परिधानों पर बदलती सोच / ललित साहू "जख्मी" छुरा

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हर युग में परिधान हमारी जीवन शैली का प्रमुख परिचायक रहा है। परंतु अब हमारी सोच में परिवर्तन आया है। आदिकाल में परिधान सिर्फ तन ढकने का एक सा...



हर युग में परिधान हमारी जीवन शैली का प्रमुख परिचायक रहा है। परंतु अब हमारी सोच में परिवर्तन आया है। आदिकाल में परिधान सिर्फ तन ढकने का एक साधन मात्र होता था। उस समय लोग धूप, ठंड, वर्षा से बचने के लिए किसी भी तरह की चीजों को शरीर से लपेट लेते थे। परिधान का अर्थ होता है, पहिनावा! चाहे वह कपड़ा हो, या पेड़ की छाल या कुछ और परंतु आज कपड़े को ही परिधान समझा जाता है। कपड़ा जबसे चलन में आया, यह मानव सभ्यता के विकास को परिलक्षित करने का प्रमुख माध्यम बन गया। लोगों की जीवन शैली में कपड़े का महत्व हर दृष्टिकोण से था। जैसे मौसम से तन की सुरक्षा, दिखने में सुन्दरता, अपनी साख का परिचय देना, घर की साज सज्जा, पंडालों, तंबुओं, ध्वजा, सैन्य उपयोगों के अलावा भी बहुत सी चीजों में कपडो़ का उपयोग होने लगा। परंतु समय के साथ बहुत कुछ बदल गया। और साथ ही बदल गई, परिधान पर हमारी 'सोच'! अब तो यह हवा,पानी,भोजन से भी ज्यादा जरूरी समझा जाने लगा है।
भिन्न-भिन्न रंग भिन्न-भिन्न भाव दर्शाते हैं। जैसे सफेद रंग शांति, शीतलता,शालीनता,लाल रंग क्रोध, उग्रता,चिंता नीला रंग गहराई,उंचाई, वृहदता, काला रंग निरस्ता,शोक, विरोध का प्रतिक माना जाता है। ठीक उसी प्रकार परिधानों में भी संकेत छुपे होते हैं। और हम जाने अनजाने उन संकेतों से अपने व्यक्तित्व और सोच को प्रदर्शित करते हैं। जब हम नये,अच्छे कपड़े पहने होते हैं तब लोग स्वत: ही अनुमान लगा लेते हैं की हम कोई उत्सव मना रहे हैं या हमारे लिए कोई विशेष अवसर है। पुराने कपड़ों में हम उदासीन नजर आते हैं।


कपड़े को अंततः हम कचरे में ही फेंकते हैं या जलाते हैं दोनों ही तरीकों में हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है। यहां भारतीय परिधान की वैज्ञानिकता को समझना आवश्यक है। साड़ी, धोती, कुरता, पैजामा या काटन, सूती के कपड़े मुख्य भारतीय परिधान हैं। इन कपड़ों से शरीर को आराम मिलता है। जैसे सूती साड़ी पहने माँ की गोद नर्म मुलायम बिछौने सा अहसास कराती है ऊपर से माँ से सुरक्षा का अहसास शिशु को स्वस्थ, निर्भय बनाता है। हमारे पहने हुए कपड़े भी बार-बार उपयोग में लाये जा सकते हैं। पुराने जमाने में साड़ी के पुराने होने पर उसे पर्दा, गद्दे का खोल, या खपरैल वाले घरों में पाल की तरह और कुरते पैजामों को थैले, चिंदी या इस तरह के अन्य उपयोग में लाया जाता था। पर अब कोई भी व्यक्ति घर से थैला लेकर बाजार नहीं जाता और साड़ी को पर्दा बनाने की बात पर तो लोग कंजूस और न जाने क्या-क्या कहने लगें! ऐसा कहने वाले लोग क्या बता सकते हैं कि फटी जिंस और छोटे कपड़ों को पहन कर स्टाइल कहने वाले लोगों को क्या कहेंगे? सूती काटन जैसे कपड़े जिंस टी शर्ट जैसे कपड़ों की तुलना में जल्दी सड़-गल के मिट्टी बन जाते हैं। हम कपड़ों का पूर्ण उपयोग करके अप्रत्यक्ष रुप से पर्यावरण की सुरक्षा कर सकते हैं।
हम अपने मूड के हिसाब से कपड़े तो पहनते ही हैं पर मजे की बात ये है कि कई बार कपड़ों के हिसाब से हमारा मूड ढल जाता है। कपड़ों का सही चयन भी एक तरह की कला है। आजकल ज्यादातर लोग नकल करना पसंद करते हैं और इस वजह से बहुत से लोग बेहूदे कपड़े पहने भी आसानी से नजर आ जाते हैं। जबकि अन्य देशों में भारतीय परिधान के लिए रुचि बढ़ी है और लोग इसे सहजता से अपना भी रहे हैं।


आपने एक जुमला "आप रुचि भोजन, पर रुचि श्रृंगार" सुना ही होगा। जब भी मैं इस जुमले को सुनता हूं तो मेरे जेहन मे एक सवाल आता है कि "क्या किसी दूसरे की पसंद, नापसंद हमारी निजी जिन्दगी में इतनी मायने रखती है कि हम अपने कपड़े भी दूसरों की मर्जी से चयन करें"। और अगर ऐसा ही है, तो फिर जब किसी को भड़कीले, छोटे या तंग कपड़ों के लिए टोका जाता है, तो टोकने वाले को गलत और रुढ़ीवादी व्यक्ति क्यों समझा जाता है। जब हमने कपड़ों का चुनाव ही दुनियावालों को दिखाने के लिए किया है, तो उन्हीं के टोकने पर हमें बुरा क्यों लगता है। और यदि ऐसा नहीं है तो तंग,छोटे कपड़ों की जरुरत और वैज्ञानिकता अगर कोई बताये तो समाज उनको टोकेगा भी नहीं और स्वयं भी तंग कपड़ों के फायदे भी ले सकेगा। तंग कपड़ों के विषय में डॉक्टर भी कह चुके हैं कि यह बहुत सी बीमारियों की जड़ है। गर्भवती महिलाओं को तो विशेष रुप से टोका जाता है।


वास्तव में पूरे विश्व में कपड़े का उपयोग जलवायु के हिसाब से हुआ और एक समय के बाद वही उन देशों की पहचान बन गई। जैसे ठंडे इलाकों में तन को पूर्ण रुप से ढंकने वाले मोटे कपड़े पहने जाते थे उन्हें अब अपनी आवश्यकता अनुसार ढाला जा रहा है जैसे लांग कोट, मफलर, हैट, जिंस ऐसे कपडे़ ठंड से बचने में कारगर होते हैं और सुंदरता भी बढाते हैं। ऐसे ही ज्यादा गर्म इलाकों में इलाकों में हल्के रंग कम कपडो़ का चलन बढ़ गया क्योंकि पूरे वर्ष भर गरमी का सामना करने के लिए ये कपड़े सहायता करते हैं। परंतु हम जिस तरह की जलवायु में रहते हैं हमें मौसम के परिवर्तन के साथ अपने परिधानों का चयन करना चाहिए।


ऐसे भी भारतीय परिधान स्वयं में इतने परिपूर्ण हैं कि हमें किसी नकल की आवश्यकता ही नहीं है। विकृत आधुनिकता को स्वीकार के हम भारतीय कारीगरों की कला को नजर अंदाज करते जा रहे हैं। पहले हमारे यहां के कारीगरों द्वारा बनाई गई छ: मीटर लंबी साडी़ एक माचिस की डिबिया में समा जाती थी। हमारे यहाँ की कारीगरी और कला उन्नत किस्म की मानी जाती थी, पर आज स्थिति ऐसी बन गई है कि विश्व में पहचान दिलाने वाली पारंपरिक कला विलुप्ति के कगार पर है। जबकि विश्व के कई देश इसे जीवित रखते हुए पहले से और ज्यादा मजबूत भी बना रहे हैं। भारत विश्व के लिए हमेशा ही आदर्श रहा है। पर हम अपनी ही ताकत और उपलब्धियों से विमुख क्यों हो रहे हैं? क्या हर कार्य के लिए कानून ही बनाना आवश्यक है? क्या इसके बिना हम अपना फर्ज नहीं निभा सकते ? हम आवश्यकता के अनुसार भारतीय परिधान पहन कर शालीनता सभ्यता का परिचय दे सकते हैं। लाखों कलाकारों को रोजगार भी दे सकते हैं। भारतीय संस्कृति, परंपरा को जीवित रख सकते हैं।


सोचिए जब किसी महिला को कम कपड़ों के लिए टोका जाता है तो टोकने वाले व्यक्ति के चरित्र और सोच पर कैसे सवाल खड़े किये जाते हैं। यदि किसी दफ्तर में कोई महिला छोटे,तंग कपड़े पहन कर आ जाये तो उसे कोई कुछ नहीं कह सकता। लेकिन वहीं कोई पुरुष हाप पेंट और बनियान में काम करने आ जाये, क्या तब भी उसे कोई कुछ नहीं कहेगा? मेरे ख्याल से उसे तुरंत टोक दिया जायेगा। अब ये सोचिए कि लोग जब छोटे कपड़ों की अवहेलना करते हैं तो वह किसी महिला को गलत नहीं ठहराते! बल्कि ओ तो पुरी संस्कृति की बात करते हैं। जिसे लोग अलग रंग दे देते हैं। परिधानों पर हमारी सोच बदली तो है। पर वास्तव में हम किस दिशा में जा रहे हैं ये सोचने का विषय है।

ललित साहू "जख्मी" छुरा
जिला - गरियाबंद (छ.ग.)

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रचनाकार: परिधानों पर बदलती सोच / ललित साहू "जख्मी" छुरा
परिधानों पर बदलती सोच / ललित साहू "जख्मी" छुरा
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