प्रविष्टि क्र. 112 उसे देखते ही पश्चाताप के आंसू छलक पड़ते थे! मोहनलाल मौर्य साल दो हजार दो के जनवरी माह का दिन था। मैं कक्षा नौ का विद्यार...
प्रविष्टि क्र. 112
उसे देखते ही पश्चाताप के आंसू छलक पड़ते थे!
मोहनलाल मौर्य
साल दो हजार दो के जनवरी माह का दिन था। मैं कक्षा नौ का विद्यार्थी था। नित्य की भांति उस दिन भी मैं घर से कुएं पर नहाने जा रहा था। बीच रास्ते में पड़ा एक मरियल सा पिल्ला कराह रहा था। उसकी हालात देखकर ऐसा लग रहा था कि पल दो पल का मेहमान है। प्राण पखेरू उड़ने वाले है और देह यहीं पर सड़ने वाली है। यहीं प्राण त्याग दिए तो कुछ दिन दुर्गंध के मारे राह चलते राहगीरों का इधर से नाक भींच कर निकलना भी दुश्वार हो जाएगा। उस दिन ठंड भी रिकार्ड़ तोड़ पड़ रही थी। सुबह का वक्त वैसे था। मेरे ख्याल से वह ठंड से ही कराह रहा था। लेकिन मैं धर्मसंकट में पड़ गया। क्योंकि मुझे नहा-धोकर स्कूल जाना था और स्कूल टाइम में आध-पौन घंटा ही शेष बचा था। धर्मसंकट यह था कि पहले नहाने के लिए कुएं पर जाऊं या फिर पहले इसकी मदद करूं। पहले इसकी मदद में जुट गया तो कुएं पर जाने से महरूम होना पड़ेगा और पहले कुएं पर नहाने चल गया तो वापस आने तक यह मर जाएगा। इसी पेसोपेश में तकरीबन दस-बारह मिनट बीत गई।
उस वक्त मन में यहीं विचार आया कि एक दिन स्कूल से महरूम हो जाऊंगा तो कौनसा पहाड़ टूट जाएगा। मुझे पहले इसकी मदद करनी चाहिए। मैंने अलाव का बंदोबस्त किया। राह चलते एक बुजुर्ग से माचिस लेकर अलाव सुलगाया और अलाव के समीप ही पिल्ले को लिटा दिया। कुछेक देर उपरांत उसके कराहने की आवाज शांत हो गई। मैं समझा चल बसा। हाथ लगाकर देखा तो वह कांप रहा था। अभी जीवित था। यह तो यकीन हो गया था कि पिल्ला ठंड से ही कांप रहा था। मैंने अलाव में ओर लकड़ी,घास,फूस डाला। तपिश तेज हुई। धीरे-धीरे कांपना कम होता गया। जैसे ही तपिश कम हुई तो मैंने उसके ऊपर हाथ फेरा तो वह लेटा हुआ बैठ गया। मैंने परमात्मा को धन्यवाद ज्ञापित किया। थोड़ी देर पश्चात मैं उसे लेकर बगैर कुएं पर गए ही वहीं से उसे घर पर लेकर आ गया। स्कूल टाइम तो कब का ही निकल चुका था।
सबसे पहले तो मैंने उसको गरमा-गरम दूध पिलाया। रोटी खिलाई। अब वह पहले की अपेक्षा दुरूस्त था। लेकिन बहुत कमजोर था। आंखें अंदर की ओर धंसी हुई थी। हड्डी-पसली मिली हुई लग रही थी। उस दिन तो मैं उसकी देखभाल में ही लगा रहा। शाम को पिताजी स्कूल से आए तो उन्होंने स्कूल न जाने का कारण पूछा। मेरे पिताजी जिस स्कूल में अध्यापक थे मैं भी उसी स्कूल का छात्र था। मैंने कारण बता दिया। पिताजी पिल्ले को देखकर बोले-‘अब यह दुरूस्त है। इसे छोड़ आओ।’ मैं उसे घर से थोड़ी दूर छोड़ आया। घर पहुंचकर देखा तो वह मेरे पीछे-पीछे दौड़ा चला आया। फिर छोड़ने चला गया और वह फिर से पीछे-पीछे आ गया। मैंने पिताजी से कहा इसका जाने का मन नहीं कर रहा है। इसको यहीं रहने देते हैं। पिताजी ने स्वीकृति प्रदान कर दी।
उस दिन के बाद से मैं उसे सुबह-सुबह देशी घी के बने लड्डू खिलाता और अपने कमरे में ही सुलाता। कुछेक दिनों उपरांत मरियल सा पिल्ला हष्ट-पुष्ट हो गया था। और काफी सुरम्य लगने लगा था। उसने सबका दिल जीत लिया था। हम सबका प्रिय हो गया था। उसका कलर काला था इसलिए मैंने उसका नाम कालू रखा था। और वह अपना नाम सुनकर दौड़ चला आता था। कालू इतना समझदार और वफादार हो गया था कि घर की पहरेदारी करने लगा था। घर के किसी भी सदस्य की आज्ञा की अवहेलना नहीं करता था। निष्ठा से पालन करता था।
मैं स्कूल के लिए घर से निकलता तब कालू मेरे पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। उससे छुपकर स्कूल जाना पड़ता था। मुझे स्कूल से आता देखकर दुम हिलाता हुआ दौड़ चला आता था। जब तक उसे गोद में नहीं उठा लेता था तब तक वह पैरों में दुम हिलाता रहता था।
एक दिन उसे देखकर एक बालमित्र बोला। बालकपन में बालमित्र ही होता है। ‘ये पिल्ला तो बहुत सुंदर है। लेकिन ये ओर भी सुंदर दिख सकता’ मैंने पूछा-‘कैसे?’ वह बोला-‘इसके दोनों कान आधे काट दो। फिर देखना।’ ये सुनकर मैं बोला-‘पिल्ले के कुछ हो गया तो।’ वह बोला-‘कुछ नहीं होगा।’ उस वक्त बालमित्र से बालमन ने सवाल किया। ‘काटेगा कौन?’ यह सुनकर बालमित्र तपाक से बोला-‘अपन दोनों ही काट देंगे। ऐसा करना तू तो पकड़ लेना और मैं काट दूंगा।’ मैं बोला-‘ठीक है।’
हम दोनों कालू को लेकर खेतों में चले गए। उसने एक कान तो सेविंग ब्लेड़ से काट दिया था। दूसरा कान आधे से कम कटा होगा कि बालमित्र को काटकर भाग गया। दोनों के दोनों उसके पीछे-पीछे भागे भी काफी दूर तक लेकिन पकड़ में ही नहीं आया। सोचा शाम तक लौटकर घर आ जाएगा। शाम तक घर नहीं लौटा तो घरवालों ने पूछा। मैंने पूरा विवरण बता दिया। सबके-सब ऐसी डांट-फटकार लगाई कि मेरी बोलती बंद हो गई। और मैं कमरे में जाकर रोने लगा। पश्चाताप के आंसू रोके से भी नहीं रूक रहे थे। ग्लानि से मन खिन्न हो गया था। दोनों ही नादान थे। नादानी ने कान कटवा दिया और मैंने बालमित्र की बात मानकर पाप कमा लिया था। जिसका दंड मिलना स्वाभाविक था। पिताजी ने मेरी अच्छे से धुनाई की।
कुछेक दिन तो कहीं भी दिखाई नहीं दिया। एक दिन आवारा कुत्तों के झुंड में नज़र आया तो मैंने पकड़ने की कोशिश की लेकिन हाथ नहीं आया। जब भी कहीं भी मिलता तो मुझे देखते ही दुम दबाकर भाग जाता था। मुझे ऐसा लगता है शायद उस दिन के बाद से उसे भय हो गया कहीं पकड़कर कान नहीं काट दे। मुझे देखकर कालू के मन में शायद यह विचार अवश्य आता होगा कि तुमने ही जीवन दिया और तुम ही जीवन लेने पर तुल गए। कैसे इंसान हो? जिन हाथों से खिलाया-पिलाया,सुलाया,नहलाया,उन्हीं हाथों से पकड़कर कान कटवा दिया। भगवान भला नहीं करेगा तुम्हारा। तुम्हें इसकी सजा मिलेगी।
वह जब तक जीवित रहा मोहल्ले में रहा और अधकटा कान लटकता ही रहा। मैं उसे जब भी उसे देखता तो पश्चाताप के आंसू छलक पड़ते थे। खिन्न हो जाता था और बालमित्र व अपनी नादानी पर बहुत गुस्सा आता। उस वक्त भी यहीं सोचता था और आज भी। उस दिन बालमित्र की बात टाल देता तो कालू इस तरह दुम दबाकर नहीं भागता। बल्कि दुम हिलाता हुआ आता।
--
नाम- मोहनलाल मौर्य
पिता का नाम- श्री चंदरलाल मौर्य (सेवानिवृत्त.व.अ.)
जन्मतिथि – 25 नवम्बर 1988
शिक्षा - एम.ए,बीएड़,बीजेएमसी
अभिरूचिः- व्यंग्य तथा कहानी लेखन
संप्रतिः- स्वतंत्र लेखन
ईमेलः- mohanlalmourya@gmail.com
ब्लॉगः- www.mlmourya.blogspot.com
सम्पर्क - ग्राम पोस्ट चतरपुरा वाया नारायणपुर तहसील बानसूर जिला अलवर (राज.) पिनकोड़- 301024
 
							     
							     
							     
							    
COMMENTS