(कहानी) मुंह की मिठाई - अंकुश्री

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मुकेश बाबू अपनी इकलौती बेटी शीला की शादी के लिये बहुत परेशान थे. किसी लड़का वाले के यहां से निराश लौट कर आये थे. अपनी पत्नी से बात कर रहे थे....

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मुकेश बाबू अपनी इकलौती बेटी शीला की शादी के लिये बहुत परेशान थे. किसी लड़का वाले के यहां से निराश लौट कर आये थे. अपनी पत्नी से बात कर रहे थे. तभी गांव से एक आदमी आ गया. आने वाले ने कहा, ''महेन्द्र चाचा का कल रात देहांत हो गया. . . . लाश अभी तक रखी हुई है. . . ''

''अरे, अभी तक दफनाया नहीं गया ?'' मुकेश बाबू की पत्नी रुक्मिणी को आश्चर्य हो रहा था. ससुर को मरे हुए बीस घंटे हो गये थे और अभी तक लाश पड़ी हुई थी. बात चिंता की थी.

''उन्हें कैसे दफनाया जा सकता है ? अभी तक किसी के पहुंचने का ठिकाना नहीं है. कम से कम सभी बेटे-बेटियां तो पहुंच जायें.''

मरने के तीसरे दिन शाम तक दो बेटे पहुंच पाये, एक बेटा नहीं पहुंच सका, जिसके इंतजार में रात हो चली थी. क्या किया जाये ? तय हुआ कि श्मशान दूर है, अंधेरी रात में जाना उचित नहीं है, दूसरे दिन दफनाया जायेगा.''

गांव में लोगों की भीड़ जुटी हुई थी. मगर उसमें करने वाले कम थे, एक-दूसरे का मुंह देखने वाले अधिक थे. इंतजाम-बात करते दूसरे दिन भी ग्यारह बज गया. श्मशान घाट वहां से पच्चीस किलो मीटर दूर था. ट्रक ठीक कर लोग घाट पहुंचे. वहां लकड़ी खरीदने और साथ गये गांव के पंडित तथा घाट के डोम से विधि-विधान कराते एक बज गया. तब जाकर चीता में आग लगी. बगल में ही विद्युत शवदाहगृह भी था, जहां आधे घंटे में लाश जल कर भस्म हो जाती. मगर गांव का कोई व्यक्ति उसमें लाश दफनाने के पक्ष में नहीं था. उनका कहना था कि अंतिम संस्कार खुले आकाश तले चीता सजा कर ही पूरा किया जा सकता है, किसी कमरे के अंदर बने शवदाह मशीन से नहीं.

लाश जलते-जलते तीन घंटा लग गया. चीता की राख नदी में प्रवाह करने और उसके बाद के रस्मों को पूरा करते-कराते अंधेरा हो गया. अंतिम संस्कार में आये हुए सभी लोगों ने नदी के दूसरे घाट पर स्नान कर शरीर शुद्ध किया. जाड़े का मौसम, रात का समय, नदी में नहाने वालों के दांत कटकटाने लगे. वापसी यात्रा में खुले और तेज रफ्तार ट्रक में लोगों को जोरों से ठंड लगने लगी. एक घंटे में ट्रक गांव पहुंच जाता. मगर कुछ दूर आगे जाने के बाद ट्रक को एक होटल के सामने रोक दिया गया. गांव के हरगोविंद लाल ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ''रीति-रिवाज का पालन किये बिना मृतात्मा को मुक्ति नहीं मिल सकेगी.'' इसलिये मंजिल में जाने वालों को खिलाना जरूरी था. परम्परा के अनुसार सभी को मृतक के परिवार के खर्च से ही भोजन करना था. उसके बाद ट्रक गांव पहुंचा और लोग अपने-अपने घरों को गये.

मृतात्मा की शांति के लिये दशकर्म और श्राद्ध किया गया, जिसमें दान-दक्षिणा और महाभोज का प्रावधान था. बात परम्परा और संस्कार की थी. मुकेश बाबू उसमें थोड़ी भी कमी नहीं करना चाहते थे. पूरे अहल-दिहल से यज्ञ संपन्न हुआ. अंतिम संस्कार, दशकर्म और श्राद्ध में बड़ा बेटा होने के नाते मुकेश बाबू के काफी रुपये खर्च हो गये.

जब मुकेश बाबू सब कर-कराके शहर वापस आये तो मन की शांति आर्थिक दबीश से बाधित होने लगी. उन्हें लग रहा था कि वे कोई बहुत बड़ी बाजी हार गये हों. जितना रुपये वे खर्च कर आये थे, उसकी भरपायी बहुत आसान नहीं थी. यही नहीं, कुछ रुपये उधार भी हो गये थे जो अलग चिंता का विषय बना हुआ था.

थोड़ा स्थिर होते मुकेश बाबू को फिर बेटी की शादी की चिंता सताने लगी. यह बात सही थी कि उनकी बेटी जवान हो गयी थी, लेकिन उनकी परेशानी का बड़ा कारण गांव वालों की टोकाटोकी था. गांव का आदमी अपने काम से शहर आता था तो वह उनके घर भी पहुंच जाता था. ऐसा इसलिये कि वह महेश बाबू को उनकी बेटी की शादी की याद करा सके. गांव से आये व्यक्ति को नाश्ता-खाना करना ग्रामीण होने के नाते उनका परम अधिकार था. गांव से आया व्यक्ति जाते समय यह ताकीद अवश्य करता था कि इस लगन में किसी तरह बेटी की शादी अवश्य कर दें. उनकी बात सुनने से लगता था कि मुकेश बाबू अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहते हैं और उसकी चिंता सिर्फ गांव से आये हुए उसी व्यक्ति को है. पिता के श्राद्ध के समय भी उनके कान में बात आयी थी कि घर में जवान बेटी रखे हुए हैं और उसकी शादी नहीं कर रहे हैं. यह बात दीगर है कि बेटी की शादी तय करने में किसी गांव वाले का कोई सहयोग नहीं मिला था और शादी तय हो जाने के बाद भी किसी से कोई सहयोग की उम्मीद नहीं थी.

शीला को शहर के एक निजी विद्यालय में पढ़ाने का काम मिल रहा था. मगर रुक्मिणी के लाख चाहने पर भी गांव वालों के डर से महेश बाबू ने उसे वह काम नहीं करने दिया था. रुक्मिणी को याद है कि जब वह ब्याह कर आयी थी तो नौकरी का बहुत प्रयास की थी, ताकि घर चलाने में कुछ आर्थिक सहयोग कर सके. लेकिन बहुत प्रयासों के बावजूद उसे कुछ नहीं करने दिया गया था. वही स्थिति शीला के समक्ष भी आ गयी थी. शीला को शिक्षित बनाने में ही रुक्मिणी को कम बेलन नहीं बेलने पड़े थे. मुकेश बाबू की नज़र में बेटी को शिक्षित करने का मतलब उसे शादी के योग्य बनाना था.

बेटी की शादी में संभावित खर्च की चिंता के साथ ही योग्य लड़के की तलाश में भी वे काफी चिंतित थे. जिस लड़का वाले के यहां जाते थे, नकद और सामानों की मांग की जाती थी. उन्हें समझ में नहीं आता था कि वे क्यों करें. चिंता से वे घुले जा रहे थे. उन्हें भोजन में कोई स्वाद नहीं लगता था. जो कुछ खाते भी थे वह उनकी देह में नहीं लग पाता था. चिंता से चतुराई घटे वाली बात उन्हें मालूम थी, फिर भी वे चिंता से मुक्त नहीं हो पा रहे थे.

मुकेश बाबू के साथ ही रुक्मिणी भी शीला की शादी के लिये चिंतित थी. वह एक लड़के को जानती थी, जिसका नाम सुशील था और जो बैंक में पी0 ओ0 था और जो खाते-पीते परिवार से था. उसके शहर में दो-दो मकान थे - एक पुस्तैनी और दूसरा स्वयं उसके द्वारा बनवाया हुआ. सुशील और उसके परिवार वालों ने शीला को पसंद भी कर लिया था. परिवार के लोग लड़की के गुणों से बहुत प्रभावित थे. दोनों की जोड़ी हर तरह से ठीक थी. रूप, रंग, ऊंचाई, स्वास्थ्य, व्यवहार सब मिल रहे थे. लेकिन दोनों में एक भिन्नता थी. वह थी जाति की. दोनों अलग-अलग जाति के थे.

सुशील के परिवार की एक बहुत बड़ी विशेषता थी कि वह बेटे की शादी में दहेज नहीं लेता था और शादी सादे समारोह में संपन्न किया जाता था. रुक्मिणी ने सुशील के माता-पिता से मिल कर शीला की शादी तय कर दी. शादी का दिन भी तय हो गया. मुकेश बाबू को यह सब कुछ भी पता नहीं था. वे दूसरी जाति के लड़के से अपनी बेटी की शादी की बात सपने में भी सोच नहीं सकते थे. जहां कहीं भी लड़के का पता चलता था, वे वहां पांच आदमी को लेकर बात करने जाते थे. गांव के पंडित और हजाम के बिना वे शादी का दिन तय ही नहीं कर सकते थे. यह उनके घर की परम्परा थी, जिससे हट कर कोई काम करने की बात वे करना तो दूर, सोच भी नहीं सकते थे.

मुकेश बाबू एक सप्ताह के लिये गांव गये हुए थे. रुक्मिणी के लिये यह अवसर अच्छा था. वह सुशील के परिवार से जाकर मिली और बात तय कर एक मंदिर में दोनों की शादी करा दी.

जब मुकेश बाबू गांव से आये तो रुक्मिणी उनके पास मिठाई लेकर गयी और बोली, ''एक खुशखबरी है, मुंह मीठा कीजिये !'' वह मिठाई उनके मुंह तक बढ़ा दी थी.

''अरे-अरे क्या बात है ? क्या खुशखबरी है, जरा मैं भी सुनूं ?''

''आप खुशखबरी सुन कर फूले नहीं समायेंगे.'' रुक्मिणी ने कहा, ''शीला का विवाह हो गया. - - -.''

''क्-क्-क्या - - -?'' रुक्मिणी अपनी बात अभी पूरी भी नहीं कर पायी थी कि मुकेश बीच में ही बोल पड़ा. उसके चेहरे पर विश्मय के भाव भर गये थे.

रुक्मिणी ने मुकेश बाबू को आश्वस्त करते हुए कहा, ''शीला की शादी तय हो गयी, आप मुंह मीठा करें.''

''किस लड़के से ?'' रुक्मिणी की बात सुन कर मुकेश बाबू पूरी तरह चौंक गये थे.

''आपको वही तो बता रही हूं.'' रुक्मिणी ने कहा, ''सुशील से. देखा ! मैंने चुटकी में तुम्हारी चिंता समाप्त कर दी ! तुम रात-दिन बेटी की शादी के लिये चिंतित रहा करते थे और दौड़ते-दौड़ते परेशान हो गये थे.''

सुशील का नाम सुन कर मुकेश के चेहरे पर घृणा के भाव दिखाई देने लगे. उसने स्पष्ट करना चाहा, ''कौन सुशील ? वह बैंक का प्रोबेशनरी आफिसर तो नहीं ?''

''हां ! आपने सही पहचाना, वही सुशील.'' रुक्मिणी ने कहा, ''कितना अच्छा लड़का है और कितना सुखी-संपन्न घर-परिवार है !''

''खाक अच्छा और सुखी-संपन्न है !'' बेटी की शादी के लिये वर्षों से चिंतित रहने वाले मुकेश बाबू उसकी शादी हो जाने की खबर सुन कर थोड़ा भी खुश नहीं हुए. उल्टे वे रुक्मिणी पर गुस्साने लगे, ''सुशील हमारी जाति का नहीं है और उससे तुमने अपनी बेटी ब्याह दिया ?''

''यह नहीं कह रहे हैं कि बेटी का विवाह हो गया ?'' रुक्मिणी ने समझाना चाहा, ''आप रात-दिन उसकी शादी के लिये परेशान रहते थे. पैसा-पैसा जोड़ा करते थे कि बेटी की शादी करनी है. आपको पता है, मैंने सिर्फ एक सौ रुपये में बेटी की शादी कर दी. इसमें क्या गलती हो गयी कि आप खुश होने के बदले गुस्सा में आ गये ?''

''बात गुस्साने वाली है ही.'' मुकेश बाबू ने गुस्सा शांत करते हुए उदास मन से कहा, ''अब हम लोग किस मुंह से अपनी जाति वालों के बीच उठ-बैठ सकेंगे ?''

''जरूरत ही क्या है जाति वालों के बीच उठने-बैठने की ?' रुक्मिणी ने कहा, ''तुम दो वर्षों से बेटी की शादी के लिये चिंतित हो. बताओ ! जातिवालों ने क्या किया ? शादी-विवाह के लिये ही जातिवालों का मुंह धरा जाता है. जब ऐसे मौके पर जातिवाले काम नहीं आयेंगे तो हम उनके पीछे क्यों दौड़ें और उनकी परवाह क्यों करें ?''

रुक्मिणी बहुत देर तक महेश बाबू को समझाती रही, जो जातिगत बंधन में संस्कारवश बंधे हुए थे. रुक्मिणी ने कहा, ''जाति का निर्माण समाज की प्रगति के लिये हुआ था, ताकि अपनी जातिगत पेशे के आधार पर उपार्जन कर लोग परिवार का भरण-पोषण कर सकें और उससे समाज को मजबूती प्रदान कर सकें. दूसरी जाति में रिश्ता करने से जाति के पेशेगत हुनर के अभाव में परिवार चलाने में कठिनाई हो सकती है, इसलिये जातिगत विवाह की कट्टरता समाज की आवश्यक मजबूरी थी. विजातीय विवाह से परिवार की आर्थिक प्रगति बाधित हो सकती थी. लेकिन आज की परिस्थिति बिलकुल भिन्न है. आज का व्यवसाय जातिगत आधार पर नहीं टिका हुआ है. जिसे जो मन करता है एवं जो उपयुक्त लगता है, वह वही व्यवसाय अपनाये हुए है.''

''मतलब ? '' रुक्मिणी की बात मुकेश बाबू समझने का प्रयास कर रहे थे.

''मतलब कि आज जो जूता बेचता है, वह चमार नहीं है. जो व्यवसाय में लगा हुआ है, वह वैश्य नहीं है. देश की रक्षा का भार केवल क्षत्रियों के ऊपर नहीं है. ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हासिल करना अब केवल ब्राह्मणों की ठेकेदारी नहीं रह गयी है. . . .''

''अरे वाह ! तुमने तो सचमुच आज मेरी आंखे खोल दी.'' रुक्मिणी की बातें मुकेश बाबू समझ गये थे. उन्होंने उसके हाथ की मिठाई मुंह में डाल ली.

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0 अंकुश्री

प्रेस कॉलोनी, सिदरौल,

नामकुम, रांची(झारखण्ड)-834 010


E-mail : ankushreehindiwriter@gmail.com

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रचनाकार: (कहानी) मुंह की मिठाई - अंकुश्री
(कहानी) मुंह की मिठाई - अंकुश्री
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