प्राची // जूनी 2017 // समीक्षात्मक आलेख // यदि पहल जिजीविषापूर्ण हो // सुषमा श्रीवास्तव

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अ नुभूत यथार्थ के विलोड़नकारी तत्वों की साजिश जब अपनी सीमाएं लांघती है, तो किसी रचना का सृजन होता है. यह अनुभव कई धाराओं में बहता है, पर कथान...

नुभूत यथार्थ के विलोड़नकारी तत्वों की साजिश जब अपनी सीमाएं लांघती है, तो किसी रचना का सृजन होता है. यह अनुभव कई धाराओं में बहता है, पर कथानक में यूं पैठ जाता है कि कोई कहानी, या उपन्यास का जन्म होता है.

आलोच्य उपन्यास ‘‘काले सफेद रास्ते’’ 446 पृष्ठों का वृहद उपन्यास है. लेखक हैं राकेश भ्रमर. इसकी आधारभूमि उत्तर प्रदेश का एक गांव कंचनपुर है. गांव-गांव ही होते हैं पर सबकी फिज़ा एक सी नहीं होती. कार्य, पेशा, संस्कार और आबादी के अनुसार स्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं. यूं लोग खुशहाल हैं. गांव में अंग्रेजों के जमाने का प्राइमरी स्कूल है. ग्रामीण अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार काम करने, पढ़ने और नौकरी करने पास के कस्बे और शहर जाते रहते हैं.

उपन्यास गांव में सदियों से फैले, जाति, वर्ग, भेद, छुआछूत के इर्द-गिर्द घूमता है. एक सिरे पर रहती है राजनीति, दूसरे छोर पर सामाजिक संरचना, तीसरे छोर पर शिक्षा,

धनी-निर्धन विभेद और सबमें गुंफित है प्रेम.

पन्ने पलटने पर पाया कि पूरा समाज खांचों में बंटा हुआ है. गांव का युवा वर्ग स्कूल कॉलेज जाता है, लेकिन पढ़ाई में रुचि ‘न’ के बराबर है. अधिकांश युवक उच्च वर्ग से आते हैं. लड़के-लड़कियों की पढ़ाई एक साथ होती है. बिना कारण तटस्थ रहते हैं, कारण मिलने पर उन्मादी हो जाते हैं. तिनके का बवंडर और चिंगारी का दावानल बनाना यहां खूब चलता है. आधी-अधूरी बतकही हो, लंबी डोर की पतंग से अफवाहों के बादल उड़ा देना, ये निठल्ले लोग खूब जानते हैं. सफलता मिले न मिले, इनकी कोशिश चालू रहती है.

आबादी का एक तिहाई वर्ग ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य ऊंची जातियों का है, बाकी नीची जाति का निर्धन वर्ग. ब्राह्मण, ठाकुर आदि मजदूरों, निर्धन वर्ग को हथियारों की तरह इस्तेमाल करते हैं. वह लोग और उनके परिवार के लोग खटे ही, उसके साथ उनकी खुशामद में लगा रहे, कमर दोहरी करके उनकी जयकार करता रहे. पूर्णतः गुलाम की तरह रहे. कामगार मजदूर लोहार, कुम्हार, धोबी व अन्य. अन्य इसीलिए कि निर्धनता की अपनी पहचान होती है.

किसी बड़े घर में अगर कोई भोज हो रहा है, तो कौन जाति का व्यक्ति कहां बैठेगा, किस पंगत में खाएगा, यह सब पहले ही से तय है. किस-किस वर्ग के व्यक्ति के, कुएं-बावली से पानी निकलने पर कुआं बावली अश्पृश्य हो जाएगी, यह भी तयशुदा होता है. सदियों से चली आ रही परंपराओं की निरंतरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी हुई है. गलत-सही का विचार कोई नहीं करता, न विरोध न प्रतिरोध. ‘देवो का भाख है यह,’ कोई क्या कर सकता है?

धनी, सम्माननीय वर्ग अपने रसूख और पैसे के बल पर, गरीबों का खून चूस कर, बेईमानी से गरीबों की जमीन पर कब्जा करता है. वह इस तरह अपनी काश्त बढ़ाते हैं. कर्जों के बीच फंसा गरीब अपने ही खेतों में मजदूरी करने को

बाध्य होता है.

गांवों के कुछ पढ़े-लिखे, जो बाहर रहते हैं, आकर अपनी पुश्तैनी के लिए भिड़ते भी हैं, तो थाना पुलिस की खरीद-फरोख्त के कारण. अपराधी खुली हवा में खेलते हैं और निर्धन माटी का बेटा मार दिया जाता है. सब कुछ इसी रूप में है.

गांव में पहले जो रजवाड़े, सामंत, जमींदार होते थे, वह अब विधायक प्रधान होते हैं. चलती है चुनाव की प्रक्रिया. वोटिंग में धनी वर्ग का ही दबदबा रहता है. वोटरों को मोहित करने की रंग-बिरंगी चालें चली जाती हैं. किसी निर्धन की हिम्मत कहां कि वह ब्राह्मणों ठाकुरों के सामने खड़ा भी हो सके. पुराने राजनीतिबाजों ने नए पांसे फेंकने शुरू कर दिये हैं. गांव के प्रतिष्ठित ठाकुर परिवारों में मुख्य थे- ठाकुर दिग्विजय सिंह, ब्रजपाल सिंह, जगबीर सिंह, रामपाल सिंह आदि.

ठाकुर रामपाल सिंह का व्यक्तित्व भिन्न था. वह खुली सोच वाले बड़े काश्तकार थे. बेटे सौरभ के खेती सम्हाल लेने से कोई जिम्मेदारी नहीं थी. उनका व्यवहार मृदु, संस्कारी बदलाव के समर्थक.....शिक्षा, उनकी प्राथमिकता थी. चिंतन में भी वह पुरानी स्थापनाओं में परिवर्तन के इच्छुक थे. बेटी

सुगन्धा के लिए उनके सपने इन्हीं आदर्शों पर आधारित थे. उनकी सोच थी कि सिद्धांतों की राह पर पहले खुद चलना पड़ता है. उपन्यास की नायिका सुगंधा की परवरिश इसी सोच के अंतर्गत हुई थी. सुगंधा सुंदर, विवेकशील, संस्कारी और

मेधावी लड़की थी.

इसके विपरीत, नायक प्रमोद दलित मजदूर सुखदेव का बेटा था. ह्रष्ट पुष्ट, सौम्य, बुद्धिमान, सुंदर, पढ़ाई में तेज प्रमोद सुगंधा का सहपाठी था. उसे भा गया था. सुखदेव ने प्रमोद की पढ़ाई चलाने के लिए पूरी सामर्थ्य और शक्ति झोंक दी थी, पर खर्च किसी तरह पूरे नहीं पड़ते थे. किसी तरह प्रमोद की पढ़ाई चल रही थी. ऊंची कक्षाओं की पढ़ाई की बड़ी जरूरतें थीं. अभाव ही अभाव की स्थिति थी.

गांव के मित्र स्कूली पढ़ाई के लिए प्रमोद की मदद लेते थे. विशेषकर रेखांकित है मित्र राघवेन्द्र. वह ठाकुर था. सारे स्कूल के काम, प्रश्नोत्तर कॉपी करना, यह वह लापरवाही से प्रमोद के ऊपर डाल देता था. खुद घूमता था और प्रमोद अपनी ढिबरी का तेल जलाता था. मित्र भाव से काम तो कर देता था, लेकिन इस बेगार को लेकर वह एक मानसिक द्वंद्व में फंस जाता था. अपने अस्तित्व का सम्मानजनक स्वीकार उस ग्रामीण समाज में संभव ही नहीं था. उम्र की परिपक्वता के साथ ही, यह सारी चिलगोजियां उसकी समझ में आ रही थीं. मौन रहने पर भी उसकी इंद्रियां इस भेदभाव को गहराई से महसूस करती थीं.

मित्रों के व्यंग्य बाणों से आहत होता प्रमोद पल पल प्रताड़ना झेलता था. अपनी अभावों की धूल से भरी कमीज की सफेदी बनाए रखने में उसे काफी मुश्किल होती थी. स्थिति समझते हुए उसका मौन रहना ही श्रेयस्कर था.

सुगंधा और प्रमोद दोनों को ही उच्च श्रेणी के नंबर मिले थे. आगे की पढ़ाई के लिए सुगंधा लखनऊ चली गई, और प्रमोद इलाहाबाद. सुगंधा समृद्ध थी और प्रमोद को कॉलेज की पढ़ाई जारी रखना मुश्किल था. इसके लिए सुखदेव को गांव की मजदूरी छोड़कर अहमदाबाद जाना पड़ा. प्रमोद के सुंदर मामा ने उन लोगों की मदद की. फिर भी वह देर सबेर ही पैसा भेज पाता था, लेकिन ईश्वर के करोड़ों हाथ हैं. इन्हीं हाथों के रूप में मनोज, सुगन्धा, सुन्दर मामा और उसके कमरे का साथी महेन्द्र उसे मिले थे. इन लोगों ने उसका आत्मिक बल बढ़ाया.

सुगंधा और प्रमोद, जातीय समीकरण के दो ध्रुव, बेमेल संगति, इसका क्या भविष्य हो सकता है. कंकरीली पथरीली पगडंडियों पर चल कर भी कहीं न पहुंचने वाला- समाज में ऐसे जोड़ जल्दी ही समाप्त कर दिए जाते हैं. चाहे वह, कितने भी आदर्शों से बंधे हुए न हों.

प्रेम शाश्वत होता है. दुनिया की सारी भौगोलिक सरहदों को पार करता हुआ, प्रेमियों की उत्यांतिक खोहों में उतर कर कहां छुप जाता है, पता नहीं चलता. प्रेम करने वाले स्वयं में मगन रहते हैं. और प्रेम की खुशबू चारों ओर फैल जाती है.

जहीन, सौम्य, प्रमोद न जाने कब से, कितने ही चोर दरवाजों को पार करता हुआ सुगंधा के अंतर में स्थापित हो गया था. सुगंधा निडर और बेबाक थी, पर प्रमोद आगामी परिस्थितियों को लेकर भयभीत था.

संस्कृति, आचार-विचार रहन-सहन के तौर तरीकों ने मानव को ही टुकड़ों में बांट दिया है. व्यवस्था के इन्हीं दुर्दमनीय खरोंचों से आक्रांत थम थम कर दलदली गलियों में चलने वाले प्रमोद को सफलता की ओर ले जाने वाली पगडंडियों पर, परंपराओं से समन्वय बैठाने में त्रासद दर्द झेलना पड़ा था.

प्रेम ही वह शक्ति थी जिसने प्रमोद को अपना आत्मविश्वास बनाए रखने में मदद की थी. कभी सामाजिक संरचना के उलझे हुए तंतुओं को तोड़ने का साहस वह कर सका.

सुगंधा गांव में प्रमोद के घर गई थी. यह एक कदम ज्वलनशील हो सकता था, लेकिन.....

‘‘उसका चेहरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था. उसके चेहरे पर फूल खिले हुए थे.’’

प्रमोद की घबराहट देख कर उसने कहा-

‘‘मुझे जितनी अपनी उड़ान की चिंता है, उतनी ही आपके जीवन की भी.’’

सुगंधा और प्रमोद के इसी प्रेम का एक प्रेरणा, एक लक्ष्य में परिवर्तित होते जाना, कुछ मीठी-मीठी अनुभूति जगाता था. असीम धैर्य से, अपने प्रेम का पाथेय लिए, दोनों ही सब भूलकर पढ़ाई में लग गए. अब उनकी अर्जुन दृष्टि केवल लक्ष्य पर थी.

इधर पिता सुखदेव और माता जगरानी की चिंता.....

‘‘अगर ऐसा हुआ तो न केवल प्रमोद के लिए, बल्कि पूरे परिवार के लिए बुरा होगा. पता नहीं कोई जिन्दा बचेगा भी कि नहीं....एक गरीब मजदूर और ठाकुर परिवार की बराबरी....’’

प्रशासनिक सेवा में चयन के बाद सुगंधा और प्रमोद के चुपचाप, अपने कुछ नजदीकियों के बीच विवाह कर लिया. प्रमोद के माता-पिता का आशीर्वाद मिला. सुगंधा को इस अवसर पर पिता का होना चुभ तो रहा था, पर पिता का सपना पूरा कर, उसने उनका आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था. ठाकुर रामपाल सिंह का मानस इस बदलाव के लिए तैयार था. इस जगह पर आने के लिए उन्हें कितने तूफानों से गुजरना पड़ा होगा, यह कोई नहीं जानता.

उपन्यासकार सोचता है कि अंत इसका सुखांत होना चाहिए या दुखांत. सुगंधा और प्रमोद- विपरीत ध्रुवों के इस युग्म को, इस सकारात्मक मोड़ पर लाने के लिए, धारा से उलट चलने के लिए, यह उनका साहसिक कदम है. विशेषकर, गांवों के माहौल को नजर में रखते हुए.

समाज में छुआछूत, जातिभेद के निराकरण के लिए, स्वर्ग से, किसी मसीहा को, नहीं उतरना है. यह पहल खुद ही करनी होगी. शहरों में प्रोफेशलन रिश्तों के लिए जाति कोई टैबू नहीं है.

भाषा में प्रवाह है, शैली रोचक. 446 पृष्ठों का यह उपन्यास पूरे समय आपको बांध कर रखता है. (उपन्यास अपेक्षाकृत आकार में कुछ छोटा हो सकता था, यदि व्यक्तिगत टिप्पणी थोड़ी कम कर देते.) कवर आकर्षक है.

राकेश भ्रमर के इस उपन्यास का पाठक जगत में स्वागत होगा. पाठकों का आशीष मिलेगा. ऐसा मेरा मानना है.

शिक्षा के उजाले, अंधेरों में, अपना रास्ता बनाने में समर्थ होते हैं. आवश्यकता इस बात की है कि पहल जिजीविषा पूर्ण हो.

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कृति : काले सफेद रास्ते (उपन्यास)

लेखक : राकेश भ्रमर

प्रकाशक : प्रज्ञा प्रकाशन, 24, जगदीशपुरम्, निकट त्रिपुला चौराहा, रायबरेली-229001 (उ.प्र.)

पृष्ठ : 446

मूल्य : 660 (सजिल्द)

: 400 (पेपरबैक)

सम्पर्कः ई-144, साउथ मोती बाग,

पोस्ट नानकपुरा, नई दिल्ली

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रचनाकार: प्राची // जूनी 2017 // समीक्षात्मक आलेख // यदि पहल जिजीविषापूर्ण हो // सुषमा श्रीवास्तव
प्राची // जूनी 2017 // समीक्षात्मक आलेख // यदि पहल जिजीविषापूर्ण हो // सुषमा श्रीवास्तव
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