राजेन्द्र कुमार के काव्य संग्रह - 'लोहा-लक्कड़' में सामाजिक संवेदनाओं का स्वरूप // धनञ्जय द्विवेदी

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शोध-आलेख 1990 के दशक में सम्पूर्ण संसार अनेक सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तनों का संवाहक बना था। भारतीय समाज भी उससे अछूता न रहा। देखा जाये ...

शोध-आलेख

1990 के दशक में सम्पूर्ण संसार अनेक सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तनों का संवाहक बना था। भारतीय समाज भी उससे अछूता न रहा। देखा जाये तो विशेष रूप से उत्तर भारत के राजनैतिक और धार्मिक जीवन में यह समय एक तूफान लेकर आया। मण्डल कमीशन का अन्य पिछड़ें वर्गों को 7 अगस्त सन् 1990 को आरक्षण देना 24 जुलाई 1991 को उदारीकरण की नीति लागू होना तथा 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना आदि घटनाओं ने गंगा के मैदानी भाग में जो उथल-पुथल मचायी उससे हिन्दी पट्टी के नाम से पहचाना जाने वाला कोई भी नागरिक अछूता नहीं रहा । हर किसी को इस जलजले की आँच ने भस्मीभूत किया। इस आँच से तपकर सबने अपना-अपना आक्रोश व्यक्त किया चाहे वह राजनेता हो या सामाजिक कार्यकर्ता हो कवि हो या आम आदमी सबके आक्रोश के अपने ढंग थे। राजनेता अपनी राजनीति की रोटी सेंक रहे थे सामाजिक कार्यकर्ता सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे किन्तु कवि का आक्रोश अपने ढंग से कविता द्वारा व्यक्त हुआ। इस तरह सामाजिक बदलाव के साथ-साथ कविता भी बदली और इस बदलते परिवेश में अनेक वरिष्ठ और युवा कवियों के रचनात्मक प्रतिभा की सक्रिय भागीदारी रही खासकर कुँवर नारायण, उदय प्रकाश, विजेन्द्र, विश्वनाथ तिवारी, कुमार अम्बुज, नरेश सक्सेना, यश मालवीय, कुमार कृष्ण, अरूण कमल राजेश जोशी, शिरीष मौर्य, कुमार विकल, मंगलेश डबराल, ऋतुराज, ज्ञानेद्रपति, नरेन्द्र जैन असद जैदी, इत्यादि वरिष्ठ और युवा कवियों ने एक साथ अपना स्वर मिलाया तथा हिन्दी पाठकों में नयी संवेदना जागृत किया इन्हीं कवियों में अपनी निजता को दुनिया के औसत आदमी से जोड़कर कविता के व्यापक मानवीय संदर्भों और समस्याओं के समाधान हेतु उनके हित में इस्तेमाल करने की कोशिश वरिष्ठ कवि राजेन्द्र कुमार ने सर्वहारा वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्वता को स्थापित करते हुए लोहा लक्कड़ 2017 के माध्यम से आम जन को प्रतिनिधित्व प्रदान किया है।

राजेन्द्र कुमार की आलोचना और कविता संग्रह उनकी पहचान है। आपकी कविता आपके कवि होने की नहीं अपितु आपके आदमी होने की साक्ष्य है कवि के लिए कविता लिखना महज मजबूरी नहीं बल्कि समाज के प्रति प्रतिबद्धता है। कवि समाज के सही पथ निर्देशन के लिए जरूरी और निश्चित लक्ष्य को लेकर चलते हैं। दिशाहीन होकर लक्ष्यहीन होना कवि को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं उन्हें पता है कि स्वयं ही मार्ग भूलने वाला यात्री किसी दूसरे का मार्गदर्शन नहीं करा सकता है। आम जन का आत्मबल ऊँचा करने के लिए कवि का आत्मबली होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसी स्थिति में ही कवि एक निश्चित मंजिल की प्राप्ति हेतु आम आदमी की चेतना को विकसित कर सकता है। उसके सुखमय भविष्य के अनिश्चित कल्पना को निश्चित कर विश्वसनीय बना सकता है।

राजेन्द्र कुमार के संग्रह लोहा लक्कड़ के सम्यक अनुशीलन के पश्चात् यह स्पष्ट होता है कि कवि अपनी कविताओं के लिए अपने आस-पास के परिवेश सम-सामयिक घटनाओं, स्थितियों और छोटी-छोटी वस्तुओं से कच्चामाल ग्रहण किया तथा उसी को अपने अनुभव तथा श्रम द्वारा पकाकर जन समूह के सापेक्ष अपनी कविता द्वारा परोसा है। कवि का यह आनुभविक श्रम आग और पानी शीर्षक कविता में स्पष्ट परिलक्षित हुआ हैः-

‘‘आटे में व्यापता है पानी

तब उसमें रोटी का आकार

आ पाता है

फिर उसमें व्यापती है आग

तब आ पाता है रोटी का स्वाद

हाँ,

आकार के लिए पानी

स्वाद के लिए आग,1

सच है आधुनिक समाज आटे के भाँति पिसा और बिखरा है इस बिखरे-पिसे आटे में जब संवेदना और स्वाभिमान का जल मिलेगा तो एक सक्रिय संवदेनशील समाज निर्मित होगा जो अपनी अस्मिता के लिए नये सिरे से कार्य करेगा, नया परिवर्तन होगा और समाज की स्थापना नये रूप में होगी। मनुष्य-मनुष्य के लिए जियेगा उसका अपना आकार और अपना स्वरूप होगा।

राजेन्द्र कुमार की कविता उनकी रचना धर्मिता प्रयास और सार्थकता नये जीवन मूल्यों को समाज से जोड़ने का कार्य करती है यह नयी जीवन मूल्य केवल-केवल कविताई नहीं है तथा न केवल वाचिक विलाप है बल्कि उसे यथार्थ के सन्दर्भों के साथ जोड़ती है तथा समाज के विषमताओं पर सवाल खड़ी करती है एवं उसके समाधान भी प्रस्तुत करती है। कवि अपने अध्ययनाभ्यास लगन प्रतिभा तथा चिन्तन से निर्मित अपने व्यक्तित्व से सामाजिक अवस्थाओं के सुन्दर और असुन्दर सारे कार्यों को खुलकर परोसता है। तथा समाज के छिपे रहस्यों को बेबाकी से निर्भयता पूर्वक खोलता चला जाता है। कवि समाज की अस्मिता को अच्छी तरह जानता है उसे पता है कि सर्वहारा वर्ग को कितना ही दमित किया जाये वह प्रबल जिजीविषा और दृढ़ इच्छा शक्ति के माध्यम से समाज में ठोस सबूत के साथ हमेशा उपयोगी बना रहेगा। कवि की ‘लोहा लक्कड़’ कविता से यह स्पष्ट होता है-

हमें मालूम है उसकी औकात

किसी भी हाथ की उंगलियों के बीच

जब भी होगा

हद से हद होगा अँगूठी भर।

हथौड़ा भर जब भी होंगे

हम ही होंगे

लोहा लक्कड़ तो हम ही हैं न2

पूंजीवादी व्यवस्था रूपी सोने का भाव बढ़े या घटे गले का हार बने या नाक की कील बने है तो वह सौन्दर्य मात्र ही उसका विस्तार कितना भी हो जाये रहेगा हाथ की अंगूठी भर ही। जब भी हथौड़े का निर्माण करना होगा तो हथौड़े भर हम जनवादी व्यवस्था के लोग ही होंगे क्योंकि लोहा लक्कड़ तो हमीं हैं। जिस दिन हमने अपनी अस्मिता को पहचान लिया उस दिन सम्पूर्ण जनवादी व्यवस्था सौन्दर्यशील न रहकर ध्वंस हो जायेगी। कवि जानता है कि कितनी भी जनवादी व्यवस्था हो कितने भी शोषण और दमन के चक्र चलते जाये लेकिन जो सनातन सर्वहारा वर्ग की व्यवस्था है वह कभी न नष्ट होने वाली व्यवस्था है-

कोई पीसे

कहीं पिसें हम

कभी पिसें हम

खत्म न होगे

रंग पिसेगा महक बनेंगे

महक पिसेगी स्वाद बनेंगे

किसी छुअन से

अगर पीसने वाला हाथ

नाश का नियम गढ़ेगा

हम हरदम अपवाद बनेंगे3

कवि मसाले के माध्यम से जनवादी व्यवस्था को आरोपित करते हुए कहता है। कि जिस प्रकार मसाले पिसते हैं तो उसकी महक किसी न किसी रूप में बनी रहती है और जब उस महक को नष्ट करने के लिए भोजन में डाला जाता है तो वह परिवर्तित हो स्वाद बन जाती है। उसी प्रकार जनवादी व्यवस्था कभी नष्ट नहीं होती वह सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हुई किसी न किसी रूप में बनी रहती है। साथ ही साथ कवि की कभी न समाप्त होने उद्घोषणा हीनतर दृष्टि से देखे जाने वाले सामाजिक मनुष्यों को नयी जीवन शक्ति देती है। जिससे विश्वास ग्रहण कर आम आदमी भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत होकर अपनी शक्ति को समेट लेता है।

कवि ने वर्तमान व्यवस्था के संकट को पहचाना है उसमें बहुत गहरे उतरकर वर्तमान समाज में फैली विसंगतियों के कारण को पहचानते हुए सही नब्ज पर अँगुली रखी है। अतः वे समाज में बढ़ती जन-जीवन विरोधी अपराजय सी लगने वाली ताकतों का कारण जन की चेतना को निरापद बताते हुए कहते हैं-

तिलचट्टा क्या सोचता है हमें देखकर?

हम तिलचट्टा देखते हैं

हमारी नफरत अपनी जीभ लपलपाती है

तिलचट्टा डरता नहीं

वह आदी हो चुका है-

बस लपलपाती भर है यह जीभ

हमारी नफरत की

इतनी निरापद है हमारी नफरत

इसीलिए इतनी वीभत्स भी4

समाज का शोषण करने वाले पूँजीपतियों को देखकर सर्वहारा वर्ग नफरत से जीभ लपलपाता है किन्तु वह तिलचट्टा डरता नहीं है इसे पता है कि हमारी नफरत इतनी ढुलमुल और निरापद है कि यह मात्र लपलपाती भर है इसमें इतनी आँच नहीं है जो हमें पिघला सके। कवि आगे समाज को जागृत करते हुए कहते है कि हम सर्वहारा वर्ग की ढुलमुल नफरत के कारण ही समाज की स्थिति इतनी भयावह है।

कवि का प्रतिपक्षी के प्रति दृढ़ निश्चय होकर आवाज उठाने की यह उद्घोषणा सार्थक होती है। औसत आदमी में संवेदना जगती है। उसके तेवर बदलते हैं।

अब यह जो खेत है

आखिर तो मेरे सपनों का ही है

कैसे हो जाऊँ बेपरवाह

अपने परदादा की तरह?

कैसे छोड़ दूँ उजड़ने को?5

प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात में हल्कू साहूकारी व्यवस्था से त्रस्त होकर एक छोटी सी ऑंच से अपने खेतों को उजड़ने के लिए छोड़ देता है। परन्तु वही हल्कू का परपोता अपनी संवदेना को जागृत करके नयी संचेतना से युक्त होकर वर्तमान समय में पूंजीवाद के कारण उग आये नये साहूकारों से अपने को न केवल बचाता है अपितु अपने सपनों के खेतों को नयी फसलों के लहलहाने के लिए तैयार भी करता है।

वर्तमान समाज का औसत आदमी भी अब संवेदनशील होने लगा है। उसकी रक्त शिराओं में संचेतना दौड़ने लगी है। अब वह सूर्य और चॉद रूपी पूंजीवादी व्यवस्था के लोगों द्वारा दिये हुए आग और शीत को उसकी अनुग्रह मात्र नहीं समझता है उसे पता है कि यह जो आज के सूर्य और चाँद आग तथा शीत हमें प्रदान कर रहे हैं उसके बदले में जो मुझसे प्राप्त करेंगे इससे उनका रूप और सौन्दर्य और ही निखरेगा।

सूरज कल जब तुम उगोगे

कुछ और लाल होगे

क्योंकि मेरा लहू तुम्हारी रंगों में दौड़ रहा होगा।

चाँद कल जब तुम निकलोगे अपनी यात्रा पर

मेरी त्वचा का परस पाकर

कुछ और सुन्दर दिखोगे

कुछ और पूरे ।6

राजेन्द्र कुमार जी का मानना है कि जो कविता समाज में रहकर समाज का प्रतिनिधित्व करती है। सच्चे अर्थो में वही कविता है स्वयं कवि के शब्दों में कहते हैं कि कालजयी रचना वह होती है जो अपने समय में भी हो और फिर अपने समय का भी अतिक्रमण करे। क्या इसी तरह एक शर्त यह भी नहीं होनी चाहिए कि कविता समाज की हो लेकिन फिर समय की होकर समाज का अतिक्रमण भी करे, अपनी आंकाक्षा का समाज रचने की आकुलता भी उसमें हो, इस सूत्र में आखिरी वाले सिरे से उलटे चलकर शुरू वाले सिरे तक पहुँचे तो एक सच्चाई यह भी नजर आयेगी कि जो कविता अपने समय में रहकर समय का अतिक्रमण कर पाती है और अपने समाज में रहकर समाज का अतिक्रमण कर पाने का समय रखती है, सच्चे अर्थों में वही कविता अपने समय की होती है। और अपने समाज का प्रतिनिधित्व करती है।7 कवि की कविता समाज की है और अपने सामर्थ्य से समाज का अतिक्रमण भी करती है तथा सामान्य जन की संवेदना और संचेतना जगाते हुए उनका प्रतिनिधित्व भी करती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, आग और पानी पृ0सं0-14

2. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, लोहा-लक्कड़ पृ0सं0-11

3. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, खत्म न होंगे पृ0सं0-31

4. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, तिलचट्टा और हमारी नफ़रत पृ0सं0-86

5. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, पूस की रात : नीद में बड़बड़ाता हल्कू का परपोता पृ0सं0-45-46

6. राजेन्द्र कुमार, काव्य संग्रहःलोहा-लक्कड़, सूरज और चॉद से बातचीत पृ0सं0-61

7. राजेन्द्र कुमार, कविता


संपर्क व परिचय

नाम :-धनञ्जय द्विवेदी

पिता :- श्री रामखबर द्विवेदी

माता :- कृष्णादेवी

ग्राम:- बनियांगाँ

पोस्ट:- लक्खारामपुर

तहशील:- पयागपुर

जिला :- बहराइच

पिन:- 271821

शैक्षिक योग्यता

हाइस्कूल 2006. यूपी बोर्ड

इण्टर मीडियट 2008 युपी बोर्ड

बी० ए०:- 2011 R.m.l डिग्रीकॉलेज अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद

एम०ए०:- 2013 mlk.Pg. कॉलेज बलरामपुर अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद

नेट &जे आर एफ:- 2016

शोधछात्र:- कुमांऊ विश्वविद्यालय नैनीताल

शोध निर्देशक:- कवि आलोचक प्रोफेसर शिरीष मौर्य

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रचनाकार: राजेन्द्र कुमार के काव्य संग्रह - 'लोहा-लक्कड़' में सामाजिक संवेदनाओं का स्वरूप // धनञ्जय द्विवेदी
राजेन्द्र कुमार के काव्य संग्रह - 'लोहा-लक्कड़' में सामाजिक संवेदनाओं का स्वरूप // धनञ्जय द्विवेदी
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