हास्य-व्यंग्य / जैसे कोई और हो! / अशोक शुक्ल

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हाय-हाय, क्या बॉडी थी। क्या चाल थी, चार कदम चलकर कैसे झटके-से रुकती थी! जिधर से निकल जाती, जैसे चक्कू चल जाते। सैकड़ों दीवाने घेर लेते, आगे-...

हाय-हाय, क्या बॉडी थी। क्या चाल थी, चार कदम चलकर कैसे झटके-से रुकती थी! जिधर से निकल जाती, जैसे चक्कू चल जाते। सैकड़ों दीवाने घेर लेते, आगे-पीछे भागते। शोर मच जाता-आ गई, आ गई। और सीधी कितनी? चाहे बीच सड़क में रोककर पकड़ लो! हाय-हाय क्या चीज थी!

वह यूपी. रोडवेज की बस थी।

हाय-हाय, क्या बाडी थी! क्या चाल थी! क्या शान थी! जैसे सरकार हो।

बिलकुल वही सरकारों-सा स्वभाव। पहले लेट हुई। फिर ओवरलोड हो गई। कंडक्टर ने चलने की सीटी बजाई तो ड्राइवर इस शान से चढ़ा, जैसे एवरेस्ट पर चढ़ा हो। फिर उसने पीछे मुड़कर सवारियों-विशेषकर महिला सवारियों का निरीक्षण किया और बस स्टार्ट करने की कामना से कई पुर्जों को हिलाया-डुलाया। मगर बस बिलकुल सरकार की तरह अड़ गई, टस-से-मस न हुई।

तब कंडक्टर ऐक्शन में आया। वाह रे कंडक्टर! आज भी जब उसका ध्यान आता है, मुंह से धन्य-धन्य निकलता है। उसने एक साथ अनेक काम किए।

सर्वप्रथम, अपने कठोर नियंत्रण में सारी सवारियां उतारीं और उनसे बस ठेलवाई। क्या अलौकिक दृश्य था। सहकारिता का कैसा अनूठा चित्र था! छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, नर-नारी, सभी धक्का लगा रहे थे। एकता छलक पड़ रही थी। गोरी-गोरी मेहंदी-लगी हथेलियां किस प्यार से बस को धकेल रही थीं। जैसे कोई प्रिया अपने प्रिय की किसी छेड़खानी से अतिशय प्रसन्न हो, उसे हटो, बड़े वो हो' कहती परे धकेले!

उस समय, सबके मन में एक ही इच्छा थी-काश हम भी बस होते।

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लेकिन शृंगार रस की इस कोश वाली चर्चा को यहीं छोड़ आपका ध्यान पुन: बस धकेलने से जन्मी सहकारिता की ओर खींचना चाहता हूं। उस दिन विश्वास हो गया, जब तक रेलगाड़ियां भी इसी तरह ठेल-ठेलकर स्टार्ट न कराई जाएगी, इस देश में सहकारिता आंदोलन कदापि न पनप सकेगा।

बस चली। ओवरलोड थी, इसलिए चलने के साथ ही कई समस्याएं उग आई। ठीक कांग्रेस-विभाजन की तरह कुछ लोग जो पहले खड़े थे, अब दूसरों की सीटों पर जम चुके थे। बड़ी अव्यवस्था थी, चीख-पुकार मच रही थी। झगड़े बढ़ते जा रहे थे। मारपीट की संभावना काफी उज्ज्वल थी। स्थिति इतनी विस्फोटक थी कि सरकार होती, तो गोली चलवा देती; कि तभी हमारे प्यारे कंडक्टर ने माननीय गृहमंत्री का रोल संभाला।

सर्वप्रथम उसने अपराधी और निरपराधी- दोनों को बुरी तरह डांटा। लगा, गृहमंत्री रेडियो पर गरज रहे हैं। फिर उसने किसी को उठाया, किसी को बैठाया। एक आदमी को बस से उतार देने की धमकी दी। जैसे किसी सूबाई मिनिस्टर को कैबिनेट से ड्राप करने की धमकी दी गई हो। अंतत: व्यवस्था किसी अपमानित लड़की-सी लौटी। स्थिति-गुजरात की तरह-नार्मल हो गई।

अब मैं कंडक्टर से प्रभावित हो चला था। स्वयं को सहकारिता-आंदोलन के कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में प्रमाणित करने के बाद उसने जिस लाघव से गृह मंत्रालय का काम संभाला था, वह सराहनीय ही नहीं सरासर दर्शनीय भी था। और... बस, कमाल हो गया। गृह मंत्रालय का अनुबंध पूरा होने से पहले ही बेचारे कंडक्टर को एक तीसरे मंत्रालय का काम स्वीकार करना पड़ा। यह था- 'कानून मंत्रालय'।

एक महिला किसी सज्जन की खाली सीट पर गैर कानूनी ढंग से बैठ गई थी, वे इतने स्वस्थ थीं कि सीट में बाकी बचे दो पुरुष कुचले जा रहे थे। मरता क्या न करता, सभी ने मिलकर कंडक्टर से इस प्राणलेवा जुल्म के खिलाफ अपील की।

कंडक्टर ने घटनास्थल पर जाकर जांच की, आरोप आश्चर्यजनक रूप से सही था। अब तो बेचारा कंडक्टर बड़े धर्मसंकट में पड़ गया-एक ओर महिला के विरुद्ध प्रबल जनमत, दूसरी ओर नारी-मात्र के प्रति पक्षपात करने की उसकी पुरानी आदत! अब क्या हो?

वही हुआ, जो युगों-युगों से होता आया है। कंडक्टर को कर्त्तव्य की कठोर बलिवेदी पर अपनी सुकोमल भावनाओं का खून चढ़ाना पड़ा। उसने जैसे कलेजे पर पत्थर रख निर्णय दिया-महिला सीट से उठ जाएं। किंतु वह पारंपरिक महिला नहीं थी, वह शीतयुद्ध पर उतर आई और बिफरकर बोली, ''किसी का बाप मुझे इस सीट से नहीं उठा सकता।'' उनका दावा ठीक था, किसी का बाप-जब तक भारोतोल्लन में हेवीवेट चैंपियन न हो, सचमुच उन्हें नहीं उठा सकता था। कंडक्टर तत्काल कर्मठ गांधीवादी बन गया और उसने बस एक ओर खड़ी करवाकर घोषणा की, ''जब तक महिला सीट खाली नहीं करती, बस नहीं चलेगी। ''

तब जैसा कि स्वाभाविक ही है कई हैमरशोल्ड, कई ऊ थां, कई किसिंगर समझौता कराने के लिए आगे आए। इन शांति-प्रस्तावकों में अधिकांश वे थे जो सुंदरी किंवा युवती महिलाओं के आसपास बैठे थे। अंत में कंडक्टर की नैतिक जीत हुई और महिला को सीट खाली करनी पड़ी। यद्यपि उन्होंने सीट तभी खाली की, जब उन्हें बड़े सम्मान के साथ स्वयं कंडक्टर की सीट आफर की गई, जिसे उन्होंने निस्संकोच स्वीकार किया।

कुछ देर बाद पहला ठहराव आया। बस का इंजन किसी अफसर के दिमाग की तरह गर्म हो गया था। उसे शांत करने के लिए ठंडा पानी डाला गया। लगा, किसी नब्बे वर्ष के मंत्री को आक्सीजन दी जा रही हो।

कंडक्टर चलती बस से कूदकर बड़ी आत्मीयता के साथ सामने की दुकानों में घुस गया था। उसने चाय वाले को अखबार दिया, पान वाले को उसके चाचा का पत्र दिया और मूंगफली वाले को बताया कि शहर में मूंगफली के दाम बढ़ने वाले हैं। अब इतना तो अंधा भी देख सकता है कि कंडक्टर द्वारा किए गए ये तीनों काम मूलत: सूचना प्रसारण मंत्रालय के थे। सहृदय पाठकों को स्मरण ही होगा कि इसके पूर्व हमारा प्यारा कंडक्टर बस ठेलवाकर सहकारिता मंत्रालय का, शांति और व्यवस्था कायम कर गृह मंत्रालय का और निष्पक्ष निर्णय देकर कानून मंत्रालय का काम निःस्वार्थ भाव से कर चुका है। बस के-धीरे-धीरे ही सही-चलने से परिवहन मंत्रालय का काम तो अप्रासंगिक रूप से चल ही रहा था।

इस स्टापेज पर नींबू लदे। बस फिर झपक गई थी। जब उसे पत्नी की तरह कोच-कोचकर जगाया गया, तब गुर्राकर चल पड़ी। लगभग इसी के साथ नीबुओं की दुलाई को लेकर एक प्रेमपूर्ण लड़ाई प्रारंभ हुई। लड़ाई नीबू-स्वामी और कंडक्टर में थी। मुख्य सिद्धांत पर दोनों पक्ष एकमत थे कि ढुलाई सरकार द्वारा निर्धारित दर पर नहीं दी जाएगी, न ली जाएगी। दोनों पक्षों के पास अपने-अपने प्रमाण थे। व्यापारी बता रहा था, उसने कब-कब, किस-किस बस से इससे भी ज्यादा माल कम पैसों में ढोया है। वह कंडक्टर को अपने पूववर्ती कंडक्टरों से प्रेरणा लेने के लिए उत्साहित कर रहा था। कंडक्टर भी ऐसे अनेक उदाहरण दे रहा था जिनमें उसने इससे भी कम माल के और ज्यादा पैसे वसूल किए थे। दोनों पक्ष, बीच-बीच में, विपक्षी के प्रति अपना सहज प्रेम दर्शाते चल रहे थे। व्यापारी कहता था, ''तुम अपने आदमी हो, इसीलिए इतना दे रहा हूं। नहीं तो रेट इससे कम है।'' कंडक्टर का दावा था कि व्यापारी रोज का चलने वाला है, इसलिए वह लिहाज कर रहा है, वैसे कायदे से किराया ज्यादा बनता है।

फिर वे डाक्टर किसिंजर को मात कर गए। हमारे देखते-देखते उन्होंने कोई ऐसा गुप्त समझौता किया, जिसे हम सुनकर भी समझ न सके। व्यापारी ने समझौते के अंतर्गत कंडक्टर को नकद राशि के अतिरिक्त तीस नींबू भी दिए।

जरा सोचिए, देश में पहले ही कितनी ज्यादा मुद्रा फैल रही है। सभी चीख रहे हैं, 'मुद्रा-प्रसार कम करो।' ऐसी नाजुक स्थिति में यदि कंडक्टर तीस नींबू न लेकर नकद मुद्रा लेता तो क्या होता। मजबूरन सरकार को और नोट छापने पड़ते। मुद्रा पर अनावश्यक दबाव पड़ता। निश्चय ही इस समय कंडक्टर वित्त मंत्रालय के अवैतनिक सलाहकार के रूप में काम कर रहा था।

अगले स्टापेज पर, पूर्ववत पत्र बंटे, अफवाहें उड़ी, चायवाले की बेंच पर बैठकर कंडक्टर ने हिसाब किया। ड्राइवर को ईमानदारी के साथ उसका हिस्सा दिया और बस के कुली को अठन्नी बतौर इनाम दी। बस को अनंतकाल तक के लिए रुकी देख बहुत-सी सवारियां उतरीं, प्राय: सभी ने चाय पी। चाय वाले की बिक्री बढ़ी, जिसे उसने चाय का स्तर गिराकर संतुलित किया।

आपने गौर किया, यह सब क्या हो रहा था? हमारे प्यारे कंडक्टर ने प्रत्यक्ष रूप से अपनी, ड्राइवर की तथा कुली की और अप्रत्यक्ष रूप से चाय-पान वालों की आमदनी बढ़ाई थी। वह साफ-साफ गरीबी हटा रहा था। यह प्रधानमंत्री का काम था। जो यह बिना यश की कामना के पूरा कर रहा था।

बस रात भर जगी अभिसारिका-सी फिर सो गई थी। लोग उसे छेड़-छेड़कर फिर से स्टार्ट हो जाने के लिए पटा रहे थे। मैं दूर खड़ा कंडक्टर की कर्मठता पर मुग्ध हुए जा रहा था, कैसा अद्‌भुत व्यक्ति था। मेरे देखते-देखते वह सहकारिता, गृह, कानून, परिवहन, सूचना-प्रसारण, वित्त और प्रधानमंत्री के मंत्रालयों के काम पूरी दक्षता से पूरे करके दिखा चुका था।

अब, संभावनाओं का तो कोई अंत है नहीं। मैं जानता था, अभी वह कंडक्टर और न जाने कितने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दायित्व पूरे करेगा। मुझे स्पष्ट दिख रहा था, उसके कंडक्टरी थैले में बहुत-से, प्राय: सभी मंत्रालय बंद हैं। कई बार, जब थैला खोलकर मनचाही रेजगारी खोजता था, तब मुझे शक होता था, वह रेजगारी नहीं मौके के अनुरूप किसी उपयुक्त मंत्रालय की खोज कर रहा है।

उसके गुणों का कहीं ओर-छोर न देख, मैंने आंखें बंद कर मन-ही-मन उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया फिर आंखें खोलीं तो देखा, बस ठेली जा रही थी।

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(साभार - हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत)

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य / जैसे कोई और हो! / अशोक शुक्ल
हास्य-व्यंग्य / जैसे कोई और हो! / अशोक शुक्ल
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