हनुमान मुक्त की हास्य-व्यंग्य कथाएँ

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अनैतिक काम आज कल शहरों में मैं देखता हूँ कि लोग फ्लेटों में रहते हैं। कोई पांचवी मंजिल पर तो कोई दसवीं पर। सिर्फ फ्लेट आपका है, छत आपकी नह...

अनैतिक काम

आज कल शहरों में मैं देखता हूँ कि लोग फ्लेटों में रहते हैं। कोई पांचवी मंजिल पर तो कोई दसवीं पर।

सिर्फ फ्लेट आपका है, छत आपकी नहीं। यदि छत पर घूमने का मानस बनाओ तो छत पर पहुंचने में ही नानी सपने याद आ जाएं। लिफ्ट से आप वहां पहुंच भी जाओ तो छत पर घूमने की जगह ही नहीं। बिल्कुल सटी हुई, आसपास रखी पानी की टंकियां। नीचे देख लो तो वही हार्ट अटेक हो जाए।

नरेन्द्र कोहली ने अपने व्यंग्य सार्थकता में लिखा है कि एक दिन किसी फ्लेट में एक ब्रेसियर उडकर नीचे आ पड़ी थी और चौकीदार अपनी ईमानदारी में उसे ले जाकर प्रत्येक फ्लेट में जाजाकर पूछता फिर रहा था, ‘मेम साहब! यह बनियान आपकी है?’

मेम साहब ब्रेसियर को देखती और चेहरे पर झूठमूठ क्रोधित होने का नाटक कर चौकीदार को घूरती और दरवाजा उसके मुंह पर बंद कर देती। फटाक! बदतमीज चौकीदार!

ब्रेसियर को हाथ में लिए महिलाओं से कोई ऐसे सवाल करता है?

थोड़ी देर में सारी महिलाएं बालकनियों पर खड़ी होकर चौकीदार को देख रही होती कि कौन ब्रेसियर को स्वीकार करता है।

जब चौकीदार नीचे मिसेज सिंह के पास पहुंचता है तो वे झपट कर ब्रेसियर छीन लेती हैं और दरवाजा बंद कर देती हैं। चौकीदार बंद दरवाजे को अपने दांत फैलाकर चिढ़ाता हुआ लौट आता है।

इस प्रकार की स्थिति से चौकीदार को बचाने के लिए मैंने फैसला कर लिया कि फ्लेट में नहीं रहना है। मकान में कोई सुविधा हो या न हो, लेकिन कपड़े सुखाने की पुख्ता व्यवस्था होनी ही चाहिए।

आजकल मैं जिस मौहल्ले में रहता हूँ वहां सभी लोग मेरी जैसी मानसिकता के दिखाई देते हैं। सबकी ग्राउण्ड फ्लोर बनी हुई है। अच्छी खासी खुली छत है। लोगों को बालकनियों में से ताकझांक करने की आदत नहीं है। इसलिए ऊपर मंजिलें नहीं बनाई। सभी ने अपनीअपनी छतों पर मुंडेर में लोहे के पाइप लगवा रखे हैं। पाइपों से तार बांध रखा है। तार पर औसतन सुखाने वाले कपड़ों की संख्या के हिसाब से हुक टांग रखे हैं। तारों व हुकों का उपयोग कपड़ों को सुखाने के लिए किया जाता है। वैसे कपड़े धोने से लेकर, छत पर लाकर तार पर टांगने और सूखने के बाद नीचे ले जाकर कपड़ों की तह करने तक काम मेरी पत्नी ही करती है। लेकिन कभीकभी इनमें से कुछेक या सारे काम मुझे भी करने पड़ जाते हैं।

एक दिन मेरी पत्नी बाजार गई थी। घर पर मैं अकेला था। आकाश में बादल छा रहे थे ऐसा लग रहा था, बारिश होने वाली है। मैंने सोचा, चलो छत से कपड़े ले ही आते हैं। कपड़े भीग जाएंगे तो दिक्कत हो जाएगी।

मैं छत पर चला गया। आसपास की छतों पर देखा, कोई मुझे अपनी पत्नी के कपड़े ले जाता नहीं देख ले। मैंने धीरेधीरे कपड़ों पर लगे हुकों को हटाना शुरू किया। जैसे ही मेरी पत्नी के कपड़ों पर से हुक हटाने को मेरा हाथ वहां तक पहुंचा कि पास की छत से पैरों की चाप सुनाई दी। मिस्टर वर्मा नीचे से छत पर धमधम करते आ रहे थे। उन्हें देखकर मैं सतर्क हो गया। कपड़ों को छोड़कर छत पर घूमने का स्वांग करने लगा।

मुझे देखकर, वे भी थोड़े सकपकाए। बोले, ‘आज छत पर कैसे घूम रहे हो?’

मैं बोला, ‘नीचे बैठेबैठे बोर हो रहा था। सोचा छत पर थोड़ा टहल लेते हैं। आप छत पर कैसे?’

‘मैं भी वैसे ही आ गया।’

अब छत पर वे भी टहलने लगे हैं। आसमान पर बादल इधर से उधर आ जा रहे थे। अंधेरा सा छाने लगा। नीचे किचन में चाय का पानी खौल रहा था। मुझे अपना काम करना था। मैं नीचे लौटने का नाटक करता हुआ सीढ़ियों के पास ओट में आकर खड़ा हो गया। वहां से मुझे वर्मा जी की छत साफसाफ दिख रही थी लेकिन वर्मा जी को मैं दिखाई नहीं दे रहा था।

मेरे छत से हटते ही वर्मा जी अपनी छत पर टंगे तार से कपड़ों पर लगे हुकों को हटाहटाकर कपड़ों को इकट्ठा करने लगे। उनकी सतर्क निगाहे मेरी छत की ओर दौड़ रही थी। ऐसा लग रहा था वे लोगों की निगाह से बचकर कोई अनैतिक काम कर रहे हैं। कपड़ों को समेटकर वे तेजी से नीचे की ओर दौड़े।

उनके जाते ही मैंने भी अपना काम शुरू कर दिया। शेष बचे कपड़ों से हुक हटाकर उन्हें जल्दीजल्दी हटाना शुरू कर दिया। पत्नी के कपड़ों को अपने कपड़ों के बीच में रखकर गठरी सी बना ली। अगर अब वर्मा जी मुझे कपड़ों को नीचे ले जाते देख भी लें तो उन्हें पता ही नहीं चल सकता कि मैं पत्नी के कपड़ों को ले जा रहा हूँ।

छत पर हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई। वर्मा जी की सीढ़ियों से पुनः पदचाप सुनाई देने लगी। वर्मा जी छत पर आ गए। मैं अपना काम कर चुका था। वे मेरी ओर देख, मंदमंद मुस्काराने लगे। मैं भी उनकी ओर देखकर मुस्काराने लगा। जल्दबाजी में मिसेज वर्मा के अंतःवस्त्र वे छत पर ही छोड़ गए थे। मैंने एक निगाह उनकी छत पर डाली, एक निगाह अपनी छत पर डाली। कोई वस्त्र अपनी छत पर रह नहीं गया हो। बूंदाबांदी थोड़ी तेज हो गई। मिस्टर वर्मा कपड़े उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। मैं छत से सीढ़ियों के पास ओट में आकर खड़ा हो गया। मिस्टर वर्मा ने तुरंत अपनी पत्नी के वस्त्रों को उठाया और तेजी से नीचे की ओर दौड़ा। मैं भी नीचे लौट आया। किचन में चाय का पानी खौल रहा था।

वर्मा जी बने गांधी जी

एक समाचार पढ़ा। सरकार की नीतियों की प्रशंसा की गई थी और प्रशंसा करने वाले थे, मिस्टर पुरुषोत्तम दास गांधी। समाचार के पास ही एक विज्ञापन था, जिसमें पुरुषोत्तम दास गांधी को उनके जन्मदिवस की हार्दिक बधाई दी गई थी। बधाई देने वालों के नाम मोहन, रोहन, सोहन, गोहन इत्यादि थे। नामों को पढ़कर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि ये बधाई देने वाले कौन हैं और कहां रहते हैं। हाँ बधाई लेने वाले पुरुषोत्तमदास गांधी का पता अवश्य लिखा था। पता मेरे मोहल्ले का ही था। मेरे मकान से दोतीन मकान छोड़कर।

समाचार पढ़कर मेरा माथा ठनका। यह गांधी के खानदान का कौनसा नया अवतरण मेरे मोहल्ले में हो गया। वरना हिन्दुस्तान में जितने भी गांधी है उनकी संख्या अंगुलियों पर है। इसका नाम आज तक सुना नहीं।

गांधी नामधारियों से जानपहचान हो जाने मात्र से व्यक्ति फर्श से उठकर अर्श पर पहुंच जाता है, इसका मुझे मालूम था। मैं मोहल्ले के उस नएनए गांधी से मिलने अखबार में छपे पते पर चल दिया।

थोड़ा सा आगे बढ़ते ही तीसरे मकान के बाहर पुरुषोत्तमदास गांधी की नेम प्लेट लगी हुई थी। मैं चौंका, इस मकान पर पहले तो मिस्टर पी.डी. वर्मा की नेम प्लेट हुआ करती थी। आज अचानक नेम प्लेट पर पुरुषोत्तमदास गांधी। यह सब विचार करते हुए मैं स्वयं ही अपने आपको जवाब दे रहा था कि हो सकता है कि मिस्टर वर्मा ने, मिस्टर गांधी को यह मकान बेच दिया हो या मिस्टर गांधी इस मकान में किराए से रहने आए हो।

मैंने मकान के बाहर लगी कॉल वेल बजाई। मिस्टर वर्मा बाहर निकले। उनको देखकर मैं बोला, ‘वर्मा जी, मिस्टर गांधी यहीं रहते हैं।’ मेरी बात सुनकर वे मुस्कराए और मेरा हाथ पकड़कर अंदर ले गए। बोले, ‘यार, मैं ही मिस्टर गांधी हूँ। मैंने अपना सर नेम बदल दिया है। मुझे कल रात सपने में पता चला था कि मैं मोहनदास कर्मचंद के खानदान से हूँ।’

उसकी बात सुनकर मैं एक टक मिस्टर वर्मा के चेहरे की ओर देखने लगा। चेहरे पर मैं गांधी को ढूंढ रहा था। महात्मा गांधी नहीं तो देश की किसी भी पार्टी का कोई सा भी गांधी कहीं भी थोड़ा बहुत किसी कौने में चिपका सा मिल जाए। मैंने काफी गौर से उसके चेहरे को देखा। कहीं नहीं दिखा। चेहरा पूरी तरह वर्मा का दिख रहा था।

मिस्टर वर्मा ने गांधी जी के खादी पहनने के आह्वान पर आज बिल्कुल स्वच्छ, धवल, बेदाग, खद्दर के कुर्तेपायजामे पहन रखे थे। मैं कुर्ते के अंदर झांककर उसी तरह देखने लगा, जैसे किसी युवती के कपड़ों के अंदर लोगों की नजरें देखती है। मुझे वहां भी मिस्टर वर्मा की वही काली सी बदसूरत सी तोंद दिख रही थी। मैंने तोंद के अंदर भी देखने की कोशिश की लेकिन मुझे कहीं गांधी दिखाई नहीं दिया। बाहरभीतर सिर्फ वर्मा ही दिख रहा था। वर्मा ने नयानया खादी का पायजामा पहना था। शायद पायजामे का नाड़ा बांधने का अनुभव नहीं था और ना ही नाड़े की लम्बाई कितनी रखनी है इसके बारे में ही कोई तजुर्बा। नाड़ा नीचे घुटनों तक पहने कुर्ते से भी नहीं छिप रहा था।

मैंने वर्मा से कहा, ‘वर्मा जी, तुम्हे गांधी सर नेम नहीं लगाना चाहिए था। क्यों कि तुम्हे गांधी बनने का अनुभव नहीं है।’

वर्मा जी बोले, ‘ऐसी बात नहीं है। मैं सब सीख जाऊंगा। अनुभव कोई माँ के पेट से लेकर नहीं आता है। सबकुछ यहीं सीखने को मिलता है।’

‘लेकिन इस पायजामे के नाड़े को तो संभालो, यह बाहर निकल रहा है।’

वे बोले, ‘इसे मैंने जानबूझकर बाहर निकाला है। जब भी इसे खोलने की जरूरत हो तो तुरन्त नाड़े को पकड़कर सबसे पहले मैं खींच सकूं। इसलिए मैंने इसे बाहर तक लटका रखा है।’

‘इसको खोलने की कोई प्रतियोगिता होती है क्या?, जो तुमने यह व्यवस्था कर रखी है।’ मेरी बात सुनकर वे मुस्कराए और बोले, ‘प्रतियोगिता का तो मुझे पता नहीं लेकिन आगे बढ़ने के लिए यह बहुत आवश्यक है। मेरे राजनीतिक गुरु ने मुझे यह गुर दिया है।’

‘खैर छोड़ो, अच्छा यह बताओ, तुम पहले तो अपने नाम को संक्षेप में पी. डी. वर्मा लिखते थे और अब पुरुषोत्तमदास गांधी।

गांधी लगाने की बात तो समझ आती है लेकिन पुरुषोत्तमदास गांधी पूरा नाम लिखने का मतलब समझ नहीं आया।’

वे बोले, ‘इतना भी नहीं समझते, किसी भी संक्षेप में लिखे नाम के पीछे गांधी लिखा देखा है। सोनिया गांधी, राजीव गांधी, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, मेनका गांधी, राहुल गांधी, वरुण गांधी, मोहनदास गांधी...। सभी अपना पूरा नाम लिखते थे और उसके पीछे गांधी लगाते थे। मैं भी उन्ही के पदचिन्हों पर चल रहा हूँ। तुम्हे पता है आज सुबह से कितने ही फोन आ गए और तुम भी तो इसी गांधी नाम के फेर में यहां आए हो।’

मैं बोला, ‘बिल्कुल ठीक कह रहे हो, मैं भी गांधी नामधारी से जानपहचान बढ़ाने आया था, मेरे पुलिस में कुछेक मुकदमें चल रहे हैं। ठेके मिलने में परेशानी आ रही है। सोचा, मोहल्ले के गांधी से जानपहचान कर लूं। सभी रूके काम पूरे हो जाएंगे।’

हम आपस में बात कर ही रहे थे कि बाहर से पुरुषोत्तमदास गांधी की जयजयकार की आवाज सुनाई देने लगी। मिस्टर वर्मा के साथ मैं भी बाहर निकला। उन्होंने वर्मा के गले में मालाएं डाल दी। मैं यह सोचता हुआ अपने घर की ओर लौटने लगा कि काश मुझे भी कोई ऐसा ही कोई सपना आता और मैं भी अपना सर नेम बदल लेता।

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रचनाकार: हनुमान मुक्त की हास्य-व्यंग्य कथाएँ
हनुमान मुक्त की हास्य-व्यंग्य कथाएँ
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