नाटक समीक्षा : "सामाजिक मूल्यों पर हावी होता रुपया।" / वीरेन्द्र त्रिपाठी

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"कांचन रंग" प्रसिद्ध नाट्य रचनाकार शम्भू मित्रा की चर्चित हास्य नाट्य रचना है, जिसका मंचन जुझारू युवा रंगकर्मी व चबूतरा थियेटर पा...

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"कांचन रंग" प्रसिद्ध नाट्य रचनाकार शम्भू मित्रा की चर्चित हास्य नाट्य रचना है, जिसका मंचन जुझारू युवा रंगकर्मी व चबूतरा थियेटर पाठशाला के निर्देशक महेश देवा के निर्देशन में हाल ही में राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह , लखनऊ में किया गया।


खचाखच भरें हाल में जैसे ही पर्दा उठता है तो दिखाई देता है एक शहरी मध्यवर्गीय परिवार के घर के ड्राइंग रूम का दृश्य। इसी ड्राइंग रूम में समाज के असली चेहरे का चित्र खींचा जाता है। जहां आदमी की कीमत आदमीयत से नहीं बल्कि पैसे से आंकी जाती है। यह नाट्य कहानी पैसे की माया के बहाने समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करती है।


नाटक के शुरूआत में सामने आता है पहला पात्र 'पंचू'। पंचू गांव का भोलाभाला नवयुवक है।वह अपने गांव के रिश्ते से मौसा राधेगोपाल के घर इस उम्मीद से आता है कि उसके मौसा उसकी नौकरी लगवा देंगे और वह चार पैसे जोड़ लेगा।शहर आकर वह अपने मौसा के घर रहने लगता है।गंवई आवाज और अंदाज लिए पंचू अपने मुंहबोले मौसी-मौसा के घर में नौकर बन कर रह जाता है।पंचू घर का सारा काम मेहनत से करता और यदि उससे थोड़ी सी भी लापरवाही हो जाती या परिवार के किसी अन्य सदस्य द्वारा भी हो जाती तो उसे हर किसी के गुस्से का शिकार होना होता।केवल घर में काम करने आने वाली नौकरानी 'तारा' की हमदर्दी पंचू के साथ है।तारा कई घरों में काम करती है उसे दुनियादारी मालूम है इसलिए वह पंचू पर हो रहे अत्याचार से दुःखी है और पंचू को मौका मिलते ही समझाती है।घर का मालिक राधेगोपाल एक रिटायर्ड कर्मचारी है और उसकी आय का स्रोत पेंशन व किराये पर दिए कमरों का मिलने वाला किराया है।किरायेदार एक बंगाली बाबू 'बल्ली'है।घर का बड़ा बेटा 'उमेश ' फिल्मों से जुड़ा है तथा उसका सपना है कि उसके द्वारा लिखित कहानी पर सफल फिल्में बने।छोटा बेटा 'सुरेश' बेरोजगार है उसका सपना म्यूजिक एल्बम बनाने का है।घर की मालकिन एक कुशल गृहिणी है।


कहानी में मोड़ उस समय आता है जब एक दिन किरायेदार बल्ली राधेगोपाल जी के घर आता है और यह जानकारी देता है कि पंचू के नाम पचास लाख की लाटरी लगी है।इस दिन से पंचू के प्रति सबका व्यवहार बदल जाता है। पहले से ही अपने ऊपर होते अत्याचार के बावजूद पंचू अपने को नौकर नहीं मानता था,अब लाटरी की खबर के बाद वह नौकर न रहा।जमीन पर बैठने वाला पंचू को अब सोफे पर बैठाया जाने लगा।सभी उसकी खुशामद में लगे रहते।परिवार के हर सदस्य का पंचू के रुपयों को लेकर अपना सपना था।सभी लोग अपने ढंग से पंचू को समझाते ,उसे आदर देने लगे।यह सब नौकरानी तारा को खटकती थी।उसे मालूम था कि पंचू की यह आवभगत पंचू को मिलने वाले रुपयों के कारण है।एक दिन तो घर की मालकिन अपने पति राधेगोपाल से यह भी सलाह कर लेती कि क्यों न बेटी सुषमा की शादी पंचू से कर दी जाए।


बल्ली को यह बात पता चलती है कि पंचू के रुपयों के लिए सभी पंचू के पीछे पड़े है।सभी पहले उसका उत्पीड़न करते थे अब सब पंचू के रुपये हड़पने के लिए उसको सपने दिखा रहे।पंचू की आंख खोलने व सभी के पंचू के प्रति झूठे सम्मान का पर्दाफाश करने के लिए बल्ली उनके घर जा कर पंचू से कहता है कि तुम्हारे लाटरी के टिकट का नम्बर विजेता लिस्ट में नहीं,बल्ली के इतना कहते ही सबका पंचू के प्रति व्यवहार पूर्ववत हो जाता।जैसे ही पंचू का समान फेंक कर घर से निकलने को सब चिल्लाते है, तभी बल्ली सच्चाई से रूबरू कराता है कि लाटरी पंचू की ही लगी।सबकी आंखें खुली की खुली रह जाती है।इस प्रकार दुनिया का असली चेहरा सामने आ जाता है।


नाटक में कुल 9 पात्र है।पंचू का रोल अशोक लाल, नौकरानी तारा का रोल दीपिका श्रीवास्तव, मालिक राधेगोपाल के रूप में तारिक़ इकबाल व मालकिन की भूमिका अचला बोस तथा बेटी सुषमा का रूप श्रद्धा बोस ने निभाया।वही बड़े बेटे उमेश का किरदार महेश चंद्र कनौजिया ने व छोटे बेटे सुरेश के रूप में राकेश चौधरी रहे।चेतन व डाइरेक्टर के रूप में अभिनय आनंद प्रकाश शर्मा रहे।वरिष्ठ रंगकर्मी प्रभात कुमार बोस ने बल्ली का किरदार निभाया।


सभी ने दमदार अभिनय किया है। मालकिन के रूप में अचला बोस ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है।उनका आंगिक व वाचिक अभिनय दमदार रहा तो वही बल्ली का किरदार कर रहे प्रभात कुमार बोस के वाचिक अभिनय को दर्शकों ने जमकर सराहा।महेश देवा ने बड़े बेटे के रोल में अपनी अभिनय प्रतिभा का ठोस प्रदर्शन किया।पंचू का किरदार निभा रहे अशोक लाल के इर्द-गिर्द ही पूरी कहानी घूमती रही उनका हाव -भाव काबिले तारीफ रहा।


मंच संचालन कर रहे नवल शुक्ला ने अपने दमदार शैली से दर्शकों को नाटक की विषयवस्तु से अवगत कराया। जिससे दर्शकों का नाटक से जुड़ाव शुरू से ही स्थापित हो गया। दर्शकों में शुरू से अन्त तक उत्सुकता बनी रही। शब्दों व कथनों के बेहतरीन इस्तेमाल के कारण बीच-बीच में ठहाके लगे तो वही गंभीरता बनी रहती है। हास्य रस से परिपूर्ण यह नाटक न केवल दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करता है बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी खोल कर रख देता है।इस नाटक की कहानी का मूल विषय रुपयों - पैसों का सामाजिक मूल्यों पर हावी हो जाने को दिखाना है, इसके साथ ही समाज में व्याप्त कई विसंगतियां जैसे बेरोजगारी,दहेज,मूल्यहीनता के शिकार होते बच्चे आदि भी दिखाया गया है।

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नाटक : 'कांचन रंग'
रचनाकार: श्री शम्भू मित्रा
कार्यशाला निर्देशक :प्रभात कुमार बोस
सम्पूर्ण परिकल्पना एवं निर्देशन:महेश चंद्र कनौजिया 'देवा'

समीक्षक :वीरेन्द्र त्रिपाठी,लखनऊ
सम्पर्क :9454073470

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रचनाकार: नाटक समीक्षा : "सामाजिक मूल्यों पर हावी होता रुपया।" / वीरेन्द्र त्रिपाठी
नाटक समीक्षा : "सामाजिक मूल्यों पर हावी होता रुपया।" / वीरेन्द्र त्रिपाठी
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