ग धा बिरादरी में यह बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी कि इंसानों के चुनाव में उनका नाम जान-बूझकर घसीटा गया है. इस बात को लेकर गधा बिरादरी मे...
गधा बिरादरी में यह बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी कि इंसानों के चुनाव में उनका नाम जान-बूझकर घसीटा गया है. इस बात को लेकर गधा बिरादरी में खासा रोष व्याप्त था. कुछ गरम खून वाले युवा गधे तो क्रांति-व्रांति जैसा कुछ करने के मूड में नजर आ रहे थे. वे बहुत गुस्से में थे. उनके तेवर बड़े ही तल्ख थे. एक तो दिन-रात इंसानों के लिए ‘गधा-हम्माली’ करो. और फिर ऊपर से उनकी राजनीति का ‘इश्यू’ भी बनो. इस दोहरी मार से वे पहले ही आजिज थे. तिसपर ये गधा-पुराण घट गई थी.
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कुछ युवा गधों ने इस ज्वलंत मुद्दे पर खुली-चर्चा करने के लिए तत्काल गधा-बिरादरी की एक आपात बैठक तलब कर डाली. इस बैठक में युवा-तुर्क गधों के साथ-साथ कुछ वरिष्ठ किस्म के समझदार गधे भी आमंत्रित थे. जिन्हें सभी युवा गधे ‘सर-सर’ कहकर संबोधित कर रहे थे. अब ये बात अलग है कि उम्र-दराज गधों को उनके ‘सर-सर’ वाले संबोधन को लेकर गहन आपत्ति थी. उनका स्पष्ट मत था कि ‘सर’ संबोधन से गधा-प्रजाति के गधापे पर इंसानों वाली असमानता बोधक छाप पड़ सकती है. जो आगे चलकर विकास-क्रम में उन्हें इंसान में तब्दील कर सकती है. यह बात उनके लिए किसी मान-हानि से कम नहीं थी. वे अनुभवी थे, अतः अतिशय सावधान थे. बैठक के प्रारंभ में ही वरिष्ठ गधे इस बात की आपत्ति भी दर्ज करा चुके थे कि कोई भी युवा गधा उन्हें भूलकर भी ‘सर’ संबोधित नहीं करेगा. सारे युवा गधों ने इस बात पर सामूहिक रूप से मुंडी हिलाकर अपनी सहमति भी प्रकट कर दी थी.
बहरहाल, बैठक प्रारम्भ होती है. एक अति-उत्साही युवा गधा कार्यवाही के संचालन की गरज से लपककर माइक थाम लेता है. वह चिंतन बैठक के एजेंडे पर यह कहकर रोशनी डालता है कि ‘मेरे प्यारे गधे भाइयों! आज की हमारी इस आपात चिंतन बैठक में विमर्श का मुख्य विषय है- ‘गधा प्रजाति के नाम का इंसानों द्वारा अपने चुनावी लाभ के लिए जान-बूझकर किया जा रहा दुरुपयोग!’ मैं आपके सामने मानव समाज की इस आपत्तिजनक प्रवृत्ति की घोर निंदा का प्रस्ताव रखता हूँ. और बैठक की अध्यक्षता का जिम्मा पहाड़ी-दद्दा को सौंपते हुए उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे इस गंभीर विषय पर सबसे पहले अपने अमूल्य विचार रखें.’
पहाड़ी-दद्दा थोड़ा हिचकते हुए वार्ता की कमान सँभालते हैं- ‘देखिए सजातीय बंधुओं, इंसान बिरादरी द्वारा राजनीतिक चुनाव में हमारे नाम का सहारा लेने की कवायद को हमें स्नेहवत् भाव से लेना चाहिए. इसमें हमें भला क्या आपत्ति हो सकती है? यह तो हमारे लिए गर्व की बात है कि हमारे योगदान से मानव समाज के लोकतंत्र की चमकदार इबारत लिखी जा रही है. और तो और, इससे इंसान बिरादरी की नजर में हमारा मान-सम्मान भी द्विगुणित हो रहा है. और फिर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि उनकी इसी कवायद की वजह से रातों-रात हम फर्श से अर्श तक पहुँच चुके हैं. हम देखते ही देखते सेलिब्रिटी बन गए हैं.’
यह दलील एक आक्रोशित युवा गधे को एकदम नागवार गुजरती है. वह बीच में ही टोक पड़ता है- ‘पहाड़ी-दद्दा ये बैठक इसलिए नहीं बुलाई गई है कि आप इंसानों की शान में कसीदे काढ़ने लगें. इतने अनुभवी होने के बावजूद आपसे ये उम्मीद कतई नहीं थी? यहाँ इंसानों द्वारा खड़े-खड़े हमारे मान-सम्मान का पानी उतारा जा रहा है. और आप यहाँ उनके लिए त्याग-व्याग का फोकट राग अलाप रहे हैं. ये चुनाव और लोकतंत्र वगैरह हमारे नहीं बल्कि इंसानी फितरत के चोंचले हैं. इसमें गधा-बिरादरी का नाम घसीटना हमारी मानहानि करने जैसा है. मैं तो कहता हूँ कि हमें अपनी मानहानि के एवज में इंसान बिरादरी का खुला बहिष्कार कर देना चाहिए.’
ये बात सुनकर कई हम-उम्र गधे उस युवा गधे के समर्थन में जोश में आ जाते हैं. वे जोर-जोर से विरोध स्वरूप नारे लगाने लगते हैं. ‘‘गधा-बिरादरी का इंसानी अपमान... नहीं सहेगा गधा-जहान! हर जोर जुल्म की टक्कर में...संघर्ष हमारा नारा है!’
तभी एक किशोर गधा सुझाव देता है कि ‘हमें अपने नाम के उपयोग के एवज में इंसान बिरादरी से तगड़ी रायल्टी वसूलना चाहिए!’ मगर जोरदार हो-हल्ले के बीच उसकी बात अनसुनी हो जाती है.
तभी एक उम्रदराज थकेला-गधा कातर भाव से युवा गधों को समझाने की चेष्टा करता है. ‘देखो बच्चों, जब भी इंसान मुश्किल में होता है, तब वह हमें अपना बाप बनाता है. बनाता है कि नहीं? वैसे ही चुनाव के मुश्किल वक्त में भी वह हमें अपना बाप बनाना चाह रहा है. तब ऐसे में दिक्कत कहाँ हैं? उलटे हमें तो अपने बाप-धर्म का निर्वाह करते हुए उनकी दुःख-तकलीफ में उनका मददगार बनना चाहिए.’
यह बात प्रगतिशील विचारों वाले एक वर्जिन गधे को चुभ जाती है. वह अपना खुला विरोध प्रकट करता है, ‘वे लोग मतलब के लिए हमें बाप बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. और मतलब पूरा होते ही हम बापों को भूल भी जाते हैं. हमें इन स्वार्थी इंसानों का बाप बनने में अब कोई रुचि नहीं है दद्दा. वे अपना पिता और पुत्रपना अब अपने भरोसे खुद ही सहेज लें. हमारे भरोसे तो कतई न रहें.’
पहाड़ी-दद्दा सभी युवा गधों को एक मुश्त समझाने की कोशिश करते हैं ‘देखो बेटा, इंसानों की युगों-युगों से सेवा करते-करते हमारी पुश्तें गुजर गई हैं. वे जैसे भी हैं हमारे सम्माननीय मालिक लोग हैं. हम उनकी खिलाफत नहीं कर सकते.’
पहाड़ी दद्दा का ये थकेला तर्क सुनकर सभी युवा गधे बिदक लेते हैं. वे विरोध स्वरूप जोर-जोर से नारेबाजी और हो-हल्ला करने लगते हैं. और बुजुर्ग-गधों का बहिष्कार करते हुए बैठक से बाहर चले जाते हैं. नारेबाजी का हो-हल्ला इतना जोर-शोर से होने लगता है कि उनकी आवाज बुलंद होकर ‘इंसानों की संसद’ तक पहुँचने लगती है.
युवा-गधों का ये जोशीला आक्रोश देखकर पहाड़ी-दद्दा गहरी-सांस भरते हुए निराशा भाव से मन ही मन बुदबुदाते हैं ‘आजकल के ये छोकरे भी बड़े ही बेसब्रे हैं भैया. इंसानों का बाप बनते-बनते उनके सारे के सारे अवगुण खुद अपने में जमा कर बैठे हैं. अब तुम्हीं बताओ, निर्णय लेने के लिए आयोजित हुई चिंतन बैठक का भी भला कोई ‘इंसानी’ जैसा बहिष्कार करता है!!
सम्पर्कः 75, अंबिकापुरी एक्सटेंशन,
एरोड्रम रोड, इंदौर (म.प्र.)
मोबा. 99933-10309
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