कहानी // दरवाजा // अरुण मित्रा

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टन... टन... घड़ी ने दो घंटे बजाए.। मैंने फिर से करवट बदली। आज न जाने क्यों मन बड़ा व्याकुल हो रहा है। बार-बार वही घटना दिमाग में आ रही है। मन...

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टन... टन... घड़ी ने दो घंटे बजाए.। मैंने फिर से करवट बदली। आज न जाने क्यों मन बड़ा व्याकुल हो रहा है। बार-बार वही घटना दिमाग में आ रही है। मनुष्य को एक हद तक ही भावुक होना चाहिये। अधिक भावुकता से भला कभी कुछ हाथ लगा है? यह विचार कर मैंने फिर आंखें बंद कर लीं मगर...! यह क्या? मुझे फिर वही दो लाल लाल आंखें देखने लगी। जिनमें न जाने क्या भाव था, शायद याचना का, या कुछ और ही। मगर ज्यादा देर मैं उन्हें न देख सका।' मैँ उठ बैठता हूं मेरी स्थिति ठीक उस नन्हे शिशु जैसी थी जो कोई दुःस्वप्न देख कर डर गया हो। मैंने फ्रिज से ठंडा पानी निकाल कर पिया. और फिर पलंग पर आकर बैठ गया। पास में 'ही सरोज बड़े बेहूदे ढंग से खर्राटे ले रही थी। उसकी इस निश्चेष्ट निद्रा से मुझे ईर्ष्या होने लगी। उसकी तरफ से नजरें घुमा कर मैं दूसरी तरफ देखने लगता हूं। छोटा सा नाइट लैम्प अंधेरे के साथ संघर्ष कर रहा था। उसकी पीली रोशनी मुझे बड़ी अरुचिकर प्रतीत हुई। भला यह कम्पनी वाले भी कैसे घटिया बल्ब बनाते हैं। रोशनी भले जैसी भी हो अगर उसे पीली नहीं होना चाहिए। यह रंग मुझे बेहद मनहूस लगता है। अरे! अरे...! मगर यह क्या? रोशनी अपने आप ही लाल होती जा रही है! मैंने आंखें घुमा कर बल्ब की तरफ देखा, वहां एक नहीं दो बल्ब चमक रहे थे। नहीं...! नहीं...! यह बल्ब नहीं आँखें हैं। आंखे बिरदी की आंखें। बेहद रक्तिम, याचना या प्रतिशोध से पूर्ण। मैंने अपना सिर झटका। कमरे में फिर पीली रोशनी फैल गयी। मैं...! मैं...! कहीं पागल तो नहीं हो गया। शायद बाहर कुछ अच्छा लगे यह विचार कर मैं बाहर लान में आ जाता हूं।

बाहर चांद और चांदनी का साम्राज्य फैला था। मैं प्रकृति का अवलोकन कर रहा था। मैं पास ही पड़ी बैंच पर बैठ जाता हूं। मेरी पिछली जिँदगी बेहद बदसूरत है, इसीलिये मैं उसे कभी याद नहीं करता। फिर पुरानी बातों को याद करने से लाभ ही क्या? मगर.. न जाने आज क्यों बिरदी की आंखें मुझ याद दिला रही हैं सब कुछ! हां शायद सब कुछ!

शायद तीन वर्ष पूर्व की बात है। गरमियों का वक्त था, महीने और तिथियां मुझे याद नहीं। उस वक्त करीब सात आठ साल का था। माता-पिता का एकलौता होने के कारण, मां का विशेष स्नेह मुझ पर था। मेरे पिता दवाई की दुकान में छोटे से नौकर थे और बिरदी उनका मालिक था।

समय गुजरता गया। कई शामें आईं और गुजर गईं और फिर वह शाम भी आई, जो मुझे आज तक याद है। उस शाम मैं पिताजी को देख कर डर गया था। उनके चेहरे पर न जाने कैसा भाव था, जो मैंने कभी नहीं देखा था। बह बेहद उदास नजर आ रहे थे। रात वह बहुत देर तक मां से बातचीत करते रहे। उस वक्त मेरे बाल मन में जो समझ आया उसका सारांश यह था, कि बिरदी ने किसी अस्पताल में पुरानी दवाएं भेज दी थी, जिससे कुछ लोग मर गये थे. भण्डा फूटने पर उसने किसी तरह, इस मामले में पिताजी का फंसा दिया है. पिताजी ने मां को
और न आने क्या-क्या बताया परन्तु- वह सब उस वक्त मुझे समझ नहीं आया। फिर हम सभी सो गये थे। मगर पिता जी फिर कभी न जाग सके। ' पिताजी की मृत्यु भले जिस तरह भी हुई- हो, मगर मैंने बस इतना समझ लिया था कि उन्हें बिरदी ने मारा है।

मां को पिताजी की मृत्यु का गहरा आघात लगा। वह जीर्ण होती गयी। कठोर काल चक्र चलता रहा और मां को और केन्द्रित करता रहा। एक ऐसा समय भी आया कि मां पलंग से लग गयी। डाक्टर ने लंबी दवाइयों की फैरिस्त दी। जब रोटी ही नहीं तो दवाई कहां से लायी जाये? उस बाल अवस्था में मुझे विकल्प मिला तो वह था बिरदी। आखिर उसकी दुकान पर पिताजी ने जिन्दगी भर काम किया था। मगर...! शायद कुछ लोगों के लिए एक उम्र की कीमत चंद सिक्के भी नहीं होती। मैं बिरदी के आगे नाक रगड़ता रहा और मां एडियां रगड़ते हुए मर गई।

मैं पूरी तरह अनाथ हो गया। मेरा कोई रिश्तेदार नहीं था जिसके पास मैं रह सकता। तरस खा कर एक अंगरेज मिशनरी ने मुझे रख लिया। पहले न जाने क्या था पर अब इसाई बन गया। वक्त गुजरता गया, बीती घटनाओं पर धूल की पर्त जमती गयी। परन्तु मुझे बिरदी की झलक याद रही। वह शक्स जिसने मेरे माता पिता का खून किया था।

समय ने पासा पलटा। मैं पढ़ने में होशियार निकला। अंगरेज मिशनरी ने मुझे खूब पढ़ाया, मैं डाक्टर बन गया। फिर सरोज से शादी हो गयी. फिर दो बच्चे और अब मैं यहां दस साल' से सिविल सर्जन हूं। जिन्दगी का इतना लम्बा अरसा गुजर गया, जिसमें न जाने कितने चढ़ाव आये। हर चढ़ाव को मैंने स्वयं चढ़ा है। अपने बलबूते पर। ईश्वर का कभी सहारा नहीं लिया। सहारा तो कमजोर लोग लेते हैं। मैं तो वह शख्स हूं जिसने पतझड में फूल खिलाए हैं। मनुष्य भी क्या है, जीवन के छोटे छोटे संयोगों को वह ईश्वर की देन मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो इस भौतिक संसार में ईश्वर की कहीं आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य को अपने आज और कल के बारे में जीना चाहिये; परसों के बारे में सोचने वाले लोग बेवकूफ होते हैं।

मगर आज न जाने क्यों एक छोटी सी घटना को लेकर इतना परेशान हो उठा हूं। अपने इस पेशे में, मैंने मौत को बहुत करीब से देखा है। मगर आज तक कभी मैं इतना भावुक नहीं हुआ। बात सिर्फ इतनी थी; कि पास के गांव में एक रेल एक्सीडेन्ट हो गया था।' घटना स्थल पर जब हम पंहुचे, सभी तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई थी। मौत ने अपना क्रूर खेल-खेला था। जैसा कि हमेशा होता है, राजनीतिज्ञ भी वहां अपना खेल-खेल रहे थे। मृतकों के आकड़े छुपाने के लिये लाशों को ठिकाने लगाया जा रहा था। मेरा काम था घायलों को जीवित या मृत घोषित करना। लोगों का मैं निरीक्षण कर रहा था'। जिसकी तरफ मैं उंगली

उठाता उसे मृतक मान लिया जाता। चलते-चलते अचानक मैं ठिठक गया। लम्बोतरे चेहरे पर सफेद दाढ़ी। मेरे सारे शरीर में बिजली कौंध गई सामने बिरदी पड़ा था, घायल अवस्था में। मैं सन्न रह गया। वर्षों बाद मैंने उसे देखा था। उसकी

स्थिति जानने के लिए मैं उसके पास झुका। उसमें जीवन के लक्षण शेष थे। मैं उसके पास ही था कि उसकी पलकें हिलीं। न जाने उन आँखों में मुझे क्या नजर आया। मैंने उसकी तरफ उंगली बढ़ा दी। जीवित बिरदी को मैंने मृतक धोषित कर दिया।

दिन भर के व्यस्त कार्य में इस घटना का मुझ पर विशेष प्रभाव नहीं रहा मगर अब न जाने क्यों मैं बेचैन हो रहा हूं। मैंने बिरदी की हत्या की है। हत्या! यह ख्याल आते ही मैं सिहर उठा। बैंच से उठ कर मैं टहलने लगता हूं मेरे सिर में तीव्र पीड़ा हो रही है। यूं धूमते रहने से तो लेटना अच्छा है। यह विचार कर-. वापस आकर लेट जाता हूं,। घड़ी ने तीन घंटे बजाये। यानी सुबह हो रही थी। मैंने चुपचाप आंखे बंद कर ली। निद्रा का कुछ प्रभाव मुझ पर छाने लगा और में धीरे से स्वप्न लोक में उतर गया।

. ' अरे. .! अरे ..! यह क्या? मैं' बिल्कुल' छोटा 'हो गया हूं ' शायद पांच छह साल का। किसी ने मुझे एक विशाल गोल कमरे में ला कर अकेला छोड़ दिया है। कमरे का पिछला एवं .सामने का भाग स्पष्ट नजर नहीं आ रहा है। सामने धुँध ही धुँध है। कमरे के दोनों तरफ अनेकों दरवाजे हैं। मैं उन्हें गिनने की कोशिश करता हूं, मगर शायद धुँध की वजह से उन्हें ठीक से गिन नहीं पा रहा हूं कभी. सत्तर कभी अस्सी, तो कभी नब्बे गिनता हूं। हां मगर दोनों तरफ के दरवाजों की संख्या मुझे बराबर लग रही है। मेरे दाईं तरफ के सभी दरवाजे खुले हुए हैं, और बाईं तरफ के सभी बंद। मैंने पहले खुले दरवाजे से बहर झांका। चारों तरफ एक सफेद दूधिया प्रकाश बिछा हुआ था जिसमें न जाने कैसी शांति का आभास हो रहा था। क्या मैं इस दरवाजे से उस पार चला जाऊं? कितनी शांति है वहां! नहीं...! न जाने कहां से आवाज आई। उन बंद दरवाजों के उस पार तो तुमने देखा ही नहीं। मेरे मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, मैंने पहला बंद दरवाजा खोला। मगर... यह क्या?
इस दरवाजे को खोलने के साथ ही पहला खुला दरवाजा अपने आप बंद हो गया। इस दरवाजे के बाहर, आंखों को चकाचौंध करने वाली रोशनी फैली हुई थी। इस रौशनी में एक अजीब नशा था, जिसने मेरी सभी इंद्रियों में एक अतृप्त सा आनन्द भर दिया। मुझे यह सब बहुत लुभावना लगा। मैं इस रोशनी में लगभग दीवाना सा हो गया। एक अतृप्तता की भावना मुझमें जागी। दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा करते हुए मैंने बाईं तरफ के एक-एक दरवाजे खोलना शुरु किया। हर दरवाजे के खुलने के साथ ही दाईं तरफ के दरवाजे बंद होते जा रहे हैं। मगर अब 'यह रोशनी मुझे और लुभावनी लग रही है, क्योंकि इसमें एक गुलाबी रंग का भी समावेश हो गया है। हर. दरवाजे को खोलने के साथ मैं बड़ा होता जा रह हूं।.....

- 'विनय विनय नींद में यह क्या बड़बड़ा रहे हो' सरोज मुझे जगा रही थी।

- कुछ नहीं एक खराब सपना देख लिया था। मैंने हड़बड़ा के कहा। घड़ी में सुबह के साढे पांच बज रहे थे। मैंने फिर सोने की कोशिश की, मगर नाकामयाब। अंतःकरण और उद्वेलित होता गया। एक तीव्र मासिक यंत्रणा झेलते-खेलते मैं असंतुलित हो उठा। आखिर इससे छुटकारा पाने का उपाय क्या है? आत्म स्वीकारोक्ति। अंतःकरण से आवाज आई। और मैंने .अपना अपराध स्वीकार करने का निर्णय ले लिया। जिस वक्त मैं पुलिस थाने पहुंचा, सुबह के आठ बज रहे थे। थानेदार मुझसे अच्छी तरह परिचित था। देखते साथ ही उसने मुझे बड़े सम्मान के साथ बैठाया।

- 'कहिये साहब, इतने सुबह कैसे आना हुआ -?

- 'मैंने खून किया है। एक संक्षिप्त सा उत्तर मैंने सामने .रख दिया।

- 'मगर कैसे किसका? कहां..??

मैंने घटना सुना दी। घटना सुन कर वह मुस्कुराया. फिर बोला - 'अरे साहब! आप भी बड़े भावुक है।

जाईये घर पर आराम करिये। शायद आप बहुत थक गये हैं। '

- नहीं मगर मैंने खून किया है।''

- मगर ऐसी तो कोई घटना घटी ही नहीं।'

- अरे साहब जिस घटना का आप उल्लेख कर रहे हैं वैकी कोई घटना पुलिस के रिकार्ड मैं है ही नहीं।'

- मगर ऐसा हुआ है – मैंने उत्तेजित होते हुए कहा।

- अगर ऐसा हुआ भी है तो भला यह हम कैसे मान लें कि आंकड़ों को छुपाने के लिए लोगों को जिस तरह दफनाया गा है इस तरह तो हमारी भी गर्दन फंस जाएगी।

मेरे लाख तर्क करने पर भी उसने यह बात मानने से इनकार कर दिया कि ऐसी कोई घटना घटी भी है।

मेरे घर पहुंचते पहुंचते दिन के 11 बज गए। घर पहुंचते ही मैं लेट गया। थोड़ी ही देर में मुझे तेज ज्वर हो गया। सिर में भी भयानक पीड़ा हो रही थी। मैंने बुखार का एक इन्जेक्शन स्वयं लगाया और लेट गया। दवाई के प्रभाव से मुझे नींद आने लगी और मैं फिर देखने लगा वही-,..! वही...! गोल कमरा है, और मैं सभी बंद दरवाजे खोलता जा रहा हूं। अब केवल आखरी दरवाजा खोलना शेष हैं। दूसरी तरफ के सभी बचे खुचे दरवाजे अब तक बंद हो चुके हैं, बस एक अन्तिम दरवाजा खोलना बाकी है।

मेरे अंदर अतृप्तता की भावना अब तक वर्तमान है। मैं दुविधा में पड़ जाता हूं। क्या इस आखरी बंद दरवाजे को भी खोल दूं? नहीं!! अगर यह दरवाजा खोल दिया, तो दाईं तरफ -के सभी दरवाजे बंद हो जायेंगे। उस तरफ जाने का आखिरी मौका। क्या उस तरफ चला जाऊं? नहीं!। फिर तुम्हारी इन अतृप्त अभिलाषाओं का क्या होगा? मेरी सभी भावनाएं तो अभी तक अपूरित हैं। मेरे सपने अधूरे हैं। बंद दरवाजे को खोलने की मेरे अंदर तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। एक शक्ति मुझे उस ओर खींच रही है। मैंने इस दरवाजे के एक छेद से बाहर झांका। बाहर वहाँ चमकीला प्रकाश अब लाल हो चुका है, बेहद रक्तिम। उसमें एक अजीब विलक्षणता है।

मैं इस आखिरी दरवाजे को खोलने के लिये प्रवृत होता हूं..

विनय! विनय! मैं हड़बड़ा कर उठ बैठता हूं। सरोज मुझे जगा रही थी, शायद मैं नींद में कुछ बड़बड़ा रहा था। मैंने घड़ी देखी। रात के आठ बज रहे थे। मेरी छोटी लड़की विनीता ने रेडियो ट्रांजिस्टर चालू कर रखा रखा था। ट्रांजिस्टर पर कोई प्रचारक बाईबिल से पढ़ रहा था -

तुम्हारे पाप चाहे लाल रंग के हों, तो भी वे हिम की नाई उजले हो जाएंगे, और चाहे अगवानी रंग के हों, तो भी वे ऊन के समान श्वेत हो जायेंगे।

प्रचारक ने फिर-फिर इस पद को दोहराया। वह अभी बोल ही रहा था कि रेडियो में कुछ गड़बड़ हो गयी, और कुछ दूसरा ही स्टेशन लग गया। मैंने मन में फिर से इन शब्दों को दोहराया। मुझे इन शब्दों से बड़ी शांति महसूस हुई। मगर ऐसा क्यों? अब तक मैंने ईश्वर की आवश्यकता कभी महसूस नहीं की थी। मैंने जो पाया अपने परिश्रम से पाया. कठोर परिश्रम से।

परन्तु आज मुझे बायबल के यह शब्द क्यूं प्रभावित कर रहे हैं? पास की रैक में सरोज की बायबल रखी हुई थी। मेरे में उसे पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। बायबल खोलते ही मेरे सामने जो पन्ना खुला उसमें लिखा था - दाऊद कहता है:

- हे परमेश्वर मेरे उद्धारकर्ता परमेश्वर, मुझे हत्या के अपराघ से छुडा ले, तब मैँ तेरे धर्म का जयजयकार कर पाऊंगा। '

मैंने कुछ पन्ने और पलटे। फिर एक पृष्ठ पर निगाह टिक गई। यहां फिर दाऊद कहता है: उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उसने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है।

मेरे अंदर एक असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आखिर दाऊद कैसे अपने अपराधों से छूट गया। वह व्यक्ति जो अपने आप को हत्यारा महसूस कर रहा था , वही कहता है कि मेरे अपराध मुझसे बहुत दूर हो गये। परन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? क्या संसार की किसी रीति से हम अपने पापों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं? नहीं !! मैंने अपने पापों को दुनिया के सामने माना एवं उससे मुक्ति की अनेक चेष्टाएं की, मगर मुझे सफलता नहीं मिली तो फिर राह कैसे संभव है?

मैंने बायबल के पन्ने फिर पलटाये। एक स्थल पर दाऊद कहता है :

''क्योंकि हे प्रभु, तू भला और क्षमा करने वाला है और जितने तुझे पुकारते हैं उन सभी के लिये तू अति करुणामय है।',

मैंने बायबल' बंद कर दी। मेरे अंदर एक खालीपन महसूस हो रहा था। वास्तव में मनुष्य, चाहे तो अपने परिश्रम से इस दुनिया की हर चीज पा सकता है। परन्तु पापों से छुटकारा केवल ईश्वर से ही प्राप्त हो सकता है।

मैं प्रार्थना करने लगता हूं और ईश्वर से अपने पापों के छुटकारे के लिए विनती करता हूं। प्रार्थना में न जाने कितना समय बीत गया। प्रार्थना करते करते मैं सो जाता हूं। मैं देखता हूं मैं पुन: फिर बहुत छोटा होता जा रहा हूं। वही गोल कमरा है, परन्तु अभी मेरे दाईं तरफ के सभी दरवाजे खुले हुए हैं एवं बाईं तरफ के सभी दरवाजे बंद हैं।

सुबह जब मेरी नींद खुलती है, अपने आप' में बड़ा हलकापन महसूस करता हूं। पास वाले कमरे में विनीता रेडियो बजा रही है जिस पर एक उपदेशक बाईबिल से पढ़ रहा है -

द्वार मैं हूं: यदि कोई मेरे द्वारा. भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पायेगा और भीतर बाहर आया जाया करेगा और प्रेम पाएगा।

इतने में सरोज कमरे में प्रवेश करती है।

- अरे तुम उठ गए?

- हाँ, एक लंबी नींद के बाद उठ गया हूँ।

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रचनाकार: कहानी // दरवाजा // अरुण मित्रा
कहानी // दरवाजा // अरुण मित्रा
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