विष्णुनगर के रामहर्ष तिवारी एक इंटर कालेज में संस्कृत विषय के लेक्चरार थे। उनके पास पुश्तैनी खेतीबाड़ी और जमीन-जायदाद बहुत अधिक थी। उनकी...
विष्णुनगर के रामहर्ष तिवारी एक इंटर कालेज में संस्कृत विषय के लेक्चरार थे। उनके पास पुश्तैनी खेतीबाड़ी और जमीन-जायदाद बहुत अधिक थी। उनकी जमीन कई गाँवों तक फैली हुई थी। बिल्कुल भरा-पूरा घर था। कहीं कोई कमी न थी। तिवारी जी बड़े मृदुभाषी और निष्छल स्वभाव के पुरूष थे। सुबह-शाम नियमित रूप से गीता का पाठ करते।
उनकी तिवराइन अंजलिका देवी भी उन्हीं की भांति अत्यंत सुशील, विनम्र और मृदुभाषी थीं। इतना सब कुछ होने पर भी पति-पत्नी काफी उदास और बुझे-बुझे से रहते। दिन-रात उन्हें बस एक ही चिंता खाए जा रही थी कि सारी उम्र निकल गई लेकिन अपने पास कोई संतान नहीं है। परमात्मा ने न जाने क्यों हमें कोई औलाद न दी। शायद पिछले जन्म में हमसे ही कोई खता हो गई। इस जन्म में ईश्वर हमें उसी गुनाह की सजा दे रहा है। हमारे भाग्य में निःसंतान ही मर जाना बदा है। लगता है पहाड़ जैसा यह बोझ अब हमारे साथ ही जाएगा।
आज-कल करते-करते पति-पत्नी धीरे-धीरे बुढ़ापे की ओर कदम बढा़ने लगे। उनके मन में काँटें की भांति हमेशा यही बात खटकती रहती कि धूप और बरसात में कड़ी मेहनत से कमाई गई इस अकूत दौलत का वारिश किसे बनाऊँ? इस दुनिया का दस्तूर अब ऐसा हो गया है कि लोग अपने जन्मदाता माता-पिता की सेवा करना ही पसंद नहीं करते तो ऐसे में भला हमारी सेवा कौन करने को राजी होगा? जब हम चलने फिरने लायक भी न रहेंगे तक हमें सहारा कौन देगा?
यदाकदा संतान के बारे में सोचते-सोचते वे एक अजीब सी दुविधा में उलझकर रह जाते। वे कभी सोचते कि लाओ अपने किसी रिश्तेदार के बच्चे को गोद ले लें तो कभी सोचने लगते कि बड़ा होकर गोद लिया हुआ बच्चा हमारा आदर-मान करेगा भी या नहीं इसकी क्या गारंटी है। इस जग में बच्चे जब अपने सगे मां-बा पके ही नहीं हो रहे हैं तो हमें कौन पूछेगा?
[ads-post]
पति-पत्नी बार-बार यही सोचते कि हम जिसे भी अपने धन का मालिक बनाएंगे वही एक न एक दिन हमें धोखा देगा। वह हमारे गाढ़े खून-पसीने की कमाई को अपनी मुट्ठी में करते ही तोते की तरह हमसे आँखें फेर लेगा। आज की आधुनिक युवा पीढ़ी कुछ कहने पर अपने मां-बाप को ही आँख दिखाने लगती है तो किसी दूसरे की औलाद का क्या भरोसा?
आखिर, बढ़ती आयु को देखकर बाबू रामहर्ष पति-पत्नी ने आपस में मशविरा किया। उन्होंने फैसला किया कि अब हमारे नेत्र न मालूम कब बंद हो जाएंगे। इसलिए हम अपनी सारी जायदाद अपने शिक्षित, होनहार और हॅसमुख भान्जे मयंक के नाम लिख देंगे। वह हमें कुछ समझे या न समझे उसकी मर्जी पर, हम किसी और को इसका स्वामी न बनाएंगे। हो सकता है वह हमारे साथ अच्छा बर्ताव करे। कोई जरूरी नहीं कि संसार के सभी युवक एक जैसे हों। आखिरकार, मयंक है तो अपना ही खून। वह हमारे साथ कोई छल-कपट थोड़े ही कर सकता है।
यह सोचकर एक दिन पटवारी को बुलाकर रामहर्ष बाबू अपना सब कुछ मयंक के नाम कर दिए। वैसे मयंक भी थे बड़ी किस्मत वाले। वह तकदीर के इतने धनी थे कि क्या कहना? मयंक अब उनके गोंद लिए हुए दत्तक पुत्र बन गए। उनकी किस्मत पलटी तो न हर्रै लगी न फिटकिरी और काम भी चोखा बन गया। बिना किसी परिश्रम के ही उनके हाथ मानो कुबेर का खजाना लग गया। जगतपिता ने वाकई छप्पर फाड़कर उन्हें अपार दौलत दे दी। मयंक अपने माता-पिता कें इकलौते पुत्र तो थे ही तिवारी परिवार के भी कानूनी इकलौते पुत्र बन गए। अब वह देखते ही देखते एक नहीं वरन दो-दो घरानों के लाडले बन गए। एक ही साथ उन्हें दोनों घरों का स्नेह, दुलार मिलने लगा।
तिवारी जी जमीन-जायदाद अपने नाम होते ही मयंक के मां-बाप ने उन्हें तिवारी जी और उनकी तिवराइन की देखभाल के कामकाज में लगा दिया। अब मयंक अपने माता-पिता की आज्ञा से अपने मामा, मामी की जीभर सेवा करने में जुट गए। कुछ ही दिनों में अपनी सेवा से उन्होंने उनका दिल जीत लिया। मयंक को पाकर वृद्धावस्था में वे धन्य हो गए। पति-पत्नी को इतनी खुशी हुई कि वे फूले न समाते। मयंक बाबू उनका बड़ा ख्याल रखते। वह उनकी हर छोटी-बड़ी बात को बिना किसी नानुकर के बड़ी प्रसन्नता से सिरोधार्य कर लेते। उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर तिवारी दंपति अपनी खुद की संतान न होने का गम आहिस्ता-आहिस्ता भूल गए। मियां-बीवी उन्हें ही अपनी असली संतान मानने लगे।
वैसे मयंक थे बड़े लाजवाब किस्म के नौजवान। पढ़ाई-लिखाई जैसे फालतू काम में मन लगाकर दिमागी कसरत करना उनके बूते की बात न थी। बड़े मुश्किल से तीन साल में हाई स्कूल पास हुए। उन्हें बचपन से ही कुश्ती लड़ना और खेल-कूद में लगे रहना काफी पसंद था। बिना दिमाग वाले कामों के लिए वह हमेशा सहर्ष तैयार रहते थे। बेचारे दसवीं पास करते-करते पूरे अठारह साल के हो गए। अब आगे और पढ़ाई करने से वह साफ-साफ करतराने लगे। मेहनत करते-करते उनका मन पढ़ाई-लिखाई से ऊब चुका था।
मयंक के माता-पिता की बड़ी प्रबल इच्छा थी कि मयंक अगर थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर किसी काम-धंघे से लग जाए तो हम कोई अच्छा सा रिश्ता देखकर उसका विवाह वगैरह कर दें। मयंक के पिता हृदयनाथ पाण्डेय और मां सुजाता देवी बहुत ही मिलनसार और मृदुल विचार के थे। जानेमाने ब्राह्मण होते हुए भी वे जाति-पाँति के ढोंगों से सदैव कोसों दूर रहते थे।
उनका मत था कि इंसान को उसका कर्म ही ऊॅच और नीच बनाता है। अगर ब्राह्मण होकर भी कोई ब्रह्म को नहीं जानता है तो वह ब्राह्मण ही क्या? ब्राह्मण तो वही है जो ब्रह्म को जानता है। मनुष्य अपने जन्म से नहीं बल्कि अच्छे कर्मों से ही महान बनता है। उनके इसी विचार के समर्थक तिवारी जी पति-पत्नी भी थे। छूआछूत जैसे संक्रामक रोग के लिए उनके हृदयपटल पर लेशमात्र भी जगह न थी। उनका विचार था कि जब सब लोग एक ही ईश्वर की संतान हैं तब आपस में यह भेदभाव क्यों? मनुष्य, मनुष्य के बीच में जात-पाँत की दीवार नहीं होनी चाहिए।
मयंक बाबू मजबूत कद-काठी के लंबे-चौड़े और हट्टे-कट्ठे युवक थे ही दसवीं पास होते ही वह एक रोज गोरखपुर छावनी गए और जाकर पुलिस में सिपाही बन गए। बंदरों की भांति उछलने-कूदने में वह माहिर थे ही इसलिए पुलिस में जाने के लिए उन्हें कुछ खास मशक्कत न करनी पड़ी। उनका गठीला बदन हाकिमों के मन भा गया और सहर्ष उन्हें चुन लिया।
अलग-अलग जगहों पर ट्रेनिंग लेने के बाद मयंक बाबू एक पुलिस थाने में तैनात कर दिए गए। उन्हें कभी किसी थाने में लगा दिया जाता तो कभी किसी थाने में। सरकारी नौकरी मिलते ही बाबू हृदयनाथ एक कुलीन, सुशिक्षित, सुघड कन्या देखकर बड़ी धूमधाम से उनका विवाह कर दिए। इससे उनकी सारी चिंता दूर हो गई। वह एकदम निश्चिंत हो गए। उनके सिर से एक बड़ा बोझ उतर गया। वह एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए।
मयंक बाबू की नई नवेली पत्नी कविता बहुत ही सुदर और मनमोहक नाक-नक्श की थी। मानो वह सचमुच कोई कुलदेवी थी। गृहकार्य और पाक-कला में वह इतनी प्रवीण थी कि बाबू हृदयनाथ पाण्डेय के घर में कदम रखते ही उसने सबका मन मोह लिया। उसे पाकर पाण्डेय दंपति का दिल बाँग-बाँग हो गया। कुछ दिनों में वह उसकी भूरि-भूरि तारीफ करने लगे। वह उसकी प्रशंसा करते कभी न थकते। पाया। उसकी वाणी में कोयल जैसी मिठास थी। उसके हँसने पर ऐसा लगता जैसे ओठों से फूल झड़ रहे हों।
कविता जैसी व्यवहारकुशल जीवनसंगिनी मिलने से मयंक की तबीयत एकदम हरी हो गई। वह उस पर जान छिड़कने लगे। उनका मनमंदिर कुलाँचे भरने लगा। शादी के कुछ दिन बाद कविता अपने पतिदेव के साथ तिवारी घराने की बहू बनकर वहाँ रहने लगी। वहाँ जाते उसने उनके हृदय पर भी कब्जा जमा लिया। अब उन्हें औलाद न होने का तनिक भी कष्ट न था। बुढ़ापे में उन्हें पुत्र तो मिला ही था एक रूपवती, गुणवंती पुत्रवधू भी मिल गई।
कविता बिल्कुल सगे सासु-ससुर के समान उनकी आवभगत करती। उसके सेवाभाव को देखकर तिवारी जी और तिवराइन एकदम गदगद हो गए। अब उनके होठों पर सिर्फ एक ही बात रहती। वे बार-बार यही कहते रहते कि बहुत अच्छा हुआ। परमात्मा ने हमें कोई संतान न दी। क्या मालूम हमारे प्रति उसका व्यवहार कैसा रहता। आसमानी उड़ान भरने वाली औलाद से भगवान ही बचाए। ऐसी निकम्मी संतानों के मां-बाप इधर-उधर धक्के ही खाते फिरते हैं।
दो कुलों के बीच मयंक बाबू अकेले थे ही उनका ब्याह होते ही उनके दोनों परिवारों में आशा की बेल पनपने लगी। उधर पाण्डेय जी पति-पत्नी की दिली ख्वाहिश उत्पन्न हुई कि अब अपने बगीचे में भी कोई कली खिल जाए और हम जल्दी से जल्दी दादा-दादी बन जाएं। घर में नन्हें-मुन्ने बच्चों की किलकारियाँ गूँजेंगी तो मन को कितना सुकून मिलेगा? बिना बच्चों के घर सूना-सूना सा लगता है।
इधर तिवारी जी पति-पत्नी के मन में भी लालसा पैदा होने लगी कि अब बच्चों से पूरा घर ही भर जाए तो कितना बढ़िया रहेगा। पूरी जिंदगी हम एक बच्चे की खातिर तरसते रहे। इस अवस्था में हमें कोई एक गिलास पानी देने वाला तक न था लेकिन ईश्वर ने हमारी सुन ली और सब कुछ यूँ ही हासिल हो गया। अब भगवान हमारे मन की बस एक मुराद और पूरी कर दे कि मयंक को बाप बना दे और कविता बेटी को मां। इससे उनकी जिंदगी खुशी-खुशी गुजर जाएगी। उन्हें बिना बच्चों के हमारी तरह किसी असहनीय पीड़ा का अहसास न होगा।
लेकिन, मयंक बाबू और कविता का विवाह हुए धीरे-धीरे कई साल बीत गए। अब तक उनके बगीचे में एक भी फूल न खिला। समय के साथ-साथ एकदम हराभरा बगीचा ऊसर दिखाई देने लगा। विधि का विधान भी बड़ा विचित्र है। उसके विधान को कोई नहीं जान सकता। उसकी मर्जी को कौन जाने कि कब क्या से क्या कर दे? तिवारी जी तो निःसंतान थे ही उनके घर में रहकर मयंक बाबू भी बे-औलाद ही रह गए। संतान नाम की कहीं कोई किरण दूर-दूर तक भी दिखाई न दे रही थी। इससे उनके सारे अरमान मिट्टी में मिलते दिखाई देने लगे। सपने चकनाचूर होकर विखरने लगे।
देखते-देखते मयंक बाबू चालीसा पार हो गए। बेचारी कविता एक बाँझ का जीवन जीने को बिवश हो गई। उसकी गोद सूनी की सूनी ही रह गई। दिन-प्रतिदिन ढलती उम्र देखकर वह मन ही मन कुढ़ने लगी। उसे इतनी पीड़ा का अनुभव होने लगा कि गुलाब के फूल की तरह उसका खिला हुआ चेहरा कुछ ही दिनों में मुरझा गया। उस पर मायूसी छा गई।
उसकी हँसी-ठिठोली न जाने कहाँ गुम हो गई। अपनी प्राणप्रिया को ऐसी वेदना की दशा में देखकर मयंक भी काफी चिंतित और दुःखी रहने लगे। पति-पत्नी के गमगीन रहने से पाण्डेय जी और तिवारी जी भी गम के सागर में डूबने लगे। उनकी सारी आशाओं पर पानी फिरता हुआ दिखाई देने लगा। एक फूल की खातिर मयंक बाबू ने कुछ डॉक्टर, वैद्य का सहारा भी लिया परंतु सब कुछ यों ही बेकार चला गया। कहीं कोई फायदा न हुआ। कुछ न समझ पाने पर सबने जवाब दे दिया। यह देख मयंक और कविता हताश हो गए। उनके मन में निराशा घर कर गई।
अंततः कविता ने हार-थककर खुद को एक बंध्या स्त्री मान ली। उसके ओठ ताक हँसते रहते मगर हृदय दिन-रात रोता ही रहता। उसका दिन तो किसी प्रकार व्यतीत हो जाता किन्तु रात गुजरने का नाम ही न लेती। किसी निःसंतान स्त्री के हृदय में कितनी पीड़ा और वेदना रहती है इसे भलीभांति वही समझ सकती है। उसके मन की शांति एकदम छिन जाती है। उसका दिल सदैव डूबता-उतराता रहता है।
मयंक बाबू के मन की व्यथा समझते ही कविता मन मारकर उनसे कहने लगी-स्वामी! हमारा नसीब ही खोटा है इसमें किसी दूसरे का कोई कसूर नहीं है। मेरी तकदीर में माँ बनने का योग नहीं है तो कोई बात नहीं पर, आपके भाग्य में बाप बनने का योग लिखा है। अतः मेरी मानिए कोई सुंदर, कुलवंती और सभ्य सी लड़की देखकर आप दूसरी शादी कर लीजिए।
वह फिर बोली-नाथ! हो सकता है उसी से हमारा वंश चल जाए। अब रही बात मेरी तो आप इसकी तनिक भी फिक्र न कीजिए। मैं अपने घर में आने वाली किसी भी लड़की को अपनी सगी बहन की तरह ही रखूँगी। उससे मेरी कोई खटपट न होगी। मैं उसके साथ ऐसे निभाऊँगी कि आपको कभी स्वप्न में शिकायत का अवसर न दूँगी।
यह सुनकर मयंक बाबू कहते-कविता! क्या तुम पागल हो गई हो? यदि फिर आइंदा कभी ऐसी बात की तो मैं तुमसे बात भी न करूँगा। बिना सोचे-समझे ही जो जी में आता है अनाप-शनाप बकने लगती हो। यह बात ठीक नहीं है। अरे! शादी के बीस-बाईस वर्ष बाद अब इन ऊटपटाँग बातों का क्या मकसद है? अगर हमारे हरे-भरे बगीचे में फूल ही खिलना होता तो अब तक कबका खिल चुका होता।
वह कुछ रूककर फिर कहने लगते-जरा दिमाग पर जोर डालकर सोचो, अब इस प्रकार नाहक ही फड़फड़ाने से क्या लाभ? क्या हमने अपनी और तुम्हारी जाँच-पड़ताल कराने में कोई कसर बाकी रखी है? जब अपनी खेती ही बंजर है तो उसमें फसल कहाँ से उगेगी? अरे भाग्यवान! जरा समझने की कोशिश करो, अपने भाग्य को तो समझो बिल्कुल पाला ही मार गया है वरना, अपने बगीचे में क्या एक भी फूल न खिलता?
एक बात और चाहे मिट्टी की ही सौत क्यों न हो, उसे कोई भी स्त्री बर्दाश्त नहीं कर सकती है तो उसे तुम कैसे सहन कर लोगी? जिस प्रकार एक नाद में दो भैंसे चारा नहीं खा सकते वैसे ही एक घर में दो बीवियाँ थोड़े ही रह सकती हैं। दूसरी बात हमारे बीच में दूसरी बीवी के बारे में सोचना भी पाप है। मैं यह पाप कदापि नहीं कर सकता। एक बच्चे के चक्कर में दूसरी शादी करके मुझे अपने घर में आग नहीं लगानी है।
यह सुनकर कविता छटपटाकर रह जाती। उसे बड़ी असह्य पीड़ा महसूस होने लगती। उसका कलेजा एकदम कचोट उठता। मयंक बाबू पर अपना कोई जोर न चलते देखकर कविता ने इसके लिए अपने सासु-स्वसुर पर इबाव बनाना शुरू कर दी। साथ ही उसने तिवारी जी पति-पत्नी को भी मनाने में तल्लीन हो गई। कविता की आए दिन रोज-रोज की मनुहार और चिरौरी से अंततोगत्वा पाण्डेय जी एक दिन मयंक का दूसरा विवाह करने को राजी हो गए। उनके साथ ही तिवारी जी भी मान गए। दोनों सज्जनों ने मिलकर मयंक बाबू को भी राजी कर लिया।
बाबू हृदानाथ नई पुत्रवधू तलाशने लगे। तिवारी जी के गाँव के ही निकट राधेपुर नामक एक दूसरा गाँव है। उस गाँव के हरिदेव नारायण दूबे वास्तव में निहायत ही निर्धन और गरीब थे। गरीबी के चलते उनकी जवान लाडली बेटी शोभा की कहीं अच्छे घर-परिवार में शादी न हो पा रही थी। उनके दो पुत्र थे। दोनों एक बार विदेश गए तो वहीं जाकर बस गए। फिर दोबारा पलटकर गाँव की ओर न देचो। उन्होंनें मां-बाप की खोज-खबर लेना भी उचित न समझा।
वृद्धावस्था में दुबे जी से कोई काम-धंधा तो होता न था। इससे बेटों की अनुपस्थिति में उनकी खेतीबाड़ी सब एकदम चौपट हो गई। ऐसी हृदयविदारक दरिद्रता में बिना दान-दहेज के शोभा का विवाह होना अत्यंत मुश्किल था। हरिदेव बाबू जहाँ भी घर-वर की तलाश में जाते सायंकाल तक मुँह लटकाकर वापस आ जाते। एक दामाद ढूँढ़ने के लिए उन्हें दर-बदर की खाक छाननी पड़ी पर, बात बनती नजर न आती।
तभी हरिदेव बाबू के एक मित्र ने बाबू हृदयनाथ के बारे में उन्हें बताया-भई हरिदेव बाबू! पाण्डेय जी अथाह संपत्ति के मालिक हैं। उनके पास एक ही बेटा है। वह भी पुलिस में नौकरी करता है। उसका ब्याह हुए बीस-बाईस साल गुजर गए लेकिन उसकी पहली औरत से अभी तक कोई बच्चा पैदा न हुआ। अब पाण्डेय जी अपने लड़के का दूसरा विवाह करने के इच्छुक हैं। वहाँ जाकर उनसे बात कर लीजिए शायद बात बन जाए।
हरिदेव बाबू, पाण्डेय जी के विषय में पहले से जानते ही थे यह सुनते ही वह फौरन उनके पास जाकर बोले-पाण्डेयजी! मैंने सुना है कि आप अपने पुत्र की दुबारा शादी करना चाहते हैं। क्या यह सच है? क्या बिना किसी अड़चन के दोनों लड़कियाँ खुशी से एक साथ रह सकती हैं।
तब पाण्डेय जी उदास मन से बोले-हाँ, यह बिल्कुल सच है। आपने जो कुछ भी सुना है ठीक ही सुना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है मगर, यह निर्णय हमारा नहीं बल्कि मेरी पुत्रवधू कविता का है। दूबे जी ने जब कविता से पूछा तो उसने भी उन्हें सब सच-सच बता दी। उसका विचार सुनकर हरिदेव बाबू बहुत प्रसन्न हुए। उनका रोम-रोम खिलखिला उठा। अंधे को और क्या चाहिए बस दो आँखें। दूबे जी यही तो चाहते थे। चट मँगनी और पट शादी दूबे जी के अनुरोध पर कविता और मयंक बाबू अगले ही दिन उनके घर जाकर शोभा को पसंद कर आए। तत्पश्चात फटाफट मुहूर्त निकलवाकर विवाह की तारीख भी पक्की कर दी गई।
दूबे जी ने सोचा-एक ही बेटी है। लाओ, अब उसके दोनों भाइयों नीरद और जलज को भी यह खुशखबरी बताकर बुला लूँ। उन्होंने उन्हें भी बुला लिया किन्तु, जब उन्हें मयंक बाबू के पहले से ही शादीशुदा होने का पता चला तो वे बिगड़ खड़े हुए। वे इस शादी के लिए हरगिज राजी न थे। वे इस विवाह का खुल्लमखुल्ला विरोध करने पर उतारू हो गए। खबर मिलते ही दोनों फौरन घर पहुँच गए और रंग में भंग डालने का यत्न करने लगे।
इसके बावजूद तिलक और फलदान की रस्म पूरी होने के बाद मयंक बाबू नियत तिथि पर एक बार फिर दूल्हा बने। वह बाजे-गाजे के साथ बारात लेकर हरिदेव दूबे के घर की ओर चल पड़े। रास्ते में नीरद और जलज अपने कुछ लठबाज साथियों के साथ इधर-उधर छिपकर बारातियों के आने का इंतजार कर रहे थे।
बारात गाँव के नजदीक पहुँचते ही वे यकायक उस पर टूट पड़े। उन्होंने बाजा-गाजा सब फोड़-फाड़कर रख दिया। कुछ बारातियों को एकाध लाठी जमा भी दिया। जान मुसीबत में फँसी देखकर पलभर में ही बाराती तितर-बितर हो गए। वे जान बचाकर भाग खड़े हुए। दो-चार बंदूकधारी पुलिस वालों के संग मयंक बाबू अकेले रह गए।
बचीखुची बारात लेकर वह किसी तरह छिपते-छिपाते हरिदेव दूबे के द्वार पर जा पहुँचे। वायुगति से जैसे-तैसे दुल्हन बनी शोभा के साथ उनका ब्याह हुआ। इसके बाद वह उसे लेकर अपने घर आ गए। कविता की तरह शोभा भी बड़ी मृदुभाषिणी और कोमल स्वभाव की थी। वह वाकई बहुत खूबसूरत थी। मयंक बाबू के धर आते ही उसने सब कुछ बखूबी सँभाल लिया।
वह कविता के साथ उसकी सगी बहन जैसे रहने लगी। उसकी माधुर्यता से सबका मन मुग्ध हो गया। मयंक बाबू के गृहस्थी की गाड़ी अब फिर मजे से चलने लगी। अब उन्हें एक की जगह एक ही साथ दो-दो पत्नियों का प्रेम मिलने लगा। उनके बीराने बाग को पानी देने वाले दो माली मिल गए। उनके मायूस मन में फिर से हिलोरें उठने लगीं। मारे खुशी के वह फूलकर कुप्पा हो गए। उन्होंने सोचा इतने अवरोध के बाद भी मैंने मैदान मार लिया। मुझे विजय मिल ही गई।
शोभा से शादी होने एक साल बाद ही मंयंक बाबू एक सुदर, स्वस्थ पुत्र के पिता बन गए। उसके डेढ़-दो वर्ष व्यतीत होते शोभा ने एक और पुत्र को जन्म दिया। एकदम पतझड़ की भांति वीरान घरों में दो पुत्ररत्नो के आने से चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छा गईं। कविता उनकी देखभाल ऐसे करती जैसे वे उसी की कोख से पैदा हुए हैं। कहीं लेशमात्र भी फर्क न था। उन्हें समय से नहलाने-धुलाने, दूध पिलाने वगैरह का काम स्वयं कविता ही अपने हाथों से करती। अब सब कुछ पुनः पूर्ववत चलने लगा। सबको कष्टमय निराशा से छुटकारा मिल गयाा।
वक्त इसी तरह गुजरता रहा। ईश्वर की लीला भी बड़ी अपरंपार है। अचानक उसका ऐसा चक्र चला कि सचमुच एक ऐसी बड़ी अनहोनी हो गई। इस सच्चाई को मयंक बबो के घर का काई सदस्य कतई मानने को तैयार न था। दरअसल हुआ यह कि शोभा को दो बालकों की मां बनते ही इतनी उम्र तक एक बाँझ स्त्री की पीड़ा झेलने वाली कविता के पेट में भी कोई कली पनपने लगी। समय आने पर उसने भी एक बैटे को जन्म दिया। उसकी ममता रंग लाई और वह भी मां बन गई। शोभा के पुत्रों के साथ उसका ममत्व बेकार नहीं गया।
अब मयंक बाबू की सूरत देखने लायक थी। वह बड़ी उलझन में पड़ गए। वह सोचने लगे-परमात्मा की यह कैसी अनुपम लीला है? एक भूमि में फसल उगते ही बंजर जमीन पर भी हरियाली छा गई। इनके बड़े होने पर क्या होगा? मेरी जायदाद तो अब दो जगह बँट जाएगी। उनकी सारी खुशियाँ कुछ ही दिनों में गायब हो गईं। वह काफी चिंतित रहने लगे। उनकी भूख-प्यास खत्म हो गई। आँखों की नींद न जाने कहाँ उड़ गई।
उन्हें ऐसी दीनहीन दशा में देखकर उनकी दोंनों पत्नियाँ कविता और शोभा उनसे व्यंग्यमय मसखरी करने की गरज से कहतीं-हुजूर! अभी और कितने बच्चे चाहिए? अगर कहिए तो बच्चों की फौज ही खड़ी कर दूँ। आप तो बस हुक्म कीजिए। आपका आदेश हमारे सिर-माथे पर। वे अपने व्यंग्य बाणों से उन्हें खूब घायल करती रहतीं।
इससे उनका सुख-चैन सब छिन गया। कुछ देर से ही सही उन्हें द्विविवाह का फल मिल ही गया। उपका सारा मजा एक बड़ी सजा में बदल गया। इससे मयंक बाबू को अपनी करनी पर बड़ा पछतावा होता। उनका हृदय आत्मग्लानि से भर उठता। वह अपना सिर धुनने लगते। उनके मन में बड़ा अजीब सा दर्द होने लगता। वह लोगों से कहते-भइया! सब कुछ करना परंतु दूसरी शादी हरगिज न करना। इंसान छोटे-मोटे हर गुनाह से तो बच सकता है पर, द्विविवाह से नहीं। इसकी सजा उसे हर हाल में भुगतनी ही पड़ती है। एक ही साथ दो नावों पर सवार होना कदापि ठीक नहीं है।
--
अर्जुन प्रसाद
वरिष्ठ अनुवादक
उत्तर मध्य रेलवे परियोजना इकाई
शिवाजी ब्रिज, नई दिल्ली-110001
COMMENTS