जैन धर्म का इतिहास - 1 // सिद्धांताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री

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जैनधर्म का इतिहास १. इतिहास १ आरम्भ काल एक समय था जब जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा समझ लिया गया था। किन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो बुरी है और न...

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जैनधर्म का इतिहास

१. इतिहास

१ आरम्भ काल

एक समय था जब जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा समझ लिया गया था। किन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो बुरी है और नई खोजों के फलस्वरूप यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्ध धर्म से न केवल एक पृथक् और स्वतन्त्र धर्म है किन्तु उस से बहुत 'प्राचीन भी है अब अन्तिम तीर्थ-दूर भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना जाता और उन से अढ़ाई सौ वर्ष पहले होने वाले भगवान पार्श्वनाथ को एक ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकारकर (१ इस भ्रान्ति को दूर करने का श्रेय स्व० डा० हर्मान याकोवी को प्राप्त है। उन्होंने अपनी जैनसूत्रों की प्रस्तावना में इस पर विस्तृत विचार किया है। वे लिखते हैं- ''इस बात से अब सब सहमत हैं कि लालपुल, जो महावीर अथवा वर्धमान के नाम से प्रसिद्ध हैं, बुद्ध के समकालीन थे। बौद्ध-ग्रन्थों में मिलने वाले उल्लेख हमारे इस विचार को दृढ़ करते हैं कि नातपुत्त से पहले भी निर्ग्रन्थों का जो आज जैन अथवा अहित के नाम से अधिक प्रसिद्ध है, अस्तित्व था। जब बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निर्ग्रन्थों का सम्प्रदाय एक बडे सम्प्रदाय के रूप में गिना जाता होगा। बौद्ध पिटकों में कुछ निर्ग्रन्थों का बुद्ध और उस के शिष्यों के विरोधी के रूप में और कुछ का बुद्ध के अनुयायी बन जाने के रुप में वर्णन आता है। उस के ऊपर से हम उक्त बात का अनुमान कर सकते हैं। इस के विपरीत इन अन्यों से किसी भी स्थान पर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखने में नहीं आता कि निर्ग्रन्थों का सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उस के संस्थापक हैं। इस के ऊपर से हम अनुमान कर सकते हैं कि बुद्ध के जन्म से पहले अतिप्राचीन काल से निर्ग्रन्थों का अस्तित्व चला आता है।'') लिया गया है। इस तरह अब जैनधर्म का आरम्भ-काल 'सुनिश्चित रीति से ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व मान लिया गया है। किन्तु जहाँ अब कुछ विद्वान भगवान पार्श्वनाथ को जैनधर्म का संस्थापक मानते हैं वहाँ कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो उस से पहले भी जैन- धर्म का अस्तित्व मानते हैं। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध जर्मन विद्वान स्व० डॉ० हर्मन याकोबी और प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक सर राधाकृष्णन् का मत उल्लेखनीय है। डॉ. याकोबी लिखते हैं- 'इन में कोई भी सबूत नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को जैन-धर्म का संस्थापक मानने में एक मत हैं। इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्य की सम्भावना है।'

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(१ उत्तराध्ययन सूत्र के प्राक्कथन में डॉ. चार्पेन्टर लिखते हैं-''हमें स्मरण रखना चाहिये कि जैनधर्म भ० महावीर से प्राचीन है और महावीर के आदरणीय पूर्वज पार्श्वनाथ निश्चित रूप से एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में वर्तमान थे। अतः जैनधर्म के मूल सिद्धान्त भ ० महावीर से बहुत पहले निर्धारित हो चुके थे'। विवलोग्राफिया जैन की प्रस्तावना में, डा० गैरीनाट लिखते हैं- इसमें कोई संदेह नहीं है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। जैन मान्यता के अनुसार वे सौ वर्ष- तक जीवित रहे और महावीर से २५० वर्ष पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुए। अतः उन का कार्य- काल ईस्वी सन् से ८०० वर्ष. पूर्व था। महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के धर्म को मानते थे।'')

डॉ. सर राधाकृष्णन् कुछ विशेष जोर 'देकर लिखते हैं- 'जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है, जो बहुत सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभ- देव की पूजा होती थी। इस में कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभ-देव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरों के नामों का निर्देष है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।'

उक्त दो मतों से यह बात निर्विवाद हो जाती है कि भगवान पार्श्वनाथ भी जैनधर्म के संस्थापक नहीं थे और उन से पहले भी जैनधर्म प्रचलित था। तथा जैन परम्परा श्रीऋषभदेव को अपना प्रथम तीर्थंकर मानती है और जैनेतर साहित्य तथा उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री से भी इस बात की पुष्टि होती है। नीचे इन्हीं बातों को स्पष्ट किया जाता है।

जैन परम्परा

जैन परम्परा के अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगत में काल का चक्र सदा घूमा करता है। यद्यपि काल का प्रवाह अनादि और अनन्त है तथापि उस कालचक्र के छ: विभाग हैं-१ अतिसुस्वरूप, २ सूखरूप, ३ सुख-दुःखरूप, ४ दुःखसुखरूप, ५ दुखरूप और ६ अतिदुःखरूप। जैसे चलती हुई गाड़ी के चक्र का प्रत्येक भाग नीचेसे

ऊपर और ऊपर में नीचे जाता आता है वैसे ही ये छः भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते हैं। अर्थात् एक बार जगत् सुख से दुःख- की ओर जाता है तो दूसरी बार दुःख से सुख की ओर बढ़ता है।

सुख से दुःख की ओर जाने को अवसर्पिणीकाल या अवनति-काल कहते हैं और दुःख से सुख की ओर जाने को उत्सर्पिणी-काल या विकास काल कहते हैं। इन दोनो कालों की अवधि लाखों करोड़ों वर्षों से भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकाल के दुखसुखरूप भाग में २४ तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो 'जिन' अवस्था को प्राप्त कर के जैनधर्म का उपदेश देते हैं। इस समय अवसर्पिणीकाल चालू है। उस के प्रारम्भ के चार विभाग बीत चुके हैं और अब हम उसके पाँचवें विभाग में से गुजर रहे हैं। चूँकि चौथे विभाग का अन्त हो चुका, इसलिये इस काल में अब कोई तीर्थंकर नहीं होगा। इस युग के २४ तीर्थंकरों में से भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। तीसरे कालविभागों में जब तीन वर्ष ८।। माह शेष रहे तब ऋषभदेव का निर्वाण हुआ और चौथे कालविभाग में जब उतना ही काल शेष रहा तब महावीर का निर्वाण हुआ। दोनों का अन्तरकाल एक कोटा-कोटी सागर बतलाया जाता है। इस तरह जैन परम्परा के अनुसार इस युग में जैनधर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। प्राचीन से प्राचीन जैनशास्त्र इस विषय में एक मत हैं और उन में ऋषभदेव का जीवन-चरित्र बहुत विस्तार से वर्णित है।

जैनेतर साहित्य

जैनेतर साहित्य में भी श्रीमद्भागवत का नाम उल्लेखनीय है। इस के पांचवे स्कन्ध के अध्याय २-६ में ऋषभदेव का सुन्दर वर्णन है, जो जैन साहित्य के वर्णन से कुछ अंश में मिलता-जुलता हुआ भी है। उस में लिखा है जब ब्रह्मा ने देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया। उन के प्रियव्रत नाम का लड़का हुआ। प्रियव्रत का पुत्र अग्नीध्र हुआ। अग्नीध्र के धर नाभि ने जन्म लिया। नाभि ने मरुदेवी से विवाह किया और उस से ऋषभदेव उत्पन्न हुए। ऋषभदेव ने इन्द्र के द्वारा दी गई जयन्ती नाम की भार्या से सौ पुत्र उत्पन्न किये, और बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर के संन्यास ले लिया।

उस समय केवल शरीर मात्र उन के पास था और वे दिगंबर वेष में नग्न विचरण करते थे। मौन से रहते थे, कोई डराये, मारे, ऊपर थूकें, पत्थर फेंके, मूत्र- विष्ठा फेंके तो इन सब की ओर ध्यान नहीं देते थे। यह शरीर असत् पदार्थों का घर है ऐसा समझकर अहंकार ममकार का त्याग कर के अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव के समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उन का क्रियाकर्म बड़ा भयानक हो गया था। शरीरादिक का सुख छोड्‌कर उन्होंने 'आजगर' व्रत ले लिया था। इस प्रकार कैवल्यपति भगवान ऋषभदेव निरन्तर परमआनन्द का अनुभव करते हुए भ्रमण करते-करते कौंक, वेंक कुटक दक्षिण कर्नाटक देशों में अपनी इच्छा से पहुंचे, और कुटकाचल पर्वत के उपवन में उन्मत्त की नाई नग्न होकर विचरने लगे। जंगल में बाँसों की रगड़ से आग लग गई और उन्होंने उसी में प्रवेश कर के अपने को भस्म कर दिया।'

इस तरह ऋषभदेव का वर्णन कर के भागवतकार आगे लिखते हैं- 'इन ऋषभदेव के चरित्र को सुनकर कोंक, बेंक, कुटक देशों का राजा अर्हन् उन्हीं के 'उपदेश को लेकर कलियुग में जब अधर्म बहुत हो जायगा तब स्वधर्म को छोड्‌कर कुपथ पाखंड (जैनधर्म) का प्रवर्तन करेगा। तुच्छ मनुष्य माया से विमोहित होकर, शौच आचार को छोड्‌कर ईश्वर की अवज्ञा करनेवाले व्रत धारण करेंगे। न स्नान न आचमन, ब्रह्म, ब्राह्मण, यज्ञ सब के निन्दक ऐसे पुरुष होंगे और वेद-विरुद्ध आचरण कर के नरक में गिरेंगे। यह ऋषभावतार रजोगुण से व्याप्त मनुष्यों को मोक्षमार्ग सिखलाने के लिये हुआ।'

श्रीमद्‌भागवत के उक्त कथन में से यदि उस अन्श को निकाल दिया जाये, जो कि धार्मिक विरोध के कारण लिखा गया है तो उस से बराबर यह ध्वनित होता है कि ऋषभदेवने ही जैनधर्म का उपदेश दिया था क्योंकि जैन तीर्थंकर ही केवलज्ञान को प्राप्तकर लेने पर 'जिन' अर्हत् आदि नामों से पुकारे जाते हैं और उसी अवस्था में वे धर्मोपदेश करते हैं जोकि उन की उस अवस्था के नाम पर जैनधर्म या आर्हत धर्म कहलाता है।

सम्भवत: दक्षिण में जैनधर्म का अधिक प्रचार देखकर भागवतकार ने उक्त कल्पना कर डाली है। यदि वे सीधे ऋषभदेव से ही जैनधर्म की उत्पत्ति बतला देते तो फिर उन्हें जैनधर्म को बुरा भला कहने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु, श्रीमदभागवत ने ऋषभदेवजी के द्वारा उन के पुत्रों को जो उपदेश दिया गया है वह भी बहुत अंश में जैनधर्म के अनुकूल ही है। उस का सार निम्न प्रकार है-

(१) हे पुत्रो ! मनुष्यलोक में शरीरधारियों के बीच में यह शरीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नहीं है। अत: दिव्य तप करो, जिस से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है।

(२) जो कोई मेरे से प्रीति करता है, विषयी जनों से, स्त्री से, पुत्र से और मित्र से प्रीति नहीं करता, तथा लोक में प्रयोजनमात्र आसक्ति करता है वह समदर्शी प्रशान्त और साधु है।

(३) जो इन्द्रियों की तृप्ति के लिये परिश्रम करता है उसे हम अच्छा नहीं मानते; क्योंकि यह शरीर भी आत्मा को क्लेशदायी है।

(४) जब तक साधु आत्मतत्व को नहीं जानता तब तक वह अज्ञानी है। जब तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक सब कर्मों का शरीर और मन द्वारा आत्मा से बन्ध होता रहता है।

(५) गुणों के अनुसार चेष्टा न होने से विद्वान् प्रमादी हो, अज्ञानी बनकर, मैथुनसुखप्रधान घर में बस कर अनेक संतापों को प्राप्त होता है।

(६) पुरुष का स्त्री के प्रति जो कामभाव है यही हुदय की ग्रन्थि है। इसी से जीव को घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धन से मोह होता है।

(७) जब हृदय की सन्धि को बनाये रखनेवाले मन का बन्धन शिथिल हो जाता है तब यह जीव संसार से छूटता है और मुक्त होकर परमलोक को प्राप्त होता है।

(८) जब सार असार का भेद कराने वाली व अज्ञानान्धकार का नाश करने वाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा, सुख दुःख का त्याग कर तत्व को जानने की इच्छा करता है, तथा तप के द्वारा सब प्रकार की चेष्टाओं की निवृत्ति करता है तब मुक्त होता है।

(९) जीवों को जो विषयों की चाह है यह चाह ही अन्धकूप के समान नरक में जीव को पटकती है ।

( १०) अत्यन्त कामनावाला तथा नष्ट दृष्टिवाला यह जगत अपने कल्याण के हेतुओं को नहीं जानता है।

( ११) जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड़ कुमार्ग में चलता है उसे दयालु विद्वान कुमार्ग में कभी भी नहीं चलने देता।

( १२) हे पुत्रो ! सब स्थावर जंगल जीवमात्र को मेरे ही समान समझकर भावना करना योग्य है।

ये सभी उपदेश जैनधर्म के अनुसार हैं। इन में नम्बर ४ का उपदेश तो खास ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्ड को बन्ध का कारण बतलाता है। जैनधर्म के अनुसार मन, वचन और काय का निरोध किये बिना कर्मबन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता। किन्तु वैदिक धर्मों में यह बात नहीं पाई जाती।

शरीर के प्रति निर्ममत्व होना, तत्वज्ञान पूर्वक तप करना, जीवमात्र को अपने समान समझना, कामवासना के फन्दे में न फँसना, ये सब तो वस्तुत: जैनधर्म ही है। श्रीमद्‌भागवत के अनुसार भी श्री ऋषभदेव से ही जैन धर्म का उद्‌गम हुआ ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है। अन्य हिन्दू पुराणों में भी जैनघर्म की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रायः इसी प्रकार का वर्णन पाया जाता है। ऐसा एक भी ग्रन्थ अभी तक देखने- में नहीं आया, जिस में वर्धमान या पार्श्वनाथ से जैनधर्म की उत्पत्ति बतलाई गई हो। यद्यपि उपलब्ध पुराण साहित्य प्राय: महावीर के बाद का ही है, फिर भी उस में जैनधर्म की चर्चा होते हुए भी महावीर या पार्श्वनाथ का नाम तक नहीं पाया जाता। इस से भी इसी बात की पुष्टि होती है कि हिन्दू परम्परा भी इस विषय में एक मत है कि जैनधर्म के संस्थापक ये दोनों नहीं हैं।

इस के सिवा हम यह देखते हैं कि हिन्दू धर्म के अवतारों में अन्य भारतीय धर्मों के पूज्य पुरुष भी सम्मिलित कर लिये गये हैं, यहाँ तक कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में होनेवाले बुद्ध को भी उस में सम्मिलित कर लिया गया है जो बौद्धधर्म के संस्थापक थे। किन्तु उन्हीं के समकालीन वर्धमान या महावीर को उस में सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि वे जैनधर्म के संस्थापक नहीं थे। जिन्हें हिन्दू परम्परा जैनधर्म का संस्थापक मानती थी वे श्रीऋषभदेव पहले से ही आठवें अवतार माने हुए थे। यदि श्रीबुद्ध की तरह महावीर भी एक नये धर्म के संस्थापक होते तो यह संभव नहीं था कि उन्हें छोड़ दिया जाता। अत: उन के सम्मिलित न करने और ऋषभदेव के आठवें अवतार माने जाने से भी इस बात का समर्थन होता है कि हिन्दू परम्परा में अति प्रचीनकाल से ऋषभदेव को ही जैन- धर्म के संस्थापक के रूप में माना जाता है। यही वजह है जो उन के बाद में होनेवाले अजितनाथ और अरिष्टनेमि नाम के तीर्थंकरों का निर्देश यजुर्वेद में मिलता है।

ऐतिहासिक सामग्री

इस प्रकार जैन और जैनेतर साहित्य से यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव ही जैनधर्म के आद्य प्रवर्तक थे। प्राचीन शिलालेखों से भी यह बात प्रमाणित है कि श्रीऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे और भगवान महावीर के समय में भी ऋषभदेव की मूर्तियों की पूजा जैन लोग करते थे। मथुरा के कंकाली नामक टीले की खुदाई में डाक्टर फूहरर को जो जैन शिलालेख प्राप्त हुए वे करीब दो हजार वर्ष प्राचीन है, और उनपर इन्डोसिथियन राजा कनिष्क हुविष्क और वासुदेव का सम्वत् है। उस में भगवान ऋषभदेव की पूजा के लिये दान देने का उल्लेख है।

श्रीविसेण्ट' ए० स्मिथ का कहना है कि 'मथुरा से प्राप्त सामग्री लिखित जैन परम्परा के समर्थन के विस्तृत प्रकाश डालती है और जैनधर्म की प्राचीनता के विषय में अकाट्‌य प्रमाण उपस्थित करती हे। तथा यह बतलाती है कि प्राचीन समय में भी वह अपने इसी रूप में मौजूद था। ईस्वीसन् के प्रारम्भ में भी अपने विशेष चिह्नों के साथ चौबीस तीर्थंकरों की मान्यताओ में दृढ़ विश्वास था'।

इन शिलालेखों से भी प्राचीन और महत्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि उड़ीसा की हाथी गुफा से प्राप्त हुआ है जो जैउन सम्राट खारवेल ने लिखाया था। इस २१०० वर्ष प्राचीन जन शिलालेख से स्पष्ट पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्र का पूर्वाधिकारी राजा नन्द कलिंग जीतकर भगवान श्रीऋषभदेव की मूर्ति, जो कलिंग राजाओं की कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावर सम्पत्ति थी, जयचिह्न स्वरूप ले गया था। वह प्रतिमा खारवेल ने नन्दराजा के तीन सौ वर्ष बाद पुष्यमित्र से प्राप्त की। जब खारवेल ने मगध पर चढाई की और उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्र ने खारवेल को वह प्रतिमा लौटाकर राजी कर लिया। यदि जैनधर्म का आरम्भ भगवान महावीर या भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा हुआ होता तो उन से कुछ ही समय बाद की या उन के समय की प्रतिमा उन्हीं की होती। परन्तु जब ऐसे प्राचीन शिलालेख में आदि तीर्थंकर की प्रतिमा का स्पष्ट और प्रामाणिक उल्लेख इतिहास के साथ मिलता है तो मानना पड़ता है कि श्रीऋषभदेव के प्रथम जैन तीर्थंकर होने की मान्यता में तथ्य अवश्य है।

अब प्रश्न यह है कि वे कब हुए?

ऊपर बतलाया गया है कि जैन परम्परा के अनुसार प्रथम जैन तीर्थंङ्कर श्रीऋषभदेव इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे भाग में हुए, और अब उस काल का पाँचवाँ भाग चल रहा है अत: उन्हें हुए लाखों करोड़ वर्ष हो गये। हिन्दू परम्परा के अनुसार भी जब ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में स्वयंभू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया तो ऋषभदेव उन से पाँचवीं पीढ़ी में हुए। और इस तरह वे प्रथम सतयुग के अन्त में हुए। तथा अब तक २८ 'सतयुग बीत गये हैं। इस में भी उन के समय की सुदीर्घता का अनुमान लगाया जा सकता है। अत: जैनधर्म का आरम्भकाल बहुत प्राचीन है। भारतवर्ष ' में जब आर्यों का आगमन हुआ उस समय भारत में जो द्रविड़ सभ्यता फैली हुई थी, वस्तुत: वह जैन सभ्यता ही थी। इसी से जैन परम्परा में बाद को जो संघ कायम हुए उन में एक द्रविड़ संघ भी था।

२ ऋषभदेव

काल के उक्त छ: भागो में से पहले और दूसरे भाग में न कोई धर्म होता है, न कोई राजा और न कोई समाज। एक परिवार में पति और पत्नी ये दो ही प्राणी होते हैं। पास में लगे वृक्षों से, जो कल्पवृक्ष कहे जाते हैं उन्हें अपने जीवन के लिए आवश्यक पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, उसी में वे प्रसन्न रहते हैं। मरते समय एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म देकर वे दोनों चल बसते हैं। दोनों बालक अपना-अपना अंगूठा चूसकर बड़े होते हुए और बड़े होने पर पति और पत्नी रूप से रहने लगते हैं। तीसरे काल का बहुभाग बीतने तक यही कम रहता है ओर इसे भोग-भूमिकाल कहा जाता है-क्योंकि उस समय के मनुष्यों का जीवन भोग-प्रधान रहता है। उन्हें अपने जीवन-निर्वाह के लिए कुछ भी उद्योग नहीं करना पड़ता। किन्तु इस के बाद परिवर्तन प्रारम्भ होता है। धीरे-धीरे उन वृक्षों से आवश्यकता की पूर्ति के लायक सामान मिलना कठिन हो जाता है और परस्पर में झगडे होने लगते हैं। तब चौदह मनुओं की उत्पत्ति होती है। उन में से पाँचवाँ मनु वृक्षों की सीमा निर्धारित कर देता है। जब सीमा पर भी झगड़ा होने लगता है तो छठवाँ मनु सीमा के स्थान पर चिह्न बना देता है। तब तक पशुओं से काम लेना कोई नहीं जानता था और न उन की कोई आवश्यकता थी। किन्तु अब आवश्यक होने पर सातवाँ मनु घोडों पर चढ़ना वगैरह सिखाता है। पहले माता पिता सन्तान को जन्म देकर मर जाने थे। किन्तु अब ऐसा होना बन्द हो गया तो आगे के मनु बच्चों के लालन- पालन आदि का शिक्षण देते हैं। इधर-उधर जाने का काम पड़ने पर रास्ते में नदियों पड़ जाती थी, उन्हें पार करना कोई नहीं जानता था। तब बारहवाँ मनु पुल, नाव वगैरह के द्वारा नदी पार करने की शिक्षा देता है।

पहले कोई अपराध ही नहीं करता था, अत: दण्ड व्यवस्था की भी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किन्तु जब मनुष्यों की आवश्यकता पूर्ति में बाधा पड़ने लगी तो मनुष्यों में अपराध करने की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई। अत: दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता हुई। प्रथम के पाँच मनुओं के समय केवल 'हा' कह देना ही अपराधी के लिए काफी होता था। बाद को जब इतने से काम नहीं चला तो 'हा', अब ऐसा काम मत करना' यह दण्ड निर्धारित करना पड़ा। किन्तु जब इतने से भी काम नहीं चला तो अन्त के पाँच कुलकरो के समय में 'धिक्कार' पद और जोड़ा गया। इस तरह चौदह मनुओं ने मनुष्यों की कठिनाइयों को दूर करके सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात किया। चौदहवें मनु का नाम नाभिराय था। इन के समय में उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो इन्होंने उस को काटना बतलाया। इसलिए इस का नाम नाभि पड़ा। इन की पत्नी का नाम मरुदेवी था। इन से श्रीऋषभदेव का जन्म हुआ। यही ऋषभदेव इस युग में जैनधर्म के आद्य प्रर्वतक हुए। इन के समय में ही ग्राम नगर आदि की सुव्यवस्था हुई।' इन्होंने ही लौकिक शास्त्र लोकव्यवहार की शिक्षा दी और इन्होंने ही उस धर्म की स्थापना की जिस का मूल अहिंसा है। इसीलिए इन्हें आदि ब्रह्मा भी कहा गया है।

जिस समय ये गर्भ में थे, उस समय देवताओं ने स्वर्ण वृष्टि की इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहते हैं। इन के समय में प्रजा के सामने जीवन की समस्या विकट हो गई थी, क्योंकि जिन वृक्षों से लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वी में उगी थी, उन का उपयोग करना नहीं जानते थे। इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षु दण्डों से रस निकालकर खाना सिखलाया। इसलिए इन का वंश इक्ष्वाकु वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ, और ये उस के आदि पुरुष कहलाये। तथा' प्रजा को कृषि, असि, मषी, शिल्प,वाणिज्य और विद्या इन षट्‌कर्मों में आजीविका करना बतलाया। इसलिए इन्हें प्रजापति भी कहा जाता है। सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए इन्होंने तीन वर्गों की स्थापना की। जिन को रक्षा का भार दिया गया वे क्षत्रिय कहलाये। जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि के कार्य में नियुक्त किया गया वे वैश्य कहलाये। और जो सेवावृत्ति करने के योग्य समझे गये उन्हें शूद्र नाम दिया गया।

भगवान् ऋषभदेव के दो पत्नियाँ थी-एक का नाम सुनन्दा था और दूसरी का नन्दा। इन से उन के सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। बड़े पुत्र का नाम भरत था। यही भरत इस युग में भारत- वर्ष के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए।

एक दिन भगवान् ऋषभदेव राज सिंहासन पर विराजमान थे। राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना नाम की अप्सरा नृत्य कर रही थी। अचानक नृत्य करते करते नीलान्जना का शरीरपात हो गया। इस आकस्मिक घटना से भगवान का चित्त विरक्त हो उठा। तुरन्त सब पुत्रों को राज्यभार सौंप कर उन्होंने प्रव्रज्या ले ली और छ माह की समाधि लगाकर खडे हो गये। उन की देखादेखी और भी अनेक राजाओं ने दीक्षा ली। किन्तु वे भूख-प्यास के कष्ट को न सह सके और भ्रष्ट हो गये। छ माह के बाद जब भगवान की समाधि भंग हुई तो आहार के लिए उन्होंने बिहार किया। उन के प्रशान्त नग्न रूप को देखने के लिए प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भेंट करता था, कोई भूषण मेट करता था, कोई हाथी घोड़े लेकर उन की सेवा में उपस्थित होता था। किन्तु उन को भिक्षा देने की विधि कोई नहीं जानता था। इस तरह घूमते-घूमते ६ माह और बीत गये।

इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुर में जा पहुंचे। वहाँ का राजा श्रेयांस बडा दानी था। उसने भगवान का बड़ा आदर सत्कार किया। आदरपूर्वक भगवान को प्रतिग्रह कर के उच्चासन पर बैठाया, उन के चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार कर के बोला- भगवान्? यह इक्षु रस प्रासुक है, निर्दोष है इसे आप स्वीकार करें। तब भगवान ने खड़े होकर अपनी अन्जलि में रस लेकर पिया। उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है। भगवान का यह आहार वैशाख शुक्ला तीज के दिन हुआ था। इसी से यह तिथि 'अक्षय तृतीया' कहलाती है। आहार कर के भगवान् फिर वन को चले गये और आत्म ध्यान में लीन हो गये। एक बार भगवान 'पुरिमताल' नगर के उद्यान में ध्यानस्थ थे। उस समय उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस तरह 'जिन' पद प्राप्त कर के भगवान बड़े भारी समुदाय के साथ धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे। उनकी व्याख्यान सभा 'समव-सरण' कहलाती थी। उस की सब से बड़ी विशेषता यह थी कि उस में पशुओं तक को धर्मोपदेश सुनने के लिये स्थान मिलता था और सिंह जैसे भयानक जन्तु शान्ति के साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे। भगवान जो कुछ कहते थे सब की समझ में आ जाता था। इस तरह जीवनपर्यन्त प्राणिमात्र को उन के हित का उपदेश देकर भगवान ऋषभदेव कैलाश पर्वत से मुक्त हुए। वे जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे। हिन्दू पुराणों में भी उन का वर्णन मिलता है। इस युग में उन के द्वारा ही जैनधर्म का आरम्भ हुआ।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: जैन धर्म का इतिहास - 1 // सिद्धांताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री
जैन धर्म का इतिहास - 1 // सिद्धांताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री
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