व्यंग्य की जुगलबंदी-35 'बिना शीर्षक’ ------------------------------------------- व्यंग्य की 35 वीं जुगलबंदी का विषय था -बिना शीर्षक। मतल...
व्यंग्य की जुगलबंदी-35 'बिना शीर्षक’
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व्यंग्य की 35 वीं जुगलबंदी का विषय था -बिना शीर्षक। मतलब जो मन आये लिखा जाये। मतलब एक तरह का ’ओपन मन इम्तहान’। खुल्ला खेल फ़रक्खाबादी। कुल 16 लोगों ने 17 लेख लिखे। सबसे पहला लेख आया आलोक खरे का। उन्होंने तो ’इधर विषय आया उधर लेख सटाया।’ कल को हम पर आरोप लगाये कि हमने ले-देकर आलोक को पहले से पर्चा आउट कर दिया तो हमको जमानत न मिले।
बहरहाल
, ALok Khare
ने जुगलबंदी को भगीरथ प्रयास बताया और अनूप शुक्ल से मजे लेते हुये नमन किया। मने फ़ुल मौज। 90 और 10 वाला सम्पुट भी दोहरा दिया। हाल यह हुआ कि हिम्मत इतनी बढी कि अपनी श्रीमती जी को भी बिजी की जगह इजी रहने की सलाह दे डाली। फ़िर किसिम किसिम के किस का किस-किस बहाने वर्णन किया वह आप खुद ही देख लीजिये उनकी पोस्ट में। हम कुछ बतायेंगे तो आपका मन भरेगा नहीं। एक और बात जो सिर्फ़ आपको बता रहे हैं। किसी को बताइयेगा नहीं- इसमें एक ठो रॉयल किस का किस्सा भी है। बांचिये फ़टाक देना। लिंक यह रहा:
https://www.facebook.com/alok.khare3/posts/10210728465302710
आलोक खरे के फ़ौरन बाद हमारे
Anshuman Agnihotri
जी ने विषय में कई छेद देखे और हर छेद पर कारतूस दागे। देखिये उनका शब्द कारतूस से गंजा हुआ लेख :
“क्या शीर्षक सोच कर व्यंग्य लिखा जाता है ? लोग अपनी झोंक में लिख मारते हैं , फिर हेडिंग ढूंढ़ते हैं ।एक महान लेखक ने , न मिला , तो शीर्षक दिया as you like it .
कई लोग लिखने में बड़े सक्षम, पर किताब का नाम धराने के लिए विकल होकर किसी भी पीर बावर्ची भिश्ती खर से नाम धरा कर छपा लेते हैं ,फिर कहते हैं _ चलो किस्सा खत्म हुआ वरना बड़ी सिरदर्दी थी ।
बिना शीर्ष , मने बिना सिर का हो तो कोई पूजनीय और कोई निंदनीय हो जाता है ।जैसे छिन्न मस्ता की मूर्ति पूजनीय और कबंध निंदनीय ।
कोई सरकटा डरावना होता है, कोई नहीं । किसी किसी कारखाने में रात्रिपाली में सरकटा अंगरेज अकेला आदमी पा कर सिगरेट मांगता है ।
शीर्षक विहीन लिखना , अश्वमेध के घोड़े. की तरह छुट्टा घूमना है, आगे नाथ न पीछे पगहा , पर शीर्षक बताने को ज्ञानी चाहिए ।अपने लड़के का नामकरण कराने को पंडित जी के पास जाना पड़ता है ।“
समीरलाल उर्फ़
Udan Tashtari
एकदम राजा बेटा टाइप लेखक हैं। जो विषय मिला उसी पर मन लगाकर लिखने लगे। सबेरे उठकर। उनको पता है सुबह की पढाई-लिखाई में बरक्कत होती है। लेख में नेता, जनता, आग, दरिया, भक्त, भगवान, चमचों, पिछलग्गुओं का जमावड़ा कर डाला समीर भाई ने। बिना शीर्षक लेख है इसका ये मतलब थोड़ी कि लेख बिना भीड़-भाड़ के होगा। झांसे में लेकर पूरा लेख पढवा दिया और फ़िर कहते हैं -बिन शीर्षक क्या लिखें। देखिये पूरा लेख इस कड़ी पर पहुंचकर:
https://www.facebook.com/udantashtari/posts/10155043592386928
Taau Rampuria
ने क्या लिखें, कैसे लिखें सोचते-बताते सभी व्यंग्यकारों के मतलब की बात बता दी:
“व्यंगकार वही जो साठा पाठा होकर भी बछडे की तरह कहीं भी सींग घुसेडने में माहिर हो।“
सभी लोग मानेंगे कि इस पैमाने पर तो वे सच्चे व्यंग्यकार हैं। बहरहाल ताऊ रामपुरिया ने अपनी बात पर अमल किया और सच्चे ’व्यंग्य-बछड़े’ की तरह “माता बखेडा वाली” का नाम लेकर “संटू भिया कबाड़ी”, कबीरदास, परसाईजी और न जाने कहां-कहां अपने सींग घुसाते हुये जो लिखा उसको आप इस लिंक पर पहुंचकर बांचिये और बताइये कि ताऊ सच्चे व्यंग्यकार हैं कि नहीं:
https://www.facebook.com/taau.rampuria/posts/10212826557489868
अर्चना चावजी
ने इसबार संवाद शैली का चुनाव किया अपनी बात कहने के लिये। शीर्षक, अनूप शुक्ल और व्यंग्यकारों से कम्बोमौज लेते हुये वे लिखती हैं:
“व्यंगों की जमात के सिर चुनकर लोग उस पर ताज रखते हैं फिर उसका शीर्ष कभी भी, कहीं भी किसी भी तरह इस्तेमाल करने लगते हैं, जबकि मोलभाव पिछलग्गी दुमों का किया धरा होता है
-ओह!बात तो सई कही,अब ये बता मेरे पास क्यों आया?
-इस बार भी छपना है,साबजी ! "बिना शीर्षक"
-उससे क्या होगा?
-साबजी दुम के भाव बढ़ेंगे,जुगलबंदी शहर के शहंशाह सरसती देस में नाम कमाएंगे ....
-और ?
-और लोग जान जाएंगे कि व्यंग्य भी "बिना शीर्ष के" जिंदा रहकर यानि छपकर ताज वालों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है ।
-शाबास!
-तो हाँ समझूं साबजी
-अरे हाँ, बिंदास जा और फेसबुक वॉल पे ड्यूटी संभाल...."बिना शीर्ष के"
पूरा लेख इस लिंक पर पहुंचकर बांचिये :
https://www.facebook.com/archana.ch…/posts/10209521196609025
हमारे साथी
Manoj Kumar
ने इस लेख के बहाने अपनी आपबीती सी बखान मारी। बिना सरनेम का आदमी , बिना शीर्षक के लेख की तरह होता है। जो मिलता है अपने हिसाब से सरेनेम/शीर्षक सोचता है। जो हुआ वह खुदै बांच लीजिये। बूझने में आसानी होगी:
“कचहरी के बाबू ने मुझसे पूछ दिया, “आपका नाम?”
मैंने कहा, “मनोज कुमार।”
उन्हें संतोष नहीं हुआ, पूछा - “आगे ..”
मैंने कहा, “कुछ नहीं।”
वे फिर बोले, “कुछ तो होगा न ..?”
मैंने फिर कहा, “यही, और इतना ही है।”
वे बोले, “पर, नाम तो आपको पूरा बताना चाहिए।”
मैंने कहा, “पूरा ही बताया है।”
वे खीज गए, “अरे भाई! शर्मा, वर्मा, राय, प्रसाद, ... कुछ तो होगा ... सरनेम।”
मैंने समझाया, “भाई साहब! मेरा नाम तो मनोज कुमार ही है --- और वैसे भी – उपनाम में क्या रखा है?”
उन सज्जन ने ऐसी घूरती नज़र मुझपर डाली – जैसे वे रुद्र हों और अभी मेरी दुनिया भस्म कर देंगे।
तब मुझे लगा कि शायद इनके लिए उपनाम में बहुत कुछ रखा है।
इंसानी फ़ितरत ही यही है, – वह नाम कमाए न कमाए, उपनाम गँवाने से बहुत डरता है। यह हमारी कमज़ोरी है। इंसान आज इतना कमज़ोर हो गया है कि छोटी-छोटी चीज़ों से डर जाता है और बहादुर भी इतना है कि भगवान से नहीं डरता। “
मनोज कुमार का पूरा लेख बांचने के लिये इधर पहुंचिये लेकिन उसके पहले लेख का हसिल-ए-अनुभव मुलाहिजा फ़र्मा लीजिये।काम आयेगा:
“जिनके उपनाम ही न हों, उनकी तो फाइल न आगे बढ़ती है और न ही बंद होती है। उसकी उठा-पटक होती रहती है – कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में।“
लेख का लिंक यह रहा:
https://www.facebook.com/mr.manojiofs/posts/10203077669818217
भाई
Vivek Ranjan Shrivastava
ने पहले तो उस्ताद लेखक की तरह लेख के विषय ’बिना शीर्षक’ का सहारा लेते हुये अपनी एक कविता ठेल दी जिसका शीर्षक ही ’शीर्षक’ था। कविता चूंकि छोटी सी है और इसको उन्होंने अपनी एकमात्र पत्नीजी को सुनाया था इसलिये आप भी मुलाहिजा फ़र्मा लीजिये:
"एक नज्म
एक गजल हो
तुम तरन्नुम में
और मैं
महज कुछ शब्द बेतरतीब से
जिन्हें नियति ने बना दिया है
तुम्हारा शीर्षक
और यूं
मिल गया है मुझे अर्थ "
इसके बाद तो विवेक भाई ने अनामिका पर पूरी इंजीनियरिंग करते हुये खुद को फ़ेमिनिस्ट बताते हुये लेख में जो गुल खिलायें हैं वो आप खुदैअ देखिये उनकी पोस्ट पर पहुंचकर। लिंक देने के पहले आप उनका यह खतरनाक आह्वान तो देखते चलिये :
“ महिलाओ को अपनी बिन मांगी सलाह है कि यदि उन्हें अपनी तर्जनी पर पुरुष को नचाना है तो उसकी अनामिका पर ध्यान दीजीये “
बताओ भला ये भी कोई सलाह है। लेकिन अब जो है सो है ! संविधान भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिमायती है न! क्या किया जा सकता है। खैर आप पूरा लेख बांचिये इस लिंक पर पहुंचकर:
https://www.facebook.com/vivek1959/posts/10209578386271622
विनय कुमार तिवारी
जी ने पहले तो “बिना शीर्षक के व्यंग्य को बे-कालर जैसा!” बताया इसके बाद फ़ाइनली सलाह दी “बिना शीर्षक के व्यंग्य टाइप का बे-कालर बने रहना ही ठीक रहेगा, लोग खिंचाई नहीं कर पाएँगे।“
लेकिन इस बीच पहले अपनी फ़िर राजनेताओं की, मौनीबाबाओं की जो खिंचाई की है उसका मजा आपको उनकी पोस्ट पढकर ही आयेगा। तो पहुंचिये इस लिंक पर क्लिक करके घटनास्थल पर और लीजिये मजे बिना शीर्षक इस व्यंग्य के:
https://www.facebook.com/vinaykumartiwari31/posts/1290692217715401
Ravishankar Shrivastava
जी ने अपने लेख की शुरुआत लेखक और पाठक के बीच सहज वैचारिक मतभेद बयान करते हुये की:
“पूरी कहानी पढ़ लेने के बाद, और बहुत से मामलों में तो, पहला पैराग्राफ़ पढ़ने के बाद ही, आपको लगता है कि आप उल्लू बन गए और सोचते हैं कि यार! ये कैसा लेखक है? इसे तो सही-सही शीर्षक चुनना नहीं आता. इस कहानी का शीर्षक यदि ‘यह’ के बजाय ‘वह’ होता तो कितना सटीक होता!”
बहाने से व्यंग्य की जुगलबंदी के शीर्षक रखने वाले से मौज भी ले ली:
“आदमी के जेनेटिक्स में ही कुछ है. वो किसी चीज को बिना शीर्षक रहने ही नहीं देता. और, कुछ ही चक्कर में आपका दिमागी घोड़ा धांसू सा शीर्षक निकाल ले आता है और, तब फिर आप कलाकार को कोसते हैं – मूर्ख है! इसका शीर्षक “यह” तो ऑब्वियस है. किसी अंधे को भी सूझ जाएगा. पता नहीं क्यों अनटाइटल्ड टंगाया है.”
इसके बाद समकालीन राजनीति से भी कुछ बिना शीर्षक नमूनों का जिक्र किया है रवि रतलामी जी ने। वह सब आप इस लिंक पर पहुंचकर बांच सकते हैं:
http://raviratlami.blogspot.in/2017/05/blog-post_21.html
Alankar Rastogi
ने जुगलबंदी के लिए तो नहीं लिखा शायद लेकिन एक लेख में टैग किया मुझे। हम उसी को ’बिना शीर्षक’ वाला लेख समझ लिये। अलंकार ने आधुनिक समय में ’विजिटिंग कार्ड’ को सामाजिक प्रतिष्ठा का पैमाने बताते हुये लेखक के हाल बयान कर दिये (हर व्यक्ति अपना ही रोना रोता रहता है) देखिये क्या कहते हैं अलंकार:
“एक बेचारा लेखक ही ऐसा होता है जो समाज को अच्छा साहित्य देकर भी कभीं सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं कमा पाता है. अभी समय लगेगा एक लेखक को मुख्यधारा में आने के लिए. उसे भावना से लिखने के बजाये अपने लिखे हुए का भाव लगाना आना चाहिए. उसे अर्थपूर्ण लेखन के बजाये वही लिखना होगा जिससे उसके बटुए का अर्थ पूर्ण हो जाए. उसे अब वह सब करना पड़ेगा जिसमे वह साहित्यिक प्रतिमान के साथ स्वाभिमान भी गढ़े.”
लेख में पुराने स्कूटर और जीवनसाथी को बरतने के सूत्र बताये गये हैं। पूरा आनन्द और ज्ञान लेने के लिये पहुंचिये इस लिंक पर:
https://roar.media/…/visiting-card-and-social-status-hindi…/
व्यंग्य की जुगलबंदी के राडार पर
Alok Puranik
के दो लेख पकड़ में आये।
’एप्पल टैंक और एंड्रायड लड़ाकू विमान’ में हर साल मोबाइल के नये संस्करण आते रहने के बवाल का वर्णन किया गया है। कल्पना की गयी है जिस गति से मोबाइल अपडेट होते हैं उसी स्पीड से अगर टैंक के माडल अपडेट होने लगें तो क्या होगा? इसी लेख में अपडेट का फ़ंडा बताया गया है:
“आप इतने अपडेट निकालते क्यों हैं, हमारा काम तो पुराने से भी ठीक-ठाक ही चलता है।
लो जी आपको क्या लगता है कि अपडेट आपके लिए निकालते हैं, ना जी, अपडेट तो हम अपने लिए ही निकालते हैं। नये नये मोबाइल बेचने है, नये नये अपडेट के नाम पर बेचते हैं। आप टेंशन ना लें, अपडेट आपके लिए नहीं निकालते। “
पूरा लेख यहां पहुंचकर बांचिये:
https://www.facebook.com/puranika/posts/10154741380713667
’आतंकी एक्सचेंज आफ़र’ लेख के बारे में हम कुछ न बतायेंगे। बताने पर मजा लीक होने का खतरा है। बस आपको एक अंश पढ़वा देते हैं:
"पाकिस्तान कमाल का मुल्क इस अर्थ में है कि पाक बच्चों को पढ़ाये गये इतिहास में पाक ने कभी कोई युद्ध नहीं हारा। पाक किताबों में 1971 पाक ने जीता है, कारगिल पाक ने जीता है। पाकिस्तान को इस तरह की इतनी जीत की आदत हो गयी है कि अब वो सचमुच की जीत के लिए मेहनत भी ना करते। जल्दी होनेवाले भारत पाक क्रिकेट मैच में अगर इंडियन टीम हारी, तो इंडियन टीम की खाट खड़ी की जायेगी। इंडियन टीम की बैटिंग, बालिंग, फील्डिंग पर सवाल उठाये जायेंगे। पर पाक टीम हारी, तो वहां का नौजवान कहेगा कि अंपायर हमारे बैट्समैन के शाट को समझ ना पाया। ठीक है हमारे बैट्समैन के तीनों विकट उड़ गये। पर यह भी तो देखना चाहिए था कि हमारे बैट्समैन ने किस स्टाइल से बैट घुमाया था। वह कलात्मकता देखनी चाहिए थी और आऊट नहीं देना चाहिए था। अंपायर हमारे बल्लेबाज की बैटिंग समझ ना पाये।"
बाकी का लेख इस लिंक पर पहुंचकर बांचिये:
https://www.facebook.com/puranika/posts/10154732721278667
Indra Awasthi
अभी हाल ही में जुगलबंदी में एक्टिव हुये और जब हुये तो खूब हुये।
ब्लॉगिंग में काफ़ी दिन ठेलुहई करने अब जुगलबंदी में भी मजे लेने शुरु किये हैं।
न्यूटन बाबा के बैठने के लिये सही जगह के हुनर की तारीफ़ करते हुये इंद्र अवस्थी कहते हैं:
“वह तो कहो न्यूटन नारियल के पेड़ के नीचे नहीं बैठा था , नहीं तो शायद सौ - डेढ़ सौ साल और निकल जाते इस गुरुत्व-फुरूत्व को नाम देने में | कितने वीर बालक इस चक्कर में ज़्यादा पास हो गए होते |”
नाम का लफ़ड़ा स्वतंत्रता संग्राम में पिला पड़ा है। देखिये तो सही:
“अब १८५७ को ही ले लिया जाय | मंगल पांडे ने बन्दूक चला दी, तात्या टोपे, लक्ष्मी बाई आदि सबने बवाल काट डाला, बहादुरशाह दिल्ली में जी भड़भड़ा के बैठे रहे कलम में स्याही भरते हुए कि जैसे ही थोड़ा खाली हुए, शायरी झेला डालेंगे , इस बीच कई अँगरेज़ शहीद हो गए | इतना सब हुआ, पर यह सब होने के पहले कोई इस चक्कर में नहीं पड़ा कि इस पूरे घटनाक्रम को क्या नाम दिया जाय | जब सब हो गया तो इस बेगाने बवाल में सारे इतिहासकारों में सिर - फुटौव्वल मची | और मची क्या अभी तक एक दूसरे का पजामा खींचे पड़े हैं | एक बोले कि इसे ‘पहला स्वाधीनता संग्राम ‘ कहा जाय | दूसरे पक्ष ने बहुत बुरा माना और कहा कि परिभाषा ‘सिपाही विद्रोह ‘ वाली सही बैठती है | तीसरा मध्यमार्गी निकला, ‘१८५७ की ग़दर’ का नाम चिपका दिया | अभी तक कौआरार मची है |”
इस नाम-अनाम वाले लेख का शानदार वाक्य रहा - “क्या तौल के कंटाप पड़ा है “। बाकी तो सब जो है सो हईयै है।
पूरा लेख यहां पहुंचकर बांचिये। मजे की गारंटी। मजा न आये तो अगला लेख बांचिये। लेख का लिंक यह रहा:
https://www.facebook.com/indra.awasthi/posts/1576170989062457
Arvind Tiwari
जी ने ’ व्यंग्य की चिड़िया की टांग पर निशाना’ लगाया और खूब लगाया। व्यंग्य लेखन के मौलिक फ़ंडे बताते हुये अरविन्द जी लिखते हैं:
"व्यंग्य के चिंतन की कुछ शर्तें होती हैं मसलन लेखक कॉलेज या वि वि में पढ़ाता रहा हो,किसी प्रकाशन संस्थान में काम करता रहा हो,पत्रकारिता में हो।कुछ नहीं भी हो तो बड़े शहर या दिल्ली एनसीआर का निवासी तो होना ही चाहिए।ऐसा करो एक दो वर्ष यहाँ दिल्ली में रह लो। "
व्यंग्य लिखने के दिल्ली में रहना अपरिहार्य बताते हुये अरविन्द जी लिखते हैं:
"दिल्ली में हम हैं न।हमारे साथ रहोगे तो लिखने पर नहीं,चर्चित होने पर ध्यान देने लगोगे।हमारे साथ हमप्याला होगे,तो बस आला दर्ज़े के हो जाओगे।"
"पर सर!मैं तो पीता ही नहीं।"
" फिर मेरा वक़्त क्यों जाया कर रहे हो।तुम्हें मालूम नहीं व्यंग्य साहित्य में मुझे कितना काम करना है।20 पुस्तकों का सम्पादन करचुका हूँ,इतनी ही पुस्तकें और आनी हैं।आप ऐसा करो,झुमरी तलैया में कोई पानी वाली तलैया देखकर उसमें डूब मरो"।
मजा अभी और भी है। लेख पूरा बांचने के लिये इधर आइये:
https://www.facebook.com/permalink.php…
Kamlesh Pandey
जी ने भी ’बिना शीर्षक’ लेख लिखने की सुविधा का फ़ायदा उठाते हुये ’गाय’ पर निंबध खैंच डाला। आजकल गाय जिस तरह दूध, दंगे, देशप्रेम की बहुउद्धेशीय परियोजनाओं में काम आ रही है उसका दिलचस्प वर्णन किया है कमलेश जी ने। कुछ अंश देखिये:
"जीव-विज्ञान के कोण से एक पशु होने के कारण गाय के चार पैर होते हैं. इसी कोण को थोड़ा और वैज्ञानिक कर लें तो इन चार टांगों पर टिका भारी-सा शरीर एक स्वचालित मशीन है जो घास और चारे जैसी बेकार चीजों को दूध जैसी कीमती वस्तु में बदल देती है. पिछले दो पैरों के बीच चार नल फिट होते हैं, जिन्हें दुह कर दूध निकालने का काम गाय के मानस-पुत्र पूरी तत्परता से करते हैं. कभी-कभी गाय के अपने पुत्र बछड़े भी इस दूध को पीते देखे गए हैं."
"गाय बड़ी सीधी होती है. इस हद तक कि आदमी अपनी सीधी-सादी औरतों को गाय कह कर पुकार लेता है. अपने सींघों का इस्तेमाल ये कम ही करती है, पूंछ अलबत्ता जरूर भांजती रहती है पर उसका भी निशाना मक्खी-मच्छर ही होते हैं ".
"गाय को दूध के बदले जो चारा खिलाना पड़ता है, उसे इधर कई घोटालेबाज आदमी भी खाने लगे हैं, सो जीवन भर खिलाने का क़र्ज़ कारोबारी गो-पुत्र उसके हाड मांस से भी वसूलने का इरादा रखते हैं. अब उनके खिलाफ सांस्थानिक मोर्चाबंदी होने लगी है. गोरक्षा को मिशन भाव से अपनाने वाले स्वयंसेवक मार्ग में आने वाले इंसानों की भी जम कर कुटाई और कभी कभी ह्त्या भी कर देते हैं. कुल मिला कर गाय के प्रति एक जबरदस्त संवेदना की लहर है. ऐसी लहरें चुनावी राजनीति को भी लहरा देती हैं."
गाय का आधार कार्ड भी बनेगा। जब ऐसा होगा तो क्या हाल होगा यह सब जानने के लिये पहुंचिये इस लिंक पर
https://www.facebook.com/kamleshpande/posts/10209601738060252
हम इतना समेटकर बस पोस्ट करने ही वाले थे कि
Shefali Pande
की पोस्ट भी आ गयी। शेफ़ाली जी आजकल व्यंग्य की जुगलबंदी को होमवर्क की तरह कर रही हैं। पीछे छूटे हुये सारे लेख एक-एक करके लिखती जा रही हैं। उनका कहना है कि जुगलबंदी के बहाने उनका लिखना फ़िर से शुरु हुआ। कित्ती बढिया बात है।
’बिना शीर्षक’ व्यंग्य में शेफ़ाली ने अलग तरह से लिखा। यह बात उनके लेख के शुरुआत से ही पता चल गई:
“एक दिन ऐसा भी हुआ कि सारे अखबारों में से मोटे - मोटे अक्षरों में छपने वाले शीर्षक गायब हो गए | सारा दिन न्यूज़ चैनलों से ब्रेकिंग न्यूज़ फ्लैश नहीं हुई | व्हाट्सप्प से एक भी हिंसक वीडियो वायरल नहीं हुआ |”
इसके बाद क्या गजब हुआ यह न पूछिये। गर्मी, बरसात, सर्दी सब सामान्य तरीके से गुजरे। सामान्य तरीके से मने जैसे कभी बचपन में गुजरते थे। एक नमूना देख ही लीजिये आप भी:
“जाड़ा बचपन की तरह आया | एक पतला सा स्वेटर पहने हुए, न इनर , न जूते, न मोज़े, न टोपी, न मफलर, न कफ सीरप,न डॉक्टर के चक्कर लगे | नाक बहती रही, खांसी खुद ब खुद बोर होकर बिना दवाई के ठीक हो गयी | बिना हीटर और ब्लोवर के एक ही रजाई में सारे भाई - बहिन सो गए | सन टेनिंग, त्वचा का शुष्क होना, होंठ और गाल फटना इत्यादि छोटी मोटी समस्याओं की टेंशन से दूर सारा दिन धूप में खेलते - कूदते हुए गुज़ार दिया | जाड़े के मौसम में यह न खाएं, वह न पीएं ऐसा किसी डाइट एक्सपर्ट ने नहीं बताया |”
फ़ाइनली जो हुआ सो कुछ ऐसा हुआ:
“रात को मैंने बच्चों से पूछा, '' आज दिन भर में कुछ भी डरावना नहीं हुआ बच्चों | किसी अखबार मे रेप, दुष्कर्म, अपहरण, आतंकवाद, हत्या की खबर नहीं है | सारे चैनल सुनसान पड़े हैं | आज तुम परियों की कहानी सुनना चाहोगे ?”
शेफ़ाली की पूरी पोस्ट पढने के लिये इधर आइये:
https://www.facebook.com/pande.shefali/posts/1563006623711844
Anil Upadhyay
जी का आगमन हुआ व्यंग्य की जुगलबंदी में। 13 दिन में 13 व्यंग्य लेख लिखने का व्रत धारण करके आये अनिल जी का व्यंग्य का चौथा लेख ’व्यंग्य की जुगलबंदी-35' में शामिल हुआ। शीर्षक रहा उनके लेख का- ’बोलिए गैयापति श्री शेरचंद्र की जय’
लेख की शुरुआत मौलिक प्रश्न से हुई :
"आखिर जंगल का राजा शेर ही क्यों होता है ? और क्या इसलिए होता है कि उसे कोई खा नहीं सकता I उस पर कोई ऊँगली उठाने की हिमाकत नहीं कर सकता I क्या उसी ने अपने रसूख के आधार पर अपने परिवार के सदस्य बाघ को राष्ट्रीय पशु बनाया है I एक व्यक्ति दो लाभ के पद नहीं रह सकता I क्या इसी कारण बाघ को राष्ट्रीय पशु तो नहीं बनाया गया है I शेर को राजा रहने दिया गया है I "
इस लेख का आगे का किस्सा इस लिंक पर पहुंचकर बांचिये।
https://www.facebook.com/137.anil/posts/10213151887973922
इसके अलावा जो लोग लिखने से रह गये उनमें से एक Nirmal Gupta जी हैं जो कुछ दिन से लेखकीय ब्लॉक जैसे मोड से गुजर रहे हैं। Anshu Mali Rastogi हैं जो अब ब्लॉग में लिखते हैं। Sanjay Jha Mastan हैं जो अब फ़िल्म निर्माण में जुट गये हैं। Yamini Chaturvedi सेलेब्रिटी लेखिका होने के साथ ही उनके लेखों की मांग बढ गयी है और लिखना कम ! बाकी लोगों के न लिखने का कारण अभी पता नहीं चला है !
इसके अलावा अनूप शुक्ल हैं जिनके पास कोई बहाना भी नहीं न लिखने का फ़िर भी नहीं लिखे। खैर नहीं भी लिखेंगे तो क्या नुकसान हो गया? लिख रहे थे तब भी कौन तीर मार रहे थे।
बहरहाल अब पेश है यह 35 वीं ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ । बताइयेगा कैसी लगी?
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