जमीन और आसमान कहीं नहीं मिलता नहीं ऐसा तो नहीं है दृष्टि के अंतिम बिन्दु क्षितिज में तो मिलता दिखता है लेकिन ये तो आभास है । क्या ये आभास है...
जमीन और आसमान कहीं नहीं मिलता नहीं ऐसा तो नहीं है दृष्टि के अंतिम बिन्दु क्षितिज में तो मिलता दिखता है लेकिन ये तो आभास है । क्या ये आभास है ? पृथ्वी की सीमा पार करने पर तो पूरी जमीन सहित पूरी पृथ्वी ही आसमान की गोद में खेलती दिखाई पड़ती है। तो क्या इस आभासी दुनिया से सत्य जानने के लिए सीमाओं को तोड़ना होता है ? क्या हमेशा सच को जानने के लिए सीमाओं को तोड़ना पड़ता है? और फिर हमेशा सच को जानना जरूरी है क्या ?
अर्थव! अर्थव! मैं तुम्हें कब से आवाज दे रहीं हूं और तुम कहां खोये हुए हो ? देखो कनस्तर खाली हो गया है पत्नी अपर्णा की बात सुनकर अर्थव का ध्यान अब आसमान से खाली कनस्तर पर आ गया था। ऐसा अक्सर होता रहता था। हालांकि अर्थव जानता था कि कनस्तर खाली है फिर भी उसने उसे एक बार अन्दर तक देखा।
अब अर्थव कनस्तर को भरने के लिए बाहर निकलता है। बाहर सड़क पर टहलते टहलते अर्थव फिर विचारों में गुम हो गया । उसके खराब आर्थिक हालात ने उसे एक अच्छी चीज भी दी थी। वो यह कि उसका नशा उससे दूर करा दिया था। लेकिन आज भी वो कभी कभी सिगरेट पी लिया करता था। सड़क पर ही उसने किनारे पर पान की दुकान देखकर सिगरेट लेने का मन बनाया और जेब में हाथ डाला लेकिन जीन्स की जेब में कुछ भी नहीं था फिर उसने आगे पीछे सभी जेबों को कई बार देखा की कहीं एक भी सिक्का निकल आये पर कुछ भी नहीं निकला । पहले अर्थव खाली जेब देखकर थोड़ा मायूस हुआ फिर थोड़ा खुश भी कि चलो जेब खाली है लेकिन जेब तो है। उसे उसी दिन पता चला कि संग्रह करने की क्षमता भी खुशी प्रदान करती है। अर्थव के पास बस उतना ही पैसा था जिसमें कनस्तर भर सके और वो उसे अपने शर्ट की ऊपर वाली जेब में संभालकर रखा था। ट्यूशन पढ़ाकर खुद का खर्चा तो निकल जाता था लेकिन अपर्णा से शादी के बाद से हालात बिगड़ गये थे। अपर्णा ने परिस्थितियों के सामने सरेन्डर कर दिया था कि वो कॉपरेटिव थी ये तो पता नहीं लेकिन वो अर्थव से कभी कोई मांग या अतिरिक्त चीजों के लिए नहीं कहती थी। अर्थव खुद भी चाहता था कि अपर्णा उससे जिद करे और बोले कि ‘‘मुझे वो वाला टॉप चाहिये’’ या ’’देखो पड़ोसी ने ये ले लिया है तुम कब लोगे?’’ या ‘‘आज शहर में एक्जीबिशन लगी है घूमने चलते हैं।’’ लेकिन अपर्णा कभी कुछ भी नहीं बोलती थी सिवाय खाली कनस्तर के और कभी अर्थव की भी हिम्मत नहीं हुयी अपर्णा से ये सब पूछने की।
खैर अब पान की दुकान में अर्थव को कुछ मोहल्ले के लोग सिगरेट पीने के साथ गप लड़ाते दिख गये तो अर्थव भी सिगरेट के कुछ कश मारने के उद्देश्य से उनके बीच जाकर वार्ता में शामिल हो गया । पान की दुकानों की वार्ता हमेशा ही दिलचस्प हुआ करतीं हैं। उसमें से एक व्यक्ति ने पूछा ‘‘ अरे यार अब इतनी गर्मी तो हो गयी बरसात कब आएगी’’ तो उसका जवाब सामने वाले अपने आंखों के ऊपर भौहों के समानांतर हथेली लगाकर दक्षिण दिशा की ओर आसमान देखते हुये दिया ‘‘ अब मानसून आ रहा है।’’ लेकिन इस वार्ता से अर्थव को सिगरेट की एक कश मिल चुकी थी और अब वो भरा कनस्टर लेकर घर की ओर चल दिया। और फिर सोच में डूब गया वो जानता था कि भूख मुख्य समस्या नहीं है क्यों कि कई बार ऐसे हालात आ चुके थे कि अर्थव कनस्टर भरने में असमर्थ रहा था और उस समय अपर्णा के कुछ दोस्त काम आये थे। समस्या ये थी कि अर्थव के द्वारा वो कनस्तर कैसे भरा जाए? और अर्थव के स्वभाव की भी अपनी समस्या थी कि वो जानता था कि जब भी वह इस कनस्तर को भरने के बारे में सोचने लगता है तो वो उन तमाम चीजों से दूर होने लगता है जिसको देखकर अपर्णा ने उसे कालेज में प्रेम करना शुरू किया था। इन्हीं तमाम उधेड़बुन में चलते चलते अर्थव अपने घर पहुंचा जहां अपर्णा को पहले से ही उम्मीद थी कि अर्थव वापस आने में इतना ही समय लगाएगा। दोनों का जीवन बहुत स्थिर सा था। सिवाय ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों के सिवाय किसी का आना जाना उसके घर में नहीं था।
अपर्णा के पास कुछ चमकीले पत्थर, बालू में मिलने वाले छोटे छोटे शंख और कागज के हाथ से बनाए हुए कुछ टॉप्स थे जो कि खुद अर्थव ने अपर्णा के लिए कालेज में बनाए थे और पत्थर व छोटे शंख भी अर्थव ने ही अपर्णा को दिए थे। आज भी जब अर्थव को ऐसे चीजें सड़क पर या कहीं मिल जाती थीं तब वह उसे अपर्णा को लाकर दे देता था। कई बार तो रंगीन पत्थरों की तलाश में नदी के तट तक भी चला जाता था।
अपर्णा अपने मौजूदा हालात के लिए कभी भी अर्थव को जिम्मेदार नहीं ठहराती थी और न ही उन हालात के प्रति कभी भी असंतुष्टि जाहिर करती थी, लेकिन सामने रहने वाली विभा और बगल वाली स्नेहा बार-बार उसको उसके इन हालात का बोध करा जाती थीं। इसलिए कहीं न कहीं अपर्णा भी अब इस विषय पर सोचने लगी थी। लेकिन उसने कभी अर्थव से इस विषय पर कुछ नहीं कहा क्यों कि वह उसके स्वभाव को शुरू से जानती थी। उसने अपनी हालात की चर्चा अक्सर उसके जरूरत पर काम आने वाले दोस्त सुयश से की। सुयश एक कम्पनी में इवेन्ट मैनेजर था हालांकि वो खुद भी बस किसी तरह ही एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर पा रहा था लेकिन उसने अपर्णा की मदद करने को बोला और अपने बॉस से बात की । उसके बॉस ने उसको इन्टरव्यू के लिए कॉल बुलाया। इन्टरव्यू पर आने के लिए फार्मल कपड़ों की व्यवस्था भी सुयश ने ही अपर्णा के लिए की,बॉस ने अपर्णा को बहुत गौर से देखा और बिना कोई खास प्रश्न किये ही बतौर रिसेप्शनिस्ट के तौर पर नियुक्त कर दिया। अपर्णा भी अपना काम बहुत मन लगाकर करने लगी बस कभी-कभी बॉस के कुछ ऐसे मजाकों से आहत हो जाती थी जो कि उसे पसन्द नहीं आते थे। ये बात वो सुयश से बताती थी, सुयश की भी हिम्मत कभी बॉस से बोलने की तो नहीं होती थी लेकिन वो कहता था कि अभी किसी तरह चलाओ फिर हम तुम दोनों कहीं और जॉब की जाएगी। मैं खुद भी यहां से परेशान हूं।
अब अपर्णा का ज्यादातर समय सुयश के साथ ही बीतता था और उसके घर के हालात भी पहले से बेहतर होने लगे थे। सुयश और अपर्णा ऑफिस में टिफिन साथ साथ करते थे। सुयश ने भी अब एक बेहतर जॉब अपने और अपर्णा के लिए खोज ली थी। बढ़ते हुयी दौड़-भाग को देखकर अपर्णा ने एक एक्टिवा खरीदी और बड़ी खुशी के साथ अथर्व को दिखाई । अथर्व भी उसको देखकर बहुत खुश हुआ लेकिन उसकी पहली सवारी के लिए जब अर्थव अपने शरीर को गतिशीलता देने ही वाला था कि अपर्णा सुयश को बैठाकर निकल गई। यह देखकर अथर्व कुछ देर सोचता रह गया फिर और फिर अपने जीवन में लग गया।
लेकिन अब घर में ज्यादातर बातें सुयश की होने लगी थीं। अथर्व भी देख रहा था कि अब उसके लाए गये पत्थरों व शंखों को संभालकर नहीं रखा जाता वे इधर-उधर बिखरे दिख जाते हैं। कभी भी अगल बगल के वातावरण और लोगों से प्रभावित न होने वाला अथर्व अब कहीं न कहीं अपनी तुलना सुयश से करने लगा और कभी-कभी देर रात से आने का कारण और ओवर वर्क करने का कारण अपर्णा से पूछ लेता था, जो कि वो इससे पहले कभी नहीं पूछा करता था। अब अथर्व को कहीं न कहीं ये बात महसूस होने लगी थी कि अपर्णा उसके प्रति उदासीन सी हो रही है। वो इसका कारण अपनी बेहद सीमित जरूरतों में भी खुश रहने को मानता था। इसलिए उसे लगने लगा कि अब उसे भी व्यवसायिकता की ओर बढ़ना चाहिए। अब वह अपने दोस्तों से मिलकर उनकी कोचिंग्स में पढ़ाने लगा तथा धीरे-धीरे व्यस्त रहने लगा। अब घर लौटने पर अपर्णा की मुलाकात बहुत कम अथर्व से हो पाती थी। अथर्व को भी अब इस व्यस्तता में आनन्द आने लगा था । अब उसका ध्यान भी नहीं जाता था कि उसके लाए गये पत्थर और शंख कहां रखे जाते हैं। और अब तो वह इन चीजों को लाना भी बन्द कर दिया था। उसे रंग-बिरंगे पत्थरों की तलाश में नदी तक गये कितना समय हो गया था, वो उसे खुद भी याद नहीं रहा। अब उसे सिर्फ और सिर्फ अपने व्यवसाय को प्रसारित करने की ही धुन सवार रहती थी। अब तो उसने खुद की एक कोचिंग भी खोल ली थी। अब न कभी अपर्णा के पास आफिस में अथर्व का ये पूछने के लिए कॉल आता कि ‘खाना खाया कि नहीं’ और न ही लौटने पर यह पूछा जाता कि ‘आज का दिन कैसा रहा?’ ये सब देखकर अपर्णा को भी लगने लगा कि अथर्व में अब अब काफी अन्तर आ गया है वो एक दिन ऑफिस न जाकर उसके लाए पत्थरों और शंखों को देखती रही । उसके कागज के बनाए टॉप्स को पहनकर उसके आने का इंतजार कर रही थी। अर्थव काफी देर के बाद घर लौटा और अपर्णा उसके पास उसके कागज के बनाए टॉप्स पहनकर गयी और पूछी कैसी लग रहीं हूं ? अथर्व ने भी जवाब दिया कि ‘हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो।’ फिर अथर्व ने बोला अच्छा जल्दी से खाना खा लिया जाए निकलना है। तब अपर्णा ने बोला कि अरे कहां निकलना है आज हम आफिस नहीं गये हमने तो सोचा आज दोनों पूरा दिन साथ में बिताएंगे लेकिन तुम तो । अथर्व ने कहा नहीं फिर कभी अभी जाना है काम है।
तब अपर्णा बहुत गुस्सा हो गयी और बोली अरे अथर्व तुम्हें क्या हो गया मैं बहुत दिन देख रहीं हूं तुम अब पहले जैसे एकदम नहीं रहे जिससे मैंने शादी की थी। अर्थव कुछ नहीं बोला अपर्णा ने फिर जोर से बोला बताओ मैं तुम्हीं से पूछ रहीं हूं। तब अथर्व ने एक लंबी सांस ली और बस इतना बोला ‘‘क्यों कि अब क्षितिज नहीं दिखता’’। और कहते हुए चला गया।
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सक्षम द्विवेदी।
रिसर्च इन इण्डियन डायस्पोरा, महात्मा गांधी इण्टरनेशनल हिन्दी यूनिवर्सिटी,महाराष्ट्र।
सम्पर्क : 20 नया कटरा दिलकुशा पार्क इलाहाबाद।
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