हाँ, तो जब मैं गाड़ी से उतरा, दिल काँप रहा था। ख़ुदा न ख़ास्ता एक ही गेट पर दो टिकट चेकर थे। अगर एक होता तो धोखा दे कर या कह-सुन कर निकल जात...
हाँ, तो जब मैं गाड़ी से उतरा, दिल काँप रहा था। ख़ुदा न ख़ास्ता एक ही गेट पर दो टिकट चेकर थे। अगर एक होता तो धोखा दे कर या कह-सुन कर निकल जाता, लेकिन या ख़ुदा मियाँ! सर पकड़ कर बैठ गया प्लेटफ़ॉर्म पर। कुछ देर आँखें बन्द किये सोचता रहा। अब तक दो चार लोग मेरे इर्द-गिर्द खड़े हो गये थे। उन्होंने समझा कि मुझे ग़श आ गया है। मैंने भी इस मौक़े का फायदा उठाना ग़ैर मुनासिब नहीं समझा और हाथ की गठरी फेंक कर लगा पागलों की तरह लोटने। तहलका मच गया। रेलवे के अफ़सरानों ने आ कर मुझे देखा। मैं जोर-जोर से लोट रहा था। उन्होंने तुरन्त डॉक्टर बुलवाया। डॉक्टर आया और मुझे एक कमरे में ले जा कर जाँच करने लगा। उसने दवा दी। मैं घबरा गया। हाय ख़ुदा, न जाने कौन-सी दवा पिला देगा। ज्योंही उसने मेरे मुँह में दवा डालने की कोशिश की, मैं ज़ोर से उछल पड़ा। फिर दूसरी बार जब वह दवा बनाने लगा, मैं धीरे-धीरे उठ कर बैठ गया। उसने मुझे देख कर कहा - ''कहो, तबियत कैसी है?''
''अच्छी है।''
''अच्छा, यह दवा पी लो।''
''जी नहीं, हक़ीम साहब की दवा चल रही है। उनका कहना है कि दूसरी दवा से उनकी दवा का असर कट जायगा। इसलिये ...''
''ठीक है, ठीक है। अभी तो मैं पिला ही देता। ख़ैर, आराम करो।''
''जी नहीं, ज़रूरी काम से जाना है।''
''जा सकोगे?''
''हाँ, हाँ, यह तो हर दो-चार दिन पर हो जाता है।''
''तब जाओ।''
मैंने देखा, मेरी गठरी पास ही में पड़ी थी। उठाकर बगल में दबा ली और धीरे-धीरे प्लेटफ़ॉर्म से बाहर होने लगा। देखा, गेट ख़ाली पड़ा है - कोई चेकर नहीं है। चुपचाप बाहर आ गया। अब सोचने लगा - जाया कहाँ जाय? कहाँ मिलेगी नौकरी? और, अगर मिल भी जाय, तो मुझ जैसे आरामतलब से काम होगा कैसे? यही सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था कि एक गंधी तेल-इत्र लिए जाता मिला। मैंने बिना कुछ समझे-बूझे कह दिया - ''सलाम अलेकुम।''
उसने भी झट से जवाब दिया - ''अलेकुम सलाम।''
मैंने रास्ता काटने के उद्देश्य से वार्तालाप आरम्भ किया - ''मैंने आपको कहीं देखा है, लेकिन याद नहीं, कहाँ देखा था।''
''मुझे भी कुछ-कुछ याद आता है, लेकिन आप की ही तरह जगह याद नहीं है।''
''खैर, मारिये गोली। कहिये, ख़ैरियत तो है?''
''सब ख़ुदा मियाँ का शुक्र है।''
हमलोग बातें करते आगे बढ़े चले जाते थे। कुछ मज़हबी, कुछ सय्याशी बातें हो रही थीं। इन मियाँ का नाम तो था मियाँ शौक़त हुसेन, पर मैं उन्हें चशमल्ली मियाँ ही कहूँगा, क्योंकि उनका चश्मा बड़ा अजीब-सा लगा मुझे। एक आँख का शीशा चार टुकड़ों में फूटा हुआ था। कान और चश्मे का ताल्लुक एक सूत से कायम किया गया था। ताल्लुकात की डोर इतनी लम्बी थी कि यदि चश्मा थोड़ा और नीचे आ जाता, तो मूँछों पर जम जाता। दाढ़ी खूब बड़ी-बड़ी, आधी सफ़ेद और आधी काली थी। थोड़ी दूर जाने के बाद एक बड़ा-सा मैदान आया, जहाँ चश्मल्ली मियाँ ने अपनी तेल की बोतलें रख दीं और पेशाब के लिए बैठ गये थोड़ी दूर बढ़ कर। मैंने देखा तेल की बोतलों को और टटोला अपने बालों को। रूखे-सूखे उड़ रहे थे। कुछ सोचता हुआ मैं बोतलों को टटोलने लगा। ज्योंही चशमल्ली मियाँ मेरे पास आये, मैंने पूछा - ''क्यों मौलाना साहब, इन बोतलों में क्या है?''
''तेल है, भाईजान!'' उन्होंने कहा।
''आपके पास तेल तो काफी अच्छे-अच्छे होंगे?''
''हाँ, हाँ, ऐसे तेल इस शहर में लोगों को नहीं मिलते। तभी तो मुझे देखते ही लोग बुलाने लग जाते हैं।''
''किस-किस चीज का तेल है मौलाना साहब? तीसी-अरण्डी का है या नहीं?''
''अरे नहीं मियाँ! यह देखो, गुलरोगन का।'' कहकर उन्होंने थोड़ा-सा तेल मेरे हाथ पर लगा दिया और सूँघने को कहा। सूँघा। फिर उन्होंने बतलाया - यह चमेली, यह आँवला, वगैरह ... वगैरह। सभी तेल उन्होंने मुझे सुँघाये।
मैंने कहा - ''लेकिन मौलाना साहब, इन तेलों की ख़ुश्बू दो घंटे से ज्यादा नहीं ठहर सकती।''
चश्मल्ली मियाँ उछल पड़े - ''ऐं, क्या कहा? दो घंटे, अरे यह दो दिन तक रहेगी।''
''हो ही नहीं सकता।''
''अच्छा, तुम्हारे कहने के मुताबिक सिर्फ दो घंटे भी नहीं रहेगी, क्यों!''
''हाँ।''
''तो तुम भी मेरे साथ दो घंटे तक रहने का वादा करो।''
''किया।''
''लो लगाओ यह तेल। अगर ख़ुश्बू रह गयी, तो पाँच रुपये देने होंगे।''
''हाँ, हाँ।'' मैंने कहा।
उन्होंने अपने पास का सबसे बढ़िया तेल मेरे हाथ में दिया। मैंने लगा लिया। फिर आगे बढ़े दोनों। फिर बात छिड़ गयी सुरैया और देवानन्द की।
मैंने कहा - ''सुरैया की शादी मियाँ देवानन्द से होनी चाहिये।''
''अरे मियाँ, देवानन्द पंडित है।'' चशमल्ली मियाँ ने कहा।
''तो क्या हुआ?''
''तोबा करो। सुरैया हिन्दू से ब्याही जायगी!''
''अरे मियाँ, सुना है, सुरैया बेगम भी ब्राहमिन की दुख़्तर है।''
''चुप रहो। सुरैया, मेरी सुरैया हिन्दू की बेटी नहीं हो सकती।''
मैं चौंका। बोला - ''क्यों मियाँजी, क्या सुरैया की शादी आप के साथ होने वाली है?''
''होने वाली नहीं, तो क्या? मैं उससे मुहब्बत करता हूँ।''
''इस उम्र में?''
''अरे हाँ, हाँ! उम्र ज़्यादा हो गयी इसी से! अब तक पूरी अठारह लड़कियों से मुहब्बत की है।''
''अरे बाप रे बाप!'' मेरे मुँह से निकल गया।
''घबराते क्यों हो? छः हिन्दू लड़कियों से की थी, उनकी तो गिनती ही नहीं करता।''
''तभी तेल बेचते नजर आते हो!'' मैं बुदबुदाया।
''क्या?''
''यही कि यह आपकी पच्चीसवीं मुहब्बत है!''
''हाँ, यह मुहब्बत कामयाब हुई, तो सिल्वर जुबिली मनाऊँगा।''
''मुझे भी न्योता दीजियेगा न?''
''हाँ, हाँ, क्यों नहीं!''
मैंने धीरे से कहा - ''अब जल्दी ही जाओगे।''
''क्या कहा?''
''वह सामने बंदर का नाच हो रहा है।''
''होने दो।''
''चलो, देखो!''
''नहीं मियाँ, ख़ाँ साहब के घर पहुँचना है ठीक बारह बजे।''
मैंने सोचा, मरदूद से छुटकारा पाने का यही वक्त है। पूछ लिया - ''कौन ख़ाँ साहब?''
''अरे वही तो, लगभग दो फ़र्लांग पर ख़ाँ बहादुर का मकान है - ख़ाँ बहादुर मुज़फ़्फ़र बेग़ का।''
''अच्छा, तो आप चलिये। मैं तुरंत आता हूँ देख कर।''
''जल्दी आना।'' कहकर वे आगे बढ़े और मैं बन्दर का नाच देखने के बहाने नौकरी की खोज में रवाना हुआ। चलता-चलता एक नदी के किनारे पहुँच गया। कुछ मछुए मछली पकड़ रहे थे। वहीं किनारे पर मैं भी बैठ गया। मछलियों के लोभ से कौवे उड़-उड़ कर आ जाते थे। बैठा-बैठा मैं उन्हें उड़ाने लगा। करीब एक घंटा बाद मछुए बाहर निकले। उनमें से एक ने कहा - ''लो एक मछली, और खिसको।''
मैं जानता था कि मछुए हिन्दू होते हैं। इसलिए हिन्दू की तरह बोलने लगा - ''अरे भैया, क्या कहते हो तुम! बैठा-बैठा अगर कौवे हाँक दिये, तो कौन-सा एहसान कर दिया?''
''क्या करते हो? कहाँ रहते हो?''
''कहीं नहीं! नौकरी खोजने निकला हूँ।''
वे आपस में कुछ फुसफुसाये, फिर एक ने मुझसे कहा - ''हमारे यहाँ रहोगे? कौए हाँकने का काम है।''
''हाँ, हाँ, क्यों नहीं। मैंने सोचा, इससे बढ़िया काम कौन-सा मिलेगा।
''चलो तब! उठा लो वह टोकरी।''
पहले तो कुछ घबराया, परन्तु फिर टोकरी उठा कर चलने लगा उनके पीछे-पीछे और उनके घर पहुँचा।
उन मछुओं के यहाँ रात में जब एक बोरी के बिस्तरे पर मैं सोया, तो ओह, मत पूछिये - बहिश्त दिखने लगा। बोरी बहुत अच्छी चीज है। तभी तो बम्बई में बोरीबन्दर, बोरीवली, आदि जगहें हैं। हाँ, तो जब मैं चित लेट गया ख़ूबसूरत, मुलायम, पत्थर-सी बोरी पर, तो ऊपर आसमान की छत दिखायी पड़ी। छत में तारे चमक रहे थे। इधर-उधर निगाह डाली, तो देखा, आसपास कई पेड़ खड़े थे। मैं अकेला ही पड़ा था मकान के बाहर। सभी अन्दर सोये थे। कुछ डर-सा लगा, लेकिन फिर सोचा कि अगर शेख़चिल्ली मियाँ ही डर जायंगे, तो दुनिया में कौन-सा ऐसा आदमी होगा, जो ऐसी जगहों में रात काटेगा। अपने को ढाँढ़स बँधा कर मैं सोने की कोशिशें करने लगा। लेकिन ख़ुदा ख़ैर करें, खटमलों ने खुशी में मस्त हो मेरी देह नोचना शुरू कर दिया। मैंने कितना भी मना किया उन दोस्तों को, पर वे माने नहीं। ऐसा लगा, मानो कह रहे हों, चलो, आज दावत का बन्दोबस्त किया है तुम्हारे आने की ख़ुशी में। मैं कभी बैठता, कभी लेट जाता, पर ऐसे हमदर्द दोस्त तो जिन्दगी भर में मुझे नहीं मिले। ये ऐसे दोस्त थे कि इनकी तीमारदारी से मैं ख़फ़ा हो गया। सच ही कहा है बड़ों ने कि हर चीज कायदे से होनी चाहिये, न कम न बेशी। मैं भी ऊबने लगा उनकी तीमारदारी से, लेकिन वे कहते थे कि पूरी ख़ातिरदारी आज ही की जायगी। बार-बार मना करने पर भी जब वे नहीं माने, तो मैंने उनके खिलाफ ज़ेहाद छेड़ दिया। उनके कई सिपाही काम आये। फिर तो वे गुरिल्ला लड़ाई लड़ने लगे - छिप कर आते और वार कर के चले जाते। मैं परेशान हो गया था - सोच रहा था कि क्या किया जाय? इसी समय एक अजीब तरह की आवाज जोरों से गूँज उठी - अजीब डरावनी आवाज थी।
मैं जोर से चिल्ला उठा - ''दौड़ो।''
तुरन्त ही मछुए पहुँच गये और पूछने लगे कि क्या हुआ? उसी समय वह आवाज फिर गूँज उठी। मैंने दौड़ कर एक मछुए को पकड़ लिया और लिपट गया उससे। उन लोगों ने समझाया कि वह उल्लू की आवाज थी।
मैंने कहा - ''नहीं, नहीं, जो भी हो, उल्लू की आवाज हो या बेवकूफ़ की, मैं यहाँ नहीं सो सकता।''
मैं काँप रहा था डर के मारे। मछुओं ने मुझे भी अपने साथ घर के आँगन में सुलाया।
सवेरा हुआ। मछुए दरिया की ओर जाने की तैयारियाँ करने लगे। मुझे टोकरी और जाल उठा लेने को कहा। क्या करता, नौकर था, उठा लिया। ले कर चला उनके पीछे-पीछे। सवेरे सात बजे का समय था, लेकिन यहाँ अपने मियाँ के पेट में चूहे कूद रहे थे। मछुए एक बार ही दिन में एक बजे खाते थे। नाश्ता नहीं करते थे। मैं सोचता-सोचता जा रहा था। दिमाग कहीं था और आँखें कहीं। एक औरत से टकरा गया। उसने कहा - ''मुए सूझता नहीं। आँखें ख़ोल कर चला कर।''
मैं कहता क्या? भूख के मारे बुरा हाल था। सामने एक हलवाई की दुकान थी। उसमें अनेक तरह की मिठाइयाँ रखी थीं। ऊपर बोर्ड लटक रहा था - ''दिलख़ुश रेस्टॉरेण्ट''। सचमुच दिल ख़ुश हो गया। लेकिन 'रेस्टॉरेण्ट' का माने नहीं समझ सका। अन्दाज लगाया कि लिखा है कि दिल ख़ुश होने पर चले आओ। सामने नजर दौड़ायी। मछुआरों का कहीं पता न था। मैंने टोकरी और जाल सड़क पर रख दी और घुस गया भीतर रेस्टॉरेण्ट में। जाकर कुर्सी पर बैठ गया और चारों तरफ देखने लगा। दिल और भी नाचने लगा। इसी समय एक आदमी जो चोंगा पहने था खूब सफ़ेद-सा और सिर पर पगड़ी की तरह टोपी रखे था, आकर बोला - ''क्या है?''
उसके कपड़े मुझसे बहुत अधिक साफ़ थे। मैंने समझा, कोई साहब है। उठ कर सलाम किया और बोला - ''दिलख़ुश साहब, बैठिये कुर्सी पर।''
उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देख कर कहा - ''चला आया दनदनाता हुआ। क्या लेगा?''
मैंने समझा कि होटल का मालिक है। लेकिन, मुश्क़िल तो यह था कि उस तरह के कपड़े पहिने कई मालिक आसपास खड़े थे। मैंने अन्दाज लगाया कि वे सब हिस्सेदार थे।
मैंने घिघियाते हुए कहा - ''हुजूर जो खिला दें।''
''धत्, बेवकूफ़ कहीं का! चल भाग यहाँ से।'' उसने मुझे बाहर निकाल दिया। मैं चुपचाप सिर नीचा किये चला आया बाहर। याद आ गयी मछुओं की बात। नजर दौड़ायी, लेकिन जाल और टोकरी नदारद। मैं रास्ते में दौड़ने लगा इस आशा में कि चोर शायद पकड़ा जाय। कई लोगों को धक्के लगे। एक बच्ची नाले में गिर गयी। लेकिन, मुझे कोई परवाह नहीं थी। मैं दौड़ता-दौड़ता नदी किनारे पहुँचा।
एक मछुए ने पूछा कि मैं कहाँ रह गया था? मैंने कहा कि टोकरी और जाल गुम हो गया था, वही खोज रहा था।
उसने कहा - ''लेकिन तुम्हारे सिर से गुम होना क्या मज़ाक है?''
''यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि सर से टोकरी और जाल, दोनों एक साथ कैसे लापता हो गये?''
''अबे उल्लू, चल बैठ। टोकरी सड़क पर फेंक दी और कहता है, समझ में नहीं आता।''
मैंने पिनक कर कहा - ''देखोजी, सब कुछ कह लो, पर उल्लू मत कहो।'' इतना कहते-कहते रात की स्मृति आ जाने से शरीर सिहर उठा।
''उल्लू कहाँ, तू तो शेख़चिल्ली है।'' - वह बोला।
मुझे इत्मीनान हो गया। जब उसे बिना बताए मेरा नाम मालूम हो गया, तो उसे टोकरी और जाल कहाँ हैं, यह मालूम करना क्या मुश्क़िल होगा। मैं किनारे पर ही पसर गया। एक बजे तक कौवे उड़ाने के लिए ताक़त जो बटोरनी थी।
----
विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ - परिचय
विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत लेखक थे। यह पुरस्कार उन्हें स्वयं उनके जीवन पर आधारित उपन्यास, ’दिव्यधाम’, के लिए 1987 में मिला था। विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ ¼11 दिसम्बर 1930 - 25 अगस्त 2016½ का वास्तविक नाम विद्याभूषण वर्मा था।
वे मात्र 16 वर्ष की वय में दिल्ली के ’दैनिक विश्वमित्र’ समाचारपत्र के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करने लगे। वे रात में काम करते और दिन में पढ़ते। अल्प वेतन से फ़ीस के पैसे बचा-बचा कर उन्होंने विशारद, इंटरमीडियेट, साहित्यरत्न, बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
’श्रीरश्मि’ ने ’दैनिक विश्वमित्र’ के अतिरिक्त ’दैनिक राष्ट्रवाणी’, ’दैनिक नवीन भारत’, साप्ताहिक ’उजाला’, साप्ताहिक ’फ़िल्मी दुनिया’ तथा मासिक ’नवनीत’ के सम्पादन में भी सहयोग दिया। वे 1959 से भारतीय सूचना सेवा से सम्बद्ध हो गये।
’श्रीरश्मि’ की लगभग तीन सौ रचनायें 1960 के दशक की प्रमुख हिन्दी, उर्दू, गुजराती तथा कन्नड़ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। हिन्दी पत्रिकाओं में से कुछ के नाम हैंः ’नीहारिका’, ’साप्ताहिक हिन्हुस्तान’, ’कादम्बिनी’, ’त्रिपथगा’, ’सरिता’, ’मुक्ता’, ’नवनीत’, ’माया’, ’मनोहर कहानियाँ’, ’रानी’, ’जागृति’ तथा ’पराग’।
उनके उपन्यास हैंः ’दिव्यधाम’, ’तो सुन लो’, ’प्यासा पंछीः खारा पानी’, ’धू घू करती आग’, ’आनन्द लीला’, ’यूटोपिया रियलाइज़्ड’ तथा ’द प्लेज़र प्ले’।
उन्होंने ’विहँसते फूल, नुकीले काँटे’ नाम से महापुरुषों के व्यंग्य-विनोद का संकलन किया।
’श्रीरश्मि’ द्वारा अनुवादित रचनायें हैंः ’डॉ. आइन्सटाइन और ब्रह्मांड’, ’हमारा परमाणु केन्द्रिक भविष्य’, ’स्वातंत्र्य सेतु’, ’भूदान यज्ञः क्या और क्यों’, ’सर्वोदय और शासनमुक्त समाज’, ’हमारा राष्ट्रीय शिक्षण’ तथा ’विनोबा की पाकिस्तान यात्रा’।
COMMENTS