प्राची // जून 2017 // शोध आलेख ‘लहरों के राजहंस’ की सुन्दरी का चरित्र

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यशोदा कुमारी शोध -छात्रा, हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय , हजारीबाग (झारखण्ड) मो हन राकेश के ‘लहरों के राजहंस’ नाटक का बाह्य परिवे...

यशोदा कुमारी शोध-छात्रा, हिंदी विभाग,

विनोबा भावे विश्वविद्यालय,

हजारीबाग (झारखण्ड)

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मोहन राकेश के ‘लहरों के राजहंस’ नाटक का बाह्य परिवेश ऐतिहासिक है. यह एक द्वन्द्व-प्रधान नाटक है. क्या वस्तु-योजना, क्या पात्र योजना, द्वन्द्व सभी जगह प्रबल और प्रखर है. वास्तव में नाटककार राकेश ने नाटक के प्रमुख पात्रों के माध्यम से आधुनिक एवं युगों-युगों से द्वन्द्वग्रस्त चेतना के परिहार का प्रयत्न किया है. इसमें उन्हें कहाँ तक सफलता मिली है और कहाँ तक असफलता, यह एक अलग प्रश्न है; किन्तु नाटक की सर्जना का मूल उद्देश्य मनुष्य की द्वन्द्वग्रस्त चेतना को प्रतिबिम्बत करना ही है. इसीलिए इस नाटक के सभी पात्रों का चरित्र अन्तर्द्वन्द्व प्रधान है.

सुन्दरी इस नाटक की नायिका है. वह नन्द की पत्नी है. वह सिर्फ नाम की ही सुन्दरी नहीं, बल्कि अत्यधिक रूप-लावण्य से युक्त नारी है. उसका रूप-लावण्य दूसरी स्त्रियों के लिए ईर्ष्या का विषय हैं. वह अपनी सुन्दरता के कारण ही राजकुमार नन्द को अपने संकेतों पर चलने के लिए विवश कर देती है.

नन्द भी उसके रूपपाश में बंधा रहना ही अपना सौभाग्य मानता है. सुन्दरी को अपने लावण्य पर अभिमान है. नन्द के प्रति उसका कथन उसी ओर संकेत करता है- ‘‘क्या कहते हैं आपका ब्याह एक यक्षिणी से हुआ है जो हर समय आपको अपने जादू से चलाती है.’’1 इस कथन में आत्मप्रशंसा की एक झलक हमें मिलती है. लेकिन इसमें अतिश्योक्ति भी नहीं है. वह एक मानवी से ज्यादा सुन्दर है. नन्द का कथन इसी बात को प्रमाणित करता है- यक्षिणी हो या नहीं, मैं नहीं कह सकता, परंतु मानवी तुम नहीं हो. ऐसा रूप मानवी का नहीं होता.’’2

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रूपगर्विता सुन्दरी के चरित्र में अहं का प्राबल्य है. सौन्दर्य एवं एकाधिकार के कारण वह कुछ अहंवादी बन गई है. इसका एक कारण यह भी है कि वह अपने पर बहुत अधिक विश्वास रखती है. इस तथ्य का आभास हमें उसकी इस उक्ति से मिल जाता है- ‘‘सच अपने पर बहुत निर्भर करती हूँ. सोच लेती हूँ कि बात मन में आने से ही पूरी हो जाएगी.’’3 उसे अपने अनुपम सौन्दर्य ने अधिक अभिमानी बना दिया है.

उसे इस बात पर अभिमान है कि वह अपने पति को अपने संकेतों पर नचाती है, उस पर शासन करती है, घर से बाहर बिना आज्ञा के नहीं जाने देती है, सेवक की भाँति शासित करती एवं हँसी-हँसी में दण्डित भी करती है. अपने इसी एकाधिकार के कारण वह अधिक अहंवादी हो गई है. अपने इसी अहं के वशीभूत होकर वह बुद्ध एवं यशोधरा के सम्बन्धों के विषय में कह देती है कि देवी यशोधरा का आकर्षण यदि राजकुमार सिद्धार्थ को बांध कर अपने पास रख सकता, तो क्या वे आज राजकुमार सिद्धार्थ न होते? गौतम बुद्ध बनकर नदी-तट पर लोगों को उपदेश दे रहे होते? इतना ही नहीं वह अपने अहंकार भरे शब्दों में कहती है- ‘‘नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है, तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है.’’4 इस कथन में अहं छिपा हुआ है, क्योंकि सुन्दरी राजकुमार नन्द को अपने आकर्षण में पूर्ण रूप से जकड़े हुए है.

सुन्दरी जीवन को भोगना चाहती है. वह त्याग की अपेक्षा भोग में अधिक विश्वास रखती है. वह जीवन के प्रति क्षण को रंगीन बनाना चाहती है. वह अपने सपनों में पूरी दुनिया को समाहित कर लेना चाहती है. उसका दृष्टिकोण उपभोक्तावादी है. उसका जीवन-दर्शन बौद्ध-दर्शन से सर्वथा भिन्न है. वह ‘चार्वाक-दर्शन’ से प्रभावित है. वह कपिलवस्तु में आमोद-प्रमोद का वातावरण निर्मित करना चाहती है. वह निवृत्ति-मार्ग को अवरुद्ध करना चाहती है. उसे प्रवृत्ति-मार्ग प्रिय है. वह नन्द को बुद्ध के आकर्षण से मुक्त रखना चाहती है. इसीलिए वह कामोत्सव का आयोजन करती है.

कामोत्सव का आयोजन तब किया जा रहा था, जब देवी यशोधरा भिक्षुणी बनने वाली थी. वह उत्सव में ऐसा ही कुछ करने वाली थी- ‘‘रात भर नगर-वधु चन्द्रिका के चरणों की गति से इस भवन की हवा काँपती रहेगी...हवा काँपती रहेगी और ढुलती रहेगी मदिरा....उसकी आँखों से, उसके एक-एक अंग की गोराई से.’’5

सुन्दरी अपनी इच्छाओं को सर्वोपरि मानती है. वह एकाधिकार चाहती है. वह अपने किसी कार्य में बाधा पसन्द नहीं करती है. वह कामोत्सव की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वयं देखती है. समय-समय पर वह सेवकों को निर्देश देती है. अपने कार्य में वह बाधा सहन नहीं करती. आर्य मैत्रेय के मुख से कामोत्सव का आयोजन एक दिन के लिए स्थगित कर देने की बात सुनकर वह कहती है- ‘‘कामोत्सव कामना का उत्सव है, आर्य मैत्रेय. मैं अपनी आज की कामना कल के लिए टाल रखूँ...क्यों? मेरी कामना मेरे अन्तर की है.’’6

वास्तव में सुन्दरी अपनी बात मनवाना चाहती है. वह अपनी इच्छा को मूर्त्त रूप देना चाहती है. उसे यह बिल्कुल सह्य नहीं है कि उसे किसी की कृपा पर निर्भर होना पड़े.

सुन्दरी के व्यक्तित्व में अभिजात्य वर्ग की महिलाओं जैसे शासन का भाव भी विद्यमान है. उसमें उन्हीं जैसी शालीनता और आक्रोश का भाव भी है. कहीं-कहीं वह इन्हीं नारियों की तरह हठी भी है. इसी कारण कभी-कभी वह अपनी बातों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देने लगती है- ‘‘आज तक ऐसा कभी हुआ है कि कपिलवस्तु के किसी राजपुरुष ने इस भवन से निमंत्रण पाकर अपने को कृत्तार्थ न समझा हो?’’7 यही वजह है कि जब कामोत्सव में भाग लेने के लिए नन्द के अनेक लोगों के पास जाने पर भी न आने की बात सुन्दरी को पता चलती है, तो वह विक्षुब्ध हो उठती है. उसका उद्वेग अपनी असफलता पर और अधिक बढ़ जाता है. वस्तुतः इस उद्वेग के कारण ही भविष्य में उसे दुःखद एवं अशांतिकारक परिणाम को भोगना पड़ता है. वस्तुतः यह खोखलापन सर्वत्र नारी जगत में देखा जाता है.

अभिजात्य वर्ग की नारियों जैसा क्षमा का भाव भी सुन्दरी के व्यक्तित्व में विद्यमान है. श्यामांग प्रसंग में इसे देखा जा सकता है. इस तरह उसका चरित्र सहज और बोधगम्य तो है, पर उसमें खण्डित होने वाले तत्त्व ही अधिक हैं. नाटक के अन्त में अपने ही दर्पण के समान उसका व्यक्तित्व भी खण्डित होकर रह जाता है. वह जिस साँचे में ढली है, उसमें गति संभव है ही नहीं. वह इस नाटक का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी नाटक का सर्वाधिक प्रभावशाली नारी-चरित्र है. उसके व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द ही नाटक के कथ्य और कथानक संचालित होते रहते हैं. वह इस नाटक का सर्वाधिक प्रभावशाली चरित्र है.

संदर्भ संकेतः-

1. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 93

2. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 93

3. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 56

4. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 60

5. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 55

6. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 78

7. मोहन राकेश, लहरों के राजहंस, पृ. 72

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रचनाकार: प्राची // जून 2017 // शोध आलेख ‘लहरों के राजहंस’ की सुन्दरी का चरित्र
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