मानव अधिकार – विचार और व्यवहार // डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

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जब से मनुष्य ने जन्म लिया है, मनुष्य होने के नाते, मानव अधिकार उसे स्वत: प्राप्त हैं. इसके लिए उसे किसी कानूनी या संवैधानिक पुष्टि की आवश्यक...

जब से मनुष्य ने जन्म लिया है, मनुष्य होने के नाते, मानव अधिकार उसे स्वत: प्राप्त हैं. इसके लिए उसे किसी कानूनी या संवैधानिक पुष्टि की आवश्यकता नहीं है. मानव अधिकार मनुष्य की गरिमा और प्रतिष्ठा की ओर संकेत करते हैं, जिसका उसपर जन्मजात अधिकार है. व्यक्ति या समाज द्वारा जो भी कार्य मानव गरिमा के विरुद्ध होता है, मानव अधिकार का उल्लंघन है. सच तो यह है कि मानव अधिकार को बताने या परिभाषित करने की आवश्यकता ही नहीं है. ये अधिकार मूलभूत अधिकार हैं और इनके अस्तित्व या इनकी अनिवार्यता को प्रमाणित करने के लिए किसी कानूनी या संवैधानिक या लिखित दस्तावेज़ की ज़रुरत नहीं है. मानव अधिकारों की सूची में वे सभी अधिकार आ जाते हैं जो एक मानव प्राणी को एक अच्छा जीवन जीने के लिए ज़रूरी हैं. इनमें एक ओर वे अधिकार हैं जो उसकी स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की भावना से सम्बंधित हैं और दूसरी ओर वे अधिकार हैं जो उसे उचित भोजन, वस्त्र और रिहायशी की सुविधा देते हैं ताकि मनुष्य मानवी गरिमा से रह सके.

‘मानव अधिकार’ का यह संप्रत्यय आधुनिक सोच का ही परिणाम है. इसकी बात यूरोप में सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में सबसे पहले उठी थी जब वहां के लोगों ने सामंती तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष करना आरम्भ किया था. अंगरेज़ दार्शनिक जाँन लाक ने सबसे पहले ‘प्राकृतिक अधिकारों’ (natural rights) के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा कि हर व्यक्ति का यह स्वभावगत मानव धर्म है की वह राजा के विरुद्ध अपने प्रकृतिदत्त अधिकारों के लिए दावा करे और मानव होने की अपनी गरिमा की रक्षा करे . बाद में इंगलैंड, अमेरिका और फ्रांस में इन अधिकारों की पहचान की गई. अमेरिका के प्रेसिडेंट रूजवेल्ट ने १९४१ में अपनी ‘चार-स्वतंत्रताओं’ (four freedoms) की उद्घोषणा में इन्हीं अधिकारों को प्रतिबिंबित किया. ये घोषणाएं थीं – (अ) बोलने की स्वतंत्रता (ब) धर्म की स्वतंत्रता (स) गरीबी से मुक्ति और (द) भय से मुक्ति. इतना ही नहीं, अपने सन्देश में उन्होंने कहा था, स्वतंत्रता का अर्थ हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्चता से है.

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘मानव अधिकारों के घोषणा पत्र’ में स्पष्ट कहा कि सभी मनुष्य स्वतन्त्र जन्में हैं और सभी अपने अधिकारों और अपनी गरिमा में बराबर हैं. सभी में विवेक और अंत:करण है, अत: सभी के प्रति भाईचारे का बरताव हो. इस घोषणा-पत्र में अनेक धाराएं हैं जो विस्तार से मानव अधिकारों और उनके उल्लंघन का उल्लेख करती हैं. मानव अधिकारों में से मुख्य कुछ इस प्रकार हैं – (१) जीने का अधिकार, (२) स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार (३) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार (४) कानून के सामने सब की बराबरी का अधिकार (४) भोजन का अधिकार (५) जीविका के लिए काम का अधिकार (५) शिक्षा का अधिकार (६) सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, (७) निजता की रक्षा का अधिकार (८) स्वतन्त्र रूप से विवाह के लिए अपने जीवन साथी को वरण करने का अधिकार इत्यादि. इसी प्रकार दास या गुलाम की तरह किसी व्यक्ति को रखने की प्रथा, किसी से भी अमानवीय और क्रूर बरताव करने की छूट, स्त्रियों बच्चों और विकलांगों के प्रति दुर्व्यवहार आदि, मानव अधिकार के उल्लंघन हैं.

भारत के संविधान में यद्यपि मानव अधिकारों का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, किन्तु संविधान के भाग ३ में ‘मूलभूत या मौलिक अधिकारों’ के रूप में वे विद्यमान प्रतीत होते हैं. मौलिक अधिकार मानव जींवन के बहुमुखी विकास की नितांत आवश्यक शर्तें हैं. भारतीय संविधान अपने नागरिकों को अत्यंत महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार प्रदान करता है. संविधान के १२ से ३८ तक के समस्त अनुच्छेद मौलिक अधिकारों का वर्णन करते हैं. इनके अनुसार निम्न-लिखित अधिकार दी गए हैं : - समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार. ये अधिकार नागरिकों की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी गारंटी हैं. इन सभी अधिकारों में लोकतंत्रीय भावना परिलक्षित होती है. इन अधिकारों या नागरिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण की अवस्था में उनकी रक्षा के लिए न्यायालय की शरण लेने का प्रत्येक नागरिक को अधिकार है. न्यायालय मौलिक अधिकारों का संरक्षक है.

अधिकारों में कर्तव्य निहित होते हैं. पहले जब हमारे गणतंत्र में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया था तो यह मान लिया गया था कि अधिकारों में कर्तव्य सहज रूप से निहित हैं हीं. पर बाद में देखा गया कि अधिकारों का सरासर दुरुपयोग हो रहा है. अत: निर्णय लिया गया की कर्तव्यों को भी अपने संविधान में स्पष्ट कर दिया जाए. इसीलिए नवम्बर १९७६ में संविधान के ४२ वें संशोधन को पारित कर दस मौलिक कर्तव्यों का समावेश किया गया ताकि अधिकारों और कर्तव्यों के सम्बन्ध सुस्पष्ट हो जाएं, और भारतीय गणतंत्र और राष्ट्रीय हित को किसी प्रकार का आघात न पहुंचे.

भारतीय गणतंत्र में एक महत्वपूर्ण विशेषता उसके संविधान में नीति-निदेशक तत्वों का समावेश भी है. इसमें अवकाश संबंधी, न्यूनतम मज़दूरी संबंधी, अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा संबंधी और सामाजिक-आर्थिक सिद्धांतों का उल्लेख है. नीति निदेशक तत्वों में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना निहित हैं. ये वे आदर्श हैं जिनको ध्यान में रखना मानव अधिकारों को पुष्ट करना है.

हमारा संविधान प्रत्यक्षत: और अप्रत्यक्षत: मानव अधिकारों का समर्थन करता है. परन्तु हमारे समाज में अभी तक सामंती सोच विद्यमान है और मानव अधिकारों के प्रति उदासीनता और कभी कभी उनकी घोर अवहेलना परिलक्षित होती है. इसका एक कारण शायद यह है कि हमें संवैधानिक रूप से मानव अधिकारों को प्राप्त करने के लिए कोई विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ा. आधुनिक मानसिकता वाले हमारे संविधान निर्माताओं ने उन्हें हमारे अर्ध सामंती समाज पर पीछे से लाकर मानों लाद दिया. परिणाम यह हुआ कि ये अधिकार यद्यपि ‘किताब’ में मौजूद हैं किन्तु देश के अनेक हिस्सों में इनके प्रति पूर्ण उदासीनता है, और इनका आपराधिक उल्लंघन धड़ल्ले से किया जाता है.

उदाहरण के लिए, संविधान की धारा 21 के अनुसार पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति से तीसरे डिग्री के हिंसक ढंग से बरताव करना पूरी तरह गैर कानूनी और अनुचित है किन्तु इसके बावजूद हम सभी जानते हैं कि वास्तव में पुलिस चौकियों में क्या नहीं होता ! झूठी मुठभेड़ें आए दिन का किस्सा है. अक्सर कैदी को इतना मारा-पीटा जाता है की वह विकलांग हो जाता है और कभी कभी अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है. स्वतंत्रता का अधिकार और जीवित रहने का अधिकार का कोई मतलब ही नहीं रहता.

कहीं कहीं अर्ध सामंती सोच इतना हावी रहता है कि अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने का अधिकार निरर्थक बना दिया जाता है. कई वर्गों और जगहों पर यह अधिकार जैसे विद्यमान ही नहीं है. तथाकथित ‘ऑनर-किलिंग’ के न जाने कितने किस्से अखबारों में पढ़ने और सुनने को मिलते हैं. अपने ही परिवार के सदस्य –मातापिता तक- अपनी झूठी इज्ज़त की रक्षा के लिए अपने ही बच्चों को निर्दयता से मार डालते हैं. उनके लिए जीवन-साथी के स्वतन्त्र-वरण का अधिकार और जीवित रहने का अधिकार का कोई अर्थ ही नहीं है.

स्त्रियों की हालत तो मानव अधिकार के सम्बन्ध में और भी बुरी है. भारत के अधिकतर परिवारों में लिंग-भेद एक सामाजिक नियम की तरह व्याप्त है. कहीं कहीं तो लड़की के पैदा होने पर परिवार में बाकायदा शोक मनाया जाता है. हमारे संविधान की धारा १५(१) स्त्रियों के विरुद्ध भेद भाव का पूरी तरह निषेध करती है किन्तु ज़मीनी हकीकत कुछ अलग ही है. लड़की के जन्म के साथ ही भेद-भाव शुरू हो जाता है. प्रसूति गृह के किसी भी अधिकारी डाक्टर से आप बात करें वह आपको बताएगा की जहां लडके के जन्म पर परिवार के लोग अस्पताल में मिठाइयां बाँटते हैं वहीं लड़की के पैदा होते ही परिवार जनों के चेहरे पर निराशा छा जाती है, चेहरे उतर जाते हैं, मानों उनपर बड़ी भारी त्रासदी घटित हो गई हो. यह भेदभाव जन्म के बाद भी निरंतर बना रहता है. लडके की अपेक्षा लड़की की बराबर अवहेलना की जाती है. उसकी शिक्षा पर अपेक्षाकृत कम पैसा खर्च किया जाता है और कम ध्यान दिया जाता है. उस पर तरह तरह के प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं. उसकी प्रकृति दत्त आजादी पर, खेलने खाने पर, कड़ा नियंत्रण रखा जाता है. इधर हाल में पत्नी की पिटाई के प्रकरण बढ़ते ही जा रहे हैं. इसके अलावा स्त्रियों के विरुद्ध दुष्कर्म, दहेज़ हत्याओं आदि मामलों से भी अदालतें भरी पडी हैं. यह बात है यदि लड़की जन्म ले ले उसके बाद की. कई इलाकों और कबीलों में तो लड़की का जन्म ही लेना दुश्वार है. उसे जन्म लेते ही मार दिया जाता है. आज तो यह जन्म से पहले लिंग की पहचान कर और भी आसान हो गया है. लड़की की भ्रूण ह्त्या कर दी जाती है और इसमें छिपे-चोरी डाक्टरों की भी मिली-भगत रहती ही है. हमारी सरकार इस दिशा में अब कुछ सख्त हुई है, और लड़कियों के जीने के अधिकार और उन्हें उचित बरताव देने के लिए सतर्क दिखाई देने लगी है.

जिस तरह स्त्रियों के अधिकार मानव अधिकार का ही एक हिस्सा हैं उसी तरह बच्चों के अधिकार भी हैं. किन्तु हमारे समाज में बच्चों के अधिकारों की भी अनदेखी कुछ कम नहीं है. हमारे देश में अनुमानत: एक लाख पैंसठ हज़ार बच्चे घरेलू नौकरों की तरह काम करते हैं और उनका बचपन पूरी तरह से छीन लिया गया है. उनके खेलने और खाने पर कड़े प्रतिबन्ध हैं. अनेकानेक बच्चे खतरनाक वातावरण में काम करके रोटी रोजी कमाते हैं. उन्हें मज़दूरी भी कम दी जाती है. बच्चों के अधिकारों के प्रति जागरूकता की हमारे समाज में अत्यंत कमी है. शासन के साथ जबतक समाज सहयोग नहीं करे इससे पार पाना बहुत कठिन है. हाल ही में ऐसे कई प्रकरण सामने आए हैं जिनमें अवयस्क घरेलू नौकरों की तथाकथित सम्मानित परिवारों में कथित तौर से निर्ममता से ह्त्या तक कर दी गई है. यह सब सामंती प्रवृत्ति का द्योतक है. लड़का हो या लड़की, उसे जीने का, संरक्षण का, परस्पर मिलने-जुलने का, शिक्षा और मनोरंजन का, एक शब्द में, उसके विकास का अधिकार बच्चों के मानव अधिकार हैं जिनकी अनदेखी, ज़ाहिर है, समाज के भी अहित में ही है.

जीने का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, भेद भाव से रहित समानता का अधिकार तो मानव अधिकार हैं हीं, लेकिन भूख और भय से मुक्ति, बदन को ढंकने के लिए वस्त्र और उचित रहने का स्थान भी मानव अधिकार के अंतर्गत ही आते हैं क्योंकि इनके अभाव में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की भावनाओं का कोई अर्थ नहीं रह जाता. इनके अभाव में मानव गरिमा समाप्त हो जाती है. ‘रोटी कपड़ा और मकान’, जैसा कि लोकप्रिय मुहावरा है, आदमी की आधारभूत आवश्यकता है. इसके बिना वह जी ही नहीं सकता. स्वतंत्रता, समानता आदि की बात तो बाद की बातें हैं. एक साधारण और अच्छा जीवन बिताने के लिए आदमी की सबसे पहली आवश्यकता भोजन है. भारत में आज न जाने कितने लोग भूखे सो जाते हैं. अक्सर भूख से मौतें भी प्रकाश में आई हैं. इसी तरह कुछ लोगों के पास कपड़ों का नितांत अभाव भी है. सैकड़ों लोगों के सर पर कोई छाया नहीं है. जब तक रोटी कपड़ा और आश्रय सभी को नहीं मिलता और इसका अभाव रहता है मानव अधिकार केवल हवाई बात भर रह जाती है. अत: हमारे राष्ट्र का मुख्य उद्देश्य गरीबी, बेरोज़गारी, अज्ञान और बीमारियों को दूर करना है ताकि एक आधुनिक, शक्तिशाली औद्योगिक राज्य की स्थापना हो सके जिसमें मानव अधिकारों की कद्र हो. सरकार तो खैर अपना काम करेगी ही, किन्तु इस दिशा मे जन जागरण भी बहुत ज़रूरी है ताकि हमारी अर्ध-सामंती वृत्तियों का खात्मा हो सके और हम मानव अधिकारों का सम्मान कर सकें.

– डा. सुरेन्द्र वर्मा (मो. ९६२१२२२७७८) / १०, एच आई जी, / १, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद -२११००१

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रचनाकार: मानव अधिकार – विचार और व्यवहार // डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
मानव अधिकार – विचार और व्यवहार // डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
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