विजय कुमार वर्मा समय-शिला के सीने पर मैंने भी कुछ नज़्म लिखे कुछ खासमखास तो कुछ बेहद आम लिखें. चेहरे बदल -बदल कर दुश्मन मिलते रहे यहाँ...
विजय कुमार वर्मा
समय-शिला के सीने पर 
मैंने भी कुछ नज़्म  लिखे
कुछ खासमखास तो 
कुछ बेहद आम लिखें.
चेहरे बदल -बदल कर 
दुश्मन मिलते रहे यहाँ
मैंने तो भरसक सबको 
दोस्ती के पैगाम लिखे .
हर  मुश्किल के हल भला 
शासन-प्रणाली क्यों ढूंढें  ?
अपने बल पर भी तो कोई 
नई कहानी आवाम  लिखें.
जब प्यास नहीं रही बाकी  
ना कोई तड़प परेशान करे .
तब क्या किसी को रूह-अफ़ज़ा 
क्या किसी को शाही-जाम लिखें.
कोई इरशाद  नहीं कहता 
इमदाद न देता कोई यहाँ 
कौन भला अब शे'र कहे 
क्या कोई कलाम लिखें .
ना दिन रहा अब ख़ुशनुमा 
ना रात गुज़रती पुरसुकून.
क्या कोई सुबह लिखे 
क्या कोई शाम  लिखे.
सारी तसद्दुक इस जहां की है 
उस जहां में कोई वैर नहीं 
चाहे ख़ुदा-ख़ुदा कहे कोई 
चाहे कोई राम -राम लिखे.
कर्म अगर सुकर्म न हो तो 
कैसे दिल को चैन मिले 
चाहे काशी -काबा  लिखो 
चाहे चारों धाम  लिखो .
जौहरी को नहीं हीरे  की परख 
हीरा क्यों अपना मुख खोले 
क्यों वह अपनी अहमियत कहे 
क्यों वह अपना दाम लिखे .
मेरी तो बकबक की आदत है 
दिल दुखे तो माफ़ी दे देना 
गिले-शिकवे भुलाकर अब
चलो आख़िरी सलाम लिखें.
  
--.
हज़ार ज़ख्म वर्षों से इस दिल में समाए है 
कुछ ज़माने ने दिए ,कुछ खुद के कमाए है .
ज़िन्दगी गुजर गयी इसे समझने की ज़ुर्रत में 
ताउम्र न समझ पाया कौन अपने ,कौन पराये है .
रेत का महल है और अदावत है हवाओं से 
हमारी हिमाकत है हमने यही महफ़िल सजाये है .
हाथों में गुलदस्ता है तो पीछे खंज़र क्यों है ?
ये क्या ढंग आपने दोस्ती के दिखलाए है !
किसे पड़ी है इस मुसाफ़िरख़ाने में टिकने की
हमारी मज़बूरी है हमने किराये ना चुकाए है .
विजय कुमार वर्मा 
बोकारो थर्मल 
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सुशील कुमार शर्मा
निश्चल छंद 
23  मात्रा 
16 ,7 पर यति 
चरणान्त में गुरु लघु 
क्रमागत दो चरण तुकांत 
सपनों की दुनिया में चाहत ,तेरे संग। 
जीवन का सबक अधूरा है ,दर्द मलंग। 
बनते बिगड़ते हालात में ,मन के रंग। 
ग़मों के दौर में खुशियां ,कटी पतंग। 
मदन छंद 
24 मात्राएँ 
14 ,10 पर यति 
चरणान्त में गुरु लघु 
क्रमागत दो चरण तुकांत 
मौत ने जिंदगी को फिर  ,किया कितना प्यार। 
मौत के प्रति दिखा प्रतिपल ,प्राण का आभार। 
निर्मम बना है काल चक्र ,कम्पित भूमण्डल। 
हर क्षण लगता आतंकित ,मरता कुछ हरपल। 
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डॉ मनोज 'आजिज़'
हरा कैनवास
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साल भर देखता  हूँ 
बनते बिगड़ते फसलों को 
बारिश की धारा, आँधी की बर्बादी 
और फिर एक ऐसा मंज़र खड़ा होता है 
जब लहलहाते खेत सुन्दर लगने लगते हैं 
पूरी धरती बन जाती है 
एक बड़ा हरा कैनवास। 
धान की नयी बालियाँ 
धानी रंग की धरती 
पीले रंग का असर 
तोतों का झुण्ड...
ये सारा श्रेय जाता है 
किसान और प्रकृति को 
जो मौसम की कमान पर 
कल्पनाओं के रंग बिखेरते हैं। 
-- 
From :-
Dr. Manoj K Pathak (Dr. Manoj 'Aajiz')
Adityapur, Jamshepur.
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प्रमोद कुमार 'सतीश'
हर शख्स की कहानी !
हर शख्स अनजान है यहां
हर शख्स जुदा-जुदा सा है
किसी न किसी की तलाश में है हर कोई
हर शख्स यहां गुमशुदा सा है
काम के एक पैमाने में सिकुड़ गई है जिंदगी
दायरों की सीमाओं में बंध गई है जिंदगी
दिखावे की मुस्कान लिए फिर रहे हैं सब
हर शख्स खुद से ही खफा-खफा सा है
वक्त कम है ख्वाहिश ज्यादा है
हर दिल में कुछ करने का इरादा है
पाना चाहता है बुलंदियां आसमानों की 
पर जिम्मेदारियों के बोझ से दबा-दबा सा है.....
प्रमोद कुमार 'सतीश'
109/1 तालपुरा झांसी(उ.प्र.)
ईमेल- kumar.pramod547@gmail.com
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शशांक मिश्र भारती
दीवाली आ गई
दीपकों के साथ
नूतन विश्वास
आदर्शों-परम्पराओं का सम्बल
संघर्ष कर बढ़ने को-
झेल झंझा 'दमकने-दमकाने को
आ गई दीवाली,
सज्जन या सरिता
तरू या जलद
सर्व लोक कल्याणार्थ
सृजन से विनाश तक
मात्र-परार्थ
तपते अज्ञान, अनाचार अनैतिक तत्वों-
से जनमानस को उद्वेलित बना
डालने को क्रान्ति बीज
इस धरा भरत भूमि पर
दीपावली,
हाँ ज्योतिर्मय- मंगलकर्ता
आभामयी दीवाली।
- ----.
  
दीपावली
स्वागत् है
तू आ गयी
यहीं पर इस वर्ष
शुभ दीपावली।
अब जाचुकी है
बरसात
पर-
आने वाली हैं सरदी की रातें
तू आ पहुंची है धरा पर
आभा फैलाने वाली
सरद ऋतु आने का
पूर्व सन्देश देने वाली
शुभ दीपावली
आयी है तू
मौसम के होठों पर
मुस्कान बिखेरती
आंगन में किलकारियां लेती
देश में
एक नव सुखद
प्रभात देती
नूंपुरों की ध्वनि जगाती
कोमल पुष्पों का हार बनाती
स्वच्छ वसन पहने
शुभ दीपावली
आती है तू
वर्ष में एक बार
आकर प्रत्येक दिवस अनुग्रहित कर हमें
अपना प्यार।
कर दें
नन्हें, कोमल हस्तों वाले
बच्चों को
आनन्द में हर्ष-विभोर
बरसात में घूमने वाले
बच्चों के लिए
बनती है
तुम्हारे आने पर
निकेतों के ऊपर
जलने वाले असंख्य दीपों की आभा
इन्दु की चमक के समान
तुम्हारे
वसन बनते हैं
आलयों की अट्टालिकाओं पर
असंख्य दीपकों की प्रभा के समान
तू
आ खड़ी है
समय को पीछे छोड़
सामने मेरे
पवित्र
सुख का सन्देश लिए
स्वर्णिम मूर्ति से युक्त
शुभ दीपावली ।
- ----.
दीप का संदेश 
पर्व दीवाली का फिर आया है
उत्साह नया चहुँ ओर छाया है,
मिटे अंधेरा अपने अन्दर का
यही संदेश दीपक लाया है,
बाहर सभी ने जलाये दीपक
अंधेरा अन्दर छाया गहरा है,
तब बोलो कैसी दीवाली-
विकृतियों का लगा पहरा है,
दीप जलाते प्रत्येक वर्ष है
क्या अर्न्तमन जगमगाते हैं,
घर -गलियां साफ कर देते
दूसरों पे कलुष मिटाते हैं,
कल नहीं तो आज सहीं
दीप का अर्पण जान लो,
सुख,समृद्धि,विकास,स्नेह
अपनत्व बढ़ाना मान लो,
नन्हा दीपक बुझते-बुझते
फिर जल उत्साह बढ़ाता है,
सबके मन का छँटे कुहासा
हर लौ से कह जाता है।।
शशांक मिश्र भारती सम्पादक देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर -242401 उ0प्र0
ईमेलः- shashank.misra73@rediffmail.com/devsudha2008@gmail.com
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अमित कुमार झा
आज कई दिनों बाद मिला उनसे 
जीवन के इस आपाधापी  में ,
कुछ वक्त निकलकर उनसे 
गंगा के किनारे उसी सीढ़ियों  पर 
जहाँ लहरे अटखेलियाँ करती है 
लहरों  की अनवरत यात्रा  जारी रहती है 
लहरों पर अटखेलियाँ  करती वो नावों की लड़ियां
चांदनी रातों की वो  रजत क्रांति
सीढ़ियों पर बैठे  हम और तुम ,
और लहरों की आती कुछ बूँदे
जो तुम्हारे  चेहरे पर अपनी मौजूदगी  छोड़ जाती थी .
लहरों के  साथ  आती वो तेज  
तेज हवा के झोंके .
जो तुम्हारे जुल्फों को बंधनों से मुक्त कर ,
उसे उस हवा स्पर्श  करती है .
तुम्हारे जुल्फों  से हो कर आती हवा की 
मादक खुशबू 
तुम्हारे चेहरे पर पड़ी  वो बूंदों की छींटे ,
ये सब मुझे जिंदगी के भीड़  से भरी तपिश में ,
सुकून का अहसास बयां करती है .  
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'मैं और तुम " 
मैं यहाँ  होता हूँ 
तुम वहाँ होती है 
पर जिंदगी साथ नहीं  होती है 
वक्त ठहरा  हुआ है 
शामें उदास वीरान पड़ी है 
किसी के गुजरने के आहटों से 
लगता है की तुम आ गए 
दरवाजे को अपलक निहार कर 
मैं बैठ जाती हूँ 
जंग में हारे सिपाही की तरह 
रातों को खामोशियों  में 
सुनाई देता है अंतर्मन की विरह 
यह विरह वेदना तुम्हें झकझोर जाती है 
तुम्हें ले जाती है यादों के शहर में 
मैं भी उसी हसीन यादों में 
तुम्हारे खुशबू को महसूस  करता हूँ 
तुम्हारा शरद-पूर्णिमा  सा चेहरा 
अब अमावस सा हो गया है 
तुम्हारे माथे पर वह 
चमकता बिंदिया अब धूमिल हो गया है 
तुम्हारे हाथों की खनकती चूड़ियाँ 
अब संगीत-विहीन  सी हो गयी है 
तुम्हारे पाव के पायल के बोर 
समय से लड़ते हुए 
काम और लयहीन  हो गए है 
वहाँ मैं नहीं होता हूँ 
इसमें  नयी लय प्रदान करने को 
तुम्हारे रक्तिम अधरों की 
मुस्कान फीकी  पड़ गयी है 
वहाँ मैं नहीं होता हूँ 
इसे प्यार से सिंचित करने को 
रात के खामोशियों में 
तुम्हारे प्यार  के यादों में 
नयन से निकलते अश्रु 
शायद तुम्हारे शुष्क  जीवन 
में नमी दे जाती है 
प्यार ,संवेदना  विहीन  जिंदगी तुम्हारी 
भी है मेरी भी है 
बस उस अंतिम मिलान की चाहत 
में जीये जा रहे है 
बरसों से हम  भी  और तुम भी
----.
अमित कुमार झा( बी.एच.यू)
चौक ,वाराणसी ,यूपी
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सोनिया वर्मा
मौन प्रिये समझे नहीं ,बनता है नादान
शब्द बयाँ कैसे करूँ, दीवारों के कान!!
होनी अनहोनी सदा , देती पूर्वाभास ,
समझ गये तो जीत है , ना-समझे तो ह्रास ।।
सोच समझ करते नहीं , जो भी अपना काम ,
जीवन में उनको नहीं , मिलता है आराम ।।
मुख पर ऐसे भाव हो ,दिल में हो जज्बात ,
रुक कर सब देखे पढ़े, दिन हो चाहे रात !! 
जीवन हो खुशियाँ भरी, पूरे हो अरमान ,
गूगल पर खोजें सभी,ऐसी फैले शान ,
राहें  छोड़ी सत्य की, छोड़ दिया परमार्थ
करें न मानव देखिये ,कलयुग में पुरुषार्थ।।
आँखों पर पट्टी बँधी ,बुद्धि न देती साथ ,,,,, 
तिल तिल मानवता मरे, मानव हुआ अनाथ !!!!!!!
लालच की गठरी रहीं, जिस मानव के पास
पल में वो हँसता रहा,पल में हुआ उदास !!!!!
आँखें मूंदे सब यहाँ , निभा रहे हैं रीत । 
चुप रहकर होती नहीं ,मानवता की जीत !!!! 
पदवी पाकर ही हुआ ,इतना उसे गुमान,
अपनी ही औकात को, भूल गया इंसान !!!!
सोनिया वर्मा
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मिथिलेश_राय
मुझसा कोई तेरा दीवाना नहीं होगा! 
मुझसा कोई तेरा परवाना नहीं होगा! 
हार चुका हूँ मंजिल को तकदीर से लेकिन, 
मुझसा कभी मशहूर अफसाना नहीं होगा!
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क्यों तुम शमा-ए-चाहत को बुझाकर चले गये? 
क्यों तुम मेरी जिन्दगी में आकर चले गये? 
हर गम को जब तेरे लिए सहता रहा हूँ मैं, 
क्यों तुम मेरे प्यार को ठुकराकर चले गये?
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तेरे सिवा दिल में कोई आता नहीं कभी! 
तेरे सिवा दिल को कोई भाता नहीं कभी! 
मुझे मंजिल मिल न पायी तकदीर से लेकिन, 
सिलसिला तेरी यादों का जाता नहीं कभी! 
मुक्तककार- #मिथिलेश_राय
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राजकुमार यादव
लोग मेरे नाम को भूल गये है,
उनको शायद यह पता नहीं कि मैं कौन  हूं?
जिक्र कभी छिड़ता है मेरा नाम नहीं आता है,
मैं बेनाम और पहचान के जी रहा हूँ,
मुझे पता नहीं कि मेरा अंजाम क्या होगा?
दूबों पे बिखरे ओस की बूँदों के माफिक
जिंदगी की हालत है,
कब क्या होगा? मैं इससे बेखबर हूँ.
सो जाता हूँ रात में,
पर पता नहीं होता कि कल जग पाऊँगा भी कि नहीं?.
मेरी किस्मत में कल का सूरज है भी कि नहीं ?
लेकिन हर बार मौत को झुठलाकर नई सुबह देखता हूँ,
और अपने घटते उम्र का उत्सव मनाता हूँ.
लगातार चलती पृथ्वी घूम रहीं आकाशगंगाओं में,
और हम भी सोए सोए काट रहे हैं सफर बह्मांड का,
मेरे शरीर के इलेक्टॉन गति में मगन हैं,
और मैं इलेट्रॉन-प्रोटॉन-न्यूट्रॉन का बना अनजान हूं इतनी सारी गतियों से,
अपने रफ्तार से भागता समय
हरदम मुझे डरा देता है कि
तुम अपनी रफ्तार में कब तक आओगे?
और मैं हर बार उसका ताना सहन कर लेता हूँ,
इस उम्मीद में कि मैं इक दिन समय  की गति को मात दे दूँगा.
कभी-कभी मैं अपने द्रव्यमान से तंग आकर फोटॉन बन जाना चाहता हूं,
प्रकाश का रूप धारण करना चाहता हूँ,
मगर यह कोरी कल्पना है,
यह बात मुझे पता है फिर भी
मैं भी खुद को झुठलाता हूं,
ऐसे ही मनगढ़ंत जुमलों से.
बस! अब बहुत हुआ चलो आराम फरमाते हैं,
और यूँ ही साँसें लेते रहे और छोड़ते रहे .
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डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प
" सुन्दर भारत गढ़ना है "
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एक दिन कोयल टीचर बनकर ।
अमराई में क्लास लगाकर ।।
सारे पंछी को समझाती ।
बात पते की है बतलाती ।।
घर-आँगन, विद्यालय को ।
गाँव-गली , शौंचालय को ।।
साफ-सफाई रखना है ।
सुन्दर भारत गढ़ना है ।।
  
" जाड़ा आया "
   -----------------
सूरज भैया जल्दी आकर ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।
सर-सर,सर-सर हवा चल रही ,
गरमी हमें दिलाना तुम ।।1।।
जाड़ा के इन दिनों में ,
दूर कहीं न जाना तुम ।
पास हमारे रहकर भैया ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।।2।।
जाड़ा हमें कंपाता थर-थर ,
उसे तनिक समझाना तुम ।
ठिठुरन में काँपे न कोई ,
जाड़ा दूर भगाना तुम ।।3।।
---.
" रचनाकार परिचय "
    --------------------------
नाम:- डॉ. प्रमोद सोनवानी ‘पुष्प’
पिता:- श्री इंद्रजीत सिंह सोनवानी 
माता:- श्रीमती फुलेश्वरी सोनवानी
पत्नी:- श्रीमती कस्तूरी सोनवानी
जन्म तिथि:- 25.06.1985
संप्रति  :-  व्यवसाय 
शिक्षा :- बी.ए.(कला) , एम.ए.(हिन्दी साहित्य), डी.लिट् (हिन्दी), एस.एस.डी.ए.सी. (कम्प्यूटर विज्ञान),
पुरुस्कार :- नन्हें सम्राट- नई दिल्ली (भारत) तथा नवभारत बिलासपुर (छ.ग.) द्वारा " श्रेष्ठ बाल काव्य पुरुस्कार "  ।
बहुआयामी अध्यात्मिक -साहित्यिक संस्था श्री सिद्धेश्वर साहित्य सम्मान -तमनार द्वारा " बाल काव्य पुरुस्कार " ।।
सम्मान :- (1) ड्रीमलैंड प्रकाशन -नई दिल्ली (भारत) द्वारा " बाल साहित्य सम्मान "
(2) जे.एम.डी.प्रकाशन - नई दिल्ली (भारत) द्वारा " हिन्दी सेवी सम्मान "
(3) प्रथम प्रकाशन - पठान कोट (भारत) द्वारा " काव्य रत्न सूरदास सम्मान "
कृतियाँ :- 
(1) नील गगन में उड़ जाऊँ (बाल काव्य संग्रह)
(2) नाना जी के आँगन में
              (बाल काव्य संग्रह)
(3) अजब सलोना गाँव
                (बाल काव्य संग्रह)
संपादक:- " वनाँचल सृजन "
अन्य :- अब तक देश की महत्वपूर्ण बाल पत्रिका नन्हें सम्राट, बालहंस, बालभारती, बालवाटिका, देवपुत्र, बाल साहित्य समीक्षा, बाल प्रहरी, बाल प्रतिभा ,  बाल कल्पना कुञ्ज , बचपन , बाल जगत, फुलवारी , स्कूल भारत , हस्ताक्षर , युग मानस , भारत दर्शन , नन्ही दुनिया , बाल दुनिया , सहज साहित्य , साहित्य कुञ्ज ,साहित्य अमृत, ज्ञान पिटारा , रिमझिम , काँमिक्स , दुलारा नन्हा आकाश ,  दैनिक भास्कर एवं नवभारत आदि में शताधिक रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी केन्द्र - रायगढ़ , रायपुर तथा छ.ग. नेट स्वर से  प्रसारण ।
संपर्क सूत्र :- " श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन "  तमनार,पड़ीगाँव - रायगढ़ (छ.ग.) - 496107
ई-मेल:-Pramodpushp10@gmail. Com
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मुकुल कुमारी अमलास
अवकाश नहीं मिलता 
सब कुछ मिलता है जग में
अवकाश नहीं मिलता
जीवन लगता है बेमानी
गर विश्राम नहीं मिलता।
कैसे बैठूँ गुनगुनी धूप में
बिना किसी उलझन के
बिसरा कर कामों की चिंता
कुछ क्षण पाऊँ फुरसत के ।
जी करता है मैं भी गाऊँ
कोयल  बन अमुना पे
डाली-डाली फिरूँ विहग सी
फुदक-फुदक फूलवा पे ।
पीले सरसों पे मैं डोलूँ
धीमे-धीमे मंद समीर के
छेड़े कोई बंशी की धुन
मैं नाचूँ थिरक-थिरक के ।
दूर दुनिया के कोलाहल से
जा लेटूँ नीरव सागर तट पे
बंद नयन खो जाऊँ याद में
प्रिय से प्रथम मिलन के ।
तृण के नोक पे अटकी शबनम
हाथों से  चुन लूँ  मैं
वक़्त से छीन एक कोरा लम्हा
दामन में  जड़  लूँ मैं ।
अपने लिए चुरा लूँ मोती सा क्षण
समय के अनंत सागर से
कल का बिछड़ा लम्हा मिल जाए
आज के सुंदर पल से ।
             
------ मुकुल कुमारी अमलास -
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राजेश पुरोहित
खेत सारे बिक रहे है अब फसलें कहाँ होगी।
सड़कों के किनारे हर जगह जब बस्ती होगी।।
जहरीले धुँए में जी रहा आज गांव का आदमी।
अब कहाँ गाँव में खेलकूद व पहले सी मस्ती होगी।।
क्या पता वो शुभ मुहूर्त कब आएगा दोस्तों।
जब गरीबों के भोजन की थाली सस्ती होगी।।
मंझधार में खड़ी मेरे वतन की भोली जनता।
विकास की चल रही जाने कहाँ कश्ती होगी।।
पराई पहचान से कितने दिन जिंदा रहोगे तुम।
जहाँ तक" पुरोहित" शहर की हस्ती नहीं होगी।।
कवि राजेश पुरोहित
भवानीमंडी
जिला - झालावाड़
पिन - 326502 राजस्थान
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सीताराम साहू
नर जीवन में जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।
सांस सांस में जब तक न आता प्राणी में राम है ।
जिस जिस ने भी पाया प्रभु को रास्ता स्वयं बनाया है ।
किया समर्पण जिसने भी उसने ही प्रभु को पाया है ।
नहीं दिया दुख कभी किसी को वह प्रभु के मन भाया है
जो भी देख रहा तू प्राणी सब ईश्वर की माया है ।
रोम रोम जो रमा हुआ है वही हमारा राम है ।
सांस सांस में जब तक न आता प्राणी में राम है ।।
जीवन हो उथल-पुथल तो प्रभु परीक्षा लेते हैं ।
धीरज को धारण करना प्रभु साहस भी भर देते हैं ।
परमारथ के काम करो उस धन से जो प्रभु देते हैं ।
तन से सेवा कार्य करो प्रभु इसीलिए तन देते हैं ।
दुखी जनो की सेवा में तन मन पाता विश्राम है ।
सांस सांस मे जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।।
दुखियों का दुख देख तेरा दिल नहीं दुखे तो क्या दिल है
अपने ही खातिर तू जीता यह तो पशुता  का बल है ।
जो औरों के खातिर बहता वह बनता गंगाजल है।
जो भी तू करता है प्राणी देख रहा प्रभु प्रति पल है ।
दीनों में देखे जो प्रभु को उसको मिलता राम है ।
सांस सांस में जब तक प्राणी पाता न विश्राम है ।
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संस्कार जैन
एक पल का प्यार
न जाने क्यों अजीब सी चाहत थी 
उस एक पल से,
कुछ उम्मीदें कुछ आशाएं थी 
उस एक पल से, 
सब पाकर फिर खो दिया
उस एक पल से,
दौड़ती ज़िन्दगी थम सी गयी
उस एक पल से,
तरस रहा हूं आज भी वो फिर मिले 
उस एक पल से,
पर मिले कैसे ??
प्यार मुझे था उसे नहीं,
उस एक पल से।।।
Sanskar Jain
Department of Pharmaceutical sciences, Dr. H. S. Gour Central University, Sagar (M.P.) 470002
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अखिलेश कुमार
“मौन व्रत की जगह नहीं हैं, कवियों के संस्कारों में”
क्या लिख दूँ ऐ भारत मैं, तस्वीर तेरी अल्फाजों में
भूखे नंगे लोग मिलेंगे हर कोने गलियारों में
सारी दुनिया मौन रहे पर हमको तो कहना होगा
मौन व्रत की जगह नहीं हैं ,कवियों के संस्कारों में ।
सर्दी गर्मी सहते देखे, नंगे तन वो मौन रहे प्रकृति के प्रहारों पर
हमने रेशम की चादर चढते देखी, गुरुद्वारों और मजारों पर
छप्पन भोग चढे देखे, भगवान तुम्हारे मन्दिर में
भूख से बच्चे रोते देखे, उन्हीं मन्दिर के द्वारों पर
ऐसा कितना और सहें…,
जिनको कहना वो मौन रहें
तेरी छवि बना दी स्वर्ग से सुन्दर
तुझ पर व्यंग अब कौन कहें
वो तस्वीर दिखानी होगी, जो दबी हुई कुछ ऊँची दीवारों में
मौन व्रत की जगह नहीं हैं, कवि तेरे संस्कारों में ।
सत्ताधारी बन बैठे जो, पर पहरेदार नहीं बन पायें
भारत तेरे पुजारी तेरा, सोलह श्रृंगार नहीं कर पायें
कुछ स्वप्न अधूरे छोड़ गये थे, जो भारत के निर्माता थे
वो स्वप्न आज भी उसी दशा में, कुछ भी साकार नहीं कर पाये
जब जब कलम उठेगी मेरी, सत्ता पर प्रहार लिखूँगा
अधिकारों की बात लिखूँगा, अनुचित का प्रतिकार लिखूँगा
तलवारों को ढाल बना कर, कलम को मैं संधान बना कर
तुम्हें बना कर दुल्हन जैसा, नया तेरा श्रृंगार लिखूँगा
गौर से समझो कर्तव्यों को, जो छिपे हुये अधिकारों में
मौन व्रत की जगह नहीं हैं कवियों के संस्कारों में ।
अखिलेश कुमार
देहरादून (उत्तराखण्ड)
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मोहित मिश्रा
1.
भारत-शब्दचित्र
लोकतंत्र-शोकतंत्र-जनतंत्र-भजनतंत्र। 
जन को दुत्कार-सत्ता से प्यार। 
प्रजातंत्र में उगते राजकुमार। 
विदेश की रानी, भाषण का नरेश। 
समता के वादे, भय का परिवेश। 
राजनीति-ताजनीति। 
कूटनीति-झूठनीति। 
प्रतिबद्धता-आबद्धता। 
दिखावे की संबद्धता। 
कुविचार-भ्रष्टाचार। 
बेईमानों की सरकार। 
वादे वादे और वादे। 
कोष लूटने के इरादे। 
भूख-बेरोजगारी। 
पीड़ा-लाचारी। 
दंश-बीमारी। 
प्रजा-बेचारी। 
स्त्री-असुरक्षा। 
गौ की रक्षा। 
समाज-गंदे। 
डर के धंधे। 
टूटी-सड़कें 
कृषक-कड़के। 
बच्चे-कुपोषण। 
सरकारी-शोषण। 
जलते-झंडे। 
चुनावी-फंडे। 
न्याय में देरी। 
व्यवस्था-अँधेरी। 
देश विरोधी नारे। 
वाह युवा हमारे !
कविता-विचित्र। 
भारत-शब्दचित्र। 
इसको बदलना होगा। 
नया राह चलना होगा 
पुराना गौरव पाएंगे। 
विश्व को दिखलायेंगे। 
शौर्य चन्द्रगुप्त का। 
तान समुद्रगुप्त का। 
चाणक्य के ज्ञान को। 
मगध के अभिमान को। 
पृथ्वीराज का गर्व। 
सिकंदर-विजय पर्व। 
गंगा का पानी। 
केसरिया जवानी। 
मेवाड़ी-आन। 
दक्षिण की शान। 
राणा की तलवार। 
शिवाजी का प्रहार। 
लिच्छवि का राजतंत्र। 
पतंजलि का योगमंत्र। 
केसर कश्मीर वाला।
वाणी कबीर वाला। 
भामाशाह सा विश्वासी। 
विवेकानंद सा सन्यासी। 
कालिदास सी कल्पना। 
भीष्म सी संकल्पना। 
रामराज्य सा आनंद। 
आपसी प्रेम सम्बन्ध। 
सब फिर से पाना है। 
नूतन देश बनाना है। 
मेरी तो यह जिद्द है। 
सबसे यहीं उम्मीद है। 
अंत में सबको प्यार। 
राम-राम और नमस्कार।
  
2.
क्या यहीं भारत का भाग्य है?
विच्छुरित है अन्नदाता का सपना। 
तृषित रक्त के नेता अपना। 
. 
माँ भारती के सेवा-कर्ता ,
आज भूख से पोषित हैं। 
पैदावार देकर भी ,
रक्तरंजित और शोषित हैं। 
. 
तपोनिष्ठ इतिहास का ,
क्या यहीं त्याग है?
क्या यहीं भारत का भाग्य है ?
क्या यहीं भारत का भाग्य है ?
.
सुधार-विकास के नारों से। 
अंधभक्ति या अंधप्रचारों से। 
. 
साथ पर्व मनाने वाले,
कट्टरता पर तूल गए। 
गंगा-जमुनी तहज़ीब वाले ,
सौहार्दता को भूल गए। 
. 
पथभ्रष्ट युवाशक्ति क्या,
भारती का सौभाग्य है?
क्या यहीं भारत का भाग्य है ?
क्या यहीं भारत का भाग्य है ?
3.
हर मुख हिंदी कब गायेगा
विश्व पटल की बात तो छोडो ,
भारत के सर्वस्व भूमि पर ,
त्याग आपसी रंजिश को ,
हर मुख हिंदी कब गायेगा ?
जाने वह क्षण कब आएगा ?
विदेशी भाषाओं से कबतक ,
टूटेगा सबका सम्मोहन ?
हेमलेट को छोड़ जन-मन ,
मेघदूत कब गायेगा ?
जाने वह क्षण कब आएगा ?
निराला, दिनकर, प्रसाद से ,
जिसके प्रखर सपूत हुवे ,
उस माँ को सम्मान दिलाने ,
नव-भारत कब जग पायेगा ?
जाने वह क्षण कब आएगा ?
गर्वान्वित होगा भारत-वर्ष ,
कब हिंदी में बोल-बोलकर ?
विश्व शिखर सम्मेलनों में ,
कब हिंदी गान गाया जाएगा ?
जाने वह क्षण कब आएगा ?
4.
हाँ, तुमने प्यार सिखाया था
हाँ, तुमने प्यार सिखाया था।
सूखे तटबंधों को तुमने ,
प्रेम सलिल से सिंचित करके ,
वैरागी बंजर अंतर में ,
आसक्ति के अंकुर बोकर ,
तुमने प्रीत जगाया था ,
हाँ, तुमने प्यार सिखाया था।
जीवन के धूसर रंगों को ,
प्रेम वर्ण से हरित रंजित कर ,
अनल जलन से पीड़ित को ,
हिमानिल सा तन-मन छू-छूकर ,
तुमने प्रीत जगाया था ,
हाँ, तुमने प्यार सिखाया था।
चिर तृषार्त कोरे हृदय को ,
मधु-द्राक्षासव पान कराकर ,
रस-वंचित सूखे नीड़ ऊपर,
नव-कुसुम की कली खिलाकर ,
तुमने प्रीत जगाया था ,
हाँ, तुमने प्यार सिखाया था।
5.
माँ मैं तेरे दामन में फिर लौट आऊंगा
आज निकला हूँ उड़ने की ख़्वाहिश लिये ,
पर दुनिया के आसमान में कहाँ तक जाऊंगा ,
माँ मै तेरे दामन में फिर लौट आऊंगा।
दूर आँचल से तेरे तलाशता हूँ जो ,
कुछ साथी ,कुछ सपने,कुछ अपने ,
हो सकता है मिल जाये मंज़िल मेरी ,
पर स्नेहमयी बातों का सुख कहाँ पाउँगा ,
माँ मैं तेरे दामन में फिर लौट आऊंगा।
मुझे पता है समेट लोगी अंतर में अपने ,
भूल शैतानियाँ मेरी, भूल नादानियाँ मेरी ,
जीवन के हर पल हर गलती पर क्षमादान ,
भला तेरे हृदय को छोड़ कहाँ पाउँगा ,
माँ मैं तेरे दामन में फिर लौट आऊंगा।
कुछ धुंधलका सा याद है मुझको ,
मेरा रोना रातभर , तेरा जगना रातभर ,
तू सलामत रहे मैं रहूं ना रहूं ,
ऐसा विश्वास रिश्तों में कहाँ पाउँगा ,
माँ मै तेरे दामन में फिर लौट आऊंगा।
6.
हाय प्रणय का प्रथम वियोग
हाय प्रणय का प्रथम वियोग। 
स्पंदित हृदय की करुण वेदना,
द्रवित नयन और अनुपम रोग। 
हाय प्रणय का प्रथम वियोग।
लुटे लुटे से चितवन अपने ,
व्यथा ग्रसित सुखदायी सपने ,
पहचान यहीं अब बन रह जाते ,
आँख के आँसू सब कह जाते,
यादों के पल दर्द का मौसम,
रग रग में घुलता सा इक गम,
माँ के हांथ का रुचिकर खाना,
खाकर तिक्त सा मुख बन जाना,
अपनों से मिलने से डरना,
छुपकर ठंढी आहें भरना ,
बार-बार गलियों का चक्कर,
जिन गलियों में रूककर अक्सर,
मुझसे वो बातें करती थी,
नयनों में सपने भरती थी,
सहज हास और प्यारे लब थे,
जो की मेरे सब हीं सब थे,
छूता था तब शरमाती थी,
ख़ुद में सीमट-सीमट जाती थी,
मुझसे मोहब्बत करती थी वो,
पर दुनिया से डरती थी वो ,
मैं भी शायद कुछ कम ना था,
मुझमें भी तो वह दम ना था ,
तोड़ के जातिगत बंधन को,
कथित सामाजिक इन अंधन को,
दे ना पाया समुचित उत्तर,
उस पल को हो गया निरुत्तर ,
थाम कलाई मैं गर लेता,
हाय ज़माना क्या कर लेता,
शायद कुछ दिन बातें होतीं ,
फिर तो मधुमय रातें होतीं,
हाय वे दिन लुप्त हुवे अब,
रह गए केवल शून्य संयोग।
हाय प्रणय का प्रथम वियोग।
7.
जनता(व्यथा और प्रण )
अन्तर्वेदना से छिन्न-भिन्न 
आक्रांत उर की मर्म कराहें ,
अश्रुनिमग्न कातर स्वर में 
पूछती हैं किसको पुकारें |
आह भारत-वर्ष हाय 
क्या यहीं रह गया है शेष ?
स्वर्णयुक्त इतिहास का-
कुछ ,रहा नहीं भग्न-अवशेष ?
क्यों नहीं कुक्षि तेरी 
अब कोई अशोक जन्माती है ?
क्यों नहीं स्वसम्मान की 
आज ललकारें लहलहाती हैं ?
जनता कोई खिलौना है-
क्या, गणतंत्रता की सत्ता में ?
नहीं तो फिर गौण-
क्यों ,बन गयी है महत्ता में ?
रे जागो जनतंत्र के-
प्रहरी, उर्जस्वित-मतवालों ,
रे हिमगिरि सदृश्य-
मसृण, माँ भारती के लालों |
निकलो, मैले वस्त्रों को 
धारण कवच सा कर कर के ,
बढ़ चलो राजपथ पर-
तुम, अपना स्वर मुखर कर के |
हाँ एक प्रश्न होगा 
शायद, कुढ़ता तुम्हारे जिय में ,
करें विद्रोह किसका 
यहाँ? सब नेता हैं जनप्रिय के |
तो शमशीर नहीं उठाना 
है, बस प्रश्न मुखर करना है | 
देशहित के कर्तव्य-भान 
का, तुम्हें ज्योति प्रखर करना है |
प्रण करो तुम आज 
हम भारत को स्वर्णतरू बना देंगे ,
कल के विश्वगुरु को फिर,
हम कल का विश्वगुरु बना देंगे |
8.
पिघलता मुखौटा
ऋतु परिवर्तन हो चुका है ,
धकेल ठंड की रजाइयों को ,
लेकर लू की सौगात ,
ग्रीष्म अपने उफान की ओर,
कदम दर कदम बढ़ाते हुए ,
पिघला रहा है दुनिया का मुखौटा ,
डिग्री डिग्री पारा चढ़ाते हुए ,
जो बेबस थे कल तक अर्धनग्न ,
ठिठुरती ठंढी थपेड़ों से,
वो फिर बेबस है बेघर है ,
लू की गर्म चपेटों से ,
ओवरब्रिज के खम्भों की ओट में ,
गर्म आँधियों से बचने के लिए ,
मजबूर वो निस्तेज आँखों वाला बच्चा ,
क्या सोचता होगा जब ,
बगल से गुजरते कुछ हम उम्र कहते हैं,
कितनी अच्छी गर्मी है हम शिमला जाने वाले है.
उसे तो न ठंढ न ग्रीष्म न बरसात,
दो टुकड़े रोटी के सिवा कुछ मजा नहीं देता ,
काश मौसम परिवर्तन के साथ,
ह्रदय परिवर्तन भी होता |
9.
क्या कभी अरमानों को ,सीने में कुचला है आपने 
क्या कभी अरमानों को, सीने में कुचला है आपने ?
जब मन उड़ता रहे आकाश में ,
जब उमंग हो हर साँस में ,
जब दिल मल्हार गाता रहे ,
जब स्वप्न पटल पर छाता रहे ,
क्या जज्बातों को तब , पैरों तले मसला है आपने ?
क्या कभी अरमानो को, सीने में कुचला है आपने ?
प्रजा के व्यंग्य बाणों से आहत ,
कुचल स्वामी के संग की चाहत ,
जैसे राजरानी बन को चले ,
जैसे श्रीराम को मर्यादा छले ,
क्या कभी खुद को खुद से, वैसे हीं छला है आपने ?
क्या कभी अरमानों को ,सीने में कुचला है आपने ?
मुरली की मीठी तान थी वो ,
दिल की प्यारी अरमान थी वो,
पर अश्रु सिवा वो क्या पायी ,
ब्रज छोड़ गए श्रीकृष्ण कन्हाई ,
प्यार में राधा सा टूटकर,फिर से सम्भला है आपने?
क्या कभी अरमानो को ,सीने में कुचला है आपने ?
क्या उर्मिल सा तड़पकर जिया आपने ?
क्या मीरा सा विष कभी पिया आपने ?
क्या चकोर सा नयनसुख पाया है कभी ?
क्या दिल बेमुरौव्त से लगाया है कभी?
क्या परवाने सा नासमझ बन, बार-बार है जला आपने?
क्या कभी अरमानों को ,सीने में कुचला है आपने ?
10.
ना जाने दिल क्यों खोजता है
ना जाने दिल क्यों ढूंढता है|
वो खुशबु तेरे बालों की,
वो लाली तेरे गालों की,
दृग कजरारे तेज कटार से ,
लब पगे है जो रसधार से,
चंचल मीठी मुस्कान को ,
ज्यों साधु खोजे भगवन को ,
तुम ईष्ट हो या प्रेयसी,
मन दो पल रुक से सोचता है|
ना जाने दिल क्यों ढूंढता है|
वो लम्हे कितने प्यारे थे,
आप जो साथ हमारे थे,
थोड़ी बहुत ख़ामोशी थी,
बस पत्तों की सरगोशी थी,
जब सांसे अपनी टकराती थी,
क्या अदा से तुम शर्माती थी,
तब मस्त हो बरसा था सावन ,
हो उन्मुक्त हंसा था जैसे गगन ,
हंस के खिले थे बसंती फूल ,
मखमल जैसे बन गए थे शूल ,
जाने पतझड़ फिर क्यों आया,
मन दो पल रूक ये सोचता है|
ना जाने दिल क्यों ढूंढता है|
क्यूँ लम्हे ना थम जाते हैं?
क्यूँ वापस लौट ना आते हैं?
क्यूँ खोता है प्यार यहाँ ?
क्यूँ लुटता है संसार यहाँ?
क्यूँ दर्द दिलों में होता है ?
क्यूँ कोई अपना खोता है ?
क्यूँ रूह दीवानी हो जाये ?
क्यूँ साँस बेगानी हो जाये?
क्यूँ पागल दिल मचलता है?
क्यूँ अधूरापन सा खलता है?
तुम छोड़ मुझे क्यों चली गयीं?
मन दो पल रुक से सोचता है |
ना जाने दिल क्यों ढूंढता है|
ना जाने दिल क्यों ढूंढता है...
BY:-MOHIT MISHRA
 
							     
							     
							     
							    
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