माह की कविताएँ

SHARE:

देवेन्द्र कुमार पाठक एक जनगीत- मोरी गुँइया   मैं संग कसाई के व्याही, मोरी गुँइया;   मैं संग कसाई के व्याही!   काम पियारो, न चाम पियारो; उ...

image

देवेन्द्र कुमार पाठक


एक जनगीत-
मोरी गुँइया


  मैं संग कसाई के व्याही, मोरी गुँइया;
  मैं संग कसाई के व्याही!
  काम पियारो, न चाम पियारो;

उनको तो बस दाम पियारो. 

अइसन कै दिन निबाही, मोरी गुँइया? 


  एकई शर्त पर मैके पठाइन;
  गहना-गुरिया अउ रूपिया मंगाइन.
  बापै की होवै तबाही, मोरी गुँइया!


  झापड़ कलेवा अउ लातें बियारी;
  साँझ-सकारे माँ-बाप कै गारी.  
  बिटिया-जनम हय गुनाही, मोरी गुँइया !
 
  दइजा का दानव कउनो तो मारो;
  अपनी बहिनी-बिटियाँ उबारो.
  दइजा खतम करैं चाही, मोरी गुँइया ! 

-----------.

संशय के शंख, प्रश्न-सीप लिए लौटे हम;

धूप के समन्दर के तृष्णाहत कूल से.


पीर-पगी आँखों की दृष्टि के पड़ावों पर

सूचना-संजाली की जगमग झाँकियाँ;

पुरखों से थाती में

पाये आशीर्वचन-

लँगड़े मंसूबों की जर्जर बैसाखियाँ;

थोथे युग-सत्यों के कारगर मुखौटे हम,

काम आये मौके- बेमौके उसूल से


पदासीन मंचों पर सन्तों-श्रीमंतों ने

श्रद्धा को बदल दिया।

शातिर बाजार में;

अपने नुकसान-नफे का सर दायित्व धरे,

पार लगें या डूबें

तूफानी धार में;

सठियायी लिप्सा के बन चुके पुँछौटे हम,

अँटे रहे उड़ती उनके पाँवों की धूल से.


पावन अवगाहन उनके हों पंचामृत में,

चाउर-हल्दी, वन्दन,

भोग उनके हिस्से में;

सदियों से कही-सुनी बासी वह भक्ति-कथा।

सुनना,सर धुनना फिर

गन्नाना गुस्से में;

आँख मूँदकर लेटें किसी भी करौंटे हम,

चुभते हैं नींद में भी घटनाक्रम शूल से.


  ##################
 
  साईं पुरम् कॉलोनी,कटनी; 483501,म.प्र.
  (devendrakpathak.dp@gmail. com)

0000000000000000000000000000

शहीदी दिवस

सुशील शर्मा

तेईस मार्च को तीन वीर
भारत माता की गोद चढ़े।
स्वतंत्रता की बलवेदी पर
तीनों के गर्वित शीश चढ़े।

रंगा बसंती चोला था
भारत के वीर सपूतों ने।
माता का अपमान किया था
उन गोरों की करतूतों ने।

नहीं सहन था भगत सिंह को
भारत का सिर झुक जाना।
कुछ जीवन सांसों के बदले में
स्वतंत्रता को बंदी रखना।

असेम्बली में बम फेंक कर
भगत सिंह ने जतलाया।
भारत के वीर सपूतों का
छप्पन इंच सीना दिखलाया।

राजगुरु सुखवीर शेर थे
मौत को चले गए चुनने।
भारत माता की खातिर
फांसी को चूमा था उनने।

वीर भगत की हुई शहादत
रोता हिंदुस्तान था।
भारत माता के चरणों में
ये अनुपम बलिदान था।

00000000000000000000000000000

नमन दत्त

गीत -

       रिक्तता जीवन की तुम हो ||

1.       मन वही सब चाहता क्यूँ,

जो नहीं है भाग मेरे |

रश्मि चाही इक प्रणय की,

हो लिए संग चिर अँधेरे |

जानता हूँ सच मैं, फिर भी –

याचना धड़कन की तुम हो ||

2.       एक मोहक छवि तुम्हारी,

उर में कुछ ऐसी समाई |

मैं जहाँ भी देखता हूँ,

बस तुम्हीं देते दिखाई |

आती जाती साँस कहती –

कामना इस मन की तुम हो || [साबिर 19/03/2018]

ग़ज़ल -

इश्क़ आज़ार हुआ जाता है |

दिल गुनहगार हुआ जाता है ||

दर्द से साँस साँस ज़िन्दा है,

अलम क़रार हुआ जाता है ||

रंग हर पल बदल रहा है तेरा,

तू अदाकार हुआ जाता है ||

दिल ही खोजे है राह मिलने की,

दिल ही दीवार हुआ जाता है |

तेरी रहमत के भरोसे ये दिल,

फिर ख़तावार हुआ जाता है ||

मौत दे दे, ये करम कर मालिक,

जीना दुश्वार हुआ जाता है ||

दश्त की ओर अब चलें 'साबिर'

शहर बाज़ार हुआ जाता है ||



                                 DR. NAMAN DUTT

                                Associate Professor

                                Department of Hindustani Vocal Music

                                Indira Kala Sangeet Vishwavidyalaya

                                Khairagarh (CG.)

                                491881 - INDIA

00000000000000000000000000000

रमेश शर्मा.

दोहे रमेश के

--------------------

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा,करे सतत उत्कर्ष !

आता है इस रोज ही,...भारत का नव वर्ष ! !

नये वर्ष का देश में ,करें खूब सत्कार !

दरवाजे पर बांधिये,..मंगल बंदनवार !!

दरवाजे पर टांकिए,..गुड़ी और इक आज !

नये साल का कीजिये, मन भावन आगाज !!

रहो भले इस देश में, ....चाहे रहो विदेश !

भारत के नववर्ष का, स्वागत करें रमेश !!

मरवा डाला कोख मे,बेटी को हर बार!

ढूढ रहा नवरात्र मे,कन्या को सब द्वार!!

बेटे की शादी करें,..जहाँ लगा कर मोल !

वहाँ सुता के जन्म पर,बजे कहाँ हैं ढोल !!

रचना के उत्थान का,.सुता अगर है जाप !

क्यों लेते हो भ्रूण की,ह्त्या का फिर पाप !!

शादी में तहँ पुत्र की,.पैसा किया वसूल !

जिस घर को भाया नहीं,कन्या रूपी फूल !!

कृष्ण प्रेम की गूढता, क्या समझेंगे मूढ़ !

कृष्ण प्रेम अति गूढ़ है, गूढ़ गूढ़ अतिगूढ़ !!

00000000000000000000000000000

अमित मिश्र मौन

नग़मे इश्क़ के कोई गाये तो तेरी याद आये
जिक्र मोहब्बत का जो आये तो तेरी याद आये

यूँ तो हर पेड़ पे डालें हज़ारों है निकली
टूट के कोई पत्ता जो गिर जाये तो तेरी याद आये

कितने फूलों से गुलशन है ये बगिया मेरी
भंवरा इनपे जो कोई मंडराये तो तेरी याद आये

चन्दन सी महक रहे इस बहती पुरवाई में
झोंका हवा का मुझसे टकराये तो तेरी याद आये

शीतल सी धारा बहे अपनी ही मस्ती में यहाँ
मोड़ पे बल खाये जो ये नदिया तो तेरी याद आये

शांत जो ये है सागर कितनी गहराई लिये
शोर करती लहरें जो गोते लगाये तो तेरी याद आये

सुबह का सूरज जो निकला है रौशनी लिये
ये किरणें हर ओर बिखर जाये तो तेरी याद आये

'मौन' बैठा है ये चाँद दामन में सितारे लिये
टूटता कोई तारा जो दिख जाये तो तेरी याद आये

00000000000000000000000000000

राघवेंद्र शुक्ल

1. हमको यह सब कब करना था!

हमको यह सब कब करना था!

हमने अपने हाथ गढ़े थे,
हमने अपनी राह रची थी।
हमने तब भी दीप जलाए
जब दो क्षण की रात बची थी।

जुगनू की पदवी मिलते ही
पंख लगाकर आसमान के जगमग जग में कब बरना था।

जब हम थे शपथाग्नि किनारे,
तुम भी तो थे हाथ पसारे
लिए शपथ की आंच खून में
रक्तिम प्रण नयनों में धारे।

युग के गांधी की लट्ठों को
सिस्टम की पाटों में पिस-पिस इक्षु-दंड सा कब गरना था।

चंद मशालों की आंचों में
हमको रण का गुर पढ़ना था।
बची-खुची आवाजों से ही
इंकलाब का सुर गढ़ना था।

चट्टानी नीवों पर निर्मित,
घिस-घिस, पिस-पिस, हमको आखिर, रेत-महल सा कब झरना था।

2.  लौट चलें क्या

समय बहुत है अभी न बीता,
लौट चलें क्या!

अभी खून में तुम्हारे घर की
महक ज़रा भी घुली नहीं है।
अभी सांस भी शरद ओस की
सुधा-वृष्टि से धुली नहीं है।
अभी अकेली ही है, किसी से
मनस-चिरइया मिली नहीं है।
अभी है गीली मृदा मोह की,
हृदय की खिड़की खुली नहीं है।

अभी न प्रतिद्वंदी न धावक,
न हर्षाहर्षित न मन सभीता,
लौट चलें क्या!

अभी न रण में रक्त बहुत है
अभी न परिचय जीत-हार से।
अभी न निंदा का रस चखा है
अभी न परिचय पुरस्कार से।
अभी न सावन-बसन्त देखा
अभी न पतझड़ के पर्ण देखे।
अभी न दिन-रात पल्ले पड़े हैं
अभी न दुनिया के बहु-वर्ण देखे।

समर शुरू है कि इससे पहले
श्रीकृष्ण कर दें आरम्भ गीता,
लौट चलें क्या!

राघवेंद्र शुक्ल
देवरिया, उत्तर प्रदेश

00000000000000000000000000000

रामानुज श्रीवास्तव

हँसते हँसते वक्त कटेगा दिल से दिल की यारी रख।
जर्रा जर्रा महक उठेगा घर घर में फुलवारी रख।

करवट लेता जाग रहा है सोने लायक रातों में,
उड़ी नींद सब हमें सौंप दे पूरी नींद हमारी रख।

नहीँ कटेगा जीवन सारा केवल सेहत के दम पर,
अच्छा होगा सहने लायक कुछ न कुछ बीमारी रख।

मिसरा मिसरा बात करेगा हँसकर भीगे मौसम से,
हर्फ़ हर्फ़ का वज़्न तौलकर शेर ग़जल में भारी रख।

नियम मुताबिक रब देता है सब के सर में सरदारी,
खड़ा खड़ा क्या सोच रहा है सर में जिम्मेदारी रख।

दिल की बातें कह दुनिया अपनी हँसी उड़ाता है,
बेहतर होगा दुनिया से भी कुछ तो पर्देदारी रख।

कुशल क्षेम आकाश तुम्हारा पूछेगा घर में आकर,
पत्थर पत्थर फूल उगाने की हर कोशिश जारी रख।

मुश्किल चाहे जैसे भी हो "अनुज" पास न आयेगी,
कट जायेगी उम्र मजे से ह्दय बीच में नारी रख।

00000000000000000000000000000

कुसुम गौतम


उनसे कह दो हवाओं में,

जो अक्सर बात हैं करते,

हमारी पीठ पीछे जो

कुछ सवालात हैं करते।

बहुत रुस्वा किया उन्होंने,

बड़े ही शौक से हमको,

खबर दो उनको अब से हम,

बगावत की शुरुआत हैं करते।

बहुत ही डांटते हैं हम,

अपनी आंखों के अश्कों को,

नहीं तहजीब है तुमको,

गम को सरेआम हैं करते।

उस के पूछे सवालों से ,

बड़ी उलझन में है ये दिल,

मगर खामोश हूँ खताओं का,

बुरा माना नहीं करते।

जरा ऊंची इमारत ये,

तुम्हें हासिल हुई कल से,

कि लहजा इतना बदला है,

कदम जमीं पर नहीं पड़ते।

दुश्मनी का अगर है शौक़,

तो ये सुनते ही जाओ तुम,

ले आना बारूद जी भर के,

हम खंजर भी नहीं रखते।

कैसे हम बोझ बन जाते,

किसी के ऊंचे नसीबों पे,

जो गिर जाते हैं नजरों में,

कुसुम उनकी फरियादें नहीं करते।


00000000000000000000000000000


जितेन्द्र वर्मा

अक्षर, शब्द

गिनती का जादू है

हाइकू है ये


कैद है मन
भागता हुआ थका
कैद तुम्हारी

सन्नाटा फैला
चुप का बोलबाला
हमारे जो बीच

क्यों नहीं आये?
सब लोगों ने घेरा
मौत के वख्त

आसमा खाली
काली अँधेरी रात
चाँद भी नहीं

पायल जो बजी
घुन्ग्ररुओं की ध्वनि
तुम जो आये

तुम जो दिखे
नदी के उस पार
रात ने घेरा

ढूंढता रहा
उम्र भर मैं चैन
तड़प मिली

दुश्वार हुई
मिलने की वो घडी
रूठे थे तुम

मंजिल दूर
ज़िन्दगी है हांफती
कहाँ हो तुम?

ईश्वर तुम
दीखते क्यों नहीं
जैसे विश्वास

मैंने कहा था
छोड़ कर न जाओ
चले गए? क्यों?

रेत के कण
मिल जाये तो बने
ठोस पत्थर

सच या झूठ
परखना मुश्किल
समझ आसां

टुटा हो रिश्ता
जोड़ना है ज़रूरी
समझदारी

क्षण बीता जो
नहीं लौटने है वाला
कुछ तो करो

चाँद बनिए
गर्म सूर्य को करें
खूब शीतल

खूंटी टंगे हैं
मरे प्यारे उसूल
भूला ओढना

बाज़ कविता
मोहब्बत ले उडी़
छोडती नहीं

रहता हूँ यों
रंगों से सरावोर
जैसे दुनिया

आके तो देखो
कैसी दुमिया हे ये
जहाँ हूँ अब

समय दोष
लग गया हमको
हम क्या करें?

रात भर थे
कहाँ हो अब तुम
ओ मेरे चाँद

जलती होली
बचा गयी प्रह्लाद
माता जो होती

भूल न पाया
प्यार जो तुमसे था
यादें आती हैं

यादें आती हैं
तुम नहीं आते हो
तड़पाती हैं

जितेन्द्र वर्मा
ए ४८
फ्री़डम‌ फा़इटर एन्क्लेव
नयी दिल्ली ११०६८

000000000000000000000000000000

  अविनाश ब्यौहार

    महिमा

    कोर्ट की
     महिमा
     न्यारी है।
     क्योंकि
     कोर्ट में
     मुकदमा लड़ना
     ख्वारी है।।

    खाजा

    हमें यही
     बात अखरी।
     कि
     शेर का ।
     खाजा
     बकरी।।

    अवाम

    आज यही
     कह रहा
     अवाम है।
     कि हमारा
     हुक्मराँ
     ख़ाम है।।

   
वे घर में
रहें या
जेल में
उनका पूरा
बंदोबस्त है
क्योंकि
उन पर
नेता जी
का वरद्
हस्त है ।

2)
मैंने भगवान
को लगाया
छप्पन भोग ।
और प्रार्थना की
कि हे भगवन्
शेष जीवन में
न भोगने पड़े
भोग ।

3)
दूर कहीं
सियार रो
रहे हैं
कुत्ते भोंक
रहे हैं
मैंने देखा
कुछ बेईमान लोग
आज़ादी की
पीठ पर
छुरा भोंक
रहे हैं ।

"मयनोश"

लोगों के
आँख का
काजल चुरा
लेते हैं मयनोश।
क्योंकि लत के
वशीभूत होकर
बन जाते हैं
गंदुम नुमा जौ,
फ़रोश।।

"कौर"

आजकल लोग
साहित्य को मजाक
समझते हैं
देखने में
आया है
ऐसा तौर।
जैसे साहित्य
हो मुंह का
कौर।।

"बबूला"

वत्स!
भ्रष्टाचार-आरक्षण
की समस्या
वीभत्स!!
अभी अवाम
इन सब बातों
को भूला है!
नहीं तो
आग का
बबूला है!!


   
     अविनाश ब्यौहार
     रॉयल एस्टेट कालोनी , कटंगी रोड , माढ़ोताल , जबलपुर , 482002
     000000000000000000000000
 

सतीश कुमार यदु   


अतीत फिर नहीं आते !

फिर क्योंकर याद आते ?
  कसमे, वादे और इरादे !
ख्वाबों मे अब भी है मुस्कुराते ?
है क्यूँ अब भी मन को भरमाते ?

अतीत फिर नहीं आते !

न रही बातें, न रहे नाते,
  फिर भी हम क्यों है गुनगुनाते ?
  दिल के कोने में है उनको पाते !
क्यों नहीं वो चले जाते ?

अतीत फिर नहीं आते !

उनकी बुत है अब भी चमचमाते,
  अब भी यादों की नीड में चहचहाते !
उनकी यादें , उनके वादे,
क्यों अब भी है भाते ?

अतीत फिर नहीं आते !

उनकी तसव्वुर पूनम की रातें ,
  झील में अक्षत अक्स से शरमाते !
क्यों याद आते है, चलना मचलते बलखाते ?
क्यों नहीं यादों की कली है कुम्हलाते ?

अतीत फिर नहीं आते !

सतीश कुमार यदु "व्याख्याता"
कवर्धा,  कबीरधाम (छ. ग.) 

000000000000000000000

महेन्द्र देवांगन "माटी"

बैर भाव को छोड़ो

*****************

बैर भाव को छोड़ो प्यारे, हाथ से हाथ मिलाओ ।

चार दिन की जिन्दगी में, दुश्मनी मत निभाओ ।

क्या रखा है इस जीवन में, खुशियों से जीना सीखो ।

बनो सहारा एक दूजे का, तुम नया इतिहास लिखो ।

न होना निराश कभी तुम, मंजिल तुम्हें जरूर मिलेगी ।

अगर इरादा पक्का है तो, जरूर नया कोई गुल खिलेगी ।

माटी के इस जीवन को , सार्थक तुम करना सीखो ।

ऐसा कोई काम करो तुम, भीड़ भाड़ से हटकर दिखो ।

-

महेन्द्र देवांगन "माटी"

      पंडरिया (कवर्धा )

छत्तीसगढ़

000000000000000000000

रेखा जोशी

हुआ जहां नारी का सम्मान है
बसा उस घर में तो भगवान है
,
है रौनक घर में बच्चों  से ही
बच्चों में  बसी माँ की जान है
,
प्रेम का पाठ पढ़ाती सभी को
पूरे करे  सब के अरमान है
,
दे सँस्कार परिवार  को नारी
परिवार नारी का अभिमान है
,
जीती मरती  परिवार के लिये
नारी से  परिवार की शान है

000000000000000000000

दामोदर लाल जांगिड

अरे तुम !

अरे तुम रो रहे हो आज क्यों कर ?

जबकि हक रोने का तुम तो खो चुके हो,

मैं बहुत अर्से से तुमको जानता हूँ ।

और केवल एक मैं ही तो नहीं जो,

कि बहुत पहले से तुमको जानता हूँ।

हां सिवा मेरे भी कितने लोग तुमको जानते होंगे,

पता हैं क्यों ?

क्यों कि तुम अपनी ही बेटी के कभी कातिल रहे हो।

तुम वही तो शख्स हो जिसने बिचारी एक मां की

कोख को ही कत्लगाह में बदल डाला ।

तुम्ही ने मार डाला कभी अपनी ही बेटी को।

बधिक तो हो मगर कैसे बधिक हो तुम,

कसाई जन्म तो ले लेने देते सब्र करते कुछ

मगर तुम एक अर्से बाद कैसे रो रहे हो ?

शायद मुझको देख कर कि रो रहा हूँ मैं, हां रो रहा हूँ मैं।

मगर तू गौर कर के देख ले खुद ही कि

कितना फर्क हैं जो कि बयां करता

तेरे अब छिप रोने में, दहाड़ें मार कर रोने में मेरे।

तेरे रोने में केवल और केवल एक अपराधी का पछतावा झलकता हैं

जबकि आज मैं जो रो रहा हूँ अपनी बेटी को विदा कर उसके के ही घर से,

कि जिसकी पहली किलकारी से ले के अब विदा होते समय कैसे दहाड़ें मार ने तक

के सफ़र को याद कर कर के कि जब वो घर में आयी थी तभी रोते हुए आई,

विदा की आज घर से तो तनिक भी हंस नहीं पायी

आज भी रोते हुए निकली फफक कर अपने ही घर से।

लिपट कर उसका रोना क्या कभी भी भूल सकता हूँ।

00000000000000000000000000

मदन मोहन शर्मा " सजल "

शर्तों पर चलना सीख हे ज़िन्दगी,
वादे तोड़ने वाले बेशुमार हो गये।

चेहरे ढके है नकली नकाब से,
संभालना रिश्ते दुश्वार हो गये।

साथ देने की जिद महज बहाना,
मतलबी यार पहरेदार हो गये।

भूलभूलैया में उलझा है आदमी,
अंधेरी रातों के वफादार हो गये।

ज़िन्दगी के मायने बदल गये आज,
कांटे भी अब खुशगवार हो गये।

बतियाते कभी आकर सपनों में,
न जाने किसके तरफदार हो गये।

समन्दर की तो बात ही छोड़ दो,
छिछले किनारे असरदार हो गये।

बेवक्त
मत कुरेदो,
ज़ख्मों को,
टीस उठेगी,
परत-दर-परत खुल जायेगी,
दु:खों की,
जिन्हें तुम बर्दाश्त
नहीं कर पाओगे
और
तुम्हारी आँखों से छलकते
आँसुओं के दरिया को
मैं-
देख नहीं पाऊँगा।

मत कुरेदो,
घावों को,
जो अपनों ने ही दिये है,
जाने या अनजाने में।
छुपा लो,
ताकि न देख पाये ज़माना,
वरना
तौहीन होगी अपनों की ही,
जिसे
मैं -
बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा।

मत फोड़ो,
अरमानों के छालों को,
रिसने पर देंगे
इच्छाओं को ताने,
कोसने लगेंगे,
भूतकाल के हसीन लम्हों को,
और मैं-
सहन नहीं कर पाऊँगा।


   

000000000000000000000

विन्ध्य प्रकाश मिश्र विप्र


गौरेया
आंगन के कोनों में आकर
ची ची गीत सुनाती थी
चावल के  दाने पाकर पूरा परिवार बुलाती थी।
मीठी मीठी मधुर स्वरों में
गुनगुन गीत गाती थी।
गौरेया आंगन में आकर
फुदक फुदक इठलाती थी।
       दबा चोंच में चावल दाने
       उडी घोसले पर बैठी
       छोटे बच्चों को वत्सलता से
       खिलाती सुख पाती थी।
       मेरे बचपन की यादों संग
       आज याद आ जाती है ।
मीठी ध्वनि है पर छोटे से
नभ की नाप ले आती थी।
गौरेया है जुडी याद संग
आंगन में चहक सुनाती थी।
तिनका तिनका जोड नीड में
सुंदर गूंथ लगाती थी।
          कितना करती काम सुबह से
           थकती न सुस्ताती थी।
          कुछ दाने पाकर खुश होती
          दिन भर धूम मचाती थी।
          अगर पकड़ना चाहूं उसको
          फुर से वह उड़ जाती थी ।
छोटे छोटे बच्चे सात
रहे घोसले में दिन रात
उग रहे थे पंख नये
उड़ना है कुछ दिन की बात ।
रहे ताकते दिन में माता को
चिड़िया उसे चुनाती थी।
कम खाती पर ले आती
भर भर चोंच खिलाती थी।
              मिट्टी में कभी जल से
              फड़फड़ करती नहाती थी
              गौरेया आंगन में आकर
               फुदक फुदक इठलाती थी

---.

बेटियाँ पढाओ जनजन से
आह्वान है ।
ये काम महान है
ये काम महान है ।
किससे कम है  मेरी बेटी
चढती है हिमालय की चोटी ।
करो सदा  सम्मान है ।
यही आह्वान है ।
ये काम महान है ।
पढ़कर बेटी दो घरों को
रोशन करती देती शिक्षा
भेद न करो बेटे बेटी में
दो समान शिक्षा दीक्षा।
दहेज मुक्त हो सब समाज जब
समझे बहू को बेटी समान है ।
यही आह्वान है ।
ये काम महान है ।
आधी आबादी की जिससे
होती है भागीदारी ।
एक नहीं दो दो मात्राएं
नर से भारी नारी
हम सबका
यही आह्वान है ।
ये काम महान है ।
नारी हिंसा रोक लगेगी
बेटियाँ जब पढे लिखेगी
पर्दा प्रथा का विरोध हो
यह विष के समान है ।
यही आह्वान है
ये काम महान है ।
बेटियाँ सुख का कारण है।
हर समस्या का निवारण है।
बिटिया से महके आंगन भी
सुअवसर कन्यादान है
ये काज महान है
यही आह्वान है ।
कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ हम
रोक लगे दण्ड मिले जो
दानव के समान है ।
यही आह्वान है
यही आह्वान है ।
ये काम महान है ।

    विन्ध्य प्रकाश मिश्र विप्र

नरई संग्रामगढ प्रतापगढ उ प्र

000000000000000000000000000000

संस्कार जैन


हज़ारों कमियाँ हैं मुझमें
शायद इसीलिए तुम मुझसे नाराज़ रहती हो,

अच्छा ठीक है ।

एक दिन बैठ कर वो सारी कमियाँ
मुझे बता दो,
मैं एक एक गलती को सुधारूँगा,
और जब मैं तुम्हारे लायक हो जाऊँगा,
तब मैं तुमसे कहूँगा,

"गुड़िया"
मैं तुम्हें अपनी ज़िंदगी बनाना चाहता हूँ....
 
एक लंबे वक्त के बाद भी,
भुला न पाया तुम्हें..
न जाने कौन सा दिन था वो,
जब तुम्हारी आँखों ने डुबोया था मुझे..
हां, वही दिन था
तब से ही कोई रंग नहीं चढ़ता मुझपे,
न ही कोई एहसास भिगोता है अब मुझे..

'गुड़िया'
तुम मिलना कभी किसी,
ढलती शाम के सूरज तले..
वहीं बताऊँगा तुम्हें..
क्या क्या खोया है मैंने,
एक तुम्हें पाने के लिये....
Sanskar jain
Department of pharmacy, sagar university, sagar, MP

0000000000000000000000000000

रवि भुजंग

बसंत सी चंचल, मादक खुशबु, मदमस्त हवा सी।

अमृत कुंड सी, शीतल, सुरभित, इंद्रधनुषी आभा सी।

नीलाम्बर, नवयौवन वो, किसलय पर बूंदो के जैसी, मुक्ता सी रौनक उसकी।

सुधा-चन्द्रिका, झरनो का अंत, लहलहाते

वृक्षों सी। शाखाओ पर मैना सी जैसी, फूलों पर तितली,

भँवरे की गुन-गुन।

संध्या सुंदरी, तन सुगन्धित, लीलाएँ कान्हा जैसी।

देवलोक की नर्तकी वो, मानव सा न सौंदर्य!
पग-पग जब चलती वो जाती, बरसे बून्द-बून्द चांदनी।

गंगा का जल उसमें दीखता। सीता की मोहकता
स्वर्ण मृग पर, उसमें दिखती। मृगनयनी सा तन,

झूम-झूम गाए गीत, सावन छेड़े रह-रह कर।

कौन है ये इतनी सीधी-सादी सी लड़की।

00

0000000000000000000000000000

प्रिया देवांगन "प्रियू"


मौसम में बहार आई

*****************

ऐसा दिन आया है

गर्मी में भी पानी लाया है।

जब उगना था धूप ,

तब बरसात आया है ।

कुदरत का करिश्मा तो देखो ,

कूलर पंखा चलाने के दिनों में

शाल स्वेटर निकलवाया है।

ऐसा दिन आया है।

सूखे के दिनों में हरियाली है छाई ।

गरज गरज कर बादल पानी है लाई ।

सोंधी सोंधी माटी की खुशबू ,

सबके दिलों को महकाई ।

किसान खुश हुआ ,

मौसम में बहार है आई।

बाग  बगीचे है हरा भरा ,

सब तरफ हरियाली है छाई ।

मौसम में बहार है आयी।

पेड़ पौधे हो गये हरा भरा ,

पेड़ों में  पत्ती है आयी ।

हरा भरा सब देखकर

मन में खुशियाँ समाई ।

पानी की बूँदें देखो ,

मिट्टी की खुशबू है आयी ।

मौसम में बहार है आयी।

ओले  गिरा धरती पर ,

मोती जैसे चमक रही ।

अंधियारी के दिनों में

अपनी रौशनी बिखेर रही।

सब जगा बर्फ बारी हो रही

कुदरत अपनी करिश्मा दिखा रही ।

सुखी सुखी धरती पर

मोतिया है आयी ।

मौसम में बहार है आई।

बिजली चमक रही है

मौसम अंगड़ाई ले रही है ।

मेंढक की आवाज

खेतों में आयी ।

मौसम में बहार है आई।


प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया  (कवर्धा )

छत्तीसगढ़

priyadewangan1997@gmail.com

000000000000000000000000000000

नवनीता कुमारी

ना जात-पात,ना अमीरी-गरीबी की बातें जानती हूँ |

बस इंसान हूँ ,इंसानियत की बातें जानती हूँ !

है चैन -अमन से जी रहे हम ,बस सरहद पार शहीदों की शहादत मानती हूँ ,

इंसान हूँ बस इंसानियत की बातें जानती हूँ |

ना भलाई-बुराई ,माँ-पिता की सेवा को ही सच्चा धर्म मानती हूँ ,

क्या रूठना,क्या मनाना सच्ची दोस्ती में क्या आजमाना,

हो गर सच्ची दोस्ती तो ये कभी नहीं टूटती ,चाहे रूठ जाये ये जमाना !

रूप से ना सीरत से,इंसान की पहचान होती है

उसकी नियत से,

ये दुनिया टिकी हुई है बस इंसान के इंसानियत पे!

अपना-पराया का भेद नहीं मानती हूँ ,

इंसान हूँ बस इंसानियत की बातें जानती हूँ !

ना पत्थर में ,ना मूरत में ,भगवान बसे है हर इंसान की सूरत में |

ना दुआ चाहिए ,ना दवा चाहिए ,हर जरूरतमंद की मदद कर सकूँ ,

बस कोई ऐसी सजा चाहिए !

ना शोहरत चाहिए ,ना नाम चाहिए बस इंसान हूँ

किसी इंसान के काम आ सकूँ बस ऐसा कोई अदद काम चाहिए !!

ना बरबादी चाहिए, ना आबादी चाहिए,

बस हमें हिन्दुस्तान की आजादी चाहिए |

ना खबर चाहिए,बेखबर चाहिए ,ये दोस्ती बनी रहे ऐसा कोई असर चाहिए !

ना रस्म जानती हूँ ,ना रिवाज जानती हूँ ,बस इंसानियत का हिसाब जानती हूँ |

ना दिन जानती हूँ,ना रात जानती हूँ ,

इंसान हूँ बस इंसानियत की बात जानती हूँ !!

---

वो,ढ़लता सूरज आज भी याद आता है ,

जो एक हल्की -सी उम्मीद की किरण मेरे जेहन में छोड़ जाता है |

और फिर याद आती है वो अनगिनत शामें

जिसके साथ हमने न जाने कितनी सुबहो की उम्मीदें सजाई,

और इस तरह हमने हर दुःख भरे पल की दी बिदाई !

ढ़लते सूरज का आगाज, झिंगुरो की शहनाईयाँ

और वो ढ़िबरियो से आती वो मद्धम रौशनी

आज भी याद आती है,और हौले से मेरे पलको को भिंगो जाती है |

लोग कहते है इस ढ़लते सूरज की तरह इक दिन सबको ढ़ल जाना है ,

जो लेकर है वो सब यही छ़ोड़ जाना है

तो अमीर-गरीब, ऊँच-नीच और अपना-पराया का क्या दंभ जताना है,

जब जानते है हम सब सच तो अंत समय मे क्या घबराना है !

हर ढ़लता सूरज एक नया सुबह दे जाता है,

हर आने वाले खुबसूरत पल की कहानी लिख जाता है|

देखो, ढ़लते सूरज की लालिमा,कैसे छाँट रही है दुःखों की लालिमा !

ढ़लते सूरज ने अपना काम बखूबी कर दिया,

इक हसीं जिंदगी हमारे नाम कर दिया |

ढ़लते सूरज से ही दुनिया की हस्ती है ,

अगर ये खो जाए तो सबकी डूबी कश्ती है!

बेवजह ही हम इसे है नकारते,

इसकी खूबियों को नहीं है स्वीकारते!

ढ़लता सूरज एक मिशाल है,

जीवन और मृत्यु के बीच का अटल ढ़ाल है!!

000000000000000000000000000000

डॉ नन्द लाल भारती


कविता :प्रेम सिंह
नाम प्रेम सिंह काम पेट्रोल पम्प सेवा
सूरत कर्मभूमि राजगढ़ धार जन्मभूमि
मदिरा धूम्रपान के शौकीन
बात बात पर पकड़ने  लगती तौहीन
सफर रेल का लगता जीवन का मगर
सब कुछ अपने बस में नहीं है होता
कभी पैखाने की दीवार के सहारे
सफर है होता
दुर्भाग्य कहे या सौभाग्य
  कभी प्रेमसिंह जैसा सहयात्री
होता
बात बात पर पांव पकड़ता.
कम्पनी में काम करता
रह रह अपनी पहचान जूते करता
देखो भगवान कम्पनी का है कहता
बिस्किट चाय, बीडी मावा  को पूछता
  ठर्रा की बदबूदार सांस बहकती
बीडी की बदबू उगलती
पगला प्रेम सिंह,
बाबू जी भगवान मेरे
कहता तुम्हरे खातिर हाजिर जान मेरे
पैसे की फिक्र ना करना
आदिवासी आदमी मन का अच्छा
सरकारें आती जाती कौन फिक्र करता
सरकार बनाने के वोट चाहिए होता
वोट के बदले बटवा  ठर्रा
शिक्षा विकास पडा है कोरा खर्रा
वाह रे नसीब, अपनी जहाँ में
बना दिया दुश्मनों ने दास
बहुत हुई गुलामी चाहिए अब विकास
प्रेम सिंह नशे की गिरफ्त से था
जैसे बाहर
निरक्षर हो गया जैसे एकदम साक्षर।

000000000000000000000000000000

सीताराम पटेल

भग योनि का शाप

अहिल्या सती /गौतम अद्धागिंनी

अति सुन्दरी /सौन्दर्य न देखना

खुदा का दिल/अत्यधिक दु:खाना

मन में पाप/ पुरन्दर का आना

अपना मन/ परस्त्री में लगाना

फिर उसका/ देवता है कहाना

अपना दोस्त/ चन्द्रमा को बुलाना

अपना हाल/ उसको बतलाना

अहल्या बिना/ पल भर न जीऊँ

अधर रस/ उसकी कब पीऊँ

सारा बदन/ आग सा जल रहा

उसको न पा/हाथ मैं मल रहा

करो उपाय/वो मेरे हाथ आय

उसको देखो/ नजर को गड़ाय

उसका पति/ कब घर से जाय

हाँक लगाना/तुम मुर्गा बनना

उसका पति/ जब घर से जाय

मैं बन पति/ उसका घर जाऊँ

प्रेम की लीला/ अहल्या से रचाऊँ

कैसी है सती/ पति जान न पाई

पर नर से/ कामलीला रचाई

गौतम आया/ देखकर गुस्साया

दे दिया शाप/ शरीर भर योनि

भोगता शाप/ देवताओं के राजा

योनि औ योनि/बलात्कारी की सजा

कलूटा चन्द्र / तुझे क्षय हो जाय

कैसी है पत्नी / पति न पहचानी

जाओ अहल्या/ तू पत्थर बन जा

मन के पाप/  सबके सब भोगे

सबको मिला/ भग योनि का शाप


0000000000000000

आत्माराम यादव पीव 

आत्‍मा का वरण

अरी आत्‍मा तू आती कहां से
अरी आत्‍मा तू जाती कहां  है।
पुरूष को वरेगी या स्‍त्री को
ये परिणीता तू सीखी कहां  है।
तू कन्‍या वधु है,या पुरुष वर है
स्‍तब्‍ध जगत तुझे,,न जान सका है।
क्‍या महाशून्‍य से आती है तू,
क्‍या महाशून्‍य को जाती है तू।
जब प्राणों में बस जाती है तू
तब कौन सा धर्म निभाती है तू।
पति धर्म से पत्‍नी बनती है तू
या पत्‍नी धर्म से पति बन जाती है तू।
ओ आत्‍मा री, तेरी हुई किससे सगाई
परमात्‍मा तेरा वर है,तूने भावरे उससे रचाई।
पीव प्राणों को छोड, आत्‍मा तू चली जाये
प्राणहीन देह पडी, दुनिया पंचतत्‍व में मिलाये।


मैं एक और जनम चाहता हूं प्‍यार करने के लिये

मैं एक और जनम चाहता हूं,
मेरे हमदम मेरे प्‍यार के लिये।
प्‍यार अधूरा रहा इस जनम में,
अगला जनम मिले बस प्‍यार के लिये।
नये जनम का मीत, बस प्रीति ही करें
दिलोजिगर में समाले,अपने ऑचल में रखे।
सुबह उठे तो होठों पे उसके हो प्‍यारी हॅसी
चेहरा कुंदन सा दमके, वो हो मेरी बाबरी।
हर घडी उसकी, मेरे इंतजार में बीते
शाम यू स्‍वागत करें, जैसे फॉसले सदियों के
हॅसी रातें हो, मेरे अरमां सभी पिघल जाये,
आरजू बचे न कोई,प्रीति ऐसी मिल जाये।
मेरे सुखों को वह, अपनी वफा की ज्‍योति दे दे
मेरे दुखों को वह,अपने आंसुओं के मोती दे दे
समय कितना भी कठिन हो, वह कभी न डगमगाये
बात जनम मरण की हो,उसके माथे पे बल न आये।
‘’पीव’’ मुझे ऐसा ही प्‍यार मिले, जिसके संग हो मेरी भॉवरे
जीवन में प्‍यार कभी न थमे, यह अभिलाषा पूरी हो सॉवरे
मैं एक और जनम चाहता हूं,जिसमें मिले ऐसी हमदम
प्‍यार की वह ऐसी सरिता हो,जिसमें अन्‍हाये ही नहाये रहे हम।


सभी बोले प्रेमभरी खटटी मीठी बोलियॉ

बडी अम्‍मा की थी, खडी अकडभरी बोलियॉ ।
अनुशासन में थी, परिवार की सारी टोलियॉ।।
मझले कक्‍का का रूआब, था सबसे निराला ।
काकी की सादगी का,मिठास भरा होता प्‍याला।।
मॉ को बाई और पिता को हम कक्‍का जी कहते।
उनकी छत्रसाया में सभी,उनके आशीष में रहते।।
परिवार के बटवृक्ष में, पहला बेटा था रामभरोस।
असमय ही वे चल बसे, है किस्‍मत का ये दोष ।।
तंगहाल जीवन जीनेवाला,भाई शंकर था मजदूर।
हुई किडनियॉ दोनों खराब, खुशियॉ हुई  काफूर ।।
शंकर खुशियों में चूर था,, पर मौत नहीं थी दूर ।
नन्‍हें मुन्‍ने चार बच्‍चों की,चिंता उसे सता रही।
घर अधूरा बना हुआ,अब गरीबी उसे रूला  रही ।।
बच्‍चे अनाथ हो जायेगें, जब मौत मुझे आ जायेगी ।
इलाज मेरा करा न सके, बेरूखी भाई की तडपायेगी।।
आशंकायें शंकर की, आखिरी में सभी सच हो गयी ।
गरीबी का सरेआम कत्‍ल हुआ और बीमारी खो गयी।।
बडी कठिन थी वह मुश्किल की घडी,जब शंकर चल बसा।
कभी कष्‍ट सहा न जिस बहू ने, भाग्‍य उसका उजड गया।।
अठखेलियॉ करने की उम्र में,बहू भूल गयी सब बोलियॉ।
क्‍या छिना पिता का साया,बच्‍चों से भी छिन गयी बोलिया ।।
दिल को तडफाती है,कब बोल पायेंगे बच्‍चे अपनी खुदकी बोलियां ।
याद आती है मिश्री कक्‍का और काशी काकी की खटटी मीठी बोलिया।।
लक्ष्‍मी भैया बडे निराले है, पर परिवार से नहीं मिलती इनकी बोलिया।
भैया भोजराज सबसे बडे है,संभाल सके न घर को ।
तिनका तिनका घर बिखराया, कोई कह न सका इनको ।।
जिस मंजिल पर आहिस्‍ता आहिस्‍ता इनने कदम बढाये।
सोचे समझे बिना इन्‍होंने, सभी की राह में कांटे बिखराये।।
तनहाई में बिखरे खुद और तनहॉ सबको कर दिया।
नींद में अपनी खूब ख्‍वाव संजोये,जागों नींद से।
जागोगे तो ख्‍वाव सभी मर जायेंगे, आप अगर जाग जायेंगे।।
मातापिता की,भाई बहिन की सीख लीजिये बोलियॉ।
पीव नहीं कठिन है,राह सरल है भैया जुट जाये सब टोलियॉ।
हम भी बोले, आप भी बोले, सभी बोले प्रेमभरी खटटी मीठी बोलिया।।


  नीम पर झूला और झूलती- गाती बालायें

वह नीम का पेड
मैं उसपर सहज ही चढकर खेला करता
श्रावण के महिने में निवोरी आने का
इंतजार करता और निवोरी की दुकान लगाकर
निवोरी के बदले निवोरी बेचकर सुख् पाता
ऐसे समय में ही वह नीम
जिसपर रस्‍सी का झूला पडता
और श्रावण से भादों तक
एक महिने उस झूले को चैन नहीं होता,
क्‍योंकि तब झूलने के लिये
एक मेरा ही परिवार नहीं,
पूरे मोहल्‍ले की बहन-बेटिया कतार में होती
जो श्रावण गीत कच्‍ची नीम की निवोरी,
सावन जल्‍दी अईयेरे गाकर
देर रात तक गाती और झूलती।
तब उनके झूलने में एक जुनून हुआ करता था
श्रावण और भादों की मूसलाधार बारिस होती
तब नीम के झूले पर बरसात में भीगती
मोहल्‍ले की बहन-बंटिया, झूले को तेज चलाकर
श्रावण गीत को मंद स्‍वर से उच्‍च स्‍वर में
गुंजायमान करती, जिसके स्‍वर दूर कहीं
मोहल्‍ले-खेत खलियान तक पहुचते
तब पीव बुजुर्गो का अनुभव बता देता
कि किस मोहल्‍ले की किस नीम पर
किसकी बेटी की आवाज में यह गीत
गा रही है, मैं तब बचपन में इन बातें से
विस्‍मय में भर जाता,
और उनके अनुभव की परीक्षा लेकर
खुद को हारा  हुआ मेहसूस करता।


नीम का पेड और मेरा बचपन

आज भी है मेरे घर
नीम का पेड और देवी की मढिया
जब में बच्‍चा था तब
नीम के पेड पर
सहज ही चढ़ जाया करता था
तब चुपके से पेड की सबसे ऊॅची
डाली/शाखा पर पहुचकर में जोर से
मॉ को आवाज लगाता था।
मॉ नीम के पेडपर मुझे चढा देख
जमकर चीखती चिल्‍लाती
कहती नीचे उतर गिर जायेगा
डराती नहीं उतरेगा तो पीटूगी
मैं मॉ को चिढाकर खुश होता
उन्‍हें गुस्‍सा करते देख शरारतें करते
पतली डाली पर चढ जाता था।
मॉ कभी रूआसी होती, कभी रोने लगती
और नीम से उतरने की मिन्‍नते करती
फिर कहती तेरे पिताजी को बुलाती हॅू
पिता का नाम सुनकर मैं झटपट
नीम से नीचे उतर आता था।
जानता था सच में पिताजी आ गये
तो वे पीटेंगे और म्‍याल से हाथ बॉधकर
खाना न देने का फरमान जारी कर देंगे,
तब मॉ, उनकी दी गयी सजा को कम
कराने की मिन्‍नतें करती तो पिताजी मॉ पर नाराज होते थे
मॉ मुझे कई बार म्‍याल से बॅधा देख
रस्‍सी खोलने का ख्‍याल तो लाती,
पर पिताजी को मनाने के बाद ही वे मुझे
बचपन की मेरी शरारतों से बचा पाती,
हॉ उस समय पिताजी को
दादी मॉ और बडी अम्‍मा ही डपटकर
मुझे सजा से मुक्‍त कराने का एकमेव अधिकार रखते थे
और पिताजी
दादी मॉ और उनकी भाभी मॉ के आदेश को
आजीवन अपना कर्तव्‍य समझ निभाते रहे,
आज मैं बडा हो गया हॅू
और मेरे बेटे आज भी मुझसे ज्‍यादा
अपने दादा दादी को प्रेम करते है,
भले आज माता पिता पर उम्र हावी होने पर
वे कमजोर, बूढे हो गये है लेकिन
उन बूढी ऑखों को आज भी अपने बेटे-बेटिया का
इंतजार होता है, मिलने पहुचते है
तब मेरे मातापिता की ऑखों से
आंसु प्रेम के रूप में झरने लगते है
मैं माता-पिता के हर दर्द को समझकर,
भूल जाता हू अपने बचपन की
पीव वे सारी सजायें, जो मुझे बचपन की
नादानी की शरारतों से उनसे मिली थी।

दोस्त, मैं देख चूका हूँ होशंगाबाद
वापस चल
मनमोहती नर्मदा और उसके सुंदर घाट
मंदिरों में विराजे भगवान और उनके भाट
ठेके पर होती अब नर्मदा की भव्य आरती
सत्संग को तरसे सत्संग भवन, ताला किनका है जड़ा
धर्मशालाओ- गौ शालाओ से कब्ज़ा अब तक नही हटा  
हरी दूब फूलों के गलीचे ऊँची जिनकी मीनार
मंदिर ट्रस्टो के ठेके उनके नगर के वे जमीदार
नेता बनकर करे चाकरी जनता के चितचोर
चैन चुराकर जनता का फिर भी बने हुए है सिरमौर
खोपडियो में है इनके शातिर चाले खुद को बताते नेक
खोह में खो गई जनता? कुछ ने दिए घुटने टेक
दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद
वापस चल ...

दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद, जिसकी बात निराली
कहते लोग बगीचा जिसको,वह अग्रवालों की थी फुलवारी ।। 
रईस कहाते सेठ वहा के, नन्हेलाल सेठ हुए विख्यात
कई गांवों के मालगुजार,दानवीर घासीराम थे उनके तात  ।।
जनता के थे ये सच्चे सेवक,बातें है कुछ थोड़ी पुरानी
कुए-बाबरी, ताल तलैया, सूखी धरती पर खुदवाती सेठानी ।।
अलख जगायी शिक्षा की , लाये बच्चो के जीवन में उजियारा
सेठ नन्हेलाल घासीराम ने, एसएनजी स्कूल बनवाया प्यारा ।।
नर्मदा कालेज रईस नन्हेलाल ने बनवाकर , इस नगर पर बड़ा उपकार किया
नर्मदा के तट पर सेठानीघाट बनवा सेठानी ने, इस नगर का पूर्ण श्रृंगार किया ।।
थे बड़े दानी ये सेठ सेठानी, सपने अधूरे जीवन में ये तलाशते थे किनारा
मझदार में थी नैया भाग्य में न था खिवैया, बेटे बिना कौन बनता इनका सहारा  ।।
पीव धुंधली थी जीवन की दिशाए तब पंडित रामलाल जी कुहासा बन आये
सेठ सेठानी को मिली संजीवनी,दत्तक बेटा जब सेठ की पहचान बन आये  ।।
दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद
वापस चल ...फिर शहर देखने आयेंगे .......आत्माराम यादव
दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद
वापस चल ...फिर शहर देखने आयेंगे .......आत्माराम यादव
मतलब की है दुनिया, मतलब के है यार

एक वाटिका लंका में थी, एक थी होशंगाबाद में
वक्त आने पर दोनों उजड़ी, मालिक हुए अबसाद में
रामकाज करने हनुमत, रामचरण में लीन थे
आज्ञा माँ से ले हनुमत, अशोक वाटिका उजाड़ने तल्लीन थे
उजड़ी वाटिका लंका की तो , लंकेश तो जीते जी मर गया,
एक छोटे से रामसेवक के आगे, लंकापति का सर झुक गया
होशंगावाद की वाटिका की तुम्हे बताये गजब कहानी है
कलेक्टर फैज अहमद ने उसे उजाड़ी बात एक दशक पुरानी है


दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद, यहाँ जर्जर मिटटी की जिनकी काया है 
अपनी छवि को तरस रहे जो, उनके सपनों की अमरवेल सी माया है ।।
क्या कर लू, क्या न कर लू, यह  थोथा दंभ और अहंकार है उनको
जंगल, खेत,खदान रेत हाय, सभी हो अपने और राजनेता भी वे हो ।।
जगदीशपुरा में भले हो जगदीश्वर है ,पर सरकार बगीचे से चलती
अपना बनाकर छलते जिनको,  उनकी टूटी आस से बददुआ निकलती ।।
जादू कुछ ऐसा है उनका जन जन पर, बनकर दीवाने लोग खिचे आते है
हथेलियों की लकीरे जिनकी उतर गई, वे खौफजदा इनके बलपुंज से घबराते है।।
पीव मतलब निकला यारी तोड़ी, बेकाम हुए तो मझदार में छोड़ा  
कोई बताओ ^^एक शख्स^^ऐसा, बगीचे की कृपा से भोपाल दिल्ली पंहुचा ?
दोस्त में ...देख चूका होशंगाबाद
वापस चल ...फिर शहर देखने आयेंगे
होशंगाबाद में स्‍कूल एसएनजी, नर्मदाकालेज थे जिनके नाम।
सेठ नन्‍हेलाल घासीराम से महादानी,जनता करती उन्‍हें प्रणाम।।
शिखरों पर गूजा करती ख्‍याति, होशंगाबाद में किये कई दुर्लभ काम।
धुंधला हुआ इतिहास में अंकन, इन सेठों की ख्‍याति क्‍यों हुई गुमनाम।।
टूटा महाव्रज कोई दान धरम का, किसने बंदी किया जगत में इनका नाम।
उदात्‍त चरित्र के वे सर्जक थे, बिरले दानवीरों के  व्रत साधक थे।
गॉव गॉव में बनाये शिक्षा मंदिर, निशुल्‍क शिक्षा देने के आराधक थे।
मुकुटमणि सी ख्‍याति इनकी, पर इनके सर कोई मुकंट न था।
नगर में प्रथम रामलीला करवाई, मंचन का खर्चा अब भी इनका था।
अखण्‍ड दान था सेठ नन्‍हेलाल घासीराम स्‍कूल,
जो कालान्‍तर में एसएनजी स्‍कूल कहाता है।
एसएनजी मैदान की महिमा क्‍या कहिये, इसमें राष्‍ट्रीय हॉकी टीमें खेली थी।
अंतराष्‍ट्रीय ख्‍याति के रंधावा-दारासिंह, इनकी फ्रीस्‍टाईल भी हमने देखी थी।
सालों साल खचाखच रहता यह मैदान अनूठा था
कितने करतब, कितने खेल, यह नगरजनों के दिल में था।
नगर के सभी स्‍कूलों के बच्‍चे, कभी इस मैदान की रौनक थे
सारे त्‍यौहारों पर कुश्‍ती,कबडडी,और कई खेलों के मेले थे।
हाय एसएनजी स्‍कूल के इस मैदान पर जाने किसकी नजर लगी
सरकार के हाथों से छिनवाकर, जाने किस अधिकारी की दाल गली। 
जीवन दे प्रण पालते दान का, इससे धन कमाना क्‍या संतति का काम।
पीव उददेश्‍य जिनका था दान-धर्म, वे सेठ थे नन्‍हेलाल घासीराम
उनके धर्म,दर्शन और विज्ञान के चिंतन को,नगरजनों का सौ सौ प्रणाम।



रचनाकार ...आत्माराम यादव पीव  (वरिष्ठ पत्रकार)
व्‍यूरो, हिन्‍दुस्‍थान समाचार एजेन्‍सी, होशंगाबाद
पता- के-सी- नामदेव निवास, द्वारकाधीश मंदिर के सामने,
जगदीशपुरा वार्ड नम्बर -2 होशंगाबाद मध्यप्रदेश

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. रचनाकार में प्रकाशित सभी कलमकारों की कविताएँ बहुत अच्छी है ।सभी को बहुत बहुत बधाई ।साथ में संपादक महोदय को भी धन्यवाद एवं आभार जो इतने मेहनत करके सबकी रचनाओं को प्रकाशित कर हमें एक सूत्र में जोड़ रहे हैं ।

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: माह की कविताएँ
माह की कविताएँ
https://lh3.googleusercontent.com/-K9bqMGHT5_4/Wt7gZVP5oyI/AAAAAAABA2U/waQYZJ8tR2oorxWy256DVeLsMzf0AdxwACHMYCw/image_thumb%255B1%255D?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-K9bqMGHT5_4/Wt7gZVP5oyI/AAAAAAABA2U/waQYZJ8tR2oorxWy256DVeLsMzf0AdxwACHMYCw/s72-c/image_thumb%255B1%255D?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_81.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/blog-post_81.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content