मुक्तिबोध की कविताः ‘अँधेरे में’ खंड 3 भाष्यालोचन – // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मुक्तिबोध की कविताः ‘ अँधेरे में ’ खंड 3 भाष्यालोचन – पहले, कविता के पूर्व खंडों का पूनरावलोकनः आठ खंडों में वितरित मुक्तिबोध की यह लंबी कव...

मुक्तिबोध की कविताः अँधेरे मेंखंड 3

भाष्यालोचन –

पहले, कविता के पूर्व खंडों का पूनरावलोकनः

आठ खंडों में वितरित मुक्तिबोध की यह लंबी कविता असंदिग्ध रूप से एक राजनीतिक कविता है. किंतु इसके प्रथम दो खंडों में इसका कोई आभास नहीं मिलता. इसका आभास मिलता है कविता के तीसरे खंड में जब उनके चिंतन-क्रम में एक प्रोसेशन की बात आती है. यह प्रोसेशन एक राजनीतिक प्रोसेशन है. इन कविता-खंडों में कवि ने कविता की जो अंतर्वस्तु प्रस्तुत की है वह टुकड़ों में है. इन टुकड़ों में संबद्धता नहीं है. इनमें एकसूत्रता का अभाव है. लगता है ये कवि के अस्थिर और उद्विग्न मन के प्रतिफलन हैं, वह जो कविता में कहना चाहता है, उसके मन में साफ नहीं है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण है जिसे वह अभिव्यक्त तो करना चाहता है पर उसे सटीक अभिब्यक्ति नहीं मिल पा रही.

वह इस कविता को अपनी प्रतीतियों के अंकन से शुरू करता है, स्यात इस आशा में कि वह अपने अंतर्बाह्य बोध को प्राप्त कर सके. नंदकिशोर नवल के साक्ष्य (निराला और मुक्तिबोधः चार लंबी कविताएं, पृष्ठ 125) से ज्ञात होता कि इस कविता को कवि ने कुछ दिनों तक एक टिन के बक्से में अंडर रिपेयर रख दी थी. संबवतः यह एम्प्रेस मिल की घटना घटने के पहले ही लिखनी शुरू की गई थी जिसमें शोषक-शोषित के अंतर्संबंधों को दर्शाने की चेष्टा की जाने वाली थी. इस कविता को वह रिपेयर करते हैं एम्प्रेस मिल की घटना (मजदूरों पर गोली चलाए जाने की) घटने के बाद. इस तीसरे खंड की अंतर्वस्तु को ध्यान से देखने से साफ झलकता है कि वह कविता यहीं रिपेयर की गई है. (कविता का रिपेयर, एक अनोखी बात).

प्रथम कविता-खंड एक काव्य-प्रस्तावना से शुरू होता है. यह काव्य-प्रस्तावना बहुत उलझी हुई है. कवि ने इसे एक उपन्यास का शिल्प देने की चेष्टा की है. वह एक कमरे में है. कमरे के एकांत में उसे कुछ आभास होता है, या वह कुछ प्रकल्पना करता है अथवा एक स्वप्न (फैंटेसी) की मनोरचना करता है जिसमें बेतरतीब दृश्यों की प्रतिष्ठा है. लगता है कवि बहुत उद्विग्न है. उसे अपनी जिंदगी कमरों में बँटी दिखाई देती है. हम इन कमरों को कवि का व्यक्तित्व-खंड मान लेते हैं. उसे अपने इन व्यक्तित्व-खंडों में किसी के पैरों के चलने की आवाज सुनाई दे रही है, पर पैरो की आहट पैदा करने वाला व्यक्ति दिख नहीं रहा. यह एक रहस्य रचने का उपक्रम है अथवा कवि का भ्रम, अध्येता की संवेदना इसका निर्णय करे. कमरे में (इस तीसरे कविता-खंड में संकेत है कि यह कमरा सिविल लाईन्स में है) अस्थिर-मन कवि चारो तरफ देख-गुन रहा है. रात का आरंभिक प्रहर है. अब उसका ध्यान पैरों की ध्वनि से हट कर कमरे की दीवारों की तरफ जाता है. कमरा पुराना पड़ चुका है. उसकी दीवारों के पलस्तर झड़ रहे हैं. पलस्तर झड़ने से कमरे की एक दीवार पर एक आकृति उभर आती है- नुकीली नाक नक्स वाली. उसे देख कवि के मुख से अचानक निकल पड़ता है, “कौन, मनु?” यहाँ कवि के मन में मनु के स्मरण हो आने का कोई ब्याज नहीं दिखता. पर मुक्तिबोध ने इनका उल्लेख अनायास नहीं किया होगा. मनुष्य-सम आकृति को देख इसके मन में कोई नाम तो उभरना ही था. पर मनु नाम ही क्यों उभरा.

फिर कवि की दृष्टि कमरे की खिड़की से सामने के तालाब की ओर जाती है. तालाब के तम-श्याम जल में, उसके ऊपर छाए कोहरे में, उन्हें एक उर्ध्व आकृति बनती दिखती है जिसमें एक द्युति चमक रही है (जैसे एक अवगुंठन में कोई रहस्य प्रकट हो रहा हो, स्यात यह रहस्य में लिपटा उनका सेल्फ हो, जो अर्थवान होना चाह रहा हो, अभिव्यक्त होना चाह रहा हो). इसके उपरांत उन्हें वृक्षों की पुतलियों पर चमकती ज्योति दिखती है जो वृक्षों की पत्तियों पर दूर से आती हुई मशालों की पड़ती रोशनी की है. फिर उन्हें मशालों की लाल रोशनी में नहाई हुई एक और रहस्य-आकृति दिख जाती है. उसे वह अपनी अभिव्यक्ति कहते हैं. किंतु उनकी यह अभिव्यक्ति उन्हें प्राप्त न होकर उनसे दूर चली जाती है. उनकी अभिव्यक्ति के जाते ही वे मशालें अकस्मात बुझ जाती हैं और कवि बेजान हो जाता है. उसे लगता है जैसे किसी ने उसे सूली पर चढ़ा दिया हो. वह संज्ञाहीन होकर वहीं (कमरे में) गिर पड़ता है. कवि की ये सब प्रतीतियां और प्रकल्पनाएँ अद्भुत हैं ये पाठकों और समीक्षकों को उलझन में डाल देती हैं. इस रोशनी के बुझ जाने से संज्ञाहीन होकर गिर पड़ने की उसकी प्रतीति से क्या अर्थ निकाला जा सकता है.

यह कविता राजनीतिक है. तो इसे राजनीति की कसौटी पर कस कर इसके अंतर्वस्तु के खंड-दृश्यों में एकसूत्रता ढूँढ़ने की कोशिश की जाए. क्या यह माना जाए कि मशालों की रोशनी में मुक्तिबोध मार्क्सवाद की रोशनी देख रहे हैं. क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ मार्क्सवादियों की घुसपैठ काँगेस में बढ़ गई थी और वे नेहरू के संरक्षण में सत्ता पर अपना प्रभाव डालने का सपना देखने लगे थे. मुक्तिबोध उस धुसपैठ से दूर थे पर उनके मन में सत्ता पर मार्क्सवाद की प्रभावी छाया पड़ते रहने की आकांक्षा अवश्य थी. वह जो पैरों की आवाज सुन रहे थे, कदाचित वह मार्क्सवाद की पगध्वनि थी. तालाब में प्रकट हो रही चमकीली आकृति संभवतः मार्क्सवाद की अभिव्यक्ति का उपक्रम है. और मशालों की ज्योति मार्क्सवाद की ज्योति है जिसके लोक में फैलने की संभावना बन गई है. लेकिन अचानक मशालों की ज्योति बुझ जाती है अर्थात जन में जब मार्क्सवादी व्यवस्था लागू होने की संभावना क्षीण होती दिखाई देने लगती है तो कवि के लिए यह स्थिति प्राणघातक लगने लगती है. यह तगड़ा झटका महसूस कर, मुक्तिबोध संज्ञाहीनता को प्राप्त हो जाते हैं.

कविता के दूसरे खंड की आरंभिक पंक्तियों तक उनकी यह संज्ञाहीनता बनी रहती है. किंतु वह अपनी जिजीविषा के धनी होने से फिर संज्ञा (होश) में आ जाते हैं. उनके संज्ञा में आते ही, उनकी अभिव्यक्ति जो उनसे दूर चली गई थी (उनके अधिनायकी अथवा लोकतंत्री अभिव्यक्ति की द्विविधा में पड़ जाने के कारण). वह फिर उनसे मिलने के लिए (अर्थात उनकी आत्माभिव्यक्ति को एक स्वरूप देने के लिए) उनके कमरे की साँकल को खटखटाने लगती है (प्रतीकार्थ में यह साँकल उनके मन के द्वार की है). उक्त द्विविधा में पड़ा कवि कुछ समय तक, साँकल खोलें, न खोलें की अहजह में पड़ा रहता है. पर साहस बटोर कर जब वह कमरे की साँकल खोलता है तो उसकी अभिव्यक्ति रात के अंधेरे में गुम हो चुकी होती है. रात का पंछी कवि को हतोत्साहित भी कर डालता है- कवि, वह तुम्हारी गुरू थी और तुम उसके शिष्य. अभिव्यक्ति में किसी प्रकार का संकोच सबकुछ तितर-बितर कर देता है.

इस पूरे प्रसंग में कवि की मात्र स्वैर कल्पना (फैंटेसी) ही दिखती है. पूरे प्रसंग को देख कर केवल यही लगता है कवि जैसे किसी मानसिक बेचैनी में है. वह कोई तर्कसंगत बात सोच नहीं पा रहा. उसे किसी के पैरों की आवाज का सुनाई देना उसके अंतर्जीवन या बाह्य जीवन का कोई हलचल प्रकट नहीं करता. तालाब के तम-श्याम जल में उछलती आकृति एक कमजोर मन का प्रक्षेप ही लगती है. उनके मन में, रात में मशालों के जुलूसबद्ध उनकी कल्पना में आने का राज, क्या कवि के मन में आजादी की मशाल से मार्क्सवादी ज्योति के प्रकट होने की प्रतीति है. कवि की यह काव्य-प्रस्तावना बहुत उलझन में डाल देती है. केवल एक ही बात सुलझी हुई प्रतीत होती है, वह है लाल रोशनी में नहाई हुई आकृति का प्रकट होना और फिर उसका गुम हो जाना. इसका राज उनके द्वारा सुझाई गई उनकी अभिव्यक्ति के संदर्भ में ही खुलता है. नयी कविता के द्वितीय उत्थान-काल में मुक्तिबोध मार्क्सवाद की तरफ मुड़ गए थे और अपने हर सोच की व्यख्या मार्क्सवादी दृ।टिकोण से करने लगे थे. लाल रंग मार्क्सवाद का निशान है. ईश्वर के अस्तित्व की व्याख्या उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही की है जिसमें अंधानुकरण अधिक है. लाल रोशनी में नहाई आकृति (उनकी अभिव्यक्ति) से उनका अर्थ उनकी मार्क्सवादी अभिव्यक्ति से है. जीवन के हर पहलू की, अपने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्ति देने की कोशिश में हैं वह, ऐसा लगता है. अब यही देखें, सोवियत रूस मे उन्हीं के समय में जनता से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गई ( सत्ता के अधिनायकत्व की घोषणा कर) पर उसपर वह कोई टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं कर सके क्योंकि उसी की छननी से छने मार्क्सवाद को उन्होंने अपनाया था. और मध्यप्रदेश में एक श्रमिक हड़ताल को जनक्राति बताकर वह अभिव्यक्ति की स्वपंत्रता के हनन से देश को अँधेरे में होने की घोषणा कर बैठते हैं.

यह काव्य-प्रस्तावना भारतीय काव्य-परंपरा में नहीं है. लेकिन यह अलग से अपनी कोई काव्य-परंपरा भी नहीं बना पाती. क्योंकि इसमें न तो कवि के चिंतन में तारतम्यता है न तो उनकी विचारणा को सर्वग्राह्य बनाने की काव्य-स्फुरणा.

भाष्यः

उक्त परिप्रेक्ष्य के साथ अब मैं कविता के पूर्व खंडों को उसके इस तीसरे खंड से जोड़ने का प्रयास करता हूँ. भाष्य निम्नवत हैः

समझ न पाया.......................................................................................क्या वह मैं हूँ, मैं हूँ?

इस खंड में कवि समझ नहीं पा रहा है कि उसके मस्तिष्क में जो चल रहा है (पूर्व से अबतक) वह स्वप्न है या उसकी जाग्रति में ये सब बातें घुमड़ रही हैं. हालाँकि वह कमरे में जलते हुए दीये को देख रहा है, उसकी पीली लौ के प्रकाश में (लौ के बीतने के साथ) समय बीत रहा है. किंतु उसके गिर्द विभिन्न आकृतियों में फैला जगत उसे यथार्थ न लगकर किन्हीं छपी हुई जड़-चित्रकृतियों के समान लग रहा है. उसके सारे अवयव उसे अलग अलग और निर्जीव लग रहे हैं. कह सकते हैं, जगत उसकी संवेदना में असंबद्ध तंतुओं का समवाय-सा है, किसी चेतना से उसकी तारतम्यता नहीं है. पर सृष्टि की संरचना में आकाश तत्व के महत्व पर ध्यान दिया जाए तो प्रकृति की अद्भुतता हमें अभिभूत कर जाती है. जगत के अवयवों को प्रकृति इसी आकाश तत्व से जोड़ती है. जड़ दिखने वाले इस जगत में चेतना की न्यूनतम स्थिति होती है जो सामान्य अनुभव में नहीं आती. मुक्तिबोध का ध्यान इस तरफ नहीं जाता.

यह सिविल...................................................................................................................मैं हूँ

कवि सिविल लाईन्स के अपने कमरे में है. उसकी आँखें खुली हुई हैं पर वह अपने को स्वस्थ अनुभव नहीं कर रहा. उसे लगता है उसका चेहरा, उदास, इकहरा और पीटे गए बालक के मार खाए हुए चेहरे जैसा है. उसे लगता है वह स्लेट-पट्टी पर खींची गई जैसे कोई तस्बीर हो जिसकी आकृति भूत जैसी अंकित की गई हो. (क्या ऐसा कहा जा सकता है कि वह अपने अस्तित्व में जीवंतता का अनुभव नहीं कर रहा, पर क्यों. कहीं विपरीत विचारवालों की प्रतिकूल टिप्पणियों से वह आहत तो नहीं. अगर ऐसा है तो किसी संघर्षशील व्यक्ति के लिए यह अनपेक्षित है. इस क्षण कवि के मन को उसकी पुस्तक पर म प्र सरकार द्वारा प्रतिबंध की कचोट तो नहीं सता रही. पर यह कवि के जुझारूपन का संकेत तो नहीं देता). उस तस्वीर को ध्यान में रख कर वह सोचता है - क्या यह वह स्वयं है. कवि की आँखें खुली हुई हैं. कमरे में मद्धिम प्रकाश में जलता दीया भी उसे दिख रहा है. इससे साफ है कि वह जाग्रत अवस्था में है, पर फैंटेसी रचने का स्वप्न उसकी आँखों में है. किंतु फैंटेसी रचने के आवेश में वह अपने को एक पिटे बच्चे जैसा चेहरे वाला क्यों प्रकल्पित करता है, वह अपने को स्लेट-पट्टी पर खींची गई तस्बीर सा अनुभव क्यों करता है जिसकी आकृति भूत जैसी हो, समझ से परे है. कहीं ऐसा तो नहीं कि कवि में नयी कविता की दौड़ में अन्यों से अपने को अलग दिखने दिखाने की स्पर्धा में आने की ललक आ गई हो. उक्त पंक्तियों का इसके अलावे और क्या अर्थ लिया जा सकता है. फैंटेसी एक अर्थ रोमांच भी है. अगर उक्त प्रकल्पना से कवि कोई रोमांच रचना चाह रहा है, तो धयान रखने योग्य है कि भारतीय साहित्य का एक बड़ा हिस्सा फैंटेसी-रचनाओं से भरा है. पर ये फैंटेशियाँ पाठकों में भी जीवंत रोमांच रचती हैं. मुक्तिबोध की यह फैंटेसी पाठक या समीक्षक में कौन सा रोमांच रचती है, इसमें कितनी जीवंतता है, यह हमारे अनुभव से दूर है.

रात के दो हैं..................................................................................................खिड़की से दीखते

रात के दो हैं, इस अमार्जित भाषा से एक अर्थ यह भी निकलता है कि इनमें (दूर दूर जंगल में सियारों के हो हो में) रात वाले दो हैं. पर पूरे अनुच्छेद को ध्यान में लेने पर इसका अर्थ होता है-रात के दो बजे हैं. सियार जंगल में हो-हो (हुँआ-हुँआ) का शोर मचा रहे हैं. पास आती हुई किसी रेलगाड़ी के पहियों की घहराती हुई आवाज गूँज रही है. इस आवाज में कुछ ऐसी गूँज है जिससे कवि को किसी अनपेक्षित और असंभावित घटना के घटने का संदेह हो रहा है, संदेह भी भयानक. यहाँ संदेह के साथ भयानक विशेषण कुछ खटकता है. और यह भी देखिए कि कवि उस दुर्घटना के घटने की अचेतन प्रतीक्षा में है- कहीं कोई रेल-एक्सीडेंट न होजाए. कवि के ललाट पर खिंचे चिंता के ये गणित के अंक (वास्तविक चिंता की लकीरें) आसमान की स्लेट-पट्टी (आसमान किसी स्लेट की पट्टी सा दीख रहा है) पर चमकते, कमरे की खिड़की से दीख रहे हैं (प्रकृति में हर जगह उसे यही चिंता टँकी हुई दीख रही है). कुछ अजीब सी स्थिति है, इन पंक्तियों में मार्क्सवादियों की दृष्टि में आत्मसंघर्ष से जूझते और संघर्षों से निकले इस कवि के अवचेतन में भयानक दुर्घटनाओं के घटने का संदेह तो है ही, वह उसकी प्रतीक्षा में भी है. भयानक दुर्घटनाओं के घटने की प्रतीक्षा में होना क्या कोई स्वस्थ दृष्टिकोण है.

हाय हाय.........................................................................................................तॉल्सतॉयनुमा

पहल 108 (पत्रिका) में अच्युतानंद मिश्र अपने लेख इक शम्अ है दलील-ए-सहर में अनुभव करते हैं कि मुक्तिबोध एक ही समय में कई दिशाओं में विचार कर रहे होते हैं. गौर करें, इस खंड के आरंभ में उनका ध्यान अपनी स्थिति पर है, वह समझ नहीं पा रहे हैं कि वह स्वप्न में हैं या जाग्रति में. फिर दूर जंगल में हो रही ध्वनियाँ उन्हें आकर्षित करती हैं. ट्रेन की ध्वनि सुन वह किसी एक्सीडेंट के होने की बात सोचने लगते हैं. फिर उनका ध्यान आकाश के सितारों की ओर चला जाता है. और अगले अनुच्छेद में किसी प्रोसेशन की बात करने लगते हैं.

इस अनुच्छेद में मुक्तिबोध को आकाश के सितारों के बीच घूमते, रुकते और पृथ्वी की ओर देखते तॉल्सतॉय दिख जाते हैं. पर सितारों के बीच तॉल्सतॉय को देख उन्हें खुशी होते नहीं दिखती, तत्समय उनके मुख से हाय, हाय शब्द निकलते हैं जो किसी अफसोसजनक स्थिति में ही प्रकट किए जाते हैं. समीक्षकों (अशोक वाजपेयी, नंदकिशोर नवल आदि) की दृष्टि में तॉल्सतॉय यथार्थोन्मुख साहित्य के क्षेत्र में मुक्तिबोध के आदर्श हैं और उनके गोत्र हैं. तो सितारों के बीच उन्हें देख, वह अफसोस की स्थिति में क्यों आ जाते हैं. कविता की अगली पंक्तियों में तॉल्सतॉय की अपनी ही परख पर उन्हें संदेह हो उठता है. अब उन्हें लगता है कि वह तॉल्सतॉयनुमा आदमी कोई और है. कवि सोचता है कि शायद वह उसके किसी भीतरी धागे का आखिरी छोर है अर्थात उसके भीतर छलकती कोई रचनात्मक संवेदना अभिव्यक्ति के कगार पर है. शायद वह उसके हाय-हायनुमा (जिसमें अफसोसनाक स्थितियाँ हों) और तॉल्सतॉयनुमा (तॉल्सतॉय के उपन्यासों के अनुकरण में) किसी अनलिखे उपन्यास का केंद्रीय संवेदन है जो उसके अवचेतन में दबी है.

प्रोसेशन...........................................................................................................समीप आ रहा

सिविल लाईन्स के कमरे में बैठे चिंतनमग्न कवि का अस्थिर मन अब आकाश से हट कर धरती पर आ जाता है. और उसकी संवेदनाएँ अंतर्मुख से बहिर्मुख हो कर रात के अँधरे में निकल रहे एक प्रोसेशन (जुलूस) पर जा टिकती है. पूर्व की पंक्तियों में कवि ने अपने अंतर्मुख चेतना की केवल प्रतीति भर दर्शाई है पर इस बहिर्मुख घटना (प्रोसेशन) का एक बड़ा चित्र प्रस्तुत किया है. दरअसल घटनाएं बाहर ही घटती हैं, भीतर तो अनुभूति होती है जो घनी और विस्तृत होती है जिसे बाजवक्त अंतर्घटनाएँ भी कहते हैं. यहाँ कवि की अनुभूति में बहुत गहराई नहीं है किंतु उसका प्रोसेशन का बाह्य वर्णन विस्तृत है.

यह प्रोसेशन निस्तब्ध नगर की मध्यरात्रि के सुनसान अँधेरे में निकला है. पोसेशन में दूर बज रहे बैंड की क्रमशः नजदीक आ रही दबी (मंद मंद बजती हुई) तान-धुन सुनाई दे रही है. ये बैंड वाद्य-ताल के अनुसार मंद-तार, उच्च-निम्न स्वप्न सरीखे स्वर (स्वप्न में भी अनुभूत होने वाले स्वर) में बज रहे हैं. किंतु उनसे जो ध्वनि-तरंगें निकल रही हैं वे दीर्घ लहरियों में तो हैं पर उदास-उदास और गंभीर हैं अर्थात उनमें सहज उल्लास के भाव नहीं हैं. कवि इस प्रोसेशन को देखने के लिए कमरे से बाहर गली में निकलता है और रास्ते को देखता है. वह कोलतार से बना रास्ता उसे ऐसा लगता है जैसे कोई मरी और खिंची हुई काली जिह्वा हो. अर्थ यह की अँधेरे में पथ की भयावहता कुछ अधिक ही बढ़ गई है. पथ के किनारे पोल पर लटके बिजली के दीए मरे हुए दाँतों अर्थात किसी खोंपड़ी में जडे चमकदार दाँतों के नमूने लग रहे हैं किंतु सड़क के दूसरी ओर खिंचे बिजली के तारों की परछाँई से बने अँधियारे तल में, शीत से भरी सड़क पर

प्रतिबिंबित बल्बों के प्रकाश की नीली तेज चमक (प्रतिबिंबित प्रकाश), बहुत पास पास (संभवतः पोलों के तिरछे होने के कारण) सड़क के इस ओर भी आ रही है. इसी चित्रबीथी में सैकड़ों ध्वनिमय संगीत से लदी फदी किंतु दबी (मंदित), गंभीर (उल्लासहीन) स्वर-स्वप्न-तरंगें (विभिन्न स्वरों के सपनों को पूरी करती गंभीर ध्वनि-तरंगें) उदास तान धुन के साथ समीप आती जा रही हैं

और अब.....................................................................................................जादुई कारामात.

और अब बैंड बाजों के साथ चल रहीं गैस-लाइटों की पंक्तियाँ कवि के दृष्टि-पथ में बिंदु-सी छिटकी हुईं दिखाई देने लगी हैं. इन की पाँतों के बीचों-बीच अँधेरे में सँवलाए जुलूस-सा उसे कुछ दिखता है. और फिर उसे इन गैस-लाइटों के नीले प्रकाश में रँगे हुए कुछ अपार्थिव चेहरे (दूर होने और नीली रोशनी से रंगे होने कारण जड़वत लगते), बैंड-दल और उनके पीछे चलता काले घोड़ों का एक बलवान जत्था चलता दिखता है. मानो इस जुलूस में जैसे घना डरावना अवचेतन ही चल रहा है (शायद कवि के अवचेतन में प्रोसेशन की कोई प्रकल्पना रही होगी जो यहाँ चरितार्थ हो रही है). प्रोसेशन की भयंकरता को देख कर कवि को लगता है यह किसी मृत्यु-दल (अर्थात मृत्यु ढाने वाला दल) की शोभा-यात्रा है.

नीली गैस-लाइट का दोनों ओर पंक्तियों में जलना कवि को बड़ा अजीब लग रहा है. समूचा शहर नींद में डूबा हुआ है, नींद में खोए शहर के लोगों की गहन अवचेतना में बाहर की तरफ हलचल है, उसके मकानों के पाताली तल में (बेसमेंट में) चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार लकीरों की वारदात है (अर्थात उँची उँची सीढ़ियाँ बनी हुई हैं). लोग सभी सोए हुए हैं. लेकिन कवि जाग रहा है. वह सबकुछ देख रहा है, जो चारों तरफ रोमांचकारी और जादुई कारामात हो रही है. यह जादुई कारामात ही है कि रोमांच से भर देने वाला जुलूस शहर में निकल रहा है और उसके प्रभाव से समूचा शहर अनांदोलित है.

विचित्र प्रोसेशन............................................................................................पसीने से सराबोर

यह प्रोसेशन विचित्र है. इसमें भाग लेने वाले दल गंभीर क्विक-मार्च के अनुशासन में चल रहे हैं. बैंड-दल के सदस्य चमकदार जरीदार ड्रेस पहने हुए हैं. इस बैंड-दल में चलने वाली आकृतियाँ ऐसी हैं जैसे हड्डियों को, आँतों को या आँतों के जाल से बने उदरों को ड्रेस पहना दिया गया हो (स्पष्ट है इस बैंड-दल में दबे कुचले निरीह लोगों को बलात शामिल कर लिया गया है). इससे उनके बाजाओं में भयंकर दमक है (बाजे ही बाजे दीख रहे हैं, बजाने वाले नहीं). बैंड-दल अपने वाद्यों से गंभीर गीतों की स्वप्न-तरंगें (गीतों की ऐसी तरंगें जो आमजन को स्वप्न में भी प्रभावित करती रहें) उभार रहे हैं, ये ध्वनि-तरंगें सड़क पर इस प्रकार गूँज रही हैं मानो धवनियों के आवर्त मँडरा रहे हों. इस बैंड-दल में शामिल चेहरे कवि के देखे हुए चेहरों से मिलते हैं. इनमें नगर के कई प्रतिष्ठित पत्रकार हैं. कवि आश्चर्य करता है कि इतने बड़े नाम इस बैंड-दल में कैसे शामिल हो गए. इस बैंड-दल के पीछे संगीनों की नोकों का चमकता जंगल है (अनगिनत संगीनें हैं). तथा दीर्घ पंक्तियों में सैनिकों के परेडों के तालबद्ध चल रहे पद-चाप सुनाई दे रहे हैं. उसके पीछे टैंकों का दल, मोर्टार, आर्टिलरी चल रही है. यह भयावना जुलूस धीर धीरे आगे बढ़ रहा है. लेकिन इसमें शामिल सैनिकों के चेहरे पथराए हुए, चिढ़ से भरे हुए, झुलसे हुए और गंभीर रूप से बिगड़े हुए हैं. इससे भान होता है कि ये सारे दल अनिच्छा से इस प्रोसेशन में शामिल हुए हैं. कवि को लगता है जुलूस में सम्मिलित मूर्तियों में से बहुत से ऐसे हैं जो पहले भी उसके देखे हुए हैं, कई परिचित भी हैं.

लेकिन पूरे जुलूस के जो सबसे पीछे है उसे देख कवि चौंक जाता है. यह तो कैवेलरी है, घुड़सवार सेना. इसमें काले काले घोड़ों पर मिलिट्री ड्रेस वाले सैनिक हैं. इन सैनिकों का आधा भाग सिंदूरी गेरुआ है और आधा भाग कोलतारी (काले रंग के) भैरव के रंग का, किंतु बहुत ही आबदार और चमक वाला. घोड़ों पर सवार सैनिकों के कंधे से कमर तक कारतूस से लैस तिरछा बेल्ट है. कमर में चमड़े के कवर में पिस्तौल कसा है. सैनिकों की आँखों में रोष है, उनकी दृष्टि एकाग्र और धार वाली है. इनमें कर्नल, ब्रिगेडियर,जनरल, मार्शल और कई सेनापति-सेनाध्यक्ष भी हैं. इनमें भी कई चेहरे जाने-बूझे लगते हैं. कवि ने समाचार-पत्रों में छपे उनके चित्र देखे थे और समाचार पत्रों में छपे कईयों के लेख भी पढ़े थे. लेख ही नहीं उनकी कविताएँ भी उसने पढ़ी थी. तभी कवि के मुँह से निकल पड़ता है- भई वाह, इस जुलूस में प्रकांड आलोचक और विचारक भी हैं, जगमगाते कविगण हैं, मंत्री, उद्योगपति यहाँ तक कि शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी भी है जो बलवान बनता है. कवि अफसोस करता है, हाय-तोबा मचाता है कि यहाँ भूत और पिशाच की काया वाले (शोषक) सभी दिख रहे हैं. इनके भीतर जो राक्षसी स्वार्थ (शोषण का) है अब साफ उभर कर सामने आ गया है. उनके छिपे हुए उद्देश्य यहाँ निखर कर सामने आ गए हैं. अन्य मंचों पर इनका व्यक्तित्व दबा ढँका होता था. निश्चित ही यह जुलूस किसी मृत्यु-दल की शोभा-यात्रा है. ये निकले हैं इस प्रोसेशन में अपने शोषण की क्रिया-नीति को और पुख्ता करन के लिए.

इनके कर्तृत्वों और नीयत पर कवि के मन में विचार की फिरकी घूमने लगती है. इसी समय जुलूस में से कई आँखे कवि की ओर उठती हैं. कवि की ओर तनी ये आँखें ऐसी लगती हैं जैसे उसके हृदय में संगीनों की बर्बर नोकें घुस पड़ी हों. उनके द्वारा उसे देखते ही सड़क पर शोर मच गया- एकदम स्साले को गोली मार दो. कवि दुनिया की नजरों से हटकर छिपे तरीके से आधी रात के अँधेरे में निकल रहे जुलूस को देखने गैलरी में निकला था कि जुलूस में से किसी ने उसे देख लिया. उसने जान गया कि वह (कवि) क्रांतिवादी है और वह कवि को मार डालने पर उतारू हो गया. रास्ते पर पकड़ा- पकड़ी की धमाचौकड़ी शुरू हो गई. यह देख कवि पसीने से सराबोर गैलरी से भागा.

एकाएक............................................................................................................सजा मिलेगी

पकड़ो, गोली मारो की धमाचौकड़ी से एकाएक कवि का स्वप्न (प्रोसेशन को देखने में जड़ीभूत ध्यान) टूट गया और उसे दिख रहे सारे चित्र छिन्न भिन्न हो गए. प्रोसेशन देखने में तल्लीन कवि की दृष्टि जड़वत हो गई थी जैसे वह स्वप्न देख रहा हो. इस पकड़ा-पकड़ी की धमाचौकड़ी से उसका ध्यान भंग हो गया और वह अपने में आ गया. वह जाग गया अर्थात वह अपने और अपने परिवेश के प्रति चेतनशील हो गया. किंतु जागते में वह दृश्य (जो अभी अभी देखा गया था) उसे फिर से याद आने लगा. अँधेरे में देखे वे चेहरे जब भी फिर से याद आने लगे. उसके सोच में आया कि इस नगर की, जहाँ वह है, गहन मृतात्माएँ (जुलूस में जो आकृतियाँ कवि को दिखी थीं वे उसके अनुसार शहर की मृतात्माएँ थीं) हर रात को जुलूस में निकलती हैं परंतु दिन में विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, और घरों में मिल बैठ कर कोई न कोई षड़यंत्र रचती हैं, कवि उन्हें देख कर अफसोस में पड़ जाता है कि वह उन्हें उनके नंगे रूप में देख लिया है. वह इसकी सजा उसे (कवि को) अवश्य देंगे.

जुलूस में शामिल लोगों के लिए कवि ने मृतात्माएँ पद का प्रयोग किया है. यथार्थ के धरातल पर सोचा जाए तो मृतात्माएँ न जुलूस निकालती हैं न मीटिंग किया करती हैं. ऐसा तो बेताल पचीसी जैसी फैंटेसी में ही होता है. समीक्षकों के अनुसार मुक्तिबोध ने यथार्थ को फैंटेसी में प्रस्तुत किया है. पर मृतात्माएँ तो यथार्थ नहीं हैं. यहाँ मृतात्माएँ से यही अर्थ लिया जा सकता है- वे आत्माएँ या सेल्प जो शोषित वर्ग के प्रति असंवेदनशील हैं. यह जुलूस इन्हीं असंवेदनशील शोषकों की ओर से निकाला गया है शोषितों में दहशत पैदा करने के लिए.

आलोचनाः

इस लंबी कविता का प्रस्थान-बिंदु है कवि का उद्विग्न और अस्थिर मन. उसके उद्विग्न मन में घुमड़ रहे विचार खंडों में हैं, परस्पर असंबद्ध. इन विचार-खंडों को जो एक सूक्ष्म तार जोड़ सकता है, वह है अभिव्क्ति का तार. पर वह सूक्ष्म तार कवि की पकड़ से छूट-छूट जाता है. अभिव्यक्ति में तारतम्यता नहीं बन पाती. कभी वह तालाब की उर्ध्व द्युति में खुलना चाहती है तो कभी मशालों की ललाई में हिलमिल कर अभिव्यक्त होना चाहती है. जब कवि को संज्ञा में आने का अहसास होता है तब फिर उसके मन में घुमड़ता कोई उलझा विचार अभिव्यक्ति पाने के लिए उसके मन की खिड़की खटखटाने लगता है. लेकिन कवि की द्विविधा उसे फिर खो देती है. उसकी अभिव्यक्ति उसके मन की नाड़ियों के अँधेरे में कहीं गुम हो जाती है.

ऐसे में कवि अपनी इयत्ता को टटोलने लगता है, कहीं वह कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा अथवा वह जाग्रति में है. वह अपनी किसी भी अनुभूति अथवा विचारों की अभिव्यक्ति नहीं पा रहा. वह खुली हुई आँखों से फिर कुछ सोच में खो जाता है. आस पास की सारी चीजें उसे निर्जीव लगती हैं. वह अपने को एक पिटे हुए उदास बालक-सा महसूस करने लगता है. रात के दो बजे हैं. अँधेरे में सियारों की हो-हो मची है. ट्रेनों के पहियों के घहराने की आवाज सुनाई दे रही है. कवि को डर होता है कहीं एक्सीडेंट न हो जाए. कवि अघट घटनीय संभावना से भर जाता है. अस्थिर-मन कवि का ध्यान फिर आकाश की ओर जाता है. वहाँ उसे सितारों के बीच टॉल्सटॉय या टॉल्सटॉयनुमा आकृति दिखती है, जो उसके हृदय के किसी झीने किंतु संवेदनशील तार से जुड़ी है. इससे तो यही अनुमान होता है कि मुक्तिबोध में एक ऐसी अभिव्यक्ति की भी बेचैनी है जो यथार्थवादी साहित्य की होती है.

इस क्षण मुक्तिबोध की कविता एक प्रोसेशन के आयाम में प्रवेश करती है. यह प्रसंगागत प्रस्तुति के तारतम्य में नहीं है. प्रोसेशन का प्रसंग यहाँ जोड़ा गया लगता है. कुछ अजीब सी बात है कि यह जोड़ मुक्तिबोध की एक अवधारणा से मेल खाता है. अनिलकुमार से एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- “फर्स्ट राईटिंग में क्या होता है अनिलकुमार, कि जो हम कहना चाहते हैं न, यह पहले झटके से छूट जाता है. रिपेयर के लिए जब उठाते हैं तो रूप ही बदल जाता है. संश्लिष्टता के कारण लंबाई आ जाती है, गहराई भी.” (निराला और मुक्तिबोध, नंदकिशोर नवल, पृ 125). एम्प्रेस मिल की घटना के बाद शैलेंद्र कुमार ने जब मुक्तिबोध से पूछा, महागुरु, कविता लिखोगे, वह बोले, नहीं, थोड़ा पकने दो. कुछ समय बाद शैलेंद्र कुमार को पता चला कि यह कविता उनकी एक टिन की पेटी में अडर रिपेयर पड़ी है, एम्प्रेस मिल की घटना जब थोड़ी पकी तो उन्होंने प्रोसेशन का प्रसंग उस कविता में जोड़ दिया. लेकिन प्रोसेशन का जो चित्र यहाँ खींचा गया है वह शोषकों द्वारा निकाले गए जुलूस का है जो रात के अँधेरे में निकला है.

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: मुक्तिबोध की कविताः ‘अँधेरे में’ खंड 3 भाष्यालोचन – // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मुक्तिबोध की कविताः ‘अँधेरे में’ खंड 3 भाष्यालोचन – // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
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