मेरी कहानी को मिले प्रथम पुरस्कार पर मुझे लपेटने की कोशिश हंस में छपी मेरी कहानी ‘दस्तक’ काफी चर्चित होने लगी थी. उसके आगामी कई अंकों में जो...
मेरी कहानी को मिले प्रथम पुरस्कार पर मुझे लपेटने की कोशिश
हंस में छपी मेरी कहानी ‘दस्तक’ काफी चर्चित होने लगी थी. उसके आगामी कई अंकों में जो पाठकीय प्रतिक्रियाएं प्रकाशित होती रही थी, उनमें शायद ही कोई पत्र रहा होगा, जिसमें दस्तक कहानी का जिक्र न रहा हो. मतलब उस कहानी से राष्ट्रीय स्तर पर के पाठक मुझे कहानीकार के रूप में जानने लग गये थे. मेरे पास रोज ही कई सारे पत्र आने लगे थे. मुझसे पूर्व शिवमूर्ति की कहानी भी हंस में छपकर चर्चित हो रही थी, बल्कि हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ‘तिरियाचरित्तर’ कहानी को केंद्र में रखकर ‘सेक्स और जनवाद’ शीर्षक से बहस भी चलवा रहे थे. मैं तो साहित्य के क्षेत्र में बिल्कुल नया और मासूम था. उक्त बहस में कथाकार ‘संजीव’ भी अपने विचारों के साथ सहभागी थे. मैंने संजीव की कुछ कहानियां पढ़ रखी थीं और उनकी कहानियों से प्रभावित होकर उनके साथ पत्र व्यवहार भी करता रहा था. मेरा बचपना कहिये या मासूमियत, मैंने पत्र लिखकर उनसे आग्रह किया था कि उस बहस में मेरी ‘दस्तक’ कहानी को वे सम्मिलित कर सकें तो मेरा सौभाग्य होगा. प्रत्युत्तर में उन्होंने लिखा था कि चूंकि ‘हंस’ के द्वारा ‘तिरियाचरित्तर’ पर ही बहस आमंत्रित है, इसलिए मेरी कहानी को उसमें शामिल कर पाना संभव नहीं था.
हालांकि ‘दस्तक’ कहानी को अपने पत्र में उन्होंने भी पसंद किया था. बाद के ‘हंस’ के किसी अंक में देहरादून के नवीन नैथानी नामक किसी पाठक का पत्र छपा था. उस पत्र में उन्होंने मेरी कहानी का जिक्र करते हुए संजीव को इंगित किया था कि ‘सेक्स और जनवाद’ पर विचार करना हो तो रतन वर्मा की कहानी ‘दस्तक’ को एक बार जरूर पढ़ लें. कई वर्ष बाद फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा ने शैवाल की कहानी ‘कालचक्र’ पर आधारित ‘दामुल’ फिल्म का निर्माण किया था तथा पटना में उस फिल्म को केंद्र बनाकर एक कार्यशाला का आयोजन किया था, उसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था.
मैंने कार्यशाला में जाने का मन बना लिया था. पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में कथाकार अवधेश प्रीत कार्यरत थे. दस्तक पर उनकी बड़ी ही उत्साहवर्धक पत्र प्रतिक्रिया मिल चुकी थी मुझे. मन में यह भी उत्सुकता थी कि पटना जाकर अवधेश प्रीत से भी भेंट करूंगा.
मैं पटना पहुंच गया था और अवधेश प्रीत से मिला था. वह मेरी पहली ही मुलाकात थी उनसे लेकिन अत्यंत ही गर्मजोशी से वे मुझसे मिले थे. अभी मैं उनके पास बैठा उनसे बातचीत ही कर रहा था कि कथाकार संजीव का वहां आगमन हो गया था. वे भी प्रकाश झा की कार्यशाला में आमंत्रित थे. मैं और संजीव जी ने साथ ही कार्यशाला के लिए वहां से प्रस्थान किया था. बातों में उन्होंने कहा था मुझसे, ‘अभी-अभी तो आपने लिखना शुरू किया है और प्रायोजित पत्र भी छपवाने लगे?’
मैं उनके आशय को समझ नहीं पाया था. सिर्फ भौंचक होकर उनका चेहरा निहारने लगा था. फिर पूछा था, ‘मैं समझा नहीं, आप क्या कह रहे हैं?’
‘अच्छा रहने दीजिए.’ इतना बोलकर वे बात को टाल गये थे.
बाद में दिमाग पर काफी जोर देने के बाद मुझे समझ आया था कि शायद उनका इशारा मेरे अपरिचित पाठक नवीन नैथानी के उस पत्र की ओर था, जो मेरी कहानी पर प्रतिक्रिया स्वरूप हंस में छपा था. हो सकता है, मैंने जो उनके पास पत्र लिखा था, उसे नैथानी के छपे पत्र के साथ जोड़कर मेरे प्रति धारणा बनायी हो. उन्होंने जबकि नवीन नैथानी से कभी मेरा कोई परिचय नहीं था.
-
‘दस्तक’ की चर्चा रांची के एम.ए. के छात्र सुबोध सिंह ‘शिवगीत’ तक भी पहुंच गयी थी शायद. वे मुझसे नितांत अपरिचित थे. 1988 के नवंबर माह में अकस्मात मेरे पास आकर उन्होंने अपने द्वारा संपादित ‘दस्तक’ काव्य संग्रह की प्रति मुझे थमाते हुए कहा था, ‘भैया आपकी ‘दस्तक’ कहानी पढ़ी है मैंने. इसी शीर्षक से मैंने कुछ कवियों की कविताओं का संकलन निकाला है, आप इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया देंगे.’
उनका नाम सुनकर मैंने कहा था, ‘आपका टाइटल ‘शिवगीत है.’ हजारीबाग में मेरे अभिभावक-स्वरूप एक वरिष्ठ कवि हैं. उनका नाम शिवदयाल सिंह ‘शिवदीप’ है. आपका टाइटल उनके टाइटल से कितना मिलता-जुलता है.’
वे हंस पड़े थे, बोले, थे, ‘वे मेरे पिता हैं.’
‘पर आप तो रांची से आये हैं?’
‘जी वहां मैं अपनी पढ़ायी के सिलसिले में रहता हूं. मूल निवासी कदमा गांव का ही हूं.
मुझे पता था कि शिवदयाल सिंह ‘शिवदीप’ कदमा निवासी ही हैं.
सुबोध सिंह अत्यंत ही विनीत स्वभाव के एक सुघड़ कवि थे. खासतौर पर हास्य-व्यंग्य कविताओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी. सबसे बड़ी बात कि इतने मिलनसार थे कि जिससे भी एक बार मिल लेते, उसे अपना बना लेते. दो-चार भेंट में ही वे मेरे काफी अंतरंग हो गये थे. एम.ए. पास करने के बाद वे हजारीबाग ही आ बसे थे, जिससे उनके साथ मेरी नजदीकी और भी बढ़ गयी थी. वह नजदीकी आगे चलकर कई सारे सार्थक कार्यों के रूप में सामने आयी थी, जिसपर बाद में चर्चा होगी.
-
वैसे तो मैं निरंतर साहित्य साधना में रत था तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार मेरी कहानियां छप रही थीं. ऊपर मैंने धावकों के प्रशिक्षक तापस चक्रवर्ती का जिक्र किया है. वे भी मुझसे रोज मिला करते थे. एक दिन मेरे पास आकर उन्होंने किसी आदिवासी परिवार का जिक्र करते हुए मुझसे कहा था कि वह मुख्य रूप से ताबूत बनाने का धंधा करता है. वैसे गांव में रहकर छिटपुट छोटी-मोटी मरम्मत का काम भी करता है, पर गांव में अधिक काम तो मिलता नहीं है. पता नहीं बेचारा कैसे गुजारा करता होगा. तापस के द्वारा ताबूत बनाने वाले की चर्चा ने मेरे मन को मथना शुरू कर दिया था और उस मंथन से ‘ताबूत’ शीर्षक एक कहानी लिख गयी थी मुझसे. भारत यायावर ने उस कहानी को पढ़ा, तो उससे काफी प्रभावित हुए और बोले मैं उसे ‘आजकल’ में प्रकाशनार्थ भेज दूं. उसमें राकेश रेणु उप-संपादक हैं, जो मेरे काफी घनिष्ट हैं. पत्र में मेरा रेफरेंस देते हुए कहानी भेद दें. मैंने कहानी भेज दी थी, जिसे राकेश रेणु ने दिसंबर 1988 अंक में प्रकाशित किया था. प्रकाशनोपरांत मैंने उन्हें आभार पत्र भी लिख दिया था.
1989 के जनवरी में जिस संस्थान में मैं काम करता था, उन्हें नववर्ष में उपहार स्वरूप बांटने के लिए काफी संख्या में डायरी छपवानी थी. उन्होंने वह दायित्व मुझे ही सौंपा था कि दिल्ली जाकर मैं ही डायरी छपवा लाऊं.
मेरे लिए वह सुखद अवसर था. दिल्ली जाकर राकेश रेणु तथा राजेन्द्र यादव आदि से मिलने का. आजकल में राकेश रेणु के कार्यालय का फोन नं. तो था ही. मैंने फोन पर उनसे बात की थी कि मैं दिल्ली आ रहा हूं तथा उनसे भेंट करके मुझे बहुत खुशी होगी. उन्होंने कहा था कि दिल्ली पहुंचकर मैं सीधे उनके नोएडा वाले घर पर पहुंचूं. उन्होंने अपना पता भी लिखा दिया था. वे सेक्टर 19 में रहते थे.
मेरी ट्रेन सुबह के छः बजे नई दिल्ली पहुंची थी. वहां से टैक्सी लेकर मैं सीधे राकेश रेणु के नोएडा स्थिति आवास पर पहुंच गया था. उन दिनों नोएडा अपने निर्माण के प्रारंभिक दौर में ही था. रेणु ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा इस्तेकबाल किया था. फिर बोले थे, ‘मैं यहां अकेला ही रहता हूं. आप जब तक यहां रहें, मेरे साथ ही रहिये.’ वैसे तो मैंने होटल में रहने का मन बनाया था, पर उनकी आत्मीय जिद ऐसी कि मैं इंनकार नहीं कर पाया था. फिर तो जब वे दफ्तर के लिए निकलते, मैं भी उनके साथ ही निकल जाता. समय निकालकर वे मेरे प्रयोजन मैं सहयोग भी करते. जैसे दिल्ली के बाजारों के बारे में तो मेरी कोई जानकारी नहीं थी, सो मेरे साथ जाकर डायरी का आदेश दिलवा दिया था उन्होंने, जिसकी आपूर्ति दस दिनों बाद होने वाली थी. मसलन पूरे दस दिनों तक मुझे दिल्ली में ही रहना था. फिर तो हम दोनों मिलकर नास्ता खाना बनाते, साथ ही खाते-पीते, घूमते-फिरते. सिर्फ कुछ घंटे वे ऑफिस में बिताते, जहां या तो मैं उनके साथ बना रहता, या फिर दिल्ली घूमने निकल जाता. शनिवार और रविवार की तो उनकी छुट्टी रहा ही करती थी, सो उस दिन उनके साथ साहित्यिक गोष्ठियों में भी भागीदारी का अवसर मिल जाया करता था मुझे.
उनके पड़ोस में ही कथाकार हरिसुमन बिष्ट रहा करते थे. वे हिन्दी अकादमी, दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ में उप संपादक थे. रेणु जी ने उनसे भी मेरी जान-पहचान करवा दी थी. वे भी रेणु की तरह ही मिलनसार और उदात्त प्रकृति के थे. एक किराये के छोटे से फ्लैट में वे रहा करते थे. अब अक्सर जब कार्यालय में रेणु व्यस्त होते, तब मैं हिन्दी अकादमी के दफ्तर में पहुंच जाता और बिष्ट जी से जीभर कर बातें करता. उन्होंने हिन्दी अकादमी के सचिव सह संपादक ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ डॉ. नारायण दत्त पालीवाल जी से भी भेंट करवायी थी. वे भी बहुत आत्मीयता के साथ मिले थे मुझसे.
पूरे दिल्ली प्रवास में मैं जिन लोगों से भी मिला था, सभी इतने सहज थे कि जिसकी मुझे कतई उम्मीद नहीं थी. ऐसा इसलिए कि चाहे वे राजेन्द्र यादव हों, राकेश रेणु, हरिसुमन बिष्ट, नारायण दत्त पालीवाल, या फिर श्याम-सुशील आदि, सभी ऐसे पदों पर थे, जिनमें अपने पद का गुरूर होना कतई अस्वाभाविक नहीं होता. बावजूद इसके एक नये रचनाकार के साथ घुलमिल कर पेश आना मेरे लिए अविश्वसनीय होकर भी पूर्णतः विश्वसनीय था.
राजेन्द्र यादव के साथ भी हंस के कार्यालय में मैं रेणु के साथ ही मिला था. इतने तपाक से मिले थे कि लगा ही नहीं था कि वह उनके साथ मेरी पहली भेंट थी. कहा था उन्होंने, ‘तुम तो बहुत अच्छी कहानियां लिखते हो. तुम्हारी ‘दस्तक’ कहानी को पाठकों ने खूब पसंद किया. और क्या लिखा है तुमने. रचनायें भिजवाते रहना...’
जब तक मैं वहां रहा था, कई बार राजेन्द्र यादव से भेंट की थी मैंने. हरिसुमन बिष्ट और राकेश रेणु से तो रोज ही भेंट होती रही थी. मैं और रेणु जी अक्सर शाम को बिष्ट जी के यहां पहुंच जाते, फिर देर रात तक बातचीत करते रहते. जिस दिन वापस लौटा था मैं, दोनों ही उदास हो गये थे. उन दस दिनों में मैं भी जैसे भूल ही गया था कि मुझे वापस लौटना भी होगा. लगता रहा था, जैसे रेणु जी का घर मेरा अपना ही घर है. वैसे वह सोच कुछ गलत भी नहीं थी, क्योंकि आज भी जब मैं दिल्ली जाता हूं, साधिकार रेणु जी के घर में ही डेरा डाल देता हूं. उनकी पत्नी अंजु मुझे बड़े भाई जैसा आदर देती है. और संबोधन में भी भैया कहती है, तथा उनका बेटा ‘नभ’ तथा बेटी ‘प्रांजलि’ मुझे मामा पुकारते हैं.
अक्सर जब भी मैं और रेणु जी साथ होते हैं, किसी विषय को लेकर हम दोनों के बीच जोर-जोर से बहसें शुरू हो जाती हैं. कई बार तो नोक-झोंक के स्तर पर भी. अंजु को लगता है कि हमारे बीच झगड़ा होने लगा है और जबरन वह हम दोनों को अलग कर देती.
इस तरह की आत्मीयता बिरले ही किसी को नसीब होती है.
उस बार मेरे हजारीबाग लौटने के उपरांत से रेणु जी और बिष्ट जी के साथ मेरे नियमित पत्राचार शुरू हो गये थे. बिष्ट जी ने कई बार मुझसे कहानियां मांग-मांगकर अपनी पत्रिका में छापी भी थी.
-
हजारीबाग लौटकर मैंने ‘जुलबिया’ शीर्षक एक लंबी कहानी लिखी थी जो 36 फुल स्केप में तैयार हुई थी. दिल्ली प्रवास के दौरान राजेन्द्र यादव जी ने कहानी भेजने को तो कहा ही था, सो उसे हंस के लिए भेज दी थी मैंने. हंस के प्रत्येक अंक में लंबी कहानी के लिए पृष्ठ आरक्षित होते थे, जिसमें लंबी-लंबी कहानियां छपा करती थी. मुझे लगा था कि मेरी उस कहानी को लंबी कहानी के रूप में जरूर स्थान देंगे राजेन्द्र यादव जी.
लेकिन कहानी लौट आयी थी. संलग्न पत्र में उन्होंने लिखा था कि अपरिहार्य कारणों से कहानी नहीं छाप पा रहा हूं, कहीं अत्यंत उपयोग में ले आयें.
सुनील सिंह को पता था कि उस कहानी को मैंने हंस में भेज रखा है. कहानी लौटने के बाद उन्होंने कहा था कि उतनी लंबी कहानी कोई पढ़ पायेगा, तभी तो छापेगा. मैं पूरी तरह निराश हो गया था. उस कहानी को लिखने में काफी समय और श्रम लगा था. भारतजी ने भी कहानी देखी थी और उसकी भाषा, शिल्प तथा कथानक से काफी संतुष्ट थे. एक दिन ‘वर्तमान साहित्य’ का अंक लेकर वे मेरे-पास आये. उस अंक में ‘कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार’ प्रतियोगिता का विज्ञापन छपा था, जिसे ‘वर्तमान साहित्य’ ही आयोजित कर रही थी. भारत जी ने गुलबिया कहानी उसी प्रतियोगिता में भेजने की सलाह दी थी. उनकी सलाह पर अमल करते हुए कहानी भेज दी थी. बाद में जब सुनील सिंह आये, तब उनको भी बता दिया कि कहानी प्रतियोगिता में भेज दी है. उन्होंने जवाब दिया था, ‘इतनी लंबी कहानी पढ़ने का साहस कर पायेगा, तभी तो. प्रतियोगिता में सैकड़ों कहानियां गयी होंगी.’
मैंने जवाब दिया था, ‘अगर निर्णायक ने पढ़ना शुरू कर दिया तो अंत तक जरूर पढ़ जायेगा. और यदि पढ़ गया, तो इसे प्रथम पुरस्कार मिलेगा, अन्यथा कॉसोलेशन भी नहीं.
परिणाम दिसंबर 1989 में आने की घोषणा थी और मैंने कहानी जून में भेजी थी. उसके बाद निरंतर कहानियां लिखता गया था और छपता गया था. जून और दिसंबर के बीच के अंतराल में मेरी स्मृति से यह गायब भी हो गया था, कि मैंने किसी प्रतियोगिता में अपनी कहानी भेज रखी है. शायद इसलिए कि मैं भीतर ही भीतर मान चुका था कि उतनी लंबी कहानी को कहानियों की बड़ी भीड़ में शायद निर्णायक मंडल पढ़ने का साहस नहीं ही कर पाये.
-
दिनांक 1 दिसंबर 1989! सुबह लगभग नौ बजे का समय.
दरवाजे पर दस्तक हुई थी. दरवाजा खोलने पर सामने हाथ में कोई अखबार लिये मुस्कुराते सुनील सिंह खड़े थे. मुझ पर नजर पड़ने के साथ ही बधाई के शब्द उचरे थे, उनके मुंह से, ‘बधाई हो रतन जी, आपकी ‘गुलबिया’ ने गुल खिला ही दिया. ‘वर्तमान साहित्य’ ने आपको प्रथम पुरस्कार दिया है. चलिये, पार्टी दीजिए.’
अपने कानों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ था. सुनील जी ने अखबार का प्रथम पृष्ठ मेरी आंखों के सामने कर दिया था, जिसमें वह सूचना छपी थी.
-
कोई एक सप्ताह बाद सुनील सिंह ने मुझे सूचना दी थी कि मेरी पुरस्कृत कहानी पर डॉ. चंद्रशेखर कर्ण के निवास पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया है.
मुझे खुशी हुई थी. गोष्ठी में सभी ने कहानी की सराहना की थी, पर सुनील सिंह ने एक प्रश्न उठा ही दिया था, ‘यह कहानी मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर है. वहां हर वर्ष बाढ़ या सुखाड़ की स्थिति बनी ही रहती है. इतनी लंबी कहानी में आपने उसका जिक्र नहीं किया है.’
मुझे अजीब अटपटा सा लगा था उनका प्रश्न, उत्तर दिया था मैंने, ‘वहां हैजा, मलेरिया, निमोनिया आदि भी होती रहती हैं, तो क्या महज एक कहानी में किसी जगह की सारी स्थितियों को समेटा जा सकता है?’
मेरे उत्तर से शम्भु बादल भी संतुष्ट होते हुए बोल पड़े थे, ‘यह कैसा प्रश्न पूछ दिया आपने सुनील जी? हम कहानी पर बात करने बैठे हैं, न कि मिथिलांचल पर. कभी रतन जी के साथ मिथिलांचल पर अलग से बातचीत कर लेंगे.’
सुनील सिंह फिर बुरी तरह निरुत्तर हो गये थे.
एक असफल सम्पादक
सुबोध सिंह ‘शिवगीत’ अक्सर मुझसे मिलने लगे थे. उनके व्यवहार ने मेरे अंदर एक खास स्थान बनाना शुरू कर दिया था. उन्होंने एक छापाखाना ‘शिवगीत प्रेस’ के नाम से खोल रखा था. एक दिन वे एक प्रस्ताव के साथ मेरे पास आये थे. प्रस्ताव था- यदि मैं प्रधान संपादक बनने की सहमति दे दूं, तो वे अपने छापाखाने से एक साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन शुरू करना चाहते हैं.
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि कहां वे अखबार-वखबार के चक्कर में पड़ रहे हैं, अच्छी-खासी तो वे कवितायें लिख ही रहे हैं, उसी पर ध्यान दें.
पर उनपर तो जैसे अखबार निकालने का जुनून ही सवार था, वे टस से मस होने को तैयार नहीं थे. हारकर अपनी सहमति देते हुए मैंने उनसे कहा था कि छापाखाने के घिसे हुए ‘टाइप’ से अखबार निकालना तो संभव नहीं होगा, फिर कुछ नेताओं वगैरह के ब्लॉक्स भी तो चाहिए ही होंगे.
मेरे सुझाव पर उन्होंने कहा था कि मैं और वे, दोनों साथ चलकर पटना से विभिन्न फॉन्ट के नये टाइप और ब्लॉक्स ले आयेंगे. फिर मैंने अखबार के पंजीयन का प्रश्न उठाया था. इस पर वे बोले थे कि पंजीयन पांच अंक निकलने के बाद ही हो सकता है, क्योंकि शर्त के अनुसार जब तक प्रारंभ के पांच अंकों की एक-एक प्रति जमा नहीं की जाती, तब तक रजिस्ट्रेशन नहीं मिल सकता.
उनके उत्साह को देखकर मैं राजी तो हो गया था, लेकिन सिर्फ इसलिए कि मेरे इंकार से कहीं उन्हें धक्का न लगे और उनकी वह महत्वाकांक्षी योजना धराशायी न हो जाय. टाइप तथा ब्लॉक्स आदि की खरीद में उन्होंने काफी पूंजी लगा दी थी. एक बात मुझे आश्चर्य में डाल रही थी कि उस एम.ए. में पढ़ने वाले सामान्य से युवक की गांव-गांव में अच्छी पहचान थी. अखबार के प्रकाशन के पूर्व ही उन्होंने गांव-गांव घूमकर इतने वार्षिक ग्राहक बना लिये थे कि प्रकाशन की तैयारी के लगभग पूरे खर्च की उगाही कर ली थी उन्होंने. अखबार का नाम ‘हजारीबाग टाइम्स’ रखा था. फिर तो पूरे जोशो-खरोश के साथ एक उद्देश्य निर्धारित कर अखबार का प्रकाशन प्रारंभ हो गया था. लोगों ने खुलकर अखबार का स्वागत किया था. शायद इसलिए कि हजारीबाग टाइम्स में जो समाचार या अन्य सामग्रियां प्रकाशित होने लगी थीं. वे स्थानीय समस्याओं एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करती थीं. इसके प्रवेशांक का लोकार्पण 15 अगस्त 1989 को विनोबा भावे विश्वविद्यालय की प्रथम कुलपति माननीय विनोदिनी तरवे के द्वारा हुआ था.
मैंने तो अखबार के प्रकाशन के पूर्व ही मन बना रखा था कि कुछ अंकों तक अपनी सेवा देने के बाद खुद को उसके दायित्व से मुक्त कर लूंगा, लेकिन तब तक जरूर बना रहूंगा जब तक कि अखबार अपना एक सही स्वरूप स्थापित नहीं कर लेता है.
-
सुबह का मेरा लेखन नियमित चल रहा था. कभी-कभी प्रसिद्ध आलोचक डॉ. चंद्रशेखर कर्ण विश्वविद्यालय जाते हुए मेरे निवास पर भी आ जाया करते थे. अक्सर वे जब भी आते, मैं बाहर वाले कमरे में ही पलंग पर पालथी मारकर लेखन में व्यस्त मिलता उन्हें. लेकिन उनपर नजर पड़ने के साथ ही लेखन स्थगित कर मैं उनके साथ वार्तालाप में संलग्न हो जाता. मेरे लेखन के तरीके को देखकर उन्होंने मेरा एक उपनाम भी रख लिया था- ‘पलंग बाबा’. जब भी मिलते, तो मुझे ‘पलंग बाबा’ संबोधित करते हुए बोल पड़ते, ‘तब पलंग बाबा, आजकल क्या लिख रहे हैं?’
बाद में चलकर मैंने हजारीबाग टाइम्स में ही पलंग बाबा की डायरी नाम से कई व्यंग्य, धारावाहिक रूप से लिखे, जिसकी पूरे जिले भर में अच्छी चर्चा रही.
हजारीबाग टाइम्स के छठे अंक तक प्रकाशित होते-होते मैंने समझ लिया था कि अब सुबोध सिंह ‘शिवगीत’ पूर्णतः सक्षम हैं, बिना किसी के सहयोग के अखबार को निकालने में. मैंने सातवें अंक से अखबार को छोड़ दिया था. सुबोध जी लाख जिद् करते रह गये थे, पर मैंने अपनी नौकरी और लेखन में व्यस्तता की दुहाई देकर उन्हें मना लिया था. हालांकि भरे मन से ही उन्होंने मुझे मुक्ति दी थी. इस शर्त के साथ कि पलंग बाबा की डायरी मैं नियमित लिखता रहूंगा. हालांकि अधिक दिनों तक मैं वह भी नहीं लिख पाया था.
अखबार ने जो छवि निर्मित की थी, वह न सिर्फ सराहनीय, बल्कि किसी भी अखबार के लिए अनुकरणीय भी थी. सुबोध जी को मेरे हटने के बाद एक ऐसे सहयोगी की जरूरत थी, जो अखबार को पूरा समय दे सके. उन दिनों मिथलेश सिंह बेरोजगार ही थे. मैंने सह-संपादक के तौर पर उन्हें अखबार से जोड़ दिया था. वे एक समझदार और तेज-तर्रार युवक थे.
इस प्रकार अखबार लोकप्रिय होता चला गया था. लेकिन इसे क्रमशः अपनी ईमानदार छवि की सजा भी भुगतनी पड़ती रही थी. अखबार तथा संपादक सुबोध सिंह पर कई सारे केस होते चले गये थे. परेशानी इस हद तक बढ़ गयी थी कि परिवार के दबाव में सुबोध जी ने मार्च 2000 में अखबार बंद कर दिया था. दूसरा कारण यह भी कि 1990 में वे एक निजी महाविद्यालय जे.एम. कॉलेज, भुरकुंडा में व्याख्याता हो गये, फिर 1996 में अन्नदा कॉलेज, हजारीबाग में उनकी नियुक्ति हो गयी थी.
एक तरफ तो अदालती झंझट और दूसरी ओर व्याख्याता पद का दायित्व, इन सभी समस्याओं ने मिलकर अखबार बंद कर देने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया था. बाद में चलकर 2008 में झारखण्ड लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार में सफल होकर वे विनोबा भावे विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में व्याख्याता नियुक्त हो गये.
उनके मन में आज भी अखबार के बंद होने की टीस है, जिसे अपने समर्थ काव्य-लेखन से तथा एक मंजे हुए वक्ता की तरह खुद को प्रस्तुत कर वे पाटते रहते हैं.
-
हजारीबाग टाइम्स अखबार के संपादकीय के साथ जुड़ने की याद से एक और भी घटना स्मरण हो आती है. बात 1986 के दिसंबर माह की है. हमारे शहर में आज की प्रख्यात साहित्यकार रमणिका गुप्ता साहित्य के केंद्र में हुआ करती थीं. वह न सिर्फ एक दबंग नेत्री और बिहार विधान सभा में विधायक थीं, बल्कि कोयलांचल में मजदूर संगठन की भी नेत्री थीं. लेकिन इन सब से हटकर उनका व्यक्तित्व एक सहृदय संवेदनशील कवयित्री का अधिक मुखर था. वह शहर के नये से नये रचनाकारों का भी उतना ही सम्मान करती थीं जितना बड़े साहित्यकारों का. हालांकि उन दिनों वह भी नवोदित रचनाकार की ही श्रेणी में आती थीं. भारत यायावर हों, प्राणेश कुमार, सुनील सिंह या फिर खुद मैं. सभी के प्रति उनका आदर भाव और आत्मीयता समवेत रूप से बनी रहती थी. हां, भारत यायावर को वह कुछ अधिक सम्मान दिया करती थीं.
मेरा उनसे मिलना-जुलना लगभग रोज ही हुआ करता था. उन दिनों किसी मतभेद के कारण मैंने भारद्वाज कंस्ट्रक्शन की नौकरी छोड़ दी थी. क्यों, इसका जिक्र विस्तार से मेरी कहानी ‘फाइलोक्लोड’ में किया है मैंने. इसलिए उन दिनों मैं अधिक समय रमणिका गुप्ता के ‘मुद्रक’ छापाखाने में ही व्यतीत किया करता था. उसके एवज में रमणिका जी से मुझे प्रत्येक माह कुछ राशि भी प्राप्त हो जाया करती थी.
1986 के ही अक्टूबर महीने में रमणिका जी ने एक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका निकालने की योजना बनायी थी, जिसके संपादन का दायित्व वह मुझे सौंपना चाहती थीं. वह खुद चूंकि अपनी पार्टी और संगठन के कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहा करती थीं, इसलिए खुद को सहयोगी की भूमिका में रखना चाहती थीं. मैंने अपनी सहमति दे दी थी, मगर इस शर्त के साथ कि संपादन तो मैं करूंगा, मगर पत्रिका में उनका नाम भी प्रधान संपादक के तौर पर रहेगा.
पूरे उत्साह के साथ मैं पत्रिका के संपादन में जुट गया था. रचनायें मंगवाना, उन्हें पढ़ना और जरूरत पड़ी तो उनमें सुधार आदि का काम समर्पण भाव से करना शुरू कर दिया था. दिसम्बर 1986 में प्रवेशांक छप गया था, जिसे व्यापक स्तर पर पाठकों की सराहना मिली थी. उसके बाद अगले अंक की तैयारी में मैं जुट गया था.
रमणिका गुप्ता सी.पी.एम. पार्टी की सक्रिय सदस्य थीं तथा जनवादी लेखक संघ की जिला इकाई की पदाधिकारी भी. और मैं जन संस्कृति मंच का जिला सह संयोजक था.
मैं अगले अंक की तैयारी में जुटा ही था कि रमणिका जी का एक सहायक गणेश कुमार ‘सिटू’ ने आकर कहा कि रमणिका जी मुझे बुला रही हैं.
जब मैं रमणिका जी के पास पहुंचा, तब उन्होंने मेरे समक्ष प्रस्ताव रखा कि मैं ‘जनवादी लेखक संघ’ की सदस्यता ग्रहण कर लूं.
मुझे उनका वह प्रस्ताव बड़ा अटपटा-सा लगा. मैंने असहमति जताते हुए उनसे कहा, ‘ब्या बात करती हैं, रमणिका जी! यह कैसे संभव है? आपको तो पता है ही कि मैं जन संस्कृति मंच का जिला सह संयोजक हूं.’
‘तो ठीक है. आप वहां से रिजाइन कर दीजिए और ‘जलेस’ की सदस्यता ग्रहण कर लीजिए.’
मुझे उनका लहजा आदेशात्मक लगा था. अंदर ही अंदर मैं उस लहजे पर तिलमिला उठा था. फिर भी खुद पर नियंत्रण रखते हुए मैंने उत्तर दिया था, ‘यह असंभव है रमणिका जी. अनावश्यक, बिना किसी कारण ‘जसम’ से मैं कैसे नाता तोड़ सकता हूं?’
इस पर रमणिका जी सहज लहजे में बोली थीं, ‘देखिये रतन जी, मैं ‘जलेस’ की पदाधिकारी हूं. यह पत्र्किा भी ‘जलेस’ की ही होगी. अब जब पत्रिका ‘जलेस’ की होगी तो इसका संपादक दूसरे साहित्यिक संगठन से कैसे हो सकता है? आप चाहें तो एक-दो दिन विचार कर लें.’
उनकी बात गंभीरता से सुनी थी मैंने. फिर बिना कोई उत्तर दिये मैं वहां से छापाखाने में चला गया था. अपने टेबुल पर रखी ‘आम आदमी’ पत्रिका की फाइल उठाई थी और ले जाकर रमणिका जी को थमा दी थी, फिर बोला था, ‘ये रही ‘आम आदमी’ की फाइल. मैं चलता हूं.’ इतना बोलकर मैं बिना उनकी कुछ सुने, सीधे घर वापस आ गया था. उस दिन के बाद से मैंने छापाखाने में भी जाना बंद कर दिया था. हालांकि रमणिका जी ने कई बार बुलाहट भेजी थी मुझे, पर मैंने मना कर दिया था.
पत्रिका के आगामी अंक से संपादक के तौर प्राणेश कुमार का नाम छपने लगा था.
‘आम आदमी’ से अलग होने के बाद मैंने पक्के तौर पर मन बना लिया था कि अब मैं कभी संपादन से नहीं जुडूंगा. वैसे भी मामला ‘जसम’ का था या पत्रिका के संपादन का, मैं पूरी कर्मठता और सक्रियता के साथ अपने दायित्व के निर्वहन में संलग्न रहा करता था. इसका विपरीत प्रभाव मेरे लेखन पर भी पड़ रहा था. इसलिए संपादन से मुक्ति पाने के बाद मैंने राहत की सांस ली थी.
प्राणेश कुमार के संपादन से जुड़ने के बाद पुनः उस अंक के साथ रमणिका जी ने मुझे बुलावा भेजा था. मेरे मन में किसी तरह की दुर्भावना तो थी नहीं, सो उनके आमंत्रण को स्वीकार कर मैं उनके पास पहुंचा था. मुझ पर नजर पड़ने के साथ ही चहक-सी पड़ी थीं वह,‘आइए रतन जी! आप तो नाराज ही हो गये. संपादक न सही, हम साथी ता रह ही सकते हैं न.’
रमणिका जी में वह खास बात थी कि साहित्यकारों के प्रति, चाहे वह किसी भी विचार या विचारधारा का हो, सभी के साथ आत्मीय व्यवहार रखा करती थीं. वह एक मंजी हुई राजनीतिश्र थीं, पर साहित्य और साहित्यकारों के प्रति पूरी तरह संवेदनशील.
क्रमशः......
सम्पर्कः क्वा. नं. के-10, सी.टी.एस. कॉलोनी,
पुलिस लाइन के पास, हजारीबाग-825301
COMMENTS