इस बार कुछ ज़्यादा ही तपेगी पृथ्वी - राजकुमार कुम्भज

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भारतीय मौसम विभाग की ओर से जारी किए गए एक पूर्वानुमान में बताया गया है कि इस बरस मार्च से मई तक देश का तापमान सामान्य से दो डिग्री सेल्सियस ...

भारतीय मौसम विभाग की ओर से जारी किए गए एक पूर्वानुमान में बताया गया है कि इस बरस मार्च से मई तक देश का तापमान सामान्य से दो डिग्री सेल्सियस अधिक रह सकता है। भारत के कई-कई हिस्सों में चलने वाली लू भी इस मर्तबा कुछ अधिक उग्रता दिखा सकती है। सामान्य से अधिक रहने वाले उक्त तापमान के पीछे ग्लोबल वॉर्मिंग को ही ज़िम्मेदार माना गया है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और ब्रिटेन के मौसम विभाग ने भी इसी आशय की पुष्टि करते हुए, तकरीबन 167 बरस के आंकड़ों से तैयार की गई अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि वर्ष 2017 अलनीनो के बिना भी अब तक का तीसरा सबसे गर्म वर्ष रहा है। मौसम वैज्ञानिकों की सर्वेक्षण रिपोर्टों में बताए गए पूर्वानुमान वाकई गहरी चिंता का विषय हैं; क्योंकि प्राकृतिक-संसाधनों के प्रति मानवीय-हस्तक्षेप की क्रूरताएँ कुछ इस हद तक बढ़ती जा रही हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ते-बढ़ते असहनीय स्थिति में पहुँचता जा रहा है। अन्यथा नहीं है कि अगर हालात यही रहे तो वाकई पृथ्वी पर जीवन सामान्य नहीं रह पाएगा। बहुत संभव है कि इस बार पृथ्वी कुछ ज़्यादा ही तपेगी और मैदानी इलाकों के साथ ही साथ पहाड़ी इलाकों में भी रिकॉर्ड गर्मी पड़ेगी।

‘क्लाइमेट चेंज’ पत्रिका में प्रकाशित, यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के एक अध्ययन में बताया गया है कि सदी के अंत तक अर्थात् आगामी अस्सी वर्षों में पृथ्वी का तापमान तकरीबन दो से पाँच डिग्री सेल्सियस के बेहद ख़तरनाक स्तर तक बढ़ सकता है। हालाँकि अध्ययन में तापमान के इस स्तर तक बढ़ने की संभावना मात्र पाँच फीसदी ही बताई गई है।

जबकि एक ओर जहाँ भारत और आसियान देशों ने, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से संयुक्ततौर पर निपटने की प्रतिबद्धता जताई है, वहीं दूसरी ओर जर्मनी के बॉन शहर में जो वैश्विक जलवायु सम्मेलन हुआ, उसमें भी इसी आशय के कुछ जो महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, उनसे हम अवश्य ही संतुष्ट हो सकते हैं, किन्तु आगे की जीवन-यात्रा के लिए अभी भी हमारे पास असीमित अवसर हैं; क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की एक ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि मौज़ूदादौर में कॉर्बन-डाईऑक्साइड का उत्सर्जन सर्वाधिक हुआ है। चारों महासमुद्रों का जल-स्तर लगातार बढ़ रहा है। असल में मनुष्यों द्वारा संचालित उत्पादन एवं निर्माण गतिविधियाँ पृथ्वी का तापमान बिगाड़ रही हैं। हाल-फिलहाल तक हम जितनी गर्मी पैदा कर रहे हैं, वह हिरोशिमा पर बरसाए गए चार लाख परमाणु बमों के बराबर कही जा सकती है।

वर्ष 2015-16 में लम्बे समय तक चले अलनीनो के कारण वातावरण कॉर्बन-डाईऑक्साइड की बड़े पैमाने पर बढ़ौत्री से ही प्रभावित हुआ था। स्मरण रखा जा सकता है कि अलनीनो उस समुद्री जल को कहा जाता है, जिसका विकास प्रशांत महासागर में होता है, जो कि दुनियाभर में तापमान और बारिश में बदलाव के लिए ज़िम्मेदार होता है। यही अलनीनो शुष्कता, उष्णता और सूखे की वज़ह बनता है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के कई-कई प्रदेशों में, जहाँ-जहाँ लू चलती है वहाँ-वहाँ, आनेवाली गर्मियों की भीषणता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उत्तर भारत के कई शहरों में इसका सीधा प्रसार व प्रभाव दिखाई देगा। देश के मध्य क्षेत्र ने तो तापमान बढ़ौत्री की चपेट में आना शुरू भी कर दिया है। मार्च माह में मई-जून का अहसास डरावना साबित हो सकता है। आनेवाले समय में सबसे घातक दुष्प्रभाव दक्षिण एशिया में पड़ेगा।

वैश्विक-पर्यावरण की मानवीय अनुकूलता बचाए रखने के लिए वर्ष 2100 तक हमें तकरीबन 820 अरब टन कॉर्बन-डाईऑक्साइड हटाना होगी, जबकि मौज़ूदा औद्योगिक-उत्पादन और उपभोक्ता उपकरण इतनी गैस तो बीस बरस में ही उत्सर्जित कर देंगे और वह भी अभी तक उपलब्ध आधार दर पर ही। यह देखनेवाली बात होगी कि तब तक हमारी आजमाई हुई तकनीकी कोशिशें क्या कमाल दिखाती हैं ? सवाल है कि हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तकरीबन डेढ़ अरब आबादी आनेवाले दशकों में जलवायु परिवर्तन के खतरों से कैसे संभल पाएगी ?

हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तकरीबन डेढ़ अरब आबादी के लिए यह विश्लेषण इसलिए भी कुछ अधिक चिंताजनक है; क्योंकि इस क्षेत्र के आधिसंख्य लोग कृषि कार्यों से ही जुड़े हैं, जो सीधे-सीधे सूर्य-उष्मा अथवा सौर-ऊर्जा पर निर्भर हैं। इसके विपरीत खाड़ी देशों के लोग कृषि से दूर वातानुकूलित-निवासों में रहते हैं। ज़ाहिर है कि जलवायु परिवर्तन से कृषि-उत्पादनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि अलनीनो के कारण ही अंटार्कटिका की बर्फ प्रतिवर्ष दस इंच की दर से पिघल रही है। अलनीनो समुद्र के गरम पानी का बहाव अंटार्कटिका की ओर बढ़ा रहा है, जिसकी वज़ह से वहाँ बर्फ पिघल रही है और दुनिया का तापमान बढ़ रहा है। वर्ष 2017 में महासमुद्रों का तापमान रिकॉर्ड ऊँचाई पर रहा, जिसके कारण समुद्री पारिस्थितिकी-यंत्र तक खतरे में पड़ गया। चाइनीज़ एकेडेमी ऑफ साइंसेस के एक अध्ययन द्वारा निष्कर्ष दिया गया कि वर्ष 2015 की तुलना में वर्ष 2017 में विश्वभर के समुद्री-जल के ऊपरी दो किलोमीटर क्षेत्र में जो अतिरिक्त गर्मी पैदा हुई थी, वह वर्ष 2016 के चीन में इस्तेमाल की गई बिजली के लिए ऊर्जा से सात सौ गुना अधिक थी। मौसम में पश्चिमी विक्षोभ के प्रभाव की वज़ह से भी तापमान में वुद्धि दर्ज़ की जा रही है और उधर यूरोप-अमेरिका सहित आधी दुनिया इन दिनों बर्फबारी की चपेट में है। झीलें जम गई हैं, समुद्री किनारे जम गए हैं, उड़ानें रद्द कर दी गई हैं, लोग मर रहे हैं, कहीं-कहीं बर्फ की 14 इंच तक मोटी परत है और महीना मार्च का है।

मौसम की प्रतिकूलताएँ पिछले कुछ समय से लगातार मुसीबतें पैदा करनेवाली होती जा रही हैं। तापमान में लगातार हो रही बढ़ोत्री के पीछे ग्लोबल वॉर्मिंग को ज़िम्मेदार माना जा रहा है, जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग की इस भूमिका के लिए मानवीय-गतिविधियाँ ही ज़िम्मेदार हैं। वैश्विक-स्तर पर ग्लोबल वॉर्मिंग पर चर्चाएँ तो बहुत हुई हैं और हो भी रही हैं, लेकिन इसे प्राथमिकताओं में अभी भी स्थान नहीं मिल पा रहा है। इस स्थिति से उबरना ज़रूरी है। ग्लोबल वॉर्मिंग को वैज्ञानिकों ने किसानों की आत्महत्या के लिए भी एक खास वज़ह माना है और अलनीनो की वज़ह अलग से है ही।

वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि तेज़ हवाओं के कारण अंटार्कटिका में विशाल बर्फ की चट्टानें टूटने का क्रम जारी है। पिछले बरस एक विशाल आइस बर्ग दक्षिणी ध्रुव से अलग हुआ था, तब छः हज़ार किलोमीटर की दूरी तक की तेज़ हवाएँ, पश्चिमी अंटार्कटिक प्रायद्वीप में तेज़ गति से बर्फ पिघलने का प्रमुख कारण बनी थी। तब, ऑस्ट्रेलिया स्थित जलवायु प्रणाली विज्ञान उत्कृष्टता केन्द्र में अनुसंधान-कर्ताओं ने पाया था कि पूर्वी अंटार्कटिका में हवाएँ, समुद्र-स्तर का विक्षोभ पैदा कर सकती हैं, जो कि महाद्वीप के आसपास प्रायः तकरीबन सात सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से चलती हैं। ये ही तेज़ रफ़्तार हवाएँ घटते-बढ़ते तापमान के घटनाक्रम की प्रमुख वज़ह बनती हैं।

वर्ष 2016 अलनीनो की वज़ह से गर्म रहा, जबकि वर्ष 2017 में अलनीनों का असर नहीं था, इसके बावज़ूद यह वर्ष सबसे गर्म वर्षों में से एक रहा। अभिप्राय अन्यथा नहीं है कि प्राकृतिक जलवायु प्रक्रियाओं पर मानवीय-गतिविधियाँ मुसीबत बनती जा रही हैं। शायद यह विस्मय का विषय हो सकता है कि 2017 का वर्ष, 1998 के मुकाबले भी गर्म वर्ष था, जबकि वर्ष 1998 अलनीनोयुक्त और वर्ष 2017 अलनीनोमुक्त रहे हैं। अब दावा किया जा रहा है कि अलनीनो ही अंटार्कटिका की बर्फ पिघला रहा है।

अलनीनो एक ऐसी मौसमी परिस्थिति है, जो कि प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग (अर्थात् दक्षिण अमेरिका का तटीय क्षेत्र) स्थित सतह पर पानी का तापमान बढ़ने की वज़ह से पैदा होती है। इसी की वज़ह से सामान्य-मौसम का सामान्य-चक्र गड़बड़ा जाता है और बाढ़ अथवा सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ उपस्थित हो जाती हैं। ताज़ा चिंता का सर्वाधिक चिंताजनक विषय यह है कि वर्ष 1850 के बाद के सबसे गर्म अठारह वर्षों में से कुल जमा सत्रह वर्ष इसी इक्कीसवीं सदी के हैं। अगर पृथ्वी के सामान्य तापमान में तपिश का रुझान इसी रफ़्तार से बढ़ रहा, तो मानव जाति के लिए आने वाले समय में बड़ी कठिनाईयाँ खड़ी हो जाएंगी।

अगर पृथ्वी के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई, तो पृथ्वी का एक चौथाई हिस्सा सूख जाएगा, किन्तु अगर वैश्विक-उष्मन को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक रोक लिया गया, तो पृथ्वी के कुछ हिस्सों में होने वाले ऐसे परिवर्तनों को ज़रूर रोका जा सकेगा, वर्ना पृथ्वी पर भयंकर सूखे और जंगलों में आग लगने की घटनाओं को नियंत्रित कर पाना लगभग असंभव हो जाएगा। इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले मौसम वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सत्ताईस से अधिक वैश्विक-प्रसंगानुकूल घटनाओं का सूक्ष्म सर्वेक्षण किया है।

एक स्वीकार्य सूचना यही है कि औद्योगिक क्रांति वाले समय के मुकाबले और कॉर्बन-डाईऑक्साइड तथा अन्य ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन से प्रेरित इन दिनों का तापमान एक डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ा है, जो कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से अधिक है। यहाँ साधारणतः एक साधारण-सी सीख यही है कि जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक ख़राब नतीज़ों से बचने के लिए हमारी कोशिशें इतनी अधिक तेज़ रफ़्तार होनी चाहिए कि हमारी इस प्यारी पृथ्वी का वैश्विक तापमान दो डिग्री सेल्सियस से अधिक न वढ़ने पाए, वर्ना संपूर्ण मानव जाति के झुलसने का ख़तरा एक बड़ी समस्या बन सकता है।

जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया, नासा और भारत-ब्रिटेन सहित दुनियाभर के मौसम वैसनिकों की भविष्यवाणी ने समूची दुनिया को जो एक बेहद ख़तरनाक ख़बर देकर वाकई चिंता में डाल दिया है, वह यही है कि इस बरस ग्रीष्म में हमारी यह प्रिय पृथ्वी कुछ ज़्यादा ही तपेगी। प्रकृति से मनुष्यों की नाजायज़ हरकतों के ख़िलाफ प्रकृति ने ख़तरे की घंटी बजा दी है। क्यों नहीं प्राकृतिक-संसाधनों के प्रति मानवीय हस्तक्षेप की क्रूरताएँ तत्काल प्रतिबंधित की जाना चाहिए ?

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रचनाकार: इस बार कुछ ज़्यादा ही तपेगी पृथ्वी - राजकुमार कुम्भज
इस बार कुछ ज़्यादा ही तपेगी पृथ्वी - राजकुमार कुम्भज
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