हिंदी कहानी ओर पेशेवर मर्सियाबाज - डॉ. माहेश्वर

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(प्रस्तुत टिप्पणी सारिका, फरवरी, 1986 से साभार ली गई है. तीन दशक बीत जाने के बाद क्या हिंदी कहानी का परिदृश्य कुछ बदला है? पढ़ें और अपने व...

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(प्रस्तुत टिप्पणी सारिका, फरवरी, 1986 से साभार ली गई है. तीन दशक बीत जाने के बाद क्या हिंदी कहानी का परिदृश्य कुछ बदला है? पढ़ें और अपने विचार दें.)

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही कहानी हिंदी साहित्य की केंद्रीय विधा रही है, पर इधर कुछ समय से कहानी पर हूँ प्रश्नचिह्न भी लगते रहे हैं..

'सारिका' ने पांच कथा-पीढी विशेषांकों और दो संयुक्त पीढी विशेषांकों में आज की हिंदी कहानी के स्वरूप तथा उसकी संवेदना को तलाश करने की कोशिश की है. यह कोशिश कितनी कारगर साबित हुई है, इस संदर्भ को लेकर चल रही बहस में अब तक आप -योगेश गुप्त, पुष्पपाल सिंह और बटरोही के आलेख पढ ही चुके हैं. इस अंक में प्रस्तुत हैं कथाकार, आलोचक डॉ. माहेश्वर के विचार

हिंदी कहानी फिर केंद्र में आ रही है, पाठक से जुड रही है, अपनी मध्यवित्तीय खुजली का इलाज कर रही है, और भारतीय जीवन की गलाजत और सौंदर्य से आंखें चार कर रही है. तो उसकी मौत के पैगंबरों और उसका कफन खसोटने वाले मर्सियाबाजों के दिल में फिर हूक उठी है, फिर वे श्मशान के सियारों की तरह एक स्वर में रोने लगे हैं.

इन्हें तकलीफ यह है कि उनके पूर्वजों ने कहानी का मांस नोच कर उसकी ठठरी को _ - ग्लास -टैंकों में और 'मरने की जगहों’ पर ला पटका था, तो कुछ लोग फिर से उसे जीवित करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? जन सामान्य के पास उसकी जो भी सांस्कृतिक धरोहर बची है; - उसे लूट कर तह-खानों में बंद करने की जो - इयूटी इन्हें सौंपी गयी है उसे अंजाम देने के लिए ये फिर कमर कस कर खड़े हो गये हैं. ये चाहते हैं कहानी ,फिर 'अमूर्त अवधारणाओं के लिए रहस्यवाद में सिमट जाय, ये कहानी को उस धारा "के साथ जोडना चाहते हैं जो इतिहास से कट कर _ कविता की तरह 'अमूर्त-बिंबों द्वारा मानव नियति और काल के रहस्यमय भीतरी संबंधों को जांचती रहे और एक आडी तिरछी गति में लगभग एक ही बिंदु के चारों और घूमती दिखाई पडे' (मृणाल पांडे-सारिका 16-31 अक्तूबर, 1985). जिन कहानियों में 'कथानक के घटनाक्रम पर उसके कथानक के विकास का क्रम सहज, रेखिक और आदि मध्य अंत से युक्त रहता है' और जो _ प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढाती है उसे ये लोग घटिया कहानी मानते हैं-कम से कम अमूर्त अवधारणाओं वाली, अमूर्त बिंबों वाली, तथाकथित काव्यमय अंतर्दृष्टि वाली कहानी की तुलना में तो निश्चय ही घटिया मानते हैं.

_ हिंदी कहानी के 'एक निराशाजनक पीढ़ी बोघ' _ वाले कथाकार समीक्षक को लगता है कि हम सब . जितने संपन्न दिखायी देते थे अब उतने ही दरिद्र _ दिखायी देते हैं और 'आजादी के बाद की हिंदी _ कहानी को रेखांकित करने के लिए हमारे पास नई _ कहानी दौर के बाद की एक भी कहानी नहीं है.' . (बटरोही, सारिका। -15 फरवरी 1986). आज जबकि पिछले पंद्रह वर्षों में कहानी 'अकहानी की नपुंसक अराजकतावाद, नई कहानी की परवर्ती व्यक्तिवादी रूझान और कीमियागिरी, संचेतन कहानी की गुटबाजी और धूर्त फतवेबोजी सक्रिय कहानी जैसे भोंथरे और लुंपेनशैली के अवसरवाद से अपना पीछा छुडाकर फिर से प्रेमचंद की सामाजिक और ऐतिहासिक वाली सहज, सरल और जनप्रिय भावधारा के नजदीक आ रही है, जब व्यक्तिवादी रचना दृष्टि वाले कथाकार सामाजिक चेतना के स्वरूप को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं और कठमुल्ला समाजद्ष्टि के रचनाकार फार्मूलेबाजी और सपाट कथन की अवधारणात्मक कहानियां लिखना छोडकर जीवन की संश्लिष्टता और गहराई को अपनी रचनाओं का मूल :स्वर बना रहे हैं, जब कहानी आम पाठक को नये सिरे से आकर्षित-करने लगी है और उसकी चेतना में कहानी के माध्यम से सामाजिक सच्चाइयों का सजीव खाका बनना शुरू हुआ, तब फिर एक बारी सातवें दशक उत्तरार्द्ध के वर्षों की तरह लंबी तान कर सोये हुए मर्सियाबाज अपनी छातियां कूटने निकल पडे हैं.

हिंदी कहानी को 'हाशिए पर' डाल आने वाले एक नामवर कहानी आलोचक अब फिर सक्रिय हुए हैं और उन्हें फिर से सिर्फ निर्मल वर्मा, 'नई कहानी' आंदोलन की उपलब्धि लगने लगे हैं.

(हाय श्रीकांत जी, हाय राजेंद्र जी, हाय कमलेश्वर जी.) और परवर्ती कहानीकारों में सिर्फ चार, ज्ञानरंजन, काशीनाथ, स्वयंप्रकाश और असगर वजाहत. निर्मल वर्मा, जो प्राय: बीस वर्ष पहले गिनती की कहानियां (जिनमें 'लंदन की एक रात' जैसी बेहतर कहानियां भी थीं) लिखकर चुक गये और ज्ञानरंजन' (जिन्होंने 'घंटा'' और 'बहिर्गमन' के बाद शायद एक भी कहानी अच्छी या बुरी) नहीं लिखी, फिर भी 'पहल' जैसी बेहतर पत्रिका निकाल रहे हैं, काशीनाथ जो 'कालकथा', 'लोग बिस्तरों पर', और दूसरी एक दर्जन अच्छी कहानियां लिखने के बाद आज कहानी में फैंटे की. गुहार लगा रहे हैं. (सदी का सबसे बडा - आदमी-रविवार दीपावली विशेषांक), स्वयंप्रकाश और असगर वजाहत, जो लगात्तार अपना एक ' मध्यम स्तर बनाये हुए ही अगर हिंदी कहानी के नामलेवा हैं तो सारिका के सात विशेषांकों में प्रकाशित किये गये प्राय: एक सौ कथाकारों को किस खाते में डाला जाये?

कहानी की विकास यात्रा की समझ पर धूल डालने की ये कोशिशें कारगर नहीं होंगी, क्योंकि आज का कथाकार जीवन और उसके भोक्ता तथा स्रष्टा आदमी की नियति से जुडे रहने की अनिवार्यता अच्छी तरह समझ गया है. इस मर्सियाबाजी को एक तरफ रख कर अगर हम पिछले दिनों प्रकाशित कहानियों पर एक 'नजर डालें तो पायेंगे कि उस चीखपुकार और आतंकित कर देने वाले गर्वीले---अस्वीकार के पीछे , वस्तुगत या रचनात्मक आधार नहीं है. सारिका द्वारा प्रकाशित सात विशेषांकों में से कुछ चुनी हुई कहानियों का विश्लेषण करके कुछ दिलचस्प नतीजे निकाले जा सकते हें.

'सारिका' के 'कथापीढी विशेषांक: एक' में भैरव प्रसाद गुप्त की 'कंठी' और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' की 'एक्कहवा पांडे' सिद्हस्त कथाकारों की मार्मिक कहानियां हैं. जिन लोगों को 'कम्यूनिष्ट' शब्द से एलर्जी है वे भले ही गत्ती भगत को पुलिस द्वारा कम्युनिष्ट कहे जाने के कारण उस चरित्र की ऊर्जस्विता और विश्वसनीयता पर संदेह करने लग जायें. पर गत्ती भगत जैसा शक्तिशाली और सामाजिक अंतर्विरोधों को सफाई से पेश करने वाला और सामंती मूल्यों को छोडकर सच्चाई .की रक्षा के . लिए जनवादी मूल्यों को स्वीकार करने की कशमकश झेलता और अंत में जनवादी मूल्य को स्वीकारता गतिशील चरित्र पाठक के मन पर गहरी छाप छोड जाने में समर्थ है.

इसी तरह 'एक्कहवा पाडे' - में भी जड सामंती मूल्यों को नकारने वाले एक बेहद तेजस्वी चरित्र का निर्माण किया गया है बीस बिस्वा (सर्वोच्च) ब्राह्मण कुल में उत्पन्न सीताराम ने इक्का चलाने से लेकर खेतीकिसानी, लगान-वसूली के कितने-कितने पापड बेले अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए. मगर इस चरित्र की शक्ति इसकी सच्चाई मानवीयता, उदारता और कर्मठता में है. *

शुरू से आखिर तक अपनी तमाम कमियों और मूर्खताओं के बावजूद सीताराम एकदम मानवीय और सच्चा बना रहता है. पोष्य पुत्र रामकिशोर की स्वार्थपरता और मध्यवर्गीय' अमानवीयता की तुलना में सीताराम का चरित्र और' भी निस्नर उठता है.

पूरी तौर से टूटकर भी सीताराम जपने स्वाभिमान सच्चाई और त्याग को बनाये रहता है. रामकिशोर 'की मां की एकमात्र गहना एक सोने की मुहरी. वह इतने घोर दारिद्र्य के बीच भी रामकिशोर को लौटा आता है,

'कंठी' के गत्ती भगत और 'एक्कहवा पांडे' के 'सीताराम में एक गहरा अंतर है. दोनों आदर्शवादी पात्र हैँ, पर गत्ती भगत का आदर्शवाद एक सचेत सैद्धांतिक चेष्टा है, जबकि सीताराम का आदर्शवाद उसकी पूरी चेतना और जीवानुभावों का अंग बन कर आता है. गत्ती भगत एक आदर्श को विपरीत परिस्थिति में नये कोण से देखने की दृष्टि पाता है, जबकि सीताराम का आदर्श उसके व्यक्तित्व का और चेतना का एक अभिन्न अंग बन कर आता है, इसीलिए 'एक्कहवा पांडे', एक कलात्मक प्रभाष के रूप में कहीं व्यापक फलक को घेरता है. दोनों ही कहानियों में ब्यौरों के प्रति एक सजग और तीखी दृष्टि संपन्नता दिखायी देती है.

प्रेमचंद की परंपरा को प्रमचंदीय शैली में ही निभाने वाली 'कंठी' और 'एक्कहवा पांडे' के बाद एक और कहानी न केवल प्रेमचंद की परंपरा को ही आगे बढाती है, बल्कि यथार्थ को फेंटेसी में बदलकर यथार्थ को कहीं ज्यादा सांकेतिक तथा मार्मिक ढंग से पेश करती है. मुद्राराक्षस की कहानी 'कुश्ती'. यह सरल, सहज इतिवृतात्मक तथा गझिन बुनावट की जगह पारदर्शी, कई स्तरों पर. सक्रिय, यथार्थ को आधी फैंटेसी और आधे विद्रूप के धरातल पर उकेरती बहुत जरूरी ब्यौरों पर अपेक्षाकृत ज्यादा बल देती, ढेर सारे ब्यौरों को छोडकर गुजरती हुई, संजीदगी के लहजे के पीछे एक उपहास और उपहास के पीछे गहरी संजीदगी को सजाकर रखती और अपने मसखरेपन के पीछे चार्ली चैप्लिन ट्रैंप की तरह बहुत तीखी संवेदना और हंसी में लिपटी रूलाई की तरह पेश की गयी है. ऊपर से यह कहानी एक निदेशक द्वारा अपने कार्यालय के दो बाबुओं आफिस इंचार्ज दयाल और अस्थायी {प्रोबेशन पर) क्लर्क सतीश बहादुर के बीच कुश्ती करवाना बडी अटपटी-सी लगती है, प्राय: असंभव और संभव के बीच लटकी हुई-सी. पर सतीश' बहादुर का आखिर में जानबूझकर, हार जाना कि उनकी सालाना रिपोर्ट खराब कर दयाल उन्हें नौकरी से निकलवा न दे--इसको चेखवीय प्रभाव की रचना बना देती है.

कथा पीढी : तीन में नीलकांत की 'अनसुनी चीख' और रमेश उपाध्याय की "सफाइयां', काफी देर तक जेहन के भीतर तहों पर अपनीं अनुगूंज _ बनाये रखने में समर्थ हैं. 'अनसुनी चीख' की . सोनबरसा जमीन के लिए तहसीलदार, प्रधान और नायब के सामने अपना शरीर परोस देती 'है और जमीन भी कितनी – पच्चीस डिसमिल. दस-बीस बीघे नहीं. प्रश्न यह नहीं है कि सोनबरसा 'पहले इसे खुद स्वीकारती है तो फिर छटपटाती क्यों है (किसी पाठन ने शायद ऐसा कहा था) देखना यह है कि एक गरीब छोटी जात की औरत कैसे गांव के सामंती और नौकरशाही शक्तियों के गठजोड़ द्वारा नोची और खायी जा रही है और उनके नखों-दांतों के बीच फंसी सोनबरसा की चीख जितनी दहशतनाक है उतनी ही गिरिराज किशोर की 'चीख' कहानी में मंत्री के दूरदर्शन कार्यक्रम में दूर से आतीं राष्ट्र आत्मा की चीख यांत्रिक और चमत्कार जैसी, कथाकार की अवधारणात्मक सोच से जुटायी हुई, जमीन के लिए अपने शरीर को उन कसाईयों को परोसने को मजबूर सोनबरसा से जन् प्रधान कहता है कि 'जमीन तुझे दे दी गई, इतने पर भी तू छटपटाती है, सोनबरसा, अब खुश हो जा, तू हम सबकी जमीन है.' तो कथाकार एक निष्ठुर और धृणित यथार्थ को हमारे सामने अपनी पूरी भयानकता में खोल देता है सामंती नौकरशाही गठजोड द्वारा जमीन और औरत की यह निर्मम लूट यह भी प्रमाणित करती है कि सामंती मूल्यविधान में औरत जमीन की तरह ही एक मित्कियत है, जिसका हर तरह दोहन करना उच्च वर्ग के .पुरुषों का अधिकार है. कहानी पूर्णतया यथार्थवादी शैली में कही गयी है, और इसमें हर विवरण को बहुत कलात्मकता और चुस्ती के साथ रखा गया है जो एक विशेष प्रभाव को गहराता हुआ पेड्र के नीचे पडी एक मैली कथरी के बिंब तक तो जाकर सोनबरसा की जिंदगी की वीभत्सता और व्यर्थता की 'और संकेत करता है! काश: उसके बाद, का वाक्य कहानीकार न लिखता.

'सफाइयां' एक दूसरे तरह के रचनाकौशल का प्रमाण देती है. नगरों में नवधनाद्य वर्ग की कुत्सित दलाल मनोवृत्ति और चरम ' मूल्यहीनता के साथ शासक वर्गों के राजनीतिक दबदबे 'का फायदा उठाकर धन कमाने और हर स्थिति को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर ले जाने के काइयेपन को बेहद प्रभावशाली ढंग से यह कहानी पेश करती है. पत्नी को जल कर मर जाने को मजबूर करने वाला, अपनी युवा साली को रखैल बना लेने वाला सुरिंदर कुमार खुद अपनी पत्नी को न केवल उसकी मौत का बल्कि अपने नैतिक पतन का भी जिम्मेदार बना देता है. शहर का यह पढा-लिखा मध्य-वर्ग कितने शातिरपने से नैतिकता और' कानून का दांव देकर अपनी- स्वार्थसिद्धि करता है, यह इस कहानी की विषयवस्तु है.

इस कहानी में अदभुत शिल्प का सहारा लिया गया है. मुख्य पात्र सुरिंदर कुमार अपने व्यवहार की सफाई खुद प्रस्तुत करता है और पूरी मुस्तैदी से अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, पर जैसे-जैसे वह अपनी सफाई देता है वैसे-वैसे ही वह बेनकाब होता जाता है. वह न केवल खुद को बल्कि अपने जैसे एक पूरे समुदाय के जीवन के खोखलेपन, अनैतिकता ओर पाखंड को उजागर करता है.

श्लेषपरक एकालाप शैली में लिखी यह लंबी कहानी आरंभ से अंत तक पाठक को बांधे रहने में समर्थ है. एक खास तरह की दिल्ली की बहुप्रचलित वार्तालाप शैली का इसमें रोचक तथा सार्थक प्रयोग किया गया है. यह. भाषा कथ्य को बेहद धारदार बनाने में सहायक हुई है. _

_ 'कथा-पीद्री विशेषांक ¦ चार' में गोविंद मिश्र की 'मायकल लोबो' और राजी सेठ की ' 'यात्रामुक्त' कहानी-कला के बेहतर उदाहरण हैं;

घटनाविहीन कथ्य की ब्रजेश्वर मदान की अपनी वशिष्ट शैली में लिखी पिल्ला भी उल्लेखनीय है. मायकल लोबो बेहद सघे हुए शिल्प की गहन मानवीय संवेदना की कहानी है, एकदम सांचे ढली हुई तो राजी सेठ की 'यात्रामुक्त' वर्गीय प्रनीवृति के अवर्विरोधों में फंसे नौकर और मालिक के बीच के अतर्विरोधों के मध्य दो पीढियों के आपसी अंतर्संबंधों की काफी गहराई में जाकर पड़ताल करती है, ये दोनों ही कहानियां भाषिक संयोजन और तीव्रता की अदभुत मिसालें हैं.

'कथा पीढी विशेषांक ¦ पांच' इस श्रृंखला की सबसे मजबूत कड़ी है. इस अंक में बेहतर कलासृष्टि और रचनात्मक संयम के साथ साथ अपेक्षाकृत युवा कथाकारों के तीखे तेवर देखने को मिलते हैं, संजीव की "पिशाच", अब्दुल बिस्मिल्लाह की 'अतिथि देवो भव', सुरेंद्र सुकुमार की 'चल खूसरो घर आपने, नासिरा शर्मा की 'सिक्का', पुन्नी सिंह की 'शोक' और प्रियंवद की 'बूढ़ा फिर उदास है" बेहतरीन कथालेखन के उदाहरण हैँ, इन तमाम कहानियों की विशेषता है गहरा कलात्मक संयम और व्यंजना और जीवन के रंगों की विविधता तथा व्यापकता'

संजीव की कहानी का मानवीय त्रासदी और क्लासिकी रचना वैभव, अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानी का तनी हुई रस्सी जैसा माहौल और एक हल्की छुअन से जीवन स्थितियों को उजागर करती कलम, सुरेंद्र सुकुमार की थोडी 'लाउड" पर गहरी मानवीय यातना में से रचनात्मकता, नासिरा की अत्यंत गहरी आत्मा के सौरभ और वेदना से सिक्त औरत की दुनिया की कहानी, पुन्नी सिंह की व्यापक व्यंग्य और तीखी समाज-दष्टि नयी पीढी के रचनाकार की ताजगी और संभावनाओं को पूरी तरह प्रमाणित करती हैँ.

संयुक्त पीढ़ी विशेषांक : एक इन विशेषांक की कडी का सबसे कमजोर अंक है. इसमें अपेक्षाकृत नये लोगों की कहानियां ही आश्वस्त करती हैँ. जैसे अभय की 'कतार', स्नेह मोहनीज् की 'एक लडकी अकेली' और उदयन वाजपेयी की "चेहरे.

संयुक्त पीढी विशेषांक : दो, में नयी और पुरानी दोनों पीढियों की कुछ अच्छी कहानियां आती हैं. इस अंक की सबसे बेहतर कहानियां कुंदन सिंह परिहार की बिरादरी और शशिप्रभा शास्त्री की 'ये छोटे महायुद्ध. आशीष सिन्हा की ‘अपने लोगों के बीच’. बदिउज्जमा की ‘हसब-नसब’, वीरेंद्र मेंहदीरत्ता की ‘उमंग’ और चित्रा मुद्गल की ‘ब्लेड’ भी नए भावबोध की गहराई और मानवीय रिश्तों की क्रूरता और ममत्व को जितनी गहराई और सूक्ष्मता के साथ ‘बिरादरी’ और ‘ये छोटे महायुद्ध’ में चित्रित किया गया है वह उन कहानियों को विशिष्टता प्रदान करती है.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: हिंदी कहानी ओर पेशेवर मर्सियाबाज - डॉ. माहेश्वर
हिंदी कहानी ओर पेशेवर मर्सियाबाज - डॉ. माहेश्वर
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