प्राची - फरवरी 2017 / शोध लेख / राकेश भ्रमर की गजलेंः रेत के दरिया में अनुभव के मोती / गणेश चंद्र राही

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शोध लेख

राकेश भ्रमर की गजलेंः रेत के दरिया में अनुभव के मोती

गणेश चंद्र राही

क लेखक-कवि के भाव, चिंतन एवं संवेदनशीलता का सही पता उसकी रचनाएं ही दे सकती हैं, क्योंकि उसकी रचनाएं ही उनके व्यक्तित्व का आईना होती हैं, जिसमें जीवन के प्रति उसके सोच एवं दर्शन का प्रतिबिंब दिखायी पड़ते हैं. साहित्य को दर्पण संभवतः इसीलिये माना गया है. कहना न होगा लेखक एवं कवि राकेश भ्रमर हिंदी के उन चंद गजलकारों में शुमार किये जाते हैं जिनकी गजलें पाठकों को जल्द अपने असर में ले लेती हैं. उनकी गजलों से गुजरनेवाले पाठक न केवल अनुभव की ताजगी पाता है; बल्कि अपने आसपास के जीवन के प्रति नये सिरे से सोचने के लिये दिशा एवं दृष्टि भी. ये गजलें उन वैचारिक छवियों को भी अंकित करती हैं जिनको व्यक्ति ने जीवन में एक बार जीया है लेकिन समय की रफ्तार में उनको गहराई से उस वक्त महसूस नहीं कर सका.

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राकेश भ्रमर काफी लोकप्रिय गजलकार हैं. वैसे वह एक बेहतर कहानी एवं उपन्यास लेखक भी हैं. उनके पांच उपन्यास एवं आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. लेकिन गीतों से अपनी सृजन यात्रा प्रारंभ करनेवाले भ्रमर जी की प्रिय विधा गजल ही है. यही कारण है उनकी न केवल देश की पत्र पत्रिकाओं में गजलें छपती रही हैं और पाठकों के बीच सम्मान पाती रही हैं बल्कि उन्होंने अब तक लगभग 500 गजलें लिखी हैं. उनकी गजलों के चार संग्रह भी आये हैं. ये हैं ‘जंगल बबूलों के’, ‘हवाओं के शहर में, ‘रेत का दरिया’ और ‘शबनमी धूप’.

इनकी आरंभिक गजलें कॉलेज जीवन में लिखी गयी हैं. यह जीवन रोमांटिक दुनिया में डूबने, इश्क, आशिक एवं ख्वाब बुनने का होता है. यही कारण है कि इस काल में उनकी गजलें रूमानी भाव बोध से लबरेज हैं. इसका एक कारण स्वयं राकेश भ्रमर बताते हैं. वह है उनके जमाने में सुप्रसिद्ध शायर दुष्यंत कुमार की गजलों की धूम मचना. ‘रेत का दरिया’ गजल संग्रह की स्वीकृति में कहते हैं कि- ‘मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि गजल लिखने का ख्याल मेरे मन में स्व दुष्यंत कुमार की गजलें पढ़ने के बाद आया था. सत्तर के दशक में कहानीकार कमलेश्वर के संपादन में सारिका का एक विशेषांक दुष्यंत कुमार पर केंद्रित था. आरंभ में महादेवी वर्मा एवं नीरज के गीतों ने भी उन्हें काफी प्रभावित किया था. पेशे से केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो में पुलिस अधीक्षक/वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के रूप में कार्य करते हुए साहित्य की निरंतर साधना राकेश भ्रमर करते रहे. आज भी उनकी लेखनी थमी नहीं है.

यह सही है कि दुष्यंत कुमार ने हिंदी को उर्दू प्रभाव से मुक्त हिंदी को अपनी जाति की गजल दी है. एक नये तेवर, भाषा की अलग बुनावट, भावबोध, चिंतन एवं दर्शन के स्तर पर उर्दू की गजलों से कहीं से मेल नहीं खाता. दरअसल दुष्यंत कुमार ने हिंदी में कैसी गजल लिखी जा सकती है इसका शउर एवं शैली दी. गजल साकी, प्याला, इश्क, महबूब, आशिक जैसे रूमानी भावबोधों से हटकर अलग हो गयी है. ‘‘पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये’’ जैसी प्रगतिशील एवं यर्थाथबोध से लबरेज गजलें हिंदी के मंचों, सभाओं एवं संगोष्ठियों से सुनाई जा रही थीं. ये गजलें किसी परंपरा में फिट नहीं बैठती थीं.

राकेश भ्रमर पर दुष्यंत कुमार की गजलों का व्यापक प्रभाव है. एक तरह से भ्रमर जी ने दुष्यंत की गजलों को पढ़ते हुए जवानी गुजारी है. यही कारण है उनकी गजलों में रोमांटिक भावनाओं के साथ ही जीवन के यथार्थ का संतुलन दिखायी पड़ता है. भ्रमर जी एक जगह कहते है कि ‘जीवन मैंने जो देखा, भोगा, सुना और समझा, वह गजलों की शक्ल में प्रस्तुत किया है. अगर यह मेरा भोगा हुआ यथार्थ है, तो दूसरे के आंसुओं का खारा पानी भी है, जो किसी न किसी तरह से मेरे हृदय को मथता रहा है. यह मस्तिष्क का सागर मंथन है. इस मंथन से जो मोती निकले हैं वह सब आपके सामन परोस रहा हूं.’ उनके लिये कभी-कभी व्यक्तिगत पीड़ा अधिक मर्मांतक सामाजिक पीड़ा होती है. राकेश जी विचारों में मानवीय संवेदना एवं यथार्थ सोचवाले गजलकार हैं. इनकी संवेदना का विस्तार गांव शहर से महानगर तक है. जीवन के कई ऐसे चित्र इन गजलों में उकेरे हैं जो उनकी सूक्ष्म जीवन दृष्टि का परिचय देती है.

अपने समय और समाज के साथ देश की परिस्थितियों के प्रति जागरूक राकेश भ्रमर ने जीवन को घेरनेवाले परिवेश के अंदर व्यापक कुरीतियों, आर्थिक विषमताओं, बेरोजगारी, गरीबी, आंतक, हिंसा, सांप्रदायिकता, पिछड़ेपन, गैर जिम्मेवार व्यवस्था, राजनीतिक स्वार्थ जैसे अनेक असंगतियों एवं जीवन विरोधी मुसीबतों को बेबाक ढंग से अपनी जगलों के माध्यम से पेश किया है. उनके अनुभव एवं संवेदना गजलों को पढ़ते वक्त सहज रूप से जीवन के अंग बनते चले जाते है. हां, ये गजलें चौंकाती एवं चमत्कार नहीं दिखाती हैं, बल्कि जीवन, समाज एवं देश में क्या चल रहा है, उसकी ओर पूरी शक्ति से संकेत करती हैं. हमारे विचारों को कुछ नया सोचने के लिये बल देती हैं. हर गजल में एक बदलाव की चेतना प्रवाहित नजर आती है. यथास्थिति को तोड़ती है.

मनुष्य इतना समाज एवं व्यवस्था की रचना करके स्वयं निर्वासित जीवन जीये, उसका हृदय एक दूसरे की जिंदगी से अलग-थलग रहे तो सामाजिक समरसता कैसे बचेगी. ग्रामीण सभ्यता की अगली कड़ी के रूप में शहरी एवं महानगरीय सभ्यता का देश एवं दुनिया में उभर कर आना निश्चित रूप से मनुष्य की महान उपलब्धि कही जा सकती है. लेकिन इस शहर में जीवन परेशान है. यहां व्यक्ति का जीवन बिलकुल अकेला पड़ गया है. कदम कदम पर मुश्किलें हैं, भीड़ है और इसके बीच जिंदगी खौफ खाती सी दिखती है. लोग सपने देखते हैं लेकिन उनके सपने इसलिये नहीं फलते-फूलते कि उन्हें मुकम्मल जमीन एवं मौसम नहीं मिलता है.

सबसे बड़ी बात यह है कि जब इंसान से इंसान का दिल जुदा रहेगा तो उसकी जिंदगी परेशान रहेगी. भौतिक सुविधाओं एवं उपलब्धियों से हृदय की अपेक्षा पूरी नहीं होगी. यह हमारी चेतना को भोथरा कर उपभोग की वस्तु में बदलने की अहम भूिमका निभाती है. संभवतः इन परिस्थितियों को भांप कर ही राकेश भ्रमर ने अपने समय में जीने वाले लोगों की पीडा़ इन पंक्तियों में पिरोया है। एक नमूना देखें-

‘ये शहर परेशां और कुछ थका थका सा है.

आदमी दिलों से इस कदर जुदा जुदा सा है.’

और आगे कहते है-

‘आसमां मिला नहीं जमीन भी तले नहीं,

किस तरह अधर में आदमी टंगा टंगा सा है.’

आजादी के बाद देश की सुविधाविहीन लोगों की जिंदगी एक भटकती हुई एवं लटकती हुई जिंदगी है, जिसके आगे कोई लक्ष्य नहीं दिखायी पड़ता है. और न ही उसे अपनी जमीन पर टिके रहने का भरोसा यह तंत्र दे पा रहा है. एक तरह से विस्थान का दौर पूरे देश में चल रहा है. शहर उसके जीवन से प्यार, स्नेह एवं मानवीय गरिमा सब कुछ छीन रहा है.

जिंदगी की बस्तियां बनती रही हैं. फिर बन बन उजड़ती रही हैं. एक जगह व्यक्ति टिक कर जीने का सपना आज पूरा नहीं कर पायेगा. पहले गांवों में लोग सदियों तक पीढ़ी दर पीढ़ी जी लेते थे. उनके खानदान की गिनती होती थी. लेकिन आज पूंजीवादी दौर के इस विखंडनवादी समय में लोग रोजी रोटी की जुगाड़ में अपने माता पिता एवं भाई-बहन की तरह प्यारा गांव घर-आंगन को छोड़ कर हजारों किमी दूर स्थित दैत्याकार शहरों में आशियां बना कर जी रहा है. यह गांव के जंगल से अधिक भयावह जंगल है. जहां रिश्तों का अनजानापन अधिक है. लोग यहां सबसे नजर बचाकर इसलिये जीता है कि उसके हालात जाहिर न हो जायें. दूसरे के आस पर जीवन जीने की आदत बन गयी.

कवि कहता है- ‘कहां था आशियां अपना कहां आकर बसे हैं हम/नजर सबकी बचाकर इस बियाबां बसे हैं हम.’ और उसके आगे ‘नजर आई नहीं अब तक हमें तो मंजिलें अपनी/पराई आस लेकर इस चमन में आ बसे हैं हम.’ ऐसी स्थिति एक ऐसे व्यक्ति की होती है जिसका अपना कोई स्थायी आधार नहीं होता है. एक प्रकार से बंजारा जीवन जीना जैसे उसकी फितरत बन गयी है.

राकेश भ्रमर ने जिंदगी को बहुत गहरायी से देखा है और समझा है. उनके पास एक स्पष्ट एवं पारदर्शी दृष्टिकोण है. व्यक्ति जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना उफ् तक न करते हुए सहता है. उसके भीतर तकलीफों की आग जलती रहती है. सच्चाई उसके पास होती है लेकिन उसका चेहरा कभी सामने आने नहीं देना चाहता है. आज हमारा समाज छद्मवेशी हो गया है. लोग बहुरूपिये की तरह असली चेहरे को छुपा लेना चाहते हैं. जिन पर भरोसा किया जा सकता है. वहीं मुखौटों में जीता है. आज मनुष्य की ऐसी दशा क्यों हो गयी है. बदलते समाज एवं राजनीति जीवन में छल, छद्म एवं झूठ का बोलबाला क्यों बढ़ता जा रहा है. क्या एक इंसान अपने दिल की बात नहीं कह सकता. आदमी को मुखौटावाला जीवन जीने के लिये कौन विवश करता आ रहा है. यह एक दो दिन की बात नहीं है. कवि आदमी को हमेशा एक मुखौटाधारी के रूप चिह्नित करता है. जो जिंदगी के दर्द का घूंट पीता आ रहा है. वह हृदय से आजाद होना चाह रहा है. लेकिन देश, समाज एवं व्यवस्था उसे खुशी के दिन देखने नहीं दे रहे हैं. बस अपने आपको एक मुखौटा के अंदर समेट कर जिंदगी के विस्तार को रोक रहा है- ‘आदमी नकली मुखौटों पर सदा जीता रहा/जिंदगी के घूंट कड़वे वो सदा पीता रहा.’ यह आदमी कौन है. इसके पीछे देश की अंधी सियासत ही अधिक जिम्मेवार है- ‘हम सियासत के अंधेरे में जिये हैं/जाम कड़वे इस व्यवस्था के पिये हैं.’ वहीं समाज का एक वर्ग सांप बन कर जीता रहा है. और वह जीवन भर समाज को केवल विष देता रहा है- ‘सांप बन कर आदमी जीता रहा/जिंदगी भर विष वमन करता रहा.’ मानव होने का हक इसी तरह अदा करता रहा है आदमी.

राकेश भ्रमर की गजलें जिंदगी की ऐसी तल्ख सच्चाइयों को सामने लाती हैं कि उन पर विचार करना जरूरी हो जाता है. विभिन्न धर्म, जातियों एवं संप्रदाय वाले इस विशाल देश में सियासत ने ऐसी खून की होली खेली है जिससे मानवता के चेहरे पर अनगिनत रक्त के धब्बे पड़े हैं. हिंसा और रक्तपात से मानव को मुक्ति दिलाने वाला अहिंसा का वैश्विक स्वर इसी देश के कंठों से निकला था. प्रेम एवं करुणा के पाठ पढ़ानेवाले हमारे रहनुमां कब और कैसे हिंसा के पुजारी हो गये यह देश में होनेवाले आजादी से लेकर अब के दंगों से जाहिर हुआ. मानवता को शर्मशार करनेवाले लोमहर्षक नजारे बार बार देखे गये हैं. जैसे जीवन का अब समाज में कोई मूल्य न रह गया हो. उनके जुर्म के खिलाफ बोलना भी आज खतरे से खाली नहीं रह गया. अन्याय एवं किसी भी अमानवीय कृत्य के विरोध में आवाज उठाने का साहस जवाब दे गया है. ऐसी भीषण एवं भयावह परिस्थिति का निर्माण किसी और ने नहीं बल्कि देश के सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक रहनुमाओं ने किया है. हिंसा फैलाने एवं जीवन को नष्ट करने पर कोई सजा मुकर्रर नहीं हो सकती है.

जब ऐसी घातक स्थिति चारों ओर दिखायी दे तो कोई संवेदनशील कवि की कलम भला कैसे खामोश रह सकती है. भ्रमर जी कहते है- ‘रहनुमा ही बन गये हैं आज हिंसा के पुजारी/जुर्म उनके देखते क्या फोड़ दीं आंखें हमारी.’ और इन रहनुमाओं ने जीवन के सामने ऐसे मंजर पैदा किये कि- ‘एक दिन कुछ लोग आये कह गये आजाद हैं हम/आंख खोली तो नजर आयी नहीं बस्ती हमारी.’ यह यथार्थ किसी भी संवेदनशीन इंसान को हिला देनेवाला है. सांप्रदायिकता का जहर मंदिर, मस्जिद एवं धर्मग्रंथों के नाम इतना फैला हुआ है कि उसका विकृत चेहरा जब भी याद किया जाता है तो रूह कांप जाती है. देखें इस पंक्ति में- ‘मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में बोल रहे हथियार/यहां धरम का नमा डुबोकर लोग बने हैवान.’ वैज्ञानिक चेतना और नये ज्ञान विज्ञान का कोई मोल न रहा.

यदि हम विकास की बात करें तो देखें कि आजादी के बाद एक वर्ग विशेष ढेर सारी सुविधाओं को हथिया कर मालिक बन बैठा है. पाश्चात्य जीवन शैली ने उसके जीवन को आकर्षित किया है. शानदार जीवन जीने के लिये अनैतिक तरीके से धन संग्रह करते हैं. दफ्तरों में बाबू लोग रिश्वत के पैसे से अपने घर को इंद्रलोक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. देश विदेश की गाड़ी, जमीन पर लाल गलीचा, मेज, कुर्सी, आलमीरा, सुविधा और विलासिता के सामानों से घरों को सजा रहे हैं. ये अफसर कर्मचारी एवं चपरासी इतने स्वार्थी एवं निडर हो गये हैं कि उनके पद चले जाने की भी चिंता नहीं है. खाओ, पीओ और मौज करो के हिंदुस्तान के नागरिक हैं ये. गरीब जरूरतमंदों से काम के बदले रिश्वत लेते हैं. यह पूरे भारत की शासन व्यवस्था की स्थिति है. नीचे से लेकर ऊपर तक चापलूसों एवं कामचोरों की एक फौज तैयार है. इसे सरकारी धन का गबन करने वाला माफिया कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इस बाबू वर्ग का पर्दाफाश करनेवाले भ्रमर जी की ये पंक्तियां स्मरणीय हैं- ‘दफ्तर में बैठा है बाबू जुबां न खुलती प्यारे/मुट्ठी गरम करो तो बोले ऐसा है इंसान.’ और उनके हरामीपन की इंतिहां यहां देखें- ‘दरी, गलीचे, मेजें-कुर्सी, अलमारी औ’ गाड़ी/घर में सजा हुआ है उनके दफ्तर का सामान.’ कामकाज की उन्हें कोई चिंता नहीं है. अंग्रेजों के जमाने के बाबूवाद तंत्र के जहरीले कीड़े के सिवाय कोई कुछ नहीं हैं. आजादी के बाद सरकारी महकमों की जिंदगी में जो आशातीत खुशहाली आयी है उसका एक कारण है- जनता के विकास के नाम पर सरकारी राशि की लूट. घोटाला, हवाला एवं कमीशनखोरी से शासन एवं सत्ता पर बैठे अधिकारी, कर्मचारी एवं सत्तासीनों के घर समझें कि रोज दिवाली है.

लोगों ने जीवन की प्राथमिकता बदल ली है. मानवीय गुणों को त्याग कर बर्बरता को मानो गले लगा लिया है. चारों ओर बढ़ती इंसानों की दरिंदगी देख कर इतिहास कांप रहा है. सहयोग, प्रेम एवं चेतना की उन्नति की जगह एक दूसरे का खून पीने की दौड़ में शामिल हो गये हैं लोग. सामाजिक बदलाव जीवन से कटा हुआ सा लगता है. समाज उसी व्यक्ति को सर आंखों बिठाता है, सम्मान देता है जिसमें मानवीय गुण हैं. सत्य असत्य के फर्क को समझता हो. लेकिन जो व्यक्ति अनैतिक कार्यो द्वारा धन संग्रह में लगा है और इसमें आनेवाली इंसानी बाधाओं को नष्ट करना धर्म समझता है तो ऐसे इंसान का कौन सा ईश्वर. ईश्वर भी एक गुण है जिसे मनुष्य ने हजारों लाखों सालों के बाद खोज निकाला है. इसी से उसकी पहचान पशुओं से भिन्न श्रेणाी में होती है.

ऐसे हिंसक मानव चरित्र का राकेश भ्रमर ने बड़े साहस एवं मानो इस शेर में दर्ज किया है- ‘खून पीता है जो इंसान का इंसां होकर/ऐसे इंसान का कोई खुदा नहीं होता.’ वहीं दूसरी ओर यह एक सच्चाई है कि- ‘अपनी तारीख से कोई जुदा नहीं होता/खुद को बदले भी तो इंसा खुदा नहीं होता.’ कवि इस शेर के माध्यम से बड़ी बात कहना चाहता है. यहां जीवन का साफ दर्शन भी झलकता है. दर्शन है कि मनुष्य को हर कीमत पर मनुष्य बने रहना है. इसी मनुष्यता में उसकी गरिमा, ऊंचाई एवं जीवन का सौंदर्य है. इंसान के लिये पशुता एवं खुदापन दोनों अतिरेक है. यही से इंसान अपनी संवेदना एवं प्रेम को पहचान सकता है.

समाज एवं राष्ट्रीय विकास में व्यक्ति के श्रम, बुद्धि एवं विवेक की अहम भूमिका होती है. इसे दरकिनार कर न तो किसी समाज एवं राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं और न ही जीवन के विकास की. लेकिन विकास चाहे सामाजिक हो या मानसिक दोनों ही रूपों में एक स्वथ्य एवं स्वच्छ वातावरण चाहिये. आज हर व्यक्ति जीवन में खुशी एवं सुख की चाह में दिन रात मेहनत कर रहा है. भ्रष्ट व्यवस्था के जंजाल में उसकी जिंदगी इस तरह उलझ गयी है कि उसे रास्ता नहीं दिख रहा है. लोगों की भी कैसी बिडंबना है कि साथ-साथ चलते हैं, हंसते हैं, गाते हैं एवं सहयोग भी करते हैं फिर भी उनकी नीयत एक जगह जाकर जीवन विरोधी हो जाती है. और व्यक्ति को अपना सा लगनेवाला वह इंसान उसके सपनों के पंखों को तोड़नेवाला साबित होता है.

करोड़ों गरीब बेसहारों की जिंदगी में उड़ान भरने का हौसला है. जीवन को निम्न स्तर से ऊपर उठाना चाहते हैं. लेकिन जब कभी भी वह ऐसा करना चाहते हैं उनके खिलाफ हवा बहने लगती है. उनकी इ़च्छाएं, स्वप्न, इरादे सब धूल में मिलने लगते हैं. सुख और खुशी पर वर्चस्व ने ही कुछ लोगों के जीवन में ऐसी अमानवीय परिस्थति पैदा की है.

राकेश भ्रमर ने अपनी गजलों में जीवन के ऐसे दर्द एवं पीड़ा को सुरक्षित स्थान दिया है. जीवन के पीछे से झांकती निर्बल लोगों की ख्वाहिश को आकार देने का काम यहां करते हैं- ‘ख्वाहिशें थीं कि परिंदों की तरह उड़ते हम/हवा खिलाफ थी, उसने हमें उड़ने न दिया.’ आज भूख, गरीबी एवं मारक स्थितियों से लोग देश में जूझ रहे हैं. उनके खिलाफ परिस्थितियों को कैसे मोड़ा जाता है, देश को अपनी मुट्ठी में दबाये हुए लोग अच्छी तरह जानते हैं. ऐसी हौसलापस्त करने वाली व्यवस्था में लोगों को एकजुट होकर परिस्थितियों से लड़ते रहने और अपने हौसले को कभी न मरने देने का कवि साहस देता है. जीवन में आने वाली विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना आंतरिक शक्तियों से ही संभव है. अपनी आस्था, विश्वास, साहस, धैर्य, दृढ़ता एवं आत्मबल को हर कीमत पर बचाना होगा. नये समाज एवं दुनिया को गढ़ने के लिये ये मौलिक ताकत का काम करेंगे.

कवि जीवन पथ पर चलनेवाले पथिक को उत्साहित करते हुए कहता है- ‘लक्ष्य के पहले न मन भटके तुम्हारा/ मन की डोरी थामकर चलते रहो तुम.’ और उसके आगे- ‘आस्था विश्वास की डोरी न टूटे/मंजिलों की ओर नंगे पग चलो तुम.’

राकेश भ्रमर की गजलें अनुभूति के धागे से बुनी गयी हैं. इनमें मनुष्य का जीवन के प्रति गहरा अनुराग है. इस अनुराग का रंग प्रेम है. प्रेम के प्रति समर्पण है. जैसा कि हमने पहले ही कहा था कि भ्रमर जी का आरंभिक जीवन रोमांटिक रहा है. इस दौर में इन्होंने प्रेम में डूबी गजलें खूब लिखी हैं, जो ‘हवाओं के शहर में’ और ‘जंगल बबूलों के’ में संग्रहीत हैं. इन गजलों में प्रेम की विविध छवियां अंकित हुई है. त्याग है, प्रेमिका का स्मरण है, आलिंगन का बोध है तो जीवन को उदात्त रूप में देखने की प्रेमी दृष्टि है. मांसलता की जगह प्रेम की सूक्ष्म दृष्टि है जो जिंदगी के मानवीय संबंधों के टूटने से बचाती है. दिल के करीब उसे ले जाती है. भावनाओं का कहीं ज्वार है तो कहीं एकांत में मंथर गति से चलनेवाली सरिता. प्रेम से पगी गजलें मन को छूती हैं. मन भी ऐसे भावों के पीछे दौड़ने लगता है. यहां इस नमूने को देखा जा सकता है- ‘चांदनी रात नहीं वो तुम्हारा चेहरा था/मेरे हाथों में कभी एक चांद ठहरा था.’ उस प्रेमिका का चेहरा कैसा था- ‘खिले गुलाब सा चेहरा, चमकती धूप से गेसू/हसीन वक्त में उलफत का दौर गुजरा था.’

फूल से दिल में प्रेम की आग लेकर चलनेवाले कवि हैं राकेश भ्रमर. उनको अपने प्रेम की इस आग पर अखंड विश्वास है. इसका सामना करनेवाले कम ही लोग होते हैं. हर कोई अपना दामन बचाना चाहता है. खतरों से खेलना उनकी जिंदगी की किताब में नहीं लिखा है. जिस समाज और दुनिया में हम जीते हैं, वहां जीने के लिये कई बातों पर ध्यान देना पड़ता है. लोग जिंदगी की बुलंदी तो कोई अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के पीछे लगे हैं. लेकिन यह भी एक सच है कि यदि सभी लोग संकीर्ण दायरे में ही जीते रहेंगे तो आगे की राह कठिन हो जायेगी. और उसे इस अंजुमन में बतानेवाला कोई नहीं है. यदि बताने की किसी को चिंता और बेचैनी है तो बस कवि को ही. उसे मानवता की रक्षा करनी है. उसके पास जीवन की दूर-दृष्टि है. वह मानव जीवन का अहित नहीं चाहता है.

कवि कहता है- ‘तमाशा देखनेवालों उजाले साथ ले जाना/सहर का रास्ता तुमको दिखाने कौन आयेगा.’ और आगे कहता है- ‘बुझा दो ये चिरागां अंजुमन में कौन आयेगा/दिलों की आग से दामन जलाने कौन आयेगा.’ और अंत में- ‘खड़े हैं जिस जगह पर हम वहीं है इंतिहा अपनी/यहां से और आगे साथ देने कौन आयेगा.’ बड़ी ही दमदार सीख है. दरअसल भ्रमर जी ने जीवन को घेरनेवाली उन तमाम परिस्थितियों को गजल का लक्ष्य बनाया है जिससे व्यक्ति के लिये जानना जरूरी है.

किसी की जिंदगी कब एकाकी होती है. कब उसके चारों ओर सन्नाटा सांय सांय करता है. जब व्यक्ति के जीवन में प्रेम नहीं रहता या फिर जिससे प्रेम किया उसका साथ दूर तक नहीं मिलता. ऐसे घायल मन की दशा विचित्र होती है. जिंदगी का दूसरा नाम प्रेम है. उसकी खुशी में दुनिया सुंदर लगती है. और यदि वही रूठ जाय तो फिर कौन बनेगा सहारा. ऐसे में व्यक्ति अकेला होकर किसी भीड़ का अंग बन जाता है. समाज के लोगों से वह उपेक्षित हो जाता है. विकास की जलधारा में व्यक्ति के निजी जीवन एवं सामाजिक जीवन दोनों स्तरों पर मिलन एवं बिछुड़न का संताप भोगना पड़ा है. लेकिन जिंदगी के अंदर से ही मौत को चुनौती देने की शक्ति पैदा होती है. मौत से घबराती नहीं है बल्कि उसे न्यौता देती है- ‘दर्द का तनहाइयों से गुप्त समझौता/मौत को देने चले हैं आज हम न्योता.’ जीवन में असंगतियां एवं विसंगतियां हैं. आदमी अपनी पहचान के लिये संघर्ष तो खूब करता है लेकिन यह समाज और विषैले संबंध उसको अंदर से खोखला बना देते हैं.

राकेश भ्रमर अपनी गजलों में पाठकों को रोने का अवसर कम देते हैं. प्यार, बिछुड़न, गम, आंसू एवं यादें ये सब जीवन के सिच्युऐशन हैं. इनका प्रेम निजी होकर भी संपूर्ण मानवीय जीवन, प्रकृति एवं सृष्टि के साथ बंधा हुआ प्रेम है. इन्होंने अपने प्रेम-खजाने को इन गजलों पर दिल खोलकर लुटाया है. इनके व्यक्तित्व में उदारता एवं मानवीय संबंधों को जीने की अदभुत चाह है- ‘अपनी आंखों में मेरे ख्वाब सजाती होगी/रात सीने में मेरी याद सुलाती होगी.’ और आगे- ‘मत छुओ बूंद है शबनम की सूख जायेगी/किस तरह धूप से वो खुद को बचाती होगी.’ इसलिये मैं कहता हूं कि भ्रमर की गजलें दुष्यंत की गजलों की याद दिलाती हैं. इन्होंने दिल से गजल लिखी है. इसमें इनका हृदय बोलता है. सीधी सरल प्रेम अनुभूति जीवन के अनुभव में घुलने में देर नहीं लगती. यही कारण है कि इनकी गजलें इतनी जल्द लोकप्रिय हो गयी हैं. पाठकों को ऊबने नहीं देती है इनकी गजल; बल्कि हृदय खींच लेती है अपने भाव सौंदर्य से.

यदि राकेश भ्रमर की सभी गजलों पर नजर दौड़ाएं तो निश्चित रूप से कई गजलें गीत के करीब हैं. इन गजलों में एक केंद्रीय भाव का दर्शन होता है. वह सिर्फ गजल का फार्म भर अपनायी हुई हैं. पांच सौ गजलों में कई गजलें काफी कमजोर भी हैं. फिर भी पढ़ने से मन को सुख मिलता है. भ्रमर जी हिंदी गजलों की दुनिया में अब किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं. अन्य विधाओं के साथ ये गजल को खूब मांज रहे हैं. दो सौ गजलों का एक नया संग्रह आया है. यह उनके निरंतर साहित्य साधना का प्रतिफल है. उनकी लेखनी में धार है और बेहतर समाज निर्माण की दृष्टि. और यह समाज निर्माण अकेले संभव नहीं है. इसके लिये लोगों का साथ चाहिये. परिवर्तनकारी शक्तियों को साथ लेकर चलना कवि को अभिप्रेत है, क्योंकि ऐसे में मजिल तक जाने में राह सुगम होती जायेगी. कठिनाइयों को बांट लेंगे.

कवि की यह ललकार- ‘आ जाओ सूनी राहों पर कुछ देर हमारे साथ चलो/यह राह सुगम हो जायेगी, मंजिल तक मेरे साथ चलो.’ एक महान लक्ष्य की ओर है. हर किसी का साथ एक सामूहिक बदलाव के लिये ऐतिहासिक निर्णय है. इस तरह राकेश भ्रमर की रचनाधर्मिता मनुष्यता को बचाते हुए नये मानव एवं नये समाज का स्वप्न भी है.

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सम्पर्कः ग्राम डुमर, पोस्ट जगन्नाथ धाम, जिला हजारीबाग -825317 (झारखंड)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: प्राची - फरवरी 2017 / शोध लेख / राकेश भ्रमर की गजलेंः रेत के दरिया में अनुभव के मोती / गणेश चंद्र राही
प्राची - फरवरी 2017 / शोध लेख / राकेश भ्रमर की गजलेंः रेत के दरिया में अनुभव के मोती / गणेश चंद्र राही
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