काली रात, रक्त बूँदें // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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‘‘अंधे हो क्या?’’ वह अपने कपड़ों को ठीक करते मुझे क्रोध से घूर रहा है। अंदर में जैसे आग लग गई, लेकिन खुद को संभालकर चला जाता हूं। मेरी नजर शो...

‘‘अंधे हो क्या?’’ वह अपने कपड़ों को ठीक करते मुझे क्रोध से घूर रहा है। अंदर में जैसे आग लग गई, लेकिन खुद को संभालकर चला जाता हूं। मेरी नजर शोकेस पर थी, तो अचानक उससे जाकर टकरा गया। इसमें मेरा क्या दोष? मैं तो शोकेस में रखी हुई चीजों को देख रहा था। सामने आते हुए लोगों को देखूं, या शोकेस को? बाजार बहुत ही तंग है। लोगों की इतनी भीड़ से मुझे सख्त नफरत है। लेकिन कर भी क्या सकते हैं। भीड़ में मैं खुद को अकेला और सुरक्षित समझता हूं। कई लोगों में खुद को अकेला समझना कितनी अजीब बात है! कम लोगों में मुझे डर लगता है, और सख्त बेचैनी महसूस करता हूं। इतनी भीड़ से नफरत होते हुए भी मैं अपने दिल में बड़ी बड़ी बिल्डिंगों जितने ठहाके लगाता, मजे से सरकता जाता हूं। कोई औरत पास से निकलती है तो अजीब एहसास उभरते हैं और उसे छूने को मन करता है। लेकिन औरतें मुझसे दूर भागती हैं और खुद को बचाने की कोशिश करती हैं। शायद आगे कोई रुकावट है और लोग आगे ही नहीं बढ़ते। इतने सारे लोग मकौड़ों की तरह बदहवास सरकते जा रहे हैं, उतावलेपन से हर कोई आगे बढ़ना चाहता है। लोग दुकानों में चढ़ और उतर रहे हैं लेकिन मैं तो केवल शोकेस देखना चाहता हूं और देखना भी मेरे लिए कितना कठिन है। ओह यह भीड़! दिल में आ रहा था कि मैं बैल बन जाऊं, और सींग तानकर दौड़ लगाऊं, फिर लोग कैसे न डर के मारे इधर उधर भागेंगे, और अपनी जान बचाने के लिए एक दूसरे को धक्के मारकर, लातों के नीचे रौंदेंगे! मैं सींगों से सभी शोकेस तोड़कर, बंद की हुई चीजों को रास्ते पर गिराकर, फैला दूं, अगर कोई बड़े पेट वाला देखूं तो अपने सींग उसके पेट में घुसा दूं... हा हा हा हू... अपने इस विचार पर मुझे बहुत खुशी महसूस हो रही है। बहाव ने तंग बाजार से निकालकर बड़े शाही रास्ते पर ला दिया है। रास्ते के फुटपाथ से कारों की कतार लगी हुई है। कारें बड़े लोगों की होती हैं, यह हर कोई जानता है, और यह भी कि यहां बड़े लोग शॉपिंग के लिए आते हैं। हर उस कार को जांच परखकर देखता हूं, जो सुंदर लगती है। दूर नई लंबी कार में एक औरत बैठी है-अकेली। कार सुंदर और शानदार है। औरत भी सुंदर होगी। मैं करीब जाकर उछल पड़ता हूं... कार में वह बैठी है! अभी तक वैसी ही सुंदर और छोटी... उसने भी मुझे देखा है, उसकी आँखों में कितनी हैरानी है। अचानक खिड़की से मुंह निकालकर, भरपूर धिक्कार और क्रोध से कहती है, ‘‘खूनी! कातिल!’’

मैं डर गया हूं। उसने जैसे मेरे आगे बम फेंक दिया है। बड़ी मुश्किल से खुद पर कंट्रोल किया है। दिल मजबूत करके, चेहरे पर खौफनाक मुस्कान फैलाकर उसके आगे झुककर कहता हूं, ‘‘लेकिन तुम तो हत्या होने से बच गईं...’’ वह डरकर, हटकर, कोने में दुबककर बैठ जाती है। मैंने उसके फेंके गए फटे बम के टुकड़े उसकी ओर फेंके हैं और दिल खुशी से फूल गई है। मैं झूमता हुआ जाने लगता हूं। थोड़ा आगे चलकर फिर पीछे मुड़कर देखता हूं। वह अभी तक मेरी ओर हैरानी से आँखें फाड़कर देख रही है। पक्का ही समझती होगी कि मैं अपना दिमागी संतुलन खो चुका हूं। मेरे जैसा कंगाल आदमी उसे प्राप्त न कर सका। नहीं, वह पहले से भी ज्यादा सुंदर और गदरायी हुई है। उसने मुझे पहचान लिया। मैं तो वैसे का वैसा ही हूं उल्टे ज्यादा गया गुजरा। लेकिन मैं चाहता हूं कि मुझे कोई न पहचाने। इन बड़े चौड़े रास्तों पर यही डर है कि कहीं कोई पहचान न ले। इसलिए ज्यादा भीड़ और तंग, मुसीबत होते हुए भी मेरे लिए सुरक्षा वाली है या शायद मुझे वीरान अंधेरी गलियां अच्छी लगती हैं और मैं अपना शिकार भी तो इन वीरान गलियों में आसानी से कर सकता हूं। इस चौड़े रास्ते पर इतनी भीड़ नहीं है। केवल टुकड़ियां टुकड़ियां हैं, दो तीन की टुकड़ी या भीड़। मुझे ऐसी टुकड़ियां अच्छी नहीं लगतीं। हर किसी को अकेला अकेला होना चाहिए मेरे जैसा। पता नहीं ऐसे कितने लोग होंगे, जो टुकड़ी में खुद को अकेला महसूस करते होंगे... ऐसे चौड़े रास्तों पर मुझे चलना ही नहीं चाहिए। कोई पहचान लेगा तो! वैसे भी मैं दिन दहाड़े बाजार में नहीं निकलता। पूरा दिन अपनी कब्र में पड़ा रहता हूं। केवल शाम को बाहर निकलता हूं, केवल शोकेस जांचता रहता हूं। यह देखता हूं कि कौन से शोकेस से आज कौन सी चीज निकली है या नई रखी हुई है। ऐसे चौड़े रास्ते पर चलना ठीक नहीं है, यहां शोकेसों को देखते डर लगता है। कहीं कोई व्यक्ति पहचान न ले। लेकिन मैं बेकार ही डर रहा हूं। मेरी किसे खबर है? वह सामने वाली अंधेरी गली ठीक है। मैं वहां घूमकर जाता हूं। औरों को मेरी खबर नहीं है लेकिन वह सब जानती है। कितनी नफरत से खूनी और कातिल कहा। मुझसे डर गई... हा हा हा!... मैंने भी कह दिया कि उसे मेरा शुक्रिया अदा करना चाहिए, नहीं तो ऐसे चक्कर में आ गई थी, कि पूरी जिंदगी पिसती रहती। पता नहीं क्यों उसकी हत्या करना मेरे दिल ने नहीं माना, अच्छा हुआ, बच गई।

मैंने उसे कितना चाहा था, लेकिन मेरी चाहत खूनी थी। मैंने शायद जिंदगी में पहली बार सच कहा था। मैंने उसे सब कुछ बता दिया। मैंने कुछ नहीं छिपाया, कितने विश्वास से, और कितनी उम्मीद से। उस वक्त मैंने चाहा कि वह फिर से मुझे इन्सान बनाए लेकिन सच कहने के बावजूद, मैं यह उससे और अपने आप से धोखा कर रहा था। मैं उसे कोई खुशी नहीं दे पाता। उसकी कोई ज़रूरत, कोई भी इच्छा पूरी न कर पाता। उसे मेरे साथ कब्रिस्तान की वीरानी में रहना पड़ता। वह यह सब सुनकर डर गई। डर के कारण उसके माथे पर पसीना आ गया और पीली पड़ गई और रोने लगी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहकर चुप कराऊं। एक दोषी, जिसने अपने सभी दोष कबूल किए हों, इसलिए ज्यादा कहा भी क्या जा सकता है। वह जल्दी ही समझ गई कि यह सब धोखा है और जाल बिछा हुआ है। उसके दिल में मेरे लिए कितनी नफरत भरी हुई है। लेकिन वह पहले से ज्यादा सुंदर और कमसिन है। उसकी आँखों में शान्ति की नींद है।

मेरे बाल खड़े हो गए हैं। इस अंधेरी और वीरान गली में मुझे किसी की हस्ती महसूस होती है और किसी की आवाज। हवा बंद है। घुटन के कारण सांस उखड़ रही है। मेरे अंदर नफरत और क्रोध की अगिक् जलने लगती है और चैेर खाकर वह अगिक् दिमाग में आ पहुंचती है। नसों के अंदर रक्त जोर से दौड़ रहा है। मेरे हाथों की उंगलियां खिंच जाती हैं और दांत टूट जाते हैं... ‘‘जलील! कमीना!’’ और फिर पल भर में वे हाथ बिजली की गति से उसकी गर्दन के चारों ओर लिपट जाते हैं। तेज सांसें...इधर उधर तड़पना... और फिर अचेत। मैं धीरे धीरे चारों ओर घूरकर देखता हूं। दूर दूर तक वीरानी है। उसकी मौत की तरह। उसकी लाश को उठाकर कंधे पर रखता हूं और अपने कब्रिस्तान की ओर तेज तेज चलता हूं। उसे कब्रिस्तान में जाकर फेंकूंगा। उसमें कुछ भी भार नहीं है, फिर भी मैं बहुत थक गया हूं। दिल जोर से धक धक कर रहा है। मुझे अपने माथे पर पसीना महसूस होता है, लेकिन हाथ लगाकर देखने से क्या लाभ। टांगें डर रही हैं। तेज कैसे चलूं? लेकिन मैं यहां एक पल भी नहीं ठहर सकता। दिमाग में अभी तक आग लगी हुई है। अजीब बात है। यह आग हत्या करने के बाद भी धीमी नहीं होती है जब तक कि मैं अपनी कब्र में, कफन में मुंह छुपाकर न सो जाऊं। लानत है, टांगों में कोई ताकत ही नहीं है? आखिर क्या फायदा, जहनक्ुम में जाए। शरीर में ताकत ही नहीं है। कंधे तो पहले से ही झुके हुए हैं, यह खोखला शरीर पग पग पर गिरना, और हर वक्त गिरने का डर। हीनता की भी कोई हद है। फिर यह निर्जीव पैर... कोई छुपा कीड़ा मेरे पूरे शरीर को खा चुका है, और सड़े हुए रक्त में पता नहीं क्या क्या मिला हुआ है।

अगर ब्लड बैंक में जाकर डॉक्टर को कहूं, ‘‘मैं अपना रक्त देने आया हूं’’, वह टेस्ट के लिए मेरी नस से सुई के द्वारा रक्त निकालने की कोशिश करे, तो शरीर बेहोश होकर गिर पड़ेगा। शरीर में रक्त की एक बूंद भी नहीं है जो निकले।

मन ही मन में ठहाके लगाता हूं, मुझे दिल में ठहाके लगाना अच्छा लगता है। ठहाका बाहर निकलता है तो खोखला शरीर बजने लगता है, और मैं अपने आपको कितना अजीब लगता हूं। मैं वाकई अजीब हूं? बकवास है! कई पहचान वाले लोग ऐसा ही कहते हैं। वह भी ऐसा ही कहती थी। ये ऊपरी लोग हर वक्त खुद को नार्मल रखने की कोशिशें करते रहते हैं। मूर्खों को क्या पता कि हर व्यक्ति अजीब होता है। मुझे हर व्यक्ति ऐसा ही मिला है, जिस पर दिल हंसने को कहता है। मुझमें और दूसरों में फर्क यह है कि मैं औरों की अपेक्षा खुद पर हंसता हूं।

हवा बंद है। गर्मी भी बहुत है। मेरी तंग कब्र में तो उल्टे नर्क होगा। गर्मी और घुटन से सांस अटकने लगती है। शरीर के अंग अंग से पसीना गर्म पानी के तालाब के फव्वारे की तरह निकलता ही रहता है। मैं कब कब्रिस्तान पहुंचूंगा? इस लाश को तो ठिकाने लगाऊं। यह लाश उठा उठाकर मेरे तो कंधे दुख रहे हैं, लेकिन रह भी तो नहीं सकता। वक्त आता है तो खुद पर बस ही नहीं चलता। मुझे इससे नफरत है! इन सबसे नफरत है। लेकिन शायद मुझमें वह ताकत नहीं है जो औरों की तरह खुद को नार्मल करने की कोशिश में कामयाब हो जाऊं। शायद सब कुछ खत्म हो चुका है। आखिर मैं किस दोष की सजा काट रहा हूं? यह सब मैं नहीं सह सकता। इन्सान या तो इन्सान होए या कोल्हू का बैल, इन्सान के साथ कोल्हू के बैल जैसी हालत...

मेरी सांस अटक रही है। मेरा मन कर रहा है कि इस दीवार से जा सर पटकूं। मैं चल रहा हूं, या वहीं का वहीं खड़ा हूं? लोग तो केवल घूम रहे हैं और धक्के खा रहे हैं। इस शहर में दिल बहलाने के लिए काफी साधन हैं। खुद को धोखा देने में लोगों ने पूरी मेहनत की है, शोकेस भी सौ फीसदी धोखा हैं। अंदर रखा गया सामान नजर का धोखा है। मैंने उंगलियों से उन चीजों को महसूस करने की कोशिश की है लेकिन उंगलियां केवल कठोर, मजबूत शीशे को महसूस करती हैं। इस अजीब धरती की हर चीज अजीब है। दिमाग सोच सोचकर थक जाएगा लेकिन उसे कोई बात समझ में नहीं आएगी। यह जानते हुए भी दिमाग सोचता ही जाएगा, और व्यक्ति पागलों की तरह मुंह खोलकर दिमाग की बकवास सुनता रहता है, क्या पागलपन है!... बस, अब बहुत हुआ, दिमाग है या मशीन! नींद में भी जान नहीं छोड़ता... और सपने कैसे हैं? सोच की परछाइयां ही तो हैं।

चारों ओर धुंध छाई हुई है। चारों ओर काफी धुआं है। दिल घबरा रहा है। यह गली काफी वीरान है। इनमें से घुम्मकड़ कुत्ते निकलते होंगे या भटकती आत्माएं या फिर मेरे जैसे खूनी!

खूनी, कातिल!

ओह, यह आवाज कहां से आई? मैं डर गया हूं। मेरे शरीर को लकवा मार गया है, कोई नहीं। उसके आवाज की प्रतिध्वनि है शायद, जो अभी तक मेरे दिमाग में घूम रही है। मुझे उसके इन शब्दों पर क्रोध नहीं, कोई दुःख नहीं। मैं खुद मानता हूं कि मैं खूनी और कातिल हूं। उसका केवल इतना दोष है कि उसने यह सच मेरे मुंह पर कह दिया। इससे पहले शायद मैं यह सच सह नहीं पाता, लेकिन अब इतना तो कमजोर और निस्तेज हो गया हूं कि सच को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं। केवल मजबूत और ताकतवर इन्सान ही अपनी भरपूर शक्ति से सच को खारिज कर सकता है, पैरों के नीचे मसल सकता है, लेकिन मुझे तो खुद सच मसल रहा है। मुझमें सच को खारिज करने की ताकत ही नहीं है। मानता हूं कि मैंने अब भी एक कत्ल किया है और लाश को अपने झुके कंधों पर लेकर, छिपता छिपाता जा रहा हूं... सिसेफ्स की तरह, जिसे पहाड़ ढोने का श्राप मिला था। मुझे शायद मेरे न मालूमात होने वाले दोषों के बदले जीवित रहने की सज़ा दी गई है। आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा?

मैं चल चलकर थक गया हूं...चल भी रहा हूं या एक ही जगह धक्के खा रहा हूं? रास्ता कितना लंबा है। मैं दौड़ना चाहता हूं लेकिन पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे, दौड़ भी नहीं सकता, खुद पर इतना भी वश नहीं है मुझ में। ये मैं कहां आ गया हूं? यहां तो केवल घुप्प अंधेरा है। यह अंधेरा मेरे पूरे हवासों पर छाता जा रहा है। यह अंधेरा बाहर है या मेरे पूरे अस्तित्व में है? कोई निर्णय नहीं कर पा रहा हूं, निर्णय करने की क्षमताएं खत्म हो चुकी हैं। यह पतली अंधेरी गली आखिर कहां जाकर खत्म होगी? कहीं मुझसे राह छूट तो नहीं गई है? ऐसा ही है। चलते चलते जैसे पूरी ज़िंदगी गुजर गई है - लेकिन रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा। अब तो मैं एक कदम भी नहीं चल सकता, यह सुरंग जैसी गली कहीं पर पूरी भी होगी या नहीं? क्या हमेशा ऐसा ही होता है? कोई उत्तर नहीं... मन सुनक् पड़ चुका है, मैं खुद को घसीटता चलता ही रहूंगा। लेकिन आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? ओह, हे मेरे भगवान, आखिर मंज़िल कहां पर है?...

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divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: काली रात, रक्त बूँदें // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
काली रात, रक्त बूँदें // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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