1 मेरा मन परेशान बैठा हुआ एक नदी के किनारे मेरा मन कई प्रश्नों के एक साथ आ जाने से खीझता हुआ सोच रहा है गहरे पानी में उतरते हुए ये स...
1
मेरा मन
परेशान बैठा हुआ
एक नदी के किनारे
मेरा मन
कई प्रश्नों के एक साथ आ जाने से
खीझता हुआ सोच रहा है
गहरे पानी में उतरते हुए
ये सोचकर डर रहा है
तैरते कैसे हैं ये जानता हूं
तैरना कैसे है
इसका पता नहीं
कैसे मेरा शरीर पानी के ऊपरी सतह पर,
पानी की तरह बहने लगेगा
कैसे मैं इस लहर के थपेड़ों को झेलता हुआ
उस पार हो जाऊंगा
या इस नदी का हो जाऊंगा
जो थोड़ी देर बाद मुझे अपने आप
पानी की ऊपर तैरने के लिए छोड़ देगी
तभी एक प्रश्न और खड़ा होता है
उस पार क्या है
उस पार किसकी तलाश है
अगर नहीं पता तो जाने का आशय क्या है
बिना आशय के कोई लक्ष्य नहीं होता
पर मेरा अभी को निश्चित लक्ष्य नहीं है
मुझे नहीं पता क्या है वहां
कौन है वो, कैसा है वो
वहां कोई है भी या नहीं है
पर मेरा कुछ है जो अब तक मुझे नहीं मिला
तो क्या जिसके लिये जा रहा हूं
वो वहां मुझे मिल जायेगा
अगर नहीं मिला तो
क्या मुझे नहीं जाना चाहिए
या जाना चाहिए
इन्हीं बातों को सोचते हुए
एक नाव तैयार कर ली है
शिव उपाध्याय
2
कहां जाओगे ये पहचान लिये
पहुंचना है तो बस ईमान लिये
कागजों के मोहताज कब तक
यही आयेंगे जलाने का सामान लिये
जो छुप छुपकर कहते रहते हो
कोई सुन रहा है तुम्हारे कान लिये
बहुत जल्दी में थे तुम चले गये
हम आ गये थे अपना जहान लिये
कल तुम थे, आज कोई दूसरा है
देखो हंस रहा तुम्हारा मकान लिये
बस्तियां फिर से बसती जा रही हैं
मुसाफिर आ रहे हैं, नये मेहमान लिये
शिव उपाध्याय
3
जब मेरा
सूर्य अस्त होगा
मेरा शरीर
निरक्त होगा
जब इसे
अग्नि दी जाएगी
सारी लिप्सा
सारा द्वेष
सारा दुख
मिट चुका होगा
कोई था जो मेरे अंदर
वो जा चुका होगा
जब मेरा
सूर्य अस्त होगा
गुणों की खान
कहा जाने वाला
ये शरीर
निर्गुण सा पड़ा होगा
हां!
मेरा अतीत बचा होगा
मेरे कर्मों का
एक चिट्ठा पड़ा होगा
उस सूनी शांत सी
रात में
एक नयी सुबह की तलाश में
कहीं दूर निकल चुका होगा
जब मेरा
सूर्य अस्त होगा
शिव उपाध्याय
4
आ मेरे सामने, पीछे से मुझपे वार न कर
खा के हालात पे तरस, मुझसे प्यार न कर
है कहीं टूट रही सांसों की कड़ी जुड़ते जुड़ते
ऐ मौत हम खुद चले आयेंगे इंतजार न कर
बड़ी मुश्किल से मिला है शहर शादमीनों का
ठहरने दे कुछ पल हमें, इसे बेजार न कर
मिलता है सुकून हमें उसके वहम में रहकर
चुनने दे कुछ ख्वाबों को नींदे अभी बेकार न कर
है अपना वादा हम बदलेंगे नहीं ये इरादे अपने
कर भरोसा मेरे हाशिम मुझे ‘सरकार’ न कर
मुकद्दर तुझसे भी अपना हिसाब हो गया
करके कोई एहसान तू फिर से कर्जदार न कर
सुनकर इसे भूल जा क्या क्या सुने तूने
है मिरी ये दास्तान, इसे अखबार न कर
है बाकी अभी मेरे दिल के शामियाने में
भूल जायेंगे सब किसी रोज अभी याद न कर
रखा हाथों को जब भी दिल पर शिव
आती है उसी की आवाज, चाहे इजहार न कर
शिव उपाध्याय
5
वक्त ने मुझे, मैंने वक्त को परेशान कर रखा है
ऐसे पेश आता था जैसे कोई एहसान कर रखा है
उतरेंगे ये नकाब जो चहरे पर चढ़ाये हुए हैं
कह दो एक फकीर ने ये ऐलान कर रखा है
ये जमीन जो हरी भरी फसलें उगाने के लिए है
कुछ देवताओं ने इसको शमशान कर रखा है
गूंजती किलकारियां चींखों में तब्दील हो गयीं
जाने क्या उन बच्चों ने उनका नुक्सान कर रखा है
किसी का घर जला गया, कोई घर के साथ
इन धमाकों ने पूरे शहर को वीरान कर रखा है
एक कीड़ा क्या मिला गया शहर में उनको
उन्होंने तो पूरे शहर को बदनाम कर रखा है
दुनिया के मसीहाओं जिल्लत है तुम पर
तुमने भी जल्लादों जैसा ही काम कर रखा है
शिव उपाध्याय
6
लो हमने भी सियासत सीख ली है
होती है क्या सराफत सीख ली है
छीन ली आंखों की नमी जो हमसे
सो हमने भी बगावत सीख ली है
तोड़ दे सारे भम्र शाखों के परिन्दे
इन नजरों ने अदावत सीख ली है
याद है वो गली जहां से गुजरते हुए
हमने भी करनी शरारत सीख ली है
फुरकत में तेरी मसरूफ इस कदर हैं
जिंदगी ने करनी हिमाकत सीख ली है
मुकद्दर तूने पत्थरों का टीला जो दिया
उन्हीं से दिल ने नजकात सीख ली है
जो महफिलों में गवारा नहीं तुझको
उन्हीं में करनी शिरकत सीख ली है
शिव उपाध्याय
7
जलता हुआ एक शरारा आया है
लगता है जवाब करारा अया है
नजर टिकी आसमान में चांद पर
हक में बस एक सितारा आया है
सदियां बीत चुकी जिस बात को
क्यों उसका जिक्र दुबारा आया है
कश्ती तूफानों से ही लड़ती रही
तुझे देख लगा किनारा आया है
जरा दस्तक तूफान की क्या हुई
आंधियों को लगा सहारा आया है
मिरी पहचान पूछते हो सहर
कह दो दर पर बंजारा आया है
शिव उपाध्याय
8
मन के कालों ने दिन भी काला कर दिया
पैरों की फुन्सी को मुंह का छाला कर दिया
कसम ली घर का हर कोना रौशन करेंगे
जिधर देखो उधर सिर्फ जाला कर दिया
कुछ फकीरों की गुजरती थी रात जहां
उस दरवाजे पर भी ताला कर दिया
पूरी रात पेट पकड़ करवट बदलता रहा
भूखे शेर के आगे अपना नेवाला कर दिया
अभी एक लेकर फरार हुआ नहीं था तभी
दूसरे ने भी गड़बड़ घोटाला कर दिया
शिव उपाध्याय
9
लुढ़कती जिंदगी देखो जरा
संभलने चली है
साथ में है जो
उसी से बिछड़ने चली है
सूर्य की रोशनी
मद्धम होने लगी है
रात अपनी बांह खोले
सारे दुखों को
पिरोने लगी है
सब संभल कर
चल रहे हैं
फिर क्यों रास्ते बदल रहे हैं
हंसते हुए हम मिल रहे हैं
पर भेद दिल में सिल रहे हैं
ये भेद हैं
जो दिल में समाये
कुछ हैं अपने
कुछ पराये
इन सबको लिये
हम कुछ बदलने लगे हैं
रुक गये थे जो कहीं
अब फिर से चलने लगे हैं
शिव उपाध्याय
10
अभी तो बस एक राही हूं
ये राहें हैं अभी अंजाम मेरी
जब जब इन पर चलता हूं
सत्य और असत्य का पथ
ये दोनों हमें दिखाती हैं
कुछ जड़ सा अभी जो बैठा
ये उनको चलना सिखलाती है
यहां कई सूर्य के समान बड़े हैं
पर अभी हम उनसे अनजान खड़े हैं
उस पतझड़ सा बनना है मुझको
जो जनक हो वसंत के आने का
अभी तो बस एक राही हूं
ये राहें हैं अभी अंजाम मेरी
किया है खुद में संज्ञान अभी
नहीं है किसी का ज्ञान अभी
हां एक दिन हो जाऊंगा
उस मद्धम रोशनी से ही
मुझमें भी जलेगी लौ एक नयी
अभी हो रहा निर्माण है मुझमें
कुछ चेतनाओं का संचार मुझमें
जो ढूंढ रहा हूं संसार खुद में
वो मिल जायेगा एक दिन मुझको
जो कर दोगे उस पार मुझको
एक लीक मिली अभी चलने दो
अज्ञानी सा अनजान ही सही
अभी तो बस एक राही हूं
ये राहें हैं अभी अंजाम मेरी
शिव उपाध्याय
Shivanand Upadhyay
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