सिकंदर की पराजय - डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री

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सिकंदर की पराजय (डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री, पी /138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 110) agnohotriravindra@yahoo.com आजकल टी वी के एक चैनल प...

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सिकंदर की पराजय

(डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री, पी /138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 110)

agnohotriravindra@yahoo.com


आजकल टी वी के एक चैनल पर पोरस शीर्षक से दिखाए जा रहे सीरियल के बहाने एक बार फिर वही कहानी याद आ गई जिसमें वीर योद्धा पुरु (पोरस) को पराजित और आक्रमणकारी सिकंदर को विजयी बताया गया है । इतना ही नहीं, पुरु को क्षमा करके और केवल उसका राज्य नहीं, बल्कि भारत के जीते हुए कुछ अन्य भाग को भी वापस करके सिकंदर को वीरता का सम्मान करने वाला उदार पराक्रमी बताया गया है, पर इस कहानी में कई झोल हैं। पहला तो यह कि इस युद्ध का कोई विवरण भारतीय इतिहासकारों ने लिखा ही नहीं, क्योंकि, नेहरू जी के अनुसार ‘उसके आक्रमण का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा ‘ (इतिहास के महापुरुष, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 ; पृष्ठ 17 ) । अतः यह पूरी कहानी यूरोपीय इतिहासकारों के लेख पर आधारित है । यह तथ्य अब उजागर हो चुका है कि यूरोपीय लोगों ने इतिहास तटस्थ दृष्टि से नहीं, बल्कि अपने को विश्व का सर्वश्रेष्ठ योद्धा, सर्वश्रेष्ठ शासक और मानवता का रक्षक सिद्ध करने की दृष्टि से लिखा । इसके बावजूद यदि यूरोपीय लेखकों के लिखे विवरणों की समीक्षा की जाए और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी से मिलान किया जाए तो सिकंदर की भारत विजय की कहानी झूठी प्रतीत होती है । आइए, कुछ विवरणों की परीक्षा करें ।

इतिहासकारों का कहना है कि अब सिकंदर के बारे में " प्रामाणिक " जानकारी का सर्वथा अभाव है क्योंकि वियरकच, ओनिसीक्रीटस, केलिस्थनीज़, पुटालमी आदि उसके समकालीन लेखकों के लिखे ग्रन्थ तो कहीं मिले ही नहीं, आज जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह एरियन, डायोडोरस, प्लूटार्क, जस्टिन (सभी यूनानी) और कर्टियस (रोमन) के लिखे ग्रंथों से मिलती है । संयोग यह है कि ये सभी लेखक सिकंदर के चार-पांच सौ साल बाद के हैं, पर इनमें से किसी को उस समय भी सिकंदर के समकालीन किसी लेखक की कोई रचना नहीं मिली । इन्होंने जो कुछ लिखा वह विभिन्न लेखकों के अस्त-व्यस्त उद्धरणों और जनश्रुतियों के आधार पर लिखा । इनके दिए विवरण इतने अधिक परस्पर-विरोधी और असंगत हैं कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के यूनानी विद्वान स्ट्रेबो (जो विश्व यात्रा के आधार पर लिखे गए अपने भूगोल सम्बन्धी ग्रन्थ के लिए विशेष प्रसिद्ध है) का कहना है कि इन लोगों ने जो कुछ लिखा है, वह सिर्फ सुनी - सुनाई बातों के आधार पर लिखा है। भारत के सम्बन्ध में तो इन लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, उस पर स्ट्रेबो ने बड़ी सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि ये सब " झूठे " हैं ।

सिकंदर को सभी इतिहास लेखकों ने निडर, बहादुर, साहसी और कुशल सेना-नायक बताया है, पर साथ ही उसके घमंडी एवं क्रोधी स्वभाव, क्रूरता और बर्बरता की भी बहुत चर्चा की है। शासक बनते ही सबसे पहले उसने अपने उन सभी विरोधियों की हत्या कर दी / करवा दी जिनसे उसे अपनी कुर्सी के लिए ज़रा भी खतरा लगा, फिर वे चाहे उसके परिवार के हों या बाहर के। इस काम में उसकी माँ ओलम्पियास भी शामिल थी । क्लियोपेट्रा (सिकंदर की सौतेली माँ) और उसकी बेटी को ज़िंदा जलाया गया और अटालस की सपरिवार हत्या कर दी गई जिसमें उसकी बेटी एवं बेटी के बच्चे भी शामिल थे। साम्राज्य विस्तार के उसके अभियान में वे लोग तो उसके कोप का भाजन बनने से बच गए जिन्होंने बिना लड़े उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, पर जिन्होंने उसका सामना करने की जुर्रत की, वे हार जाने पर उसके कहर से बच नहीं पाए।

युद्ध में जिस स्थान को भी उसने जीता, उसे सहेज कर रखने के बजाय हर तरह से बरबाद कर दिया । सीरिया के पास टायर नामक प्रदेश को जीतने पर उसने शहर को उजाड़ दिया, सभी युवाओं की हत्या कर दी और बच्चों एवं स्त्रियों को दास बनाकर बेच दिया । मिस्र के गाज़ा में उसे कड़ी टक्कर मिली, पर अंततः वह जीत गया । बस, जीतने पर उसने उस स्थान को बरबाद करना शुरू कर दिया, सभी पुरुषों की बर्बर ढंग से हत्या कर दी और स्त्रियों एवं छोटे बच्चों को दास बना कर बेच दिया । पर्सिपोलस जीतने पर उसने वहां आग लगा कर सब कुछ नष्ट कर दिया । ईरान में उसने विजय के बाद वहां के विशाल महल को, नगर की इमारतों को, सड़कों तक को तहस-नहस कर डाला। बख्तर (बैक्ट्रिया) ईरान के सम्राट दारा तृतीय के अधीन एक प्रदेश था और वहां का शासक " बेसस " था । सिकंदर ने उस पर आक्रमण किया तो उसने डट कर मुकाबला किया, पर लम्बे संघर्ष के बाद अंतत वह हार गया और पकड़ा गया । सिकंदर के आदेश से उसे बैक्ट्रिया के मुख्य मार्ग पर बिलकुल नंगा किया गया, रस्सी से बांधकर कुत्ते की तरह खड़ा किया गया, कोड़े लगाए गए, नाक और कान काट दिए गए, और इस तरह के अपमान के बाद उसका वध कर दिया गया ।

उसने शत्रु राजाओं / राज्यों के प्रति ही नहीं, अपने मित्रों / शुभचिंतकों तक के साथ भी क्रूरतम व्यवहार किया । सिकंदर के गुरु अरस्तू का भतीजा " केलिस्थनीज़ " सिकंदर का घनिष्ठ मित्र था, लेखक था, युद्ध में उसके साथ था और उसके विजय अभियान को लिपिबद्ध करता जा रहा था ; पर उसकी किसी बात पर नाराज़ होकर सिकंदर ने स्वयं उसकी हत्या कर दी । एक और उदाहरण " क्लीटस " का देखिए जो सिकंदर की धाय " लानिके " का भाई और सिकंदर का अभिन्न मित्र था । ईरान के युद्ध में जब सिकंदर घायल हो गया था, शत्रुओं से बुरी तरह घिर गया था और उसका जीवित बचना लगभग असंभव था, तब क्लीटस ने ही अपनी जान जोखिम में डालकर सिकंदर की जान बचाई ; पर उसी क्लीटस की किसी बात पर तैश में आकर सिकंदर ने पहले उसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया और फिर बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी । सिकंदर का पूरा इतिहास ऐसे ही उदाहरणों से भरा पड़ा है ।

नेहरू जी ने भी उसके इस प्रकार के क्रूर व्यवहार का उदाहरण देते हुए लिखा है , " थीब्स नामक यूनानी शहर ने उसके आधिपत्य को नहीं माना और बगावत कर दी । इस पर सिकंदर ने उस पर बड़ी क्रूरता से और निर्दयता के साथ आक्रमण करके उस मशहूर शहर को नष्ट कर दिया , उसकी इमारतें ढहा दीं, बहुत से नगर निवासियों का क़त्ल कर डाला और हज़ारों को गुलाम बनाकर बेच दिया ( विश्व इतिहास की झलक, संक्षिप्त संस्करण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 , पृष्ठ 29 ) । " उसके इसी प्रकार के व्यवहार के कारण नेहरू जी ने सिकंदर को अभिमानी, घमंडी, निर्दयी, बर्बर और क्रूर कहा है। जिस एरियन ने सिकंदर का प्रशस्ति गान किया है, उसी ने उसे " धूर्त " भी बताया है (He was short sighted and cunning ; Rookes translation of Arrian’s “History of Alexander’s Expeditions” ; Vol. II, P. 196) |

क्षमा दान किसे ? पुरु को या सिकंदर को

सिकंदर-पुरु के युद्ध का जो विवरण इन लेखकों ने दिया है उसके अनुसार युद्ध प्रारम्भ होते ही सम्राट पुरु के (कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके पुत्र के) पहले ही प्रहार से घायल होकर सिकंदर घोड़े से गिर पड़ा, (जस्टिन के अनुसार उसका घोड़ा भी मारा गया), युद्ध तभी समाप्त हो जाता, पर सिकंदर के कुछ वफ़ादार सैनिक किसी प्रकार उसे बचाकर ले गए | इसके बावजूद क्या यह कल्पना की जा सकती है कि सिकंदर जैसे घमंडी और क्रूर व्यक्ति ने पुरु को पराजित करने और बेड़ियों में जकड़ लेने के बाद, और ‘बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए ?‘ जैसे प्रश्न का उत्तर ‘ जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है ‘ जैसे गर्वीले शब्दों में सुनने के बाद पुरु के साथ दया और उदारता का व्यवहार किया होगा ?

भारत में सिकंदर द्वारा अपने शत्रु पुरु के " क्षमादान " की कहानी सुनाने वाले लेखक सिकंदर को महिमा-मंडित करने के चक्कर में यह भूल ही गए कि वे सिकंदर की क्रूरता के ढेरों प्रमाण पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं । यह भी भूल गए कि " क्रूरता " और " क्षमा " परस्पर संचारी नहीं , विरोधी भाव हैं । ऐसा लगता है कि उन्होंने नाटक का कथानक बदल दिया और जो संवाद वास्तव में पुरु के थे, वे सिकंदर से कहलवा दिए ।

सिकंदर के घमंडी, निर्दयी, और क्रूर व्यवहार के अलावा इस प्रकार की शंका करने के अन्य भी अनेक कारण हैं । ये ही लेखक बता चुके हैं कि सिकंदर ने जिस भी स्थान को जीता , उसे उजाड़ दिया, तो फिर भारत इसका अपवाद कैसे बन गया ? इन्ही लेखकों ने यह भी लिखा है कि सिकंदर तो अभी और आगे जाना चाहता था, पर उसकी सेना ने साथ देने से इनकार कर दिया क्योंकि वह युद्ध करते - करते थक गई थी, ऊब गई थी और उसे घर की याद सताने लगी थी । अतः उसने विद्रोह कर दिया और सिकंदर को वापस जाने का निश्चय करना पड़ा । आश्चर्य होता है कि जो सेना " विश्व - विजय " के लिए निकली थी, जो बराबर विजय प्राप्त करती जा रही थी, और इस प्रकार सफलता जिसके कदम चूम रही थी, वह (पुरु से युद्ध करने के बाद, और ध्यान रखिए कि यह युद्ध " महाभारत " की तरह कोई अठारह दिन नहीं, एक दिन, केवल एक दिन हुआ था, उसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि सेना एकाएक थकान का अनुभव करने लगी, ऊब गई, उसे घर की याद सताने लगी और वह भी इस बुरी तरह कि विजय - अभियान बीच में ही छोड़कर वापस जाने के लिए "विद्रोह" पर आमादा हो गई ? इस एक दिन से पहले तो थकान, ऊब, घर की याद की कोई चर्चा नहीं की गई ! थकान और ऊब विजयी व्यक्ति को सताती है या हारे हुए को ? कहीं ये विवरण अपने गर्भ में सिकंदर की पराजय की कहानी तो नहीं छिपाए बैठे हैं ?

फारसी  साहित्य

एक ओर तो यूरोपीय लेखकों के परस्पर विरोधी विवरणों में ही अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो तरह - तरह की शंकाओं को बल प्रदान करते है, तो दूसरी ओर कतिपय अन्य स्रोतों से मिलने वाली जानकारी से भी चित्र कुछ और ही उभरता है। फारसी के प्रसिद्ध कवि और इतिहासकार " फिरदौसी " (940–1020) ने ईरान के शासकों का सिलसिलेवार इतिहास अपनी प्रसिद्ध कृति "शाहनामा" में लिखा है । इसमें प्रसंगवश भारत पर सिकंदर के आक्रमण की चर्चा करते हुए उसने लिखा :

सिकंदर बद-- ऊ गोफ्त कय नामदार

दो लश्कर शेकस्तः शुद अज कारज़ार

हामी दामो - ददे मगज़े मर्दुम खरद

हमी नअले - अस्प उस्तुखान बेस्परद

दो मर्दीम हर दू देलीरो जवान

सुखनगूयो वा मगज दू पहलवान

(शाहनामा भाग 7, शाहनामा प्रेस, मुंबई ; 1916; पृष्ठ 81)

अर्थात युद्ध में अपनी सेना का विनाश देखकर सिकंदर व्याकुल हो गया। उसने राजा पुरु से विनीत भाव से कहा, हे मान्यवर ! हम दोनों की सेनाओं का नाश हो रहा है। वन के पशु सैनिकों के भेजे नोच रहे हैं और घोड़ों की नालों से उनकी हड्डियाँ घिस गई हैं। हम दोनों वीर योद्धा और बुद्धिमान हैं। इसलिए सेना का विनाश क्यों हो और युद्ध के बाद उनको नीरस जीवन क्यों मिले ?

ज़रा विचार कीजिए, ऐसे शब्द युद्ध जीतने वाला कहेगा या हारने वाला ?

थियोपिक  टेक्स्ट  :

फारसी के अतिरिक्त अन्य प्राचीन भाषाओं में भी ऐसी सामग्री मिलती है जो यूरोपीय लेखकों द्वारा प्रचारित किए गए तथ्यों से मेल नहीं खाती। इथियोपिया (अफ्रीका) में सिकंदर से संबंधित विभिन्न लेखकों के लिखे कतिपय ग्रन्थ मिले हैं जो इथियोपियाई, अरबी, हिब्रू आदि भाषाओं में हैं। इन्हें ब्रिटिश म्यूजियम के बहु -भाषाविद सर अर्नेस्ट अल्फ्रेड वालिस (1857- 1934)  ने " The Life  and Exploits  of  Alexander  the  Great " , प्रकाशक : सी जे क्ले एंड संस, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस वेयरहॉउस, लन्दन, 1896) नाम से अंग्रेजी अनुवाद सहित संपादित किया है। इसे " इथियोपिक टेक्स्ट " भी कहते हैं। इसके एक ग्रन्थ के अनुसार अपने साथियों को मरते देख सिकंदर के सैनिकों ने शस्त्र फेंक कर शत्रु (पुरु) की ओर जाना चाहा । सिकंदर स्वयं बड़े संकट में था। अपने सैनिकों के इरादे का पता चलते ही वह युद्ध रोकने की आज्ञा देकर इस प्रकार विलाप करने लगा, ओ भारतीय सम्राट ! मुझे क्षमा कर। मैं तेरा शौर्य और बल जान गया हूँ। अब यह विपत्ति मुझसे सहन नहीं होती। मेरा हृदय पूरी तरह दुखी है। इस समय मैं अपना जीवन समाप्त करने की इच्छा करता हूँ। परन्तु मैं नहीं चाहता कि ये जो मेरे साथ हैं वे बरबाद हो जाएँ क्योंकि मैं ही वह व्यक्ति हूँ जो इन्हें यहाँ मृत्यु के मुख में ले आया हूँ। यह एक राजा के लिए किसी भी प्रकार उचित नहीं है कि वह अपने सैनिकों को मौत के मुंह में धकेल दे (पृष्ठ 123) । यह ध्यान देने योग्य है कि यूनानी इतिहासकार एरियन ने स्वीकार किया है कि ‘युद्ध कला में भारतीय अन्य तत्कालीन जनगणों से अत्यंत श्रेष्ठ थे । ‘

सिकंदर की भारत विजय की जो कहानी " प्रामाणिक " बताकर हमें सुनाई जाती है, ये विवरण उससे मेल नहीं खाते। उधर सिकंदर की वापसी यात्रा की जो कहानी बताई जाती है, उसमें भी कई असंगतियाँ हैं। जिस मार्ग से वह आया था, उससे वापस नहीं गया। उसने सेना को दो भागों में (कुछ लेखकों के अनुसार तीन भागों में) बाँट दिया । एक बेड़ा अपने सेनापति निआरकस को सौंप दिया और उसे जलमार्ग से वापस जाने का आदेश दिया। दूसरा बेड़ा अपने साथ रखकर मकरान के मरुस्थल के अत्यंत दुर्गम मार्ग से जाने का निश्चय किया।

सिकंदर की इस यात्रा का वर्णन एरियन ने काफी विस्तार से और बड़ी करुण भाषा में किया है। उसने लिखा है कि झुलसाने वाली गर्मी और पानी के अभाव ने सिकंदर को , उसके सैनिकों और पशुओं को मौत के मुंह में धकेल दिया। रेत के टीलों पर चढ़ना-उतरना, उसमें पशुओं और सैनिकों का दब कर मर जाना जैसी असह्य विपदाएं थीं। वे जहाँ रसद के लिए रुकते थे, वहां विरोध का सामना करना पड़ता था। अनेक स्थानों पर तो सैनिकों को जान बचाकर भागना पड़ता था (यह विश्व विजेता होने का परिणाम था या हार कर भागने का प्रमाण ?) रसद के अभाव में वे अपने ही पशुओं घोड़ों, खच्चरों आदि को मार कर उनका खून पी जाते और मांस खा जाते । दिखावा यह करते कि ये पशु भूख-प्यास और थकान से मरे हैं । रास्ते में जो भी सैनिक या पशु थक कर गिर जाते, वे वहीँ तड़प कर मर जाते । कोई भी किसी की सुध नहीं लेता था। जहाँ कहीं पानी दिखाई पड़ता था तो प्यास के मारे वे उसमें कूद पड़ते थे और इतना अधिक पानी पी जाते कि वहीँ मर जाते। उनकी लाशों से वह पानी भी पीने लायक नहीं रहता। कुछ लोग थकान के कारण अगर रास्ते में एक ओर आराम करने को रुक जाते तो बाद में राह भटक कर भूख से मर जाते। कहीं उन्हें ऐसी जगह डेरा डालना पड़ा जहाँ रात में एकाएक बाढ़ आ गई। फलस्वरूप तमाम सामान, पशु और सैनिक बह गए। भाड़े के अनेक सैनिक तो रास्ते में साथ छोड़कर ही चले गए।

उधर निआरकस और उसके साथ जो सेना थी, उसकी भी दुर्गति हुई। रसद प्राप्त करने के लिए उसने जहाँ-जहाँ लंगर डालने की कोशिश की, उनमें से अनेक स्थानों पर उसके सैनिकों की जान जोखिम में पड़ गई और बिना रसद लिए ही उसे भागना पड़ा (क्या यह सचमुच विश्वविजयी सेना थी ?) निआरकस की बहुत बुरी हालत हो गई थी। उसकी तमाम सेना नष्ट हो गई। जब वह अपनी नावों को लेकर यहाँ-वहां भटक रहा था, तब उसे किसी प्रकार फारस और ओमान की खाड़ी के मध्य स्थित हरमुज में अनामिस नदी के किनारे लंगर डालने का अवसर मिला। उधर सिकंदर ने एक टुकड़ी निआरकस की खोज-खबर के लिए लगा रखी थी जो अभी तक कहीं भी निआरकस से संपर्क नहीं कर पाई थी। संयोग से हरमुज में उनका आमना-सामना हो गया, पर वे एक - दूसरे को पहचान नहीं सके । बस यही लगा कि ये हमारे जैसे ही लग रहे हैं। जब निआरकस ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तो उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम निआरकस और उसके बेड़े की तलाश में हैं। तब निआरकस ने स्वयं कहा कि मैं ही निआरकस हूँ । मुझे सिकंदर के पास ले चलो। मैं मिलकर सिकंदर को सारा हाल सुनाऊंगा।

सैनिकों को कुछ देर तक तो भरोसा ही नहीं हुआ कि यह हमारा सेनापति निआरकस ही है। अपना संतोष कर लेने के बाद जब वे उसे अपने साथ ले गए और निआरकस का सिकंदर से सामना हुआ तब वे भी एक-दूसरे को नहीं पहचान सके। बहुत देर तक एक-दूसरे को घूरते रहे और पहचानने की कोशिश करते रहे। जब पहचान पाए तो फूट पड़े और बहुत देर तक रोते रहे। भारत आने की भूल पर पछताते रहे और अपने भाग्य को कोसते रहे (भारत आने की भूल ? और उस पर पछतावा ?) एरियन के इस विवरण से मन में एकाएक यह प्रश्न उठाता है कि सिकंदर भारत में जीता था या हारा था ? अगर जीता था तो पछतावा किस बात का ? क्या जीतने के बाद भी कोई अपने भाग्य को कोसता है ?

सिकंदर का विलाप और: पश्चात्ताप

प्लूटार्क ने सिकंदर के विलाप का वर्णन करते हुए लिखा है ,” भारत में मुझे हर स्थान पर भारतवासियों के आक्रमणों और विरोध का सामना करना पड़ा (( …among the Indians I was everywhere exposed to their blows and the violence of their rage….) उन्होंने मेरे कंधे घायल कर दिए, गान्धारियों ने मेरे पैर को निशाना बनाया, मल्लियों (मालव जाति के लोगों) से युद्ध करते हुए एक तीर सीने में घुस गया और गर्दन पर गदा का ज़ोरदार हाथ पड़ा ........ भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया और ये सब मुझे विख्यात प्रतिद्वंद्वियों से नहीं, अज्ञात बर्बर लोगों के हाथों सहना पड़ा "(…....Fortune thus shut me up , not with antagonists of renown but with unknown barbarians …) । यह भारत को जीतने वाले का अपनी उपलब्धियों पर गर्व से किया गया यशोगान है या हारे हुए का स्यापा ?

क्या इन सारी घटनाओं का और सिकंदर के स्वभाव का विवरण पढ़ने के बाद भी आपको लगता है कि सिकंदर और पुरु के युद्ध का जो विवरण हमें बताया जाता है, वह सच है ? या प्रचलित कहानी के विपरीत ऐसा लगता है कि पुरु के साथ युद्ध में सिकंदर हारा होगा, पकड़ा गया होगा, बेड़ियों में जब उसे पुरु के समक्ष लाया गया होगा तो पुरु ने उससे पूछा होगा, बता, अब तेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाए। घमंडी सिकंदर ने कहा होगा, “ जैसा एक राजा दूसरे राजा से करता है। “ इस उत्तर के बावजूद,  भारतीय परम्परा के अनुरूप पुरु ने उसे क्षमा कर दिया होगा। प्रतीकात्मक दंड के रूप में उससे भारत का ही वह प्रदेश मुक्त करा लिया होगा जो वह अब तक जीत चुका था। संभव है उससे यह संकल्प भी कराया हो कि अब किसी राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा और इसे सुनिश्चित करने के लिए ही उसे अपनी सेना को दो भागों में बांटकर वापस जाने के लिए विवश किया होगा।

यह तथ्य तो अब सर्वविदित है कि यूरोप की हर बात को मानव जाति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सिद्ध करने के दुराग्रह के कारण यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत के इतिहास के साथ बहुत छेड़ - छाड़ की है। अतः सत्यान्वेषी इतिहासकारों से अनुरोध है कि इस सम्बन्ध में तटस्थ दृष्टि से विचार करें।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: सिकंदर की पराजय - डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री
सिकंदर की पराजय - डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री
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