सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करतीं लघुकथाएँ // पुरुषोत्तम दुबे // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक

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व र्तमान समाज की देहरी पर मानवीय रिश्ते खारिज हुए मिल रहे हैं. लोगों के मध्य पारस्परिक विश्वास में कमी आई है. स्वार्थ कहीं दुम हिला रहा है त...

र्तमान समाज की देहरी पर मानवीय रिश्ते खारिज हुए मिल रहे हैं. लोगों के मध्य पारस्परिक विश्वास में कमी आई है. स्वार्थ कहीं दुम हिला रहा है तो कहीं किसी की गर्दन दबा रहा है. कोई दायित्व से भाग रहा है तो कोई अपने दोष किसी के माथे मढ़ रहा है. शोषण का रास्ता साफ है और चारों तरफ

धन-लोलुपता दिखाई पड़ रही है. किसी को किसी की चिन्ता नहीं अपितु हर आदमी अपने जुगाड़ में लगा हुआ है. एक तरफ अमीरी के जश्न हैं तो दूसरी ओर पापी पेट के सवाल हल करने में गरीबी की दारुण-दशा है. भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार माना जाने लगा है जबकि नैतिकता प्रदर्शनमात्र की वस्तु रह गई है. नीयत खोटी हो चली है. धोखा और फरेब अट्टहास लगा रहे हैं. जी हाँ, यही आज का समाज है. आज के इस नष्ट-भ्रष्ट समाज की नब्ज वही लघुकथाकार टटोल सकता है, जो लघुकथा लेखक के साथ अन्वेषी भी हो. एक अन्वेषी लेखक ही अपनी लघुकथा में सामाजिक सच्चाई को निरूपित करने में सफल हो सकता है और सामाजिक सच्चाइयों को पाठकों से रू-ब-रू कराने वाला दृष्टि-सम्पन्न लघुकथाकार घोषित हो सकता है.

ज्ञातव्य है कि जब साहित्य में जीवन के परिशिष्ट खुलते हैं तो साहित्य में आधुनिक-बोध गहरा जाता है. रचयिता का धर्म है कि वह अपनी रचना में अधिकाधिक रूप में जीवन को विश्लेषित करे. लघुकथा में जीवनगत जितनी मीमांसा होगी उतनी वह प्रासंगिक कहलाएगी. वर्तमान में कई ऐसे लघुकथाकार हैं जो अपनी कलम की रौशनाई से लघुकथाओं में सामाजिक परिवेश का ताना-बाना बुन रहे हैं और पाठकों के मध्य चर्चित भी हो रहे हैं. कुछ ऐसे ही लघुकथाकारों की लघुकथाओं की बानगी यहाँ प्रस्तुत है, जिनकी लघुकथाओं में सामाजिक विद्रूपताओं के विरोध में तीव्र स्वर मुखरित हुए हैं-

अखिलेश शुक्ल की लघुकथा ‘उधारी’ श्रमिक के कठिन श्रम का अवमूल्यन दिखानेवाली शोषक समाज के भीतर की लघुकथा है, जो केवल शोषित की ही नहीं प्रत्युत शोषक की पीड़ा को भी उजागर करती है. अशोक गुजराती की ‘जुगाड़’ लघुकथा निर्दोष हाथों से काली कमाई का मुहावरा गढ़ती है. अशोक भाटिया की लघुकथा ‘73 करोड़ का हवाईजहाज’ पूँजीवादी ठाठ के बरखिलाफ भूख की चौखट पर सिर पटकती गरीबी का आर्त्तनाद है. उज्जवला केलकर की लघुकथा ‘प्रतिमा’ सत्ता पक्ष और विपक्ष के चेहरों को एक ही रंग में रंगा हुआ दिखाती है. प्रतिमा स्थापन के लिए चन्दा उगाहना पक्ष और विपक्ष दोनों के मध्य ठहरी हुई उभयनिष्ठ लिप्सा है. जबकि उज्जवला केलकर की ही अन्य लघुकथा ‘दुगना लाभ’ भ्रष्टाचार रोकने की मुहिम में लिप्त उन अधिकृत लोगों के चेहरे बेनकाब करती है जो खुद भी भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते. प्रत्युत खुद भी भ्रष्ट बनकर अपने अनैतिक आचरण से अन्यान्य भ्रष्टाचारियों से लाभ ऐंठने का मार्ग अन्वेषित कर ‘दुगुना लाभ’ पाने के हकदार बन जाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.

उमेश मोहन धवन की लघुकथा ‘अफसोस’ पत्नी के अबॉर्शन द्वारा लड़की को खो देने के दुःख की तुलना में नगण्य बना देती है जब कार्यालय में कार्यरत पति को मिलनेवाला उसके हिस्से का कैलेण्डर उसकी टेबुल पर से कोई चुरा ले जाता है. एस. एन. सिंह की लघुकथा ‘अभ्यास’ मजदूरी की परम्परा का बीज रोपने की नृशंस लघुकथा है जो बजरिये बाल-शोषण के सिरे से व्याख्यायित होती है.

कमल चोपड़ा की ‘फुहार’ लघुकथा साम्प्रदायिकता की भड़कती आग को सम्वेदना के जल से ठण्डी कर देने से उत्पन्न सामाजिक सौहार्द के भाव को निरूपित करनेवाली कालजयी लघुकथा है. कमला निखुर्पा की लघुकथा ‘फाँस’ बच्चे की अनगढ़ रचना को सुधार के आधार पर सुगढ़ आकार देने की गुजारिश पर आधारित है. बरखिलाफ इसके बाल-रचनाकार अपनी रचना में आई मौलिकता के हनन पर अपना ऐतराज दर्ज कराता है. कुँवर प्रेमिल की लघुकथा ‘अभ्यास’ बुजुर्ग जीवन को आत्मनिर्भर बनाने के अर्थ में बुजुर्ग दम्पती का एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति भाव का विराट् समर्पण दर्शाती है. पत्नी अपने घर के काम की सीख पति को देती है, जवाब में पति अपने बाहर के काम की शिक्षा पत्नी को देता है. ताकि किसी एक के न रहने पर घर के भीतर का और घर के बाहर का काम निबटाने में किसी एक को जटिलता का सामना नहीं करना पड़े.

कुमार नरेन्द्र की लघुकथा ‘भयमुक्त’ मृत्युबोध और जिजीविषा के मध्य लटके ऐसे मनुष्य का व्यक्तित्व चित्रित करती है, जो मुत्युबोध के भयमुक्त होने में और जिजीविषा से संयुक्त होने में सन्मार्ग से कुपथगामी हो जाना चाहता है, किन्तु भय तो शाश्वत है- यही विचारकर वह सन्मार्ग की ओर लौट पड़ता है.

कृष्ण शर्मा की ‘घेरा’ लघुकथा संगीत से विरेचन पानेवाले के कानों में नृशंस एवं अप्रीतिकर समाचारों का जहर घोलनेवाली लघुकथा है. रेडियो का शौक रेडियो के शोक में तब्दील हो जाता है. बरअक्स इसके अखिलेख रायजादा की लघुकथा ‘पहला संगीत’ गिटारवादक की ओर से एक भिखारी बालक को अपनी गिटार से निकाली गई ‘धुन’ के अर्थ में दिया गया संवदेनापूरित प्रीतिकर दान है, जिसे वह चलती रेल में भिखारी बालक के जन्मदिन पर अपने नये गिटार से ‘हैप्पी बर्थ डे टु यू’ की धुन बजाकर देता है.

खान हफीज की लघुकथा ‘भविष्यफल’ तकदीर पर तदबीर की जीत दर्ज करानेवाली लघुकथा है, जो सन्देश देती है कि कर्म का पसीना जीवन के विपरीत नक्षत्रों को धो डालता है. जाफर मेंहदी जाफरी की लघुकथा ‘थोड़ी सी हिम्मत’ मुस्लिम परिवार में जन्मी लड़की की तालीम के सिलसिले में पति की मंशा के विरुद्ध पत्नी के द्वारा लिये गए फैसले पर आधारित है . तलाक जैसे लफ्ज की अनुगूंज के बावजूद दीनी तालीम को हासिल कर चुकी अपनी लड़की को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला कराने की जिद पर अड़ी मां मुस्लिम समाज की सामाजिक इयत्ता की दीवार को तोड़ती है.

प्रतापसिंह सोढ़ी की लघुकथा ‘परिणति’ समाजमूलक चेतना का परिणाम है. अपने दायित्व निर्वहण में परिवार को स्नेह के सूत्र में बांधनेवाला उसकी वृद्धावस्था में खुद एक दिन परिजनों द्वारा परिवार से बेदखल कर दिया जाता है. अपनी बोधगम्यता में ‘परिणति’ लघुकथा निहित स्वार्थवश टूट रहे संयुक्त परिवार की त्रासदी की महज गाथा न होकर समाज के लिए दिया गया दूरगामी सन्देश है. प्रस्तुत लघुकथा में निर्वासित वृद्ध द्वारा सड़क पर फेंका गया सिक्का प्रतीक रूप में वृद्ध जीवन के अवमूल्यन को परिभाषित करता है.

बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘आहत आदमी’ परिवेशजन्य होकर ऐसे रुग्ण मगर वृद्ध मनुष्य की आन्तरिक पीड़ा को व्यक्त करती है जो समाज में अक्सर निरूपित होनेवाले सांस्कृतिक महोत्सवों में तीव्र गति से बजनेवाले लाउडस्पीकरों की असह्य ध्वनियों से उत्पन्न ध्वनि-प्रदूषण का शिकार होकर अपने घर और मुहल्ले को छोड़ किसी एकान्त स्थल की खोज में संलग्न मिलता है. प्रस्तुत लघुकथा अनियंत्रित सामाजिक दुरावस्था पर प्रश्नचिह्न मढ़ती दिखाई पड़ती है.

उपर्युक्त आलोच्य लघुकथा पाठालोचन की दृष्टि से बहुत कुछ कहती है, बावजूद इसके उन बातों का अक्स भी छोड़ती है, जो लघुकथाओं की समीक्षा पद्धति को पायदार बनाने के आधार बन सकते हैं. लघुकथा लेखन के तकरीबन सौ वर्ष पूरे हो चुकने के उपरान्त भी लघुकथा के क्षेत्र में आलोचना का मापदण्ड पूरा नहीं हो पाया है. लघुकथा लेखन और पठन के चल रहे आज के व्यापक शोर में यदि लघुकथा की आलोचना का मापदण्ड स्थिर हो जाता है, तो इन्हीं मापदण्डों का आधार ग्रहण कर लघुकथा के लेखकों और पाठकों के भव्य संवाद की स्थिति बन सकती है. किसी विधा पर होनेवाले बहस-मुबाहिसे ही विधा का भविष्य तय करते हैं.

सम्पर्कः 74जे/ए स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009

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रचनाकार: सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करतीं लघुकथाएँ // पुरुषोत्तम दुबे // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक
सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करतीं लघुकथाएँ // पुरुषोत्तम दुबे // प्राची - दिसंबर 2017 : लघुकथा विशेषांक
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