हास्य-व्यंग्य / सब चलता है / बालेन्दु शेखर तिवारी

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ठीक सौ साल पहले कविवर मैथिलीशरण गुप्त का जन्म हुआ था और तब से लगातार उनसे मिलने के प्रोग्राम मैं बनाता रहा, लेकिन अपनी व्यस्ततावश उनसे कभी ...

ठीक सौ साल पहले कविवर मैथिलीशरण गुप्त का जन्म हुआ था और तब से लगातार उनसे मिलने के प्रोग्राम मैं बनाता रहा, लेकिन अपनी व्यस्ततावश उनसे कभी न मिल सका। हारकर बेचारे अब से बाईस साल पहले अनंत यात्रा पर निकल गए और ताजा समाचार यह है कि आज तक नहीं लौटे हैं। कल उनकी 'भारत भारती' के पन्ने पलटने का चांस मिला तो यह देखकर परम प्रसन्नता हुई कि राष्ट्रकवि भी ठीक मेरी ही तरह देशदशा से दुबले होते रहते थे । उनकी तसवीरें गवाही देती हैं कि वे दुबले-पतले सज्जन थे और स्थिति यह है कि खाकसार भी वैसे ही हेल्थ का स्वामी है तथा भविष्य में राष्ट्रहित के लिए ककडीवत_ होने के लिए भी तैयार है। लेकिन अपना देश इतना महान और विशाल है कि मेरे जैसे लोकमंगलकारी प्राणी की सेवाएं प्रचुर मात्रा में नहीं ले रहा है। अन्यथा मेरे पास सेवा का थोक स्टाक है। अफसोस तो इस बात का है कि इधर हम अपनी प्राइवेट समस्याओं को शंटिंग में डालकर देशसेवा के लिए व्याकुल हैं और उधर सब चलता है।

जी हां, सब चलता है। यह अकेला महामंत्र ही इस महामानव समुद्र को चला रहा है। आप कहीं भी कुछ भी करने के लिए परम फ्री हैं। आप किसी भी दफ्तर के किसी भी कमरे में जब चाहें तब ससम्मान प्रवेश कर सकते हैं। विद्यार्थी जब चाहें तब कक्षा में पधार सकते हैं और इच्छानुसार भी कर सकते हैं। रेलों और बसों को यह पूरी छूट प्राप्त है कि वे अपनी मर्जी से चलें और जनता को यह अधिकार प्राप्त है कि वह रेलों और बसों पर अपनी मर्जी से लदे । बोलने वाले को सुविधा मिली हुई है कि वह शांतिपूर्वक बोले और सुनने वाले को यह छूट उपलब्ध है कि वह शांतिपूर्वक सोए। हालात यह है कि हर दिशा में सुविधा एक्सप्रेस दौड रही है और हर एतराज का एक ही रेडीमेड जवाब है--सब चलता है। यही कारण है कि बीच राह पर किसी गाय या बैल को अनशन की मुद्रा में विराजमान देख कर किसी सच्चे भारतवासी के मन में एक सेंटीमीटर भी आश्चर्य नहीं होता ।

वह सड्क ही क्या जिसके बीचोंबीच स्थापित होकर गौ माता अथवा उनके वंशज मनुष्य-चालित वाहनों को ब्रेक मारने के लिए विवश न करें। वह सड्क ही क्या जिस पर चांद की तरह हर कदम पर क्रेटर न हो। बरसात के मौसम में जल और स्थल का भेद मिटा देने वाली प्राकृतिक छटा इन सडकों पर अपने चरम उत्कर्ष पर रहती है। राह चलते हुए आपका पैर कीचड की ताजा आईसक्रीम से सन जाए अथवा पास से गुजरती हुई कार के प्रसादस्वरूप आपके कपडे वीरगति को प्राप्त हो जाएं तो आप किसी से शिकायत नहीं कर सकते हैं। आप अपनी राह कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए बाईं ओर की फुटपाथ पर जा रहे हैं और उसी फुटपाथ पर सामने की ओर से आ रहे किसी वेगवान पुरुष से आपकी टक्कर हो जाए, तब भी आप उन्हें बाईं ओर चलने का हितोपदेशं नहीं सुना सकते हैं। वजह यह कि यहां सब चलता है।

इस महामंत्र का साकार रूप उस दिन नजर आया था जिस दिन मैं पटना से गया आने वाली ट्रेन पर सवार हुआ । ट्रेन नियमानुसार अपने निश्चित समय से नब्बे मिनट विलंब से चली और पटना शहर के विभिन्न मुहल्लों में तीन बार रुकते-रुकते बची । मेरे सामने बैठे हुए सज्जन ने मेरे हाथ का अखबार, आदि से अंत तक बांच लेने के बाद ऐसी हिकारत भरी नजर से मेरी ओर देखा, जैसे डांट रहे हों कि यही सड़ा हुआ अखबार खरीदते हैं आप?

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उनके सवालिया मुखडे से सहमकर मैं अपना अखबार पढने लगा और थोडी ही देर बाद पाया कि ट्रेन एक आदर्श भारतीय गांव के सामने रुक गई है और चंद रेलयात्री ट्रेन से सधन्यवाद उतरकर गांव की ओर प्रस्थान कर रहे हैं । यह देखकर मैंने अपने सहयात्री के सामने ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा कि ट्रेन को इस तरह थोडे-से ग्रामवासियों की सविधा के लिए नहीं रुकना चाहिए । वे अत्यंत वीतराग महात्मा की तरह बोले--सब चलता है।

ट्रेन चल पडी तो हमारी बातचीत का सिलसिला भी चल निकला । मैंने उन्हें बताया कि शहरों में सरेबाजार लूट और हत्या की वारदातें आम हो गई हैं तो उन्होंने फरमाया कि सब चलता है। मैंने उन्हें बताया कि यह देश इंजीनियरों और ठेकेदारों का स्वर्ग बन गया है; तो वे उतनी ही तत्परता से बोले कि सब चलता है। मैंने कहा कि भ्रष्टाचार का झरना ऊपर से नीचे तक बहता चला जा रहा है, तो उन्होंने सूचित किया कि सब चलता है। मैंने जब बताया कि पटना में एक महिला ने पांच बच्चों को जन्म दिया है, तब भी वे उसी सदा सुहागन शैली में बोले कि सब चलता है। वे की तरह चौकोर सज्जन थे, लेकिन अपना यह छोटा-सा वक्तव्य इमरती की तरह घुमावदार स्टाइल में प्रस्तुत करते थे। मैं आपादमस्तक उनकी छवि निहारने लगा कि यह कैसा महामानव है जिसकी संवाद-योजना 'सब चलता है' से आगे ही नहीं बढ रही है? तभी पास बैठे हुए एक अन्य महापुरुष सहसा खड्डे हो गए और डिब्बे में लगे रोशनी के बल्बों को अत्यंत मनोयोगपूर्वक निकालने लगे। आसपास के कई बल्बों को उतारकर उन्होंने अपने झोले में डाला । वह झोला भी पूर्वकाल में प्रथमश्रेणी की सीट कवर काटकर बनाया गया था। अपना झोला हाथ में लेकर वह खतरे की जंजीर खींचने लगे। यह देखकर मैंने एक सहयात्री को कुछ कुरेदा, लेकिन वे इस बार भी इतना ही कह सके--सब चलता है। 'जंजीर' खींचने के परिणामस्वरूप ट्रेन रुकी तो झोलाधारी सज्जन उतरकर सामने के .गांव में समा गए। उनके सम्मान में ट्रेन तब तक रुकी रही, जब तक वे वापस ट्रेन में .नहीं पधारे । मैंने उन्हीं से निवेदन किया कि आपके सौजन्य से यह ट्रेन आधे घंटे तक क्यों रुकी रही, तो उन्होंने हंसते हुए निवेदन किया कि सब चलता है।

यह तो एक यात्रा की कथा सुनाई हमने कि समूचा देश कितनी निश्चितता से चल रहा है। सच तो यह है कि देश-दशा की चिंता करने वालों को भी अच्छी तरह पता है कि बेहतर चिंता करने से लाभ कुछ भी नहीं है। हम चाहे देश की दुम लाख सीधी करना चाहें, यह ही रहेगी | 'सब चलता है का मंत्र जिसने रट लिया है और इसका रहस्य जान लिया है, वही वास्तविक सिद्ध पुरुष है । बडी-बडी संगोष्ठियों और कार्यसमितियों की बैठकों के बाद अंत में यही निष्कर्ष सामने आता है कि चलने दो यार, सब चलता है।

पिछले साल एक संस्था के अखिल भारतीय आयोजन में गया था, जिसमें सातवीं कक्षा के छात्रों के लिए हिंदी की पाठ्य-पुस्तक तैयार करने की तैयारी की गई थी। समूचे हिंदुस्तान से आए विद्वानों ने आवास की व्यवस्था पर संतोष व्यक्त किया और नाश्ते में चटनी के अभाव पर खेद प्रकट किया। इस विषय पर सभी महानुभाव

एकमत थे कि रात का खाना लजीज होता है, लेकिन सभी असंतुष्ट थे कि भोजन के बाद मीठे का इंतजाम नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति यह रही कि अतिथि और उनके स्वागती सब-के-सब जलपान और भोजन की शास्त्रीय चिंता में ही लगे रहे। समारोह के समापन के दिन सातवीं कक्षा के पाठ्यक्रम निर्माण का भार एक जूनियर टीचर पर डालकर सभी अपना-अपना टी.ए. बिल स्वीकृत कराने में व्यस्त हो गए। एक पराक्रमी विद्वान से मैंने समारोह की उपलब्धियों पर प्रकाश डालने के लिए कहा, तो उन्होंने वही अमर वाक्य दुहराया--सब चलता है । यानी सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा । हम सब कुछ नहीं कर सकते \.

हम कुछ करें या न करें, स्थिति यह है कि सब चलता है। अब कल शाम का किस्सा बयान करता हूं । टेलीविजन के पिटारे के सामने सपरिवार बैठकर मूंगफली की ताजा किस्मों की पैदावार के बारे में अपना ज्ञानवर्धन .कर रहा था कि मुहल्ले के बाल गोपालों का समूह हमारे ड्रांइगरूंम में घुस आया। थोडी देर में उनकी मम्मियों और आंटियों का जत्था भी सशरीर हाजिर हो गया । इसके बाद बिना हींग-फिटकरी जैसे आइटमों के ही सीन पर ऐसा रंग चोखा आया कि मुहल्ले के टी.वी. दर्शकों को कमरे में छोडकर मैं पली और बच्चों के साथ घर से बाहर निकल आया । बच्चे अपनी नाराजगी _ व्यक्त करने लगे तो हमारी अर्धांगिनी ने उन्हें शांत करते हुए फरमाया कि चुप रहो, यह _ सब तो चलता ही रहता है । इस तरह चलते रहने की महादशा यह है कि कल हमारे मुहल्ले के कुछ उभरते हुए हीरो हमारे पड़ोसी कृष्णगोपाल बाबू के अंत:पुर में घुस आए और उनकी नई-नवेली बहू के चारों ओर शृंगार रस का वातावरण बनाकर सधन्यवाद लौट आए । उनका तर्क था कि आजाद देश में जन्म लेने के कारण इस देश में कहीं भी कुछ भी करने का जन्मसिद्ध अधिकर उन्हें प्राप्त है। अपनी बहू और कन्याओं के निर्माता-निर्देशक कृष्णगोपाल बाबू परमहंस की मुद्रा में शांत हैं। उन्हें मालूम है कि कुछ नहीं किया जा सकता, यह सब चलता ही रहता है।

अपने सनातन तर्क और अधिकार के सहारे मुहल्ले के हीरोगण आज सबेरे मेरे यहां भी पधारे और वह सारा गाजर का हलवा चट कर गए जो मेरी निजी पत्नी ने खास मेरे लिए परोसा था । हलवे की समाप्ति पर मेरे बच्चों की श्रीमाता अभी तक स्वगत भाषण कर रही है और मैं खुश हूं कि नई पीढी का आक्रमण हलवे तक ही सीमित रहा । एकदम रामराज्य है। ऐसा सुहाना वातावरण पहले कहां था? चारों ओर आजादी पसरी हुई नजर आती है। मन के किसी कोने में अगर यह सवाल जगा कि देश का क्या होगा जनाबे आली, तो हर सवाल का एक ही जवाब है--सब चलता है।

कहीं कोई छिपाव, कहीं कोई बनावट नहीं है । ठेकेदार परिश्रमपूर्वक ऐसी सडकों और पुलों का निर्माण करते हैं, जिनका निर्माण-कार्य समाप्त होने के पहले ही मरम्मत का टेंडर निकल आए । डाक्टर सिर्फ अमीर रोगियों में रुचि लेते हैं और नेताओं के बारे में तो कुछ भी कहना बड़ा मुंह और बड़ी बात होगी। अफसरों और पुलिस की कथा तो और भी अकथनीय है। हालत यह है कि गोली मेरे लाल की जित देखो तित गोल । गोली लेने वे गए, वे भी हो गए गोल ।।

हमारे आसपास जो कुछ भी है सब साफ-साफ है। बिना किसी के चलाए सब कुछ अपने-आप चल रहा है इसीलिए उस दिन विश्वविद्यालय में डिग्री मात्र के लिए विचरण करने वाले युवकों और युवतियों का परम पावन आचरण नजर आया तो मन गद्गद हो गया । सारा समुदाय कालेज के अहाते में इस महान समस्या पर नारेबाजी कर रहा था कि छात्रों के कामनरूप में अभी तक वी.सी.आर. क्यों नहीं लगा है । भीतर स्टाफरूम में शिक्षकगण चिंतन कर रहे थे कि आज तो इस नारेबाजी के फलस्वरूप कक्षा में जाने से बचे, कलं कौन बहाना काम आएगा । अंत में यह फैसला किया गया कि कल यदि लाख समझाने पर भी छात्रों ने हडताल नहीं की तो हडताल कराने के लिए हम लोग हडताल कर देंगे । एक महावरिष्ठ शिक्षक ने यही टिप्पणी की कि--सब चलता है।

बात की शुरुआत हमने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की देश-चिंता से की थी और वास्तव में उसी बिंदु पर टिकना भी चाहिए । बार-बार टापिक से बहक गया हूं। इधर अच्छे लेखक की यही पहचान हो गई है कि वह मच्छरों की जनसंख्या के बारे में लिखना शुरू करे, तो आसानी से पालक के साग और नई शिक्षा की चुनौतियों आदि पर भी अपने अमूल्य विचार व्यक्त कर दे । मैं भी कई बार बहका हूं, इसलिए निश्चय ही महान लेखक हूं। विषयांतर से आप निराश न हों। क्या कीजिएगा, सब चलता है।

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(हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन, नेशनल बुक ट्रस्ट से साभार)

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य / सब चलता है / बालेन्दु शेखर तिवारी
हास्य-व्यंग्य / सब चलता है / बालेन्दु शेखर तिवारी
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