प्रउत एवं प्राचीन भारतीय शब्दावली ➡ श्री आनन्द किरण

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भारतवर्ष के संदर्भ में कुछ उक्तियां है, जो इसकी समृद्धि एवं महानता के द्योतक है । विषय के संदर्भ में इन उक्तियाँ का प्रउत व्यवस्था के परिप्र...

भारतवर्ष के संदर्भ में कुछ उक्तियां है, जो इसकी समृद्धि एवं महानता के द्योतक है । विषय के संदर्भ में इन उक्तियाँ का प्रउत व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जा रहा है। यह उक्तियां है - भारत एक सोने की चिड़ियाँ थी, भारत में घी दूध की नदियाँ बहती थी, रामराज्य में सभी जन सुखी एवं समृद्ध थे, भारत विश्व गुरु था तथा मेरा भारत महान है। इसमें कुछ उक्तियाँ आर्थिक जगत की समृद्धि की प्रतीक है तो कुछ वैचारिक एवं सांस्कृतिक पवित्रता के प्रतीक हैं। इन शब्दावली को अर्थव्यवस्था एवं अर्थशास्त्र की कसौटी पर कसकर देखना आवश्यक है।

1. सोने की चिड़ियाँ ➡ भारतवर्ष को सोने की चिड़ियाँ कहा जाता था। अर्थात देश तथा समाज के धन धान्य से परिपूर्ण होने का प्रतीक हैं। देश एवं समाज की भौतिक समृद्धि का अर्थ मुठ्ठी भर धनी लोगों की समृद्धि में नहीं है। सर्वजन के जीवन स्तर में आमूलचूल परिवर्तन में है। इस अवस्था का सर्जन करना न तो पूंजीवाद से संभव है, न ही तो साम्यवाद से। भाव जड़ता की व्यवस्था अर्थात एकात्मक राष्ट्रवादी विचारधारा भी इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती है। समाज तथा देश को सोने की चिड़ियाँ बनाने के लिए समाज के प्रत्येक अवयव का विकास तथा जीवन स्तर उच्च होना आवश्यक है। प्रउत व्यवस्था सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन सुखार्थ की प्रतीक है। अत: यह व्यवस्था ही उक्त लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है।

पूंजीवाद आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व्यक्ति को समाज तथा देश के मंच पर स्वतंत्र छोड़ता है। इससे व्यष्टिगत भौतिक विकास का रास्ता तो साफ़ हो जाता है लेकिन सीमित सृष्टि के रहते समष्टिगत समग्र विकास का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। समष्टि की समृद्धि के लक्ष्य क्षीण होते ही समाज में विवाद, द्वेष तथा छीना झपटी का दौर शुरू हो जाता है। साम्यवाद व्यष्टि की इच्छाशक्ति का दमन करने के फलस्वरूप निष्कर्मण्यता की अवस्था का सर्जन होता है। व्यष्टि के धराशायी होते ही समष्टि व्यवस्था चकनाचूर हो जाएगी। भाव जड़ता का दर्शन एकात्मक राष्ट्रवाद देश की समृद्धि एवं मजबूती पर आरूढ़ है। एकात्मक राष्ट्रवाद के अन्दर प्रदेशवाद तथा क्षेत्रवाद का जन्म होना अस्वाभाविक नहीं है तथा वैश्विक तथा समग्र सृष्टि के मूलभूत तथ्य से व्यष्टि को पृथक रखती है। भाव जड़ होने से अन्य कमियां ढूंढता है। इससे व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के लिए कुएं को खोदता हैं। प्रउत एक ऐसी व्यवस्था है जो समग्र विकास के नव्य मानवतावादी विचारधारा एवं वैश्विक दर्शन लेकर चलता तथा व्यष्टि समृद्धि के समाज आंदोलन की अवधारणा पर कार्य करता है। इसमें न तो असीमित लालच न ही नैराश्यवाद की अवस्था है। आध्यात्मिक नैतिकता तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण व्यक्ति को अनियंत्रित होने से रोकता है। इसी कारण प्रउत ही समाज को सोने की चिड़ियाँ दे सकता है।

2. घी दूध की नदियाँ - भारतवर्ष में घी दूध की नदियों का जिक्र किया गया है। यह समाज की खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्म निर्भरता ही नहीं शेष चराचर को भी आपूर्ति करने की अवस्था का नाम है। यह अवस्था पूंजीवाद के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकती है। वहाँ संग्रह प्रवृत्ति है लेकिन यह अवस्था अपरिग्रह के द्वार से निकलती है । साम्यवाद का द्वार खखटखटाते ही अवस्था दिवास्वपन्न सदृश्य बन जाएगी। समानता का सूत्र घी दूध धार जड़त्व में परिणीत कर देती है। भाव जड़ता पूर्ण एकात्मक राष्ट्रवाद में यह वस्तु समा नहीं सकती है। इस अवस्था का सर्जन मात्र प्रउत में है। क्योंकि यह न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करने तथा गुण का सम्मान के साथ मानदंड के वृद्धि का अध्याय पढ़ाता है। इसलिए प्रउत ही एकमात्र विचारधारा है जो उक्त अवस्था का सर्जन कर सकती है।

पूंजीवाद मैं जीतता जाऊँ की दिशा में गतिमान है जबकि घी दूध की नदियाँ सबको जिताने की दिशा में । दोनों का मेल नहीं है। साम्यवाद की सबकी हार साम्य अवस्था है में निहित हैं। जो घी दूध की धारा में नहीं समा सकता है। भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद घी दूध की धारा को सीमितता में परिणीत करने रूढ़ मान्यता में रूपांतरित करती है। जिससे इसकी तरलता जम जाती है। प्रउत विचारधारा सबके द्वार पर घी दूध की नदियों को ले जाता है। उनके क्षेत्राधिकार से कोई बस नहीं सकता है। घी दूध की गति सदैव चलती रहती है।

3. रामराज्य - भारतवर्ष की समाज नीति में रामराज्य एक बिंदु है, जो आदर्श समाज का चित्रण है। इस अवस्था की एक ही परिभाषा हो सकती है, वह है सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ। इस स्थिति का सर्जन पूंजीवाद, साम्यवाद की लक्ष्य शक्ति में नहीं है। भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद बहुजन की अव्यवहारिक अवस्था में क्षीण भीण हो जाता है। रामराज्य की अभिकल्पना सर्वजन की अभिधारण में बहुजन की छलावा नीति में नहीं है। प्रउत की मूल नीति में ही यह अवस्था समा सकती है। प्रउत अर्थव्यवस्था सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन सुखार्थ के लक्ष्य का निर्धारण करती हैं। इसलिए मात्र प्रउत विचारधारा ही भारतीय संस्कृति के इस लंबित विषय को स्थापित कर सकती है।

पूंजीवाद का लक्ष्य अधिकतम लाभ अर्जित करना है । रामराज्य का सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन सुखार्थ की अवस्था पर टिका है। दोनों की दिशा विपरीत है। साम्यवाद का समान संतुष्ट का लक्ष्य , रामराज्य की अवस्था में चलता हुआ नज़र आता है लेकिन यह प्रकृत धर्म के विरुद्ध चलने के कारण नैराश्य दर्शन में समा जाता है। भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद अधिकतम संतुष्ट की अवधारणा रामराज्य की अवस्था में समक्ष बहुत बौना है। प्रउत का लक्ष्य न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति, गुणों का आदर व वर्धमान सामाजिक मानदंड तथा रामराज्य की अवस्था समान हैं। अत: प्रमाणित होता है कि प्रउत विचारधारा की स्थापना ही रामराज्य के स्वप्न पूर्ण कर सकता है।

4. विश्वगुरू की अवस्था ➡ भारतवर्ष को विश्वगुरु कहा जाता है। विश्वगुरु का विषय मात्र आर्थिक नहीं है। संस्कृति एवं अध्यात्म के साथ सामाजिक आर्थिक व्यवस्था का आदर्शमय चित्रण का नाम दिया जा सकता है। विश्व गुरु अर्थात जो शेष विश्व को प्रेरित कर सकता है तथा उस स्वयं अनुसार बना सकता है। इस अध्याय में दो विषय विश्व बंधुत्व तथा वसुधैव कुटुम्बकम समा जाते हैं। प्रश्न यह है कि उक्त अवस्था का सर्जन समाज एवं अर्थव्यवस्था की कौनसी व्यवस्था कर सकती है? पूंजीवाद एवं साम्यवाद दोनों शुद्ध आर्थिक विषय ही है। इसमें उक्त लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद जड़त्व की भित्ति पर स्थापित होने के कारण रूढ़िवादी, अंध विश्वास तथा विवेकहीन दकियानूसी विचारों में आबद्ध हो जाने के कारण उक्त महान आदर्श का दिवास्वपन्न ही देख सकता है। यथार्थ के धरातल पर विश्वगुरू भारत के स्वप्न को सिद्ध करने जाते ही भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद मुंह के बल गिर जाता है। प्रउत के अन्दर विवेकपूर्ण वितरण, सम्पदा के चरमोत्कर्ष , संभावनाओं चरमोपयोग एवं सुसामंजस्य तथा परिवर्तनशील उपयोग के प्रगतिशील मापदंड तथा अर्थ जगत में आध्यात्मिकता की प्रधानता, वैश्विक दृष्टिकोण एवं नव्य मानवतावाद सोच के कारण प्रउत व्यवस्था ही विश्व गुरु समाज की रचना कर सकती है।

5. भारत महान ➡ भारतवर्ष के संदर्भ में 'मेरा भारत महान है' उक्ति प्रचलित है। यद्यपि इस विषय का अर्थशास्त्र से सीधा संबंध नहीं है तथापि यह विषय अर्थव्यवस्था से अछूता नहीं है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सुख निर्धारण कीमत संयंत्र के माध्यम में किया गया है। जो महानता द्वारा पर नहीं ले जा सकती है। वस्तु जगत में दुर्लभता तथा सुगमता कालचक्र में गोता लगाता है। साम्यवाद में सुख को अधिकतम कल्याण अवधारणा से लगाया गया है। अधिकतम कल्याण समग्र कल्याण से दूर अवश्य है लेकिन नजदीक माना गया है। इस अवधारणा में सबसे बड़ा दोष यह है कि यह अवस्था सदैव काल्पनिक रही है। कल्पना का स्वर्ग महान के व्यवहारिक आयाम को प्राप्त नहीं कर सकता है। अब हम भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद की ओर दृष्टिपात करते हैं। इस सुख निर्धारण का आधार रूढ़ मान्यता पर टिका हुआ है। यह व्यवहारिक परिस्थितियां हैं अथवा नहीं इस पर संदेह की तलवार लटकी हुई है। युक्तिहीन विचार को रूढ़ मान्यता के रुप में अंगीकार किया गया बहुत हानि होती है। युक्तिसंगत मान्यता का चयन होने पर शुभ अवश्य रहता है। भाग्य की तलवार को महानता अस्त्र नहीं माना जा सकता है। महानता के मापदंड की कसौटी पर प्रउत विचारधारा कसकर देखते हैं। प्रउत में सुख को अनुकूल तरंग एवं अनन्त सुख को आनन्द बताने वाले आध्यात्मिक दर्शन को अंगीकार करता है। प्रउत अनुकूल परिस्थितियों को सर्जन कर सुख का मापदंड स्वीकार करता है। धन संग्रह में समाज का आदेश की लगाम रखना तथा न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करने का वचन देना एक अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण की रीढ़ है। विवेकपूर्ण वितरण सामाजिक अपराध के समूल उन्मूलन की यात्रा में ले जाने का प्रयास है। वितरण के संदर्भ के पूंजीवाद कीमत तथा साम्यवाद राशन व्यवस्था को अंगीकार करती है। जो सामाजिक अपराध में वृद्धिकर्ता सिद्ध हुए हैं। भावजड़ एकात्मक राष्ट्रवाद की अवधारणा वितरण का यही घिसापिटा सूत्र लिए खड़ा है। प्रउत विचारधारा एक सुख की अवस्था को वास्तविक जगत में स्थापित करती है वही दुखदायक अवस्था को उत्पन्न नहीं होने देती है। इसके अतिरिक्त महानता के सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक इत्यादि मानदंड को संतुष्ट करता है। अत: प्रउत विचारधारा को महान साबित किया जाता है। भावजड़ दर्शन अर्थव्यवस्था में पिछड़ने के बाद शेष मापक में पूर्ण खरा नहीं उतरता हैं। पूंजीवाद तथा साम्यवाद के तो शेष मापक हैं ही नहीं है। अत: हम प्रमाणित करते हैं कि प्रउत की महान विचारधारा महान सभ्यता एवं संस्कृति के लक्ष्य को प्राप्त करती हैं।

उक्त चर्चा का अध्ययन करने के बाद सहज ही एक प्रश्न का जन्म होता है कि आलोचना की कसौटी पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्थान क्यों नहीं दिया गया? मिश्रित अर्थव्यवस्था पूंजीवाद तथा साम्यवाद के गुण तथा दोषों को संयुक्त लेकर खड़ा है। इसलिए उसी मत दोहरना उचित नहीं था इसलिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को आलोचना की कसौटी पर स्थान नहीं दिया गया। दूसरा संदेह यह भी है कि एकात्मक राष्ट्रवाद रुपी अपूर्ण आर्थिक विषय को आलोच्य विषय स्थान क्यों दिया गया। यह विषय शुद्ध आर्थिक नहीं होते हुए भी अर्थव्यवस्था के प्रभावों को निर्माण के विषय को लिया हुआ है। अर्थव्यवस्था की परिस्थितियां जिससे प्रभावित होती है। उसे छूए बिना प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था की इस शब्दावली के साथ न्याय नहीं किया जा सकता था। अत: आलोच्य विषय में महत्ता के आधार पर आर्थिक तथा गैर आर्थिक पहलुओं पर विचार कर प्रउत विचारधारा का परिचय दिया गया है।

प्रउत विचारधारा ही भारतीय संस्कृति में उपस्थित महानता सूचक शब्दावली को प्राप्त कर सकती है।

लेखक श्री आनन्द किरण

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@ जालोर राजस्थान

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