानकी जी ने उसे बड़े ही निर्लिप्त भाव से ,व्यर्थ का वस्तु समझ कर झटाक से दूर फेक दिया ,जो पेड़ बन गया और लंका में आज भी उन वृक्षों से वह फल के रूप में पैदा होता है। इसी तरह जानकी जी ने अशोक वाटिका में अपने इर्द गिर्द एक लकीर खींच रखी थी ,जिसके बाहर वह नहीं जाती थी।
ऐसा कहा जाता है किश्रीराम के विरह वियोग में रुदन करते करते सीताजी की आँखों से इतने आँसू निकले ,जो वर्तमान में भी सीता कुंड के नाम से श्रीलंका में विख्यात है। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि पति से बिछुड़ कर निमिष मात्र के लिए भी वैदेही की खंजन नयन आँसू से मुक्त नहीं रही थी।
अद्भुत प्रेमिका ,जो प्रेम में केवल मिटना जानती थी।
सीता जी के चरित्र की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है , जिस लंका के बारे में तुलसी दास ने कहा है कि “लंका निशिचर निकट निवासा ,ईहा कहाँ सज्जन कर वासा’ उस भयंकर दैत्यओं के मध्य भी अपनी सखी ढूंढ लेती है। त्रिजटा जो ,संयोग से श्रीराम की भक्त है ,से वह अपना दुख बांटती है और उनसे आग मांगती है ,जिससे अपनी ईहलीला समाप्त कर सके।एक अभिन्न सहेली की भांति त्रिजटा बोल भरोस देकर उन्हें ऐसा करने से रोकती रही थी। उन्हें कभी भी क्रोध नहीं आता था। राक्षसों को मारने वक्त श्रीराम के नेत्र भी लाल हो उठते थे ,मगर जानकी एकदम शीतल चंद्रमा की तरह थी। दया ,करुणा का सागर थी। जब रघुनंदनलंका में राक्षसों का संहार कर रहे थे ,सीता जी के आदेश पर किसी भी राक्षसी को नहीं मारा गया था।
एक स्थान पर सीताजी ने हनुमान से कहा है , कि जो प्रेम से बदला लेते हैं ,वही संत हैं। वैर की शांति वैर से नहीं ,प्रेम से होती है। अपकार का बदला उपकार से और अपमान का बदला सम्मान से ले ,वही संत है। अद्भुत ,विलक्षण विचार है उनका।
वैदेही के चरित्र का एक विशिष्ट गुण यह है कि वह परम समर्पित पुत्री ,प्रेमिका ,पुत्र वधू ,पत्नी और माता होने के साथ साथ अपने अधिकार के लिए लड़ने वाली एक जागरुक नारी भी है ,एवं अपने अपमान का बदला परम शांति से लेने के लिए तैयार है। तेरह वर्ष के वनवास के दुख को ,दुख समझा ही नहीं , क्योंकि प्रियतम का सानिध्य था ,एवं एक वर्ष रावण के आतंक को महज रघुनाथ के लिए सह लिया मगर श्रीराम द्वारा परित्याग किए जाने के दंश को वह झेल नहीं पाई।
जब श्रीराम वापस उन्हें अयोध्या लेने के लिए आते हैं तब धरती की बेटी अपने ,तेज ,सतीत्व और समर्पण का हवाला देकर धरती माता से फट जाने के लिए विनती करती है जिससे वह अपने समस्त दुखों के साथ उसमें समा जाए। और कथा है कि उनकी कारुणिक पुकार सुनकर पृथ्वी में चौड़ी दरार पड़ गई थी जहां वह समाधिस्थ हो गईं।
तब श्रीराम का हृदय विदारक विरह व्याकुलता परिलक्षित हुई। अपना वामांग गंवा कर वे बेचैन हो उठे थे। मगर प्रारब्ध के आगे वह भी किंकर्तव्य विमूढ़ थे।
वास्तव में जानकी का सम्पूर्ण जीवन चरित्र उस परम विदुषी भारतीय नारी का है जो तन मन धन से अपने पति को ,परिवार के लिए समर्पित तो रहती है ,मगर अपना स्वाभिमान ,अपना अस्तित्व और कर्तव्य नहीं भूलती। वे एक सम्पूर्ण नारी हैं परम आधुनिकता और पारंपरिकता का अपूर्व संगम है उनकी जीवन कथा।
डा0 कामिनी कामायनी।
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