कहानी // जीवन मूल्‍य // अर्जुन प्रसाद

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दामोदर बाबू गाँव के एक छोटे खेतिहर मजदूर थे। मगर उनके पास पुश्‍तैनी खेतीबाड़ी कुछ ज्‍यादे न थी। इसलिए दूसरों के खेतों में भी कभी-कभी काम कर ...

राकेश शर्मा की कलाकृति

दामोदर बाबू गाँव के एक छोटे खेतिहर मजदूर थे। मगर उनके पास पुश्‍तैनी खेतीबाड़ी कुछ ज्‍यादे न थी। इसलिए दूसरों के खेतों में भी कभी-कभी काम कर लेते। वह बड़े पवित्र हृदय के निर्भीक, सदाचारी और आदर्शवादी पुरूष थे। गोरा मुखड़ा, बड़ी-बड़ी आंखें और ऊंचा मस्‍तक देखकर लगता मानो सामने कोई देव हो। तमाम सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्‍वासों के धुर प्रबल विरोधी थे वह। उनके मुखचंद्र पर सदा हंसी खेलती रहती। जीवन में सुख हो या दुःख। सावन हरे न भादों सूखे की भांति सदैव एक समान ही रहते।

वह कोई धनाढ्‌य पुरूष तो थे नहीं। घर में आमदनी कम और खर्च अधिक था। उस पर भी जैसे-तैसे कुल मर्यादा का निर्वाह करना ही पड़ता था। परिवार की कष्‍टमय तंगी देखकर भी उनका दिल तो रोता रहता पर, होंठ सदैव हंसते ही रहते। वह बड़े साधु और धर्म परायण पुरूष थे। कभी भूलकर भी किसी का दिल न दुखाते। स्‍वयं भूखे रहकर भी आस-पास के जरूरतमंदों का बड़ा ख्‍याल रखते। वह बड़े हट्‌टे-कट्‌ठे और तंदुरूस्‍त व्‍यक्‍ति थे। दूसरे ग्रामीणों के यहां मेहनत-मजदूरी करने में कभी जी न चुराते। वह दिन-रात हाड़तोड़ परिश्रम करके अपने बीवी-बच्‍चों का पेट भरते।

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संतान के नाम पर दामोदर बाबू के बस दो बेटे ही थे महेश और दिनेश। दोनों एक नंबर के बातूनी और बड़े कामचोर थे। कभी भूलकर भी कोई काम न करते। बड़े निकम्‍मे और आलसी थे दोनों। हमेशा सजधज कर बेकार इधर-उधर घूम-टहलकर समय बिताते। लकालक साफ-सुथरे कपड़े पहनकर दिनभर मटरगस्‍ती करते फिरते। उनके पास जो दो-चार बीघे खेती थी। दामोदर उसमें बखूबी काम-धंधा करके उनका पालन-पोषण करते। एक वे दोनों थे कि उनकी कभी कोई मदद ही न करते। उन्‍हें बस, स्‍वयं खाने-पहनने को सबसे अच्‍छा चाहिए। बाकी किसी बात से उनको कुछ भी लेना-देना न था।

बेटे तो बेटे,दामोदर की पत्‍नी तृष्‍णा भी कुछ कम न थी। वह बड़ी ही निष्‍ठुर, जिद्‌दी और अड़ियल स्‍वभाव की थी। पतिदेव का कोई ध्‍यान ही न रखती। यों समझिए कि वह बड़ी ही कर्कश स्‍त्री थी। बोलने-चालने की भी कोई तहजीब न थी उसके पास। जब देखिए तब घर में हर वक्‍त महाभारत सी छिड़ी रहती। पति-पत्‍नी में आए दिन कलेश ही होता रहता। इतनी मेहनत करने पर भी दामोदर बाबू को कभी सुख की रोटी नसीब न हुई।

फिर भी तृष्‍णा तो तृष्‍णा, दामोदर बाबू के दोनों बेटे महेश और दिनेश भी उनकी तनिक कद्र न करते। तृष्‍णा को अपने पुत्रों के सिवा और कुछ भी पसंद न था। वह उन्‍हें ही दुनिया का सबसे अनमोल रत्‍न समझती थी। उसे पति-परमेश्‍वर की कोई फिक्र न रहती। महेश और दिनेश के खाने-कपड़े में कभी भूलकर भी कोई कमी न आने देती। वह उनका बड़ा ख्‍याल रखती। केसी विडंबना है कि हमेशा सुख-दुख में पति का साथ देने वाली पत्‍नी ही जब अपने पति देव का कोई ध्‍यान न रखे तो भला दूसरा कोई उसका क्‍या रखेगा? तृष्‍णा की उपेक्षा के चलते दामोदर बाबू को कभी समय पर दो वक्‍त की रोटी नसीब न हुई। दिन के दिन वह बिना कुछ खाए-पिये ही भूखे रह जाते। चौबीस घंटे में बस एक बार ही उनके पेट को थोड़ी-बहुत रूखी-सूखी रोटी मिल पाती।

आखिर धीरे-धीरे दामोदर बीमार रहने लगे। उन्‍हें तपेदिक की शिकायत हो गई। उनकी शरीर कमजोर होकर एकदम पीली पड़ गई। आंखें ज्‍योतिहीन और अंदर को धंस गई। कुछ ही दिनों में उनका कमल जैसा खिला हुआ गुलाबी चेहरा मलिन हो गया। इससे उम्र ढलने के साथ-साथ दिनोंदिन उनकी सेहत भी बिगड़ने लगी। उनका स्‍वस्‍थ बदन कुछ ही दिनों में देखते ही देखते मात्र हडि्‌डयों का ढांचा बनकर रह गया। तिस पर भी वह लेशमात्र विचलित न हुए। महेश और दिनेश हट्‌टे-कट्‌टे तंदुरूस्‍त नौजवान होकर भी उनकी कोई परवाह न करते। मानो बाप के स्‍वास्‍थ्‍य से उन्‍हें कुछ भी लेना-देना न हो। कम से कम वे दोंनो तो उनकी अवहेलना न करते। दामोदर कोई और नहीं बल्‍कि उनके जन्‍मदाता पिता थे। उनके पैदा होने पर उन्‍होंने सपने में भी न सोचा होगा कि उनके जिगर के टुकड़े युवा होने पर कभी ऐसा बर्ताव भी करेंगे। हर माता-पिता की तरह उन्‍हें भी अपने लाडलों से कोई उम्‍मीद रही होगी। पर, लोकनिंदा के भय से वह उन्‍हें कुछ कहने-सुनने में बिल्‍कुल मजबूर थे।

पूरे परिवार की उपेक्षा से आहिस्‍ता-आहिस्‍ता आखिर दामोदर बाबू दन-प्रतिदिन अस्‍वस्‍थ होते गए। उनकी कमजोर और दुर्बल शरीर देखकर लोग उन पर तरस खाकर भी कोई मदद न कर सकते थे। उनकी ऐसी कारूणिक विवशता देखकर भी तृष्‍णा और महेश,दिनेश का कलेजा न पसीजा। दामोदर बाबू इतने शक्‍तिहीन हो गए कि उनका चेहरा पहचानना भी कठिन हो गया।

यह बड़ा ही दुखद है कि संसार में लोग कितने खुदगर्ज होते जा रहे हैं। उन्‍हें निरंतर बीमार देखकर उनके बीवी-बच्‍चे उनसे कतराने लगे। कोई खुले मुंह बात भी न करता। दामोदर के शरीर में अब पहले जैसी ताकत तो थी नहीं। इसलिए काम-धंधा करना भी बंद कर दिए। वह रात-दिन खाट पर पड़़े रहते। उन्‍हें इस हाल में देखकर परिवार में हरदम कलह होने लगी। गृह क्‍लेश होते-होते बात काफी बढ़ गई।

एक दिन दामोदर बाबू के बड़े पुत्र महेश ने उनसे यहां तक कह दिया कि बाबू जी, आप अब हमेशा बैठे-बैठे चारपाई तोड़ते रहते हैं। अब कोई कामकाज तो करते नहीं। बुढ़ापे में लोग घरबार त्‍यागकर सन्यास धारण कर लेते हैं। आप भी घर द्वार छोड़कर साधु-सन्यासी क्‍यों नहीं बन जाते? अगर हम सबका भला चाहते हैं तो कहीं दूर जंगल में जाकर रहिए। आप भी सुखी रहें और हमें भी चैन से रहने दें। आपको टी बी हो गई है। हम पर कुछ तो तरस खाइए। इस छुआछूत के रोग से कम से कम हमें बख्‍श दीजिए। आपका इलाज कराना अब हमारे वश की बात नहीं है। क्‍या आप इतना भी नहीं जानते कि दवा-दारू में पैसे खर्च होते हैं। आपकी खातिर हम अपने खेत वगैरह बेचकर भूमिहीन और कंगाल थोड़े ही बन सकते हैं। हमारे पास आपके लिए न रूपए ही हैं और न तो समय ही। हम आपकी तिमारदारी नहीं कर पाएंगे।

जन्‍म-जन्‍म के वैरी के समान अपने बेटे महेश का कठोर वचन सुनकर दामोदर बाबू पंखहीन पक्षी की भांति तड़पड़ा उठे। उनका कलेजा कचोट उठा। उनके सीने में अजीब सा दर्द होने लगा। नेत्र सजल हो गए। किसी प्रकार खुद को संभालकर वह महेश से बोले-बेटा महेश! क्‍या अपना पेट काट-काटकर मैंने तुम दोनों को यही दिन देखने के लिए पाला-पोसा था? बेटे! मैं कोई गैर नहीं तुम्‍हारा बाप हूं। वह भी सौतेला नहीं, सगा हूं। हमने तुम्‍हें बड़े नाजों से पाला है। सोचा, बड़े होकर मेरा हाथ बटाएंगे। काम-धंधे में मेरी सहायता करेंगे। मुझे वृद्धावस्था में कुछ राहत मिलेगी। मेरा दुख दूर होगा। लेकिन तुम लोगों का व्‍यवहार देखकर आज मुझे अपार कष्‍ट हो रहा है। अभी मैं मरा नहीं हूं। जीवित हूं। मेरे मरने के बाद अपनी मनमानी करना। अभी नहीं। इतने संस्‍कार विहीन और कुविचारी न बनो कि कल को लोग तुम्‍हारे मुंह पर थूकने लगें। अपने मां-बाप से ऐसी घृणित बात कहते हुए तुम्‍हें शर्म आनी चाहिए। इतना निर्लज्‍ज होना बड़ा हानिकर है।

दामोदर का यह कहना था कि नहले पर दहला मारते हुए दिनेश झट बोला-बाबू जी! आपको हमारी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। अब आप अपनी देखिए। आप समझते क्‍यों नहीं? आप अब बूढ़े और कर्महीन हो गए हैं। आपको बैठाकर खिलाएगा कौन? जाइए, जाकर कहीं और रहिए। यह सतयुग नहीं कलयुग है कलयुग। इस घर में अब आपके लिए कोई जगह नहीं। आप हम पर एक बड़ा बोझ बन गए हैं। आपका बोझ ढोना हमारे वश का हरगिज नहीं।

हृदय को चीरने वाले अपने दोनों पुत्रों का कुतर्क सुनते ही निराश दामोदर गहरी सोच में डूब गए। उनका आचरण उन्‍हें अखरने लगा। उनका अंतस्‍तल हिल गया। अंदर से टूटकर बिखर गए। वह सोचने लगे-संसार की यह कैसी रीति है? पिता और पुत्र के बीच बस मांस तथा कुत्‍ते का संबंध रह गया है। ऐसी निकृष्‍ट और घिनौनी बात करते हुए इन्‍हें तनिक भी हिचक नहीं। दोनों कितनी बेशर्मी से मुझे इस उम्र में घर त्‍यागने को कह रहे हैं। वह अपने मन में कहने लगे-हे ईश्‍वर! हमारी इस भावी पीढ़ी को क्‍या हो गया है?लोग इतने विचार विमुख क्‍यों हो गए हैं? पिता-पुत्र के मध्‍य मान-मर्यादा और शिष्‍टाचार इस तरह क्‍यों घटता जा रहा है? यह सोचकर उनका दम घुटने लगा। अपनी जीवन संगिनी और बेटों की यह घृणास्‍पद उपेक्षा उनके लिए बड़ी असहनीय हो गई। वह मर्मान्‍तक पीड़ा से कराह उठे। उनके मुख से हृदय विदारक आह निकल गई।

फिर दामोदर बाबू ने एक लंबी सांस लेकर उनसे कहा-वाह बेटे वाह। क्‍या गजब का संस्‍कार मिला है तुम लोगों को। बीमार और लाचार बाप से तुम्‍हें आज इतनी नफरत हो गई है। बेटे! अपने खेत की लहलहाती फसल देखकर किसान खुशी के मारे उल्‍लास और आनंद से झूम उठता है। किन्‍तु तुम दोनों को देखकर मुझे आज बड़ी पीड़ा हो रही है। मेरे दिल में जो वेदना हो रही है, तुम इसका अंदाज भी नहीं लगा सकते। काश मेरे घर में तुम्‍हारा जन्‍म ही न हुआ होता। लानत है तुम परं।

पिता-पुत्रों में सदाचरण को लेकर उनमें तकरार हो और तृष्‍णा देवी चुप रहें, भला ऐसा कैसे हो सकता है? आव देखा न ताव। वह फौरन तुनककर बोलीं-आप नाहक ही इन्‍हें क्‍यों डपट रहे हैं? इन्‍होंने क्‍या गलत कह दिया? आप यह क्‍यों नहीं सोचते कि आपकी भयंकर जानलेवा बीमारी मेरे बच्‍चों को लग गई तो उनका क्‍या होगा? अरे आपको तपेदिक है तपेदिक। बड़ा ही संक्रामक और खतरनाक रोग है। ऐसी दशा में आपका घर से बाहर चले जाना ही बेहतर है। आपकी हालत अब ठीक वैसी ही है जैसे काम के न काज के दुश्‍मन अनाज के। अरे उम्र का यह चौथापन है। जाकर कहीं तपस्‍या कीजिए। इसी में सबकी भलाई है।

अपनी प्राणप्रिया अर्धांगिनी का हृदय को कचोटने वाला यह उपदेश सुनते ही मानो दामोदर बाबू पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। तृष्‍णा की उज्‍जड्‌डता भरी बात बंदूक की गोली की तरह उनकी छाती के पार हो गई। अपनी पत्‍नी तृष्‍णा को तोते की भांति आंखें फेरते देखकर उनके कलेजे में बड़ी उथल-पुथल होने लगी। अनकी आंखें फिर नम हो गईं। उनका फूल जैसा कोमल चेहरा तनिक देर में मुरझा गया। उनके हृदय का कोना-कोना सूना हो गया। उसके कटुवचन उनके सीने में बर्छी बनकर चुभने लगे। वह शोक सागर में डूबते-उतराते हुए विचार करने लगे। मैं कितना बदकिस्‍मत हूं?जीवन के इस दुर्दिन में जब अपनी भार्या ही साथ निभाने को तैयार नहीं है तो किसी दूसरे का क्‍या दोष? इसलिए अब इस डूबती नाव में बैठे रहना कतई ठीक नहीं है। क्‍योंकि अगर नाव में एक छेद भी हो जाय तो वह देर-सबेर डूब ही जाएगी। मैं घर-परिवार रूपी जिस नौका में सवार हूं उसमें तो न जाने कितने छेद हैं? ऐसे में मेरे जीवन की यह नैय्‌या कतई पार न लगेगी।

मानवीय दुर्बलताएं दामोदर बाबू में भी थीं। परंतु थे वह एक धार्मिक। भूत और भविष्‍य का उन्‍हें पूरा ज्ञान था। कालचक्र को समझने में बड़े ही समर्थ थे। अपनी धर्मपत्‍नी और बच्‍चों की बेरूखी देख सारा गाँव ही उनकी नजर में श्‍मशान सा बन गया। उनका मन निराशा से भर गया। उन्‍होंने सोचा-जब पूरा कुनबा ही बेगाना हो गया है तब मान न मान मैं तेरा मेहमान की भांति मैं जानबूझकर यहां क्‍यों पड़ा रहूं? अरे, जैसी बहे बयार पीठ तस दीजै, में ही अक्‍लमंदी है।

क्‍योंकि जग की यह रीति बड़ी निराली है कि जिसके हाथ डोई उसी का सब कोई। जैसे शरीर में खून न हो तो उसे खटमल भी नहीं काटता है। वैसे ही कमाई न करने वाला भी घर वालों की निगाह में केवल अन्‍न का शत्रु बन जाता है। आज मेरे पास इन्‍हें देने की खातिर कुछ भी तो नहीं है। यहां तक कि मेरा तन-मन भी अब जवाब ही देने लगा है। इसलिए मेरे लिए अब यही बेहतर है कि वा सोने को जारिए जाजौ टूटै कान। मुझे मान-सम्‍मान के साथ अब इस घर-परिवार से अलग ही हो जाना चाहिए। इसी में मेरी इज्‍जत है।

यह सोचकर एक रोज वह अपनी पत्‍नी तृष्‍णा से मन मारकर बोले-तष्‍णा! जरा मेरी बात सुनो। जब तक महेश और दिनेश के खाने-पहनने तक की बात थी मुझे सब कुछ मंजूर था। मैंने उन्‍हें कभी किसी कमी का अहसास न होने दिया। चुपचाप मन मारकर सब कुछ सहन करता रहा। लेकिन आज इस संकट की घड़ी में तुमने भी मुझे अछूत समझ लिया। बिना कुछ सोचे-समझे ही तुम उनकी हां में हां मिलाकर मुझे अपने से अलग-थलग करने पर तुली हो। पुत्रमोह में मुझे त्‍यागने को तैयार हो। यह कोई न्‍याय नहीं अन्‍याय है। तुम मेरी जीवन संगिनी हो। कम से कम तुम्‍हें तो ऐसा कदापि न सोचना था।

वह फिर कहने लगे-तुम कान लगाकर एक बात और भी सुन लो। पुरूष स्‍वभाव से अधिक संधर्षशील होता है। वह समय आने पर हर मुसीबत भी झेल सकता है। सत्‍य,कोमलता और विनम्रता में बड़ी शक्‍ति होती है। मैं भी उनमें से ही एक हूँ। जहां भी जाऊंगा जैसे-तैसे मेरा गुजर-बसर हो जाएगा। पर, कोई स्‍त्री लेशमात्र भी उपेक्षा ओर तिरस्‍कार सहन नहीं कर सकती है। अपने जिन लाडलों पर तुम्‍हें आज इतना अभिमान है वह स्‍थाई और टिकाऊ कतई नहीं है। आज मेरे साथ जो कुछ हो रहा है वही कल तुम्‍हारे साथ भी होगा। तब तुम्‍हारा सारा जीवन नर्क बनकर रह जाएगा। मेरे दूर जाते ही ये तुम से अपना नेत्र फेर लेंगे। तुम्‍हारा जीवन दुखों का दावानल बन जाएगा। तुम्‍हारे सुख-चैन में खलल पड़ जाएगी।

तब तृष्‍णा मारे क्रोध के आंखें लाल-पीली करके बोली-आप हमारी चिंता छोड़िए। अभी तो तो आप बस अपनी फिक्र कीजिए। बाद में मेरे साथ जो होगा देखा जाएगा।

दामोदर बाबू अपना गौरव और महत्‍व खूब समझते थे। तृष्‍णा का विचार सुनकर वह दंग रह गए। उनके हृदय में श्‍मशान सा सन्‍नाटा छा गया। उनका उपदेश किसी काम न आया। उनकी इच्‍छाओं का अंत हो गया। मानो वे मर गईं। विपत्‍ति पड़ते ही प्रेम का स्‍वामी प्रेम से वंचित ही रह गया। हार थककर वह सोचने लगे-चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। जिंदगी पानी का बुलबुला है। जहां अपना कोई नहीं बल्‍कि सभी पराए हैं वहां क्‍या रहना? चारों ओर से हताश होकर अनवरत प्रेरणा के साथ मन ही मन उन्‍होंने घर द्वार का छोड़ने फैसला कर लिया। वह सारी रात सो न सके। रातभर करवटें ही बदलते रहे।

अगले दिन सुबह चेहरे पर लंबी-लंबी दाढ़ी लिए हुए शोक और चिंता की मूर्ति बनकर दामोदर बाबू बड़े भोर में ही घर से निकल पड़े। जीवनपथ की धाराएं अपने हाथ में लिए हुए वह अपनी धुन में बड़ी निर्भीकता से सरपट भागे चले जा रहे थे। अब उन्‍हें न किसी का मोह था और न किसी का भय। प्‍यासा पथिक मौत से भी लड़ने को आतुर था। गर्मी शुरू होने में अभी देर थी। फिर भी पछुआ खूब जोर से चल रही थी। चारों ओर गुलाबी आभा फैलने पर भी आसमान में धुंध छाई हुई थी। दामोदर को बगैर कुछ खाए-पिए ही सारा दिन व्‍यतीत हो गया।

आखिर धीरे-धीरे शाम होने लगी। पक्षीगण चहचहाकर शोर मचाते हुए अपने घोसलों में जाने लगे। शून्‍यता और उदासी की तस्‍वीर बने हुए दिन भर चलते-चलते दामोदर बाबू थककर चूर हो गए। तभी उनकी निगाह एक खेत में खड़े किसान पर पड़ गई। मारे प्‍यास के उनका गला सूख रहा था। निर्जन मैदान में डूबते को तिनके का सहारा मिला। वह टहलते हुए उसके पास पहुँच गए। उसका प्रसन्‍नचित्‍त सुंदर मुख मंडल देखकर इन्होंने सोचा-चलो अच्‍छा हुआ। एक से दो भले। लाओ थोड़ी देर यहां सुस्‍ता लूं। अपनी मंजिल न जाने अभी कितनी दूर है? वह पानी पीने की गरज से किसान के खेत में स्‍थित ट्‌यूबवेल की ओर बढ़कर बोले-भैया, तनिक पानी मिलेगा क्‍या? बड़ी जोर की प्‍यास लगी है। प्‍यास के मारे गला सूख रहा है।

दामोदर की बीमारों जैसी सूरत देखकर किसान को बड़ा दुख हुआ। वह तत्‍काल उनकी ओर लपककर पहुँचा ओर कहने लगा-हां,हां क्‍यों नहीं? जरूर मिलेगा। मैं अभी लाता हूँ। दामोदर बाबू ठंडा-ठंडा जल पीकर तृप्‍त हो गए। उनकी प्‍यास बुझ गई। पानी पीने के तदोपरांत किसान ने बड़ी नम्रता से पूछा-महाशय! आप कौन हैं और रात समय इस आंधी तूफान में कहां भागते जा रहे हैं? दामोदर बाबू ने अपना पूरा परिचय देकर उसे अपनी आपबीती सुना दिया। उनकी दुखभरी दास्‍ताँ सुनकर किसान को बड़ी तकलीफ महसूस हुई। उसका हृदय झकझोर उठा। वह स्‍तब्‍ध रह गया। उसे यकायक बड़ी घुटन होने लगी।

इसके बाद दामोदर बाबू कृतज्ञता से किसान का आभार प्रकट करके बोले-भैय्‌या, वंश बढ़ते ही सुमति खत्‍म हो जाती है। घर में कुमति का वास हो जाता है। बुढ़ापे में शरीर बल कम होते ही मर्द की सारी आजादी छिन जाती है। लोग मुर्दों तो हरगिज नहीं डरते पर, जीवित से अवश्‍य डरते हैं। इसलिए मैं अब अपने बीवी-बच्‍चों की नजर में जीते जी किसी मुर्दे से कम थोड़े हीं हूँ। अच्‍छा, अब मैं चलता हूँ। मुझे इजाजत दीजिए। समझ में नहीं आता कि क्‍या करूँ? मन मस्‍तिष्‍क में छाई हुई निराशा आगे नहीं बढ़ने देती और प्रगति प्रेरणा की आशा अब पीछे की ओर नहीं मुँड़ने देती है। किन्‍तु चतुर अवसर से लाभ उठाता है और मूर्ख बैठकर अपने भाग्‍य को कोसता है। मेरे लिए अब यही बेहतर है कि मैं उस परिवार से अलग ही हो जाऊँ।

किसान का नाम था संतोष। दामोदर की दर्दभरी कहानी सुनकर उनका कलेजा कचोट उठा। वह बड़ी सूझबूझ के अनुभवी पुरूष थे। चेहरे से हरदम भलमनसाहत बरसती थी। उनके करूण मन में दयाभाव तो था ही, वह बड़े संकल्‍पशील भी थे। दामोदर को आशा-निराशा के भँवर में फँसा देखकर उनके दिल में बड़ा शोक उत्‍पन्‍न हो गया। देखते ही देखते उनका कांतिमय चेहरा सूखे फूल की तरह मुरझा गया। वह बड़े धैर्य और संयम से बोले-दामोदर बाबू! मेरी मानिए तो घर वापस लौट जाइए। जहां चार बर्तन होते आपस में खटकते रहते हैं। अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। आपके बीवी-बच्‍चों को जब अपनी भूल का अहसास होगा तो बहुत पछताएंगे। वे आपको तलाशेंगे जरूर।

अगर फिर भी आपका विचार यही हो तब एक काम कीजिए। इससे एक पंथ दो काम हो जाएंगे। कहीं और जाने के बजाय आप यहीं मेरे बोरिंग वाले कमरे में अपना डेरा डाल लें। अब रही बात रोटी-पानी की तो वह मैं समय से भिजवा दिया करूंगा। आपको यहां कोई दिक्‍कत न होगी। भाई नहीं हूँ लेकिन मुझे अपना सगा भाई ही समझिए। इससे मेरे खेतों की देखभाल भी होती रहेगी और रखवाली करने की जरूरत भी न रहेगी। एक बात और। टमाटर बड़ा गुणकारी और सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसमें भरपूर विटामिन होता है। भूख लगने पर जितने खा सकते हैं बेझिझक भरपेट खूब खाइए। आपको खुली छूट है। न कोई रोकेगा और न ही कोई टोकेगा। ईश्‍वर ने चाहा तो आपकी सेहर जल्‍दी ही फिर सुधर जाएगी। अगर दवा की जरूरत पड़ी तो उसका भी इंतजाम हो जाएगा।

यह सुनते ही दामोदर बाबू कृतज्ञता से सिर झुका लिए और बोले-परंतु एक बात मेरी भी सुन लीजिए। आप आइंदा फिर कभी भूलकर भी घर का रूख करने का मुझ पर दबाव न डालेंगे। अब मेरा जीना-मरना आपके साथ यहीं एकांत वनवास में होगा। दामोदर बाबू का मन बदला हुआ देखकर संतोष बाबू बड़े हर्षित हुए। उनकी खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा। वह दामोदर के सोने की खातिर ट्‌यूबवेल पर जो भी फटे-पुराने कपड़े थे, उन्‍हें फौरन झाड़कर फर्श पर बिछा दिए।

समय चक्र चलता रहा। दामोदर बाबू खेत में जी भरकर लाल-लाल ताजे टमाटर खाकर अपनी भूख शांत करते रहे। अब उन्‍हें रोटी-दाल की जरूरत ही न थी। जब भूख सताती तो दो-चार टमाटर तोड़कर फटाफट खा लेते। इस तरह तीन-चार महीने गुजर गए। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उनके मुरझाए चेहरे पर निखार आने लगी। उनके गाल टमाटर की भांति ही सुर्ख लाल हो गए। बदन में ताकत और स्‍फूर्ति फिर वापस आ गई। वह पहले जैसे दुबारा हट्‌टे-कट्‌ठे हो गए। वह डटकर खूब काम-धाम भी करने लगे। लेकिन परमात्‍मा की इच्‍छा देखिए। जब वह पूर्ववत तंदुरूस्‍त हो गए तो एक दिन अचानक बड़ी गड़बड़ हो गई। दामोदर के गांव के किसी पड़ोसी सज्‍जन ने वहां से गुजरते वक्‍त उन्‍हें देखकर पहचान लिया। जबकि उनके घर वाले यही समझते थे कि दामोदर बाबू कहीं मर-खप गए होंगे। उस आदमी ने जो कुछ दखा था जाकर दामोदर की पत्‍नी तृष्‍णा को बता दिया।

यह सुनते ही तृष्‍णा को पहले तो उसकी बात पर यकीन ही न हुआ। बाद में बड़ी मुश्‍किल से आश्‍वस्‍त होने पर मारे खुशी के बल्‍लियों उछलने लगी। उसने उससे पूछा-भाई साहब! सच बताना कि क्‍या यह सही है? उसने बेधड़क कहा- हां, यह सोलह आने एकदम सच है। यह सुनते ही वह तुरंत अपने दोनों पुत्रों के संग संतोष बाबू के खेतों में जा धमकी और घड़ियाली आंसू बहाते हुए दामोदर बाबू से बोली-मेरे देवता! आपके बगैर हम सबकी दुनिया बिल्‍कुल अंधेरी हो गई। हमने न जाने आपको कहां-कहां ढूंढ़ा। पर, आपका कहीं पता ही न चला। आप अकेले यहां वीराने में पड़े हुए हैं। अब फौरन घर चलिए। कर्दम बाबू हमें ज्‍यों ही बताए हम यहां भागते चले आए।

तृष्‍णा का आग्रह सुनकर दामोदर के कान खड़े हो गए। वह बनावटी गुस्‍से से गुर्राकर बोले-क्‍यों बेकार ही मोती जैसे कीमती इन आंसुओं को टपकाकर मेरा दिल जला रही हो? जब मैं बीमार था तब कोई मेरी खबर भी न लेने वाला था। अब झूठी हमदर्दी दिखाने आ गए हो। कान खोलकर एक बात मेरी भी सुन लो। अब मैं तुम लोगों के साथ हरगिज नहीं रह सकता। चुपचाप यहां से चले जाओ। वरना, ठीक न होगा। मार-मारकर हड्‌डी पसली तोड़ दूंगा।

उनका हठ देखकर तृष्‍णा गिड़गिड़ाने लगी। वह हाथ जोड़कर उनसे बोली-मेरे प्राणनाथ! आप इतने निष्‍ठुर न बनिए। हमें माफ कर दीजिए। बड़ी भूल हो गई। परंतु दामोदर टस से मस होने को भी तैयार न थे। इतने में संतोष बाबू भी टहलते हुए वहां जा पहुँचे। उनकी मान-मनौवल देखकर उन्‍हें बड़ा ताज्‍जुब हुआ। वह सोचने लगे-कैसी स्‍त्री है? कभी पति को घर से निकालती है और कभी अपनापन दिखाकर उसे घर ले जाना चाहती है।

लेकिन मिया-बीवी की मनुहार देख उनका हृदय पिघल गया। वह बोले-दामोदर भइया! हमें कुछ कहने का हक नहीं है। फिर भी यदि बुरा न माने तो इन्‍हें अब निराश न करें और घर जाकर फिर से अपनी गृहस्‍थी संभालिए। इन्‍हें अपनी करनी का फल मिल चुका है। ये वास्‍तव में अब पछता रहे हैं। जीवन का मूल्‍य अब ये अच्‍छी तरह समझ गए हैं। मनुष्‍य को हमेशा आगे की ओर देखना चाहिए। कूप मंडूक बने रहना ही उचित नहीं है। न मालूम किसकी तकदीर से आप मौत के मुंह से साफ-साफ बच गए। इन्‍हें क्षमा करके इनके साथ जाइए। तब दामोदर बाबू ने कहा-ठीक है जैसी आपकी मर्जी। आपकी यभी यही इच्‍छा है तो मैं चला जाता हूँ। अन्‍यथा मेरी मर्जी जीवन भर यहीं रहने की है। इसके बाद दामोदर अपने बीवी-बच्‍चों के संग राजी-खुशी अपने घर चले गए। उनका उजड़ा हुआ घर फिर से बस गया।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी // जीवन मूल्‍य // अर्जुन प्रसाद
कहानी // जीवन मूल्‍य // अर्जुन प्रसाद
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