हास्य नाटक- दबिस्तान-ए-सियासत अंक ३ के मंज़र एक से तीन // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

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तीनअंक ३, मंज़र १ - “आज़कल..गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।” नए किरदार – [१] फन्ने खां – रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी, स्कूल की विकास समिति के मेंबर...

तीनअंक ३, मंज़र १ - “आज़कल..गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।”

नए किरदार – [१] फन्ने खां – रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी, स्कूल की विकास समिति के मेंबर एवं साबू भाई के दोस्त। श्याम वर्ण, चेहरे पर चेचक के दाग नाक के नीचे घनी सफ़ेद बाँकड़ली रौबदार मूंछें।

हाजी मुस्तफ़ा - स्कूल की विकास समिति के मेंबर एवं साबू भाई के दोस्त। रंग गोरा, तीखे नाक-नक्श।

[मंच रोशन होता है, स्कूल के बाहर का मंज़र नज़र आता है। मेन गेट के सामने मनु भाई की दुकान दिखायी दे रही है। अभी वहां मनु भाई ग्राहकों को किराणे का सामान तोलकर दे रहे हैं। पड़ोस वाली कमठे मेटिरियल की दुकान पर बैठे साबू भाई, फ़ोन का चोगा उठाये लम्बी गुफ़्तगू में मशगूल है। तभी मोहल्ले के मौजीज़ मुसाहिब जनाब फन्ने खां अपने दोस्त हाजी मुस्तफ़ा के गले में हाथ डाले हुए वहां तशरीफ़ रखते हैं। वहां आकर दोनों मुसाहिब पत्थर की बेंच पर बैठ जाते हैं। अब फन्ने खां साहब मनु भाई को सलाम करते हुए कहते हैं।]

फन्ने खां – [सलाम करते हैं] – वालेकम सलाम, मनु भाई।

मनु आई – [बेरुख़ी से] – वालेकम सलाम। [होंठों में ही, कहते हैं] आ गए निक्कमें, ग्राहकी के वक़्त। ऐसे मर्द्सूद पैदा हो गए इस मोहल्ले में, कमबख्त व्यापारी को चार पैसे कमाने नहीं देते। अभी कहेंगे आकर, “लाओ शतरंज, जमाते हैं मोहरे।”

फन्ने खां – [उतावलेपन में, कहते हैं] – क्या सोच रहे हो, मियां ? लाओ ना, शतरंज। फिर आकर जम जाओ इस बेंच पर मोहरे बिछाकर।

मनु भाई – [शतरंज और उसके मोहरे थमाते हुए, कहते हैं] – अजी जनाब, आप ही बिछाएं शतरंज और उसके मोहरे। हम तो जनाब, बैठें हैं दुकान पर। बैठेंगे तो कमाएंगे, चार पैसे। चार पैसे कमाएंगे, तो अपना और घर वालों का पेट भरेंगे।

[उधर अपनी दुकान पर बैठे साबू भाई के कानों में, मनु भाई की आवाज़ सुनायी देती है। फ़ोन पर बात ख़त्म होते ही, वे फ़ोन को चोगे पर रखते हैं। फिर ज़ोर से मनु भाई को आवाज़ देते हुए, कहते हैं।]

साबू भाई – [फ़ोन रखकर, फन्ने खां को देखते हुए कहते हैं] – ओ मनु भाई। निक्कमे आज़म आ गए क्या ? ख़ुदा जाने, कहाँ से आ जाते हैं, ये निक्कमें ? आज़कल ये निक्कमें इंसान, किसी व्यापारी को चार पैसे कमाने से मरहूम कर देते हैं।

फन्ने खां – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – क्यों साबू साहब, हमने आपको कुछ नहीं कहा ? फिर आप, क्यों मुंह से आग उगल रहे हैं ? काहे की करते हैं आप, इतनी लग्व ? कहीं आपको अलील हो गया हमें देखकर, क्या कहूं अब आपको..? हमारे आते ही जनाब, आप हो जाते हैं बेकैफ़ ?

साबू मियां – क्या कहा, मियां ? हमारा ही धंधा ख़राब करते हो, और हम कुछ न बोलें ? क्या, आप क्या जानते हैं ? बड़ी मुश्किल से एक ग्राहक हाथ आया, उससे गुफ़्तगू कर रहा था फ़ोन पर। और, आपने गुड़-गोबर कर डाला।

फन्ने खां – क्या हो गया, मियां ? आसमानी फ़रमानी आ गयी, क्या ? आँख पर ठिकड़ी रखकर, बोल रहे हैं जनाब ? ऐसा हमने क्या कर डाला, जो आप इतने लाल-पीले होते जा रहे हैं ?

साबू भाई – जनाब, आपने ऊँची आवाज़ में बोलकर उसे भड़का दिया। वह बेचारा कह रहा था कि, इन तेज़ आवाजों के आगे मुझे कुछ सुनायी नहीं दे रहा है। बाद में, इतमिनान से बात करूंगा।

फन्ने खां – [हंसते हुए, कहते हैं] – काहे की फ़िक्र, करते हो यार ? नूरे खरादी के जाव की ज़मीन बेचनी है, कोई शीश महल बेचने नहीं बैठे थे आप ?

साबू भाई – शीश महल न सही, मगर आप उसे बेशकीमती तसवीर ही समझ लीजिये। जिसे बेचकर, हम उसकी क़ीमत मार्केट में हज़ारों क्या लाखों रुपये वसूल कर सकते हैं। जानते हैं आप, यह ज़मीन का टुकड़ा सरदार समंद हाई वे रोड पर आया हुआ है ?

फन्ने खां – तसल्ली रखो, मियां। सबको अपनी चीज़ क़ीमती लगती है, मगर क़ीमत तुजुर्बेदार इंसानों की नज़रों में होनी चाहिए। अभी सुबह ठीक नौ बजकर दस मिनट पर, आपको यहाँ दाऊद मियां के दीदार हो जायेंगे...वे ज़मीन बिकवा देंगे, आपकी सही दामों में। आख़िर, जनाब दाऊद मियां ठहरे आपके एहबाब।

[फन्ने खां के दोस्त हाजी मुस्तफ़ा जो पहले से इस बेंच पर बैठे हैं, वे बिना पूछे बीच में बोल पड़ते हैं।]

हाजी मुस्तफ़ा – सौ टका सही बात कही आपने, दाऊद मियां सौदा पटा न पाए, तो स्कूल के लाइब्रेरियन साहब शेर खां ज़रूर आपकी ज़मीन बिकवा देंगे। वे ठीक दोपहर के १२ बजे स्कूल में दाख़िल होंगे, वे उस्ताद हैं ज़मीन के प्लोटों की जानकारी के।

मनु भाई – उस्ताद क्यों नहीं, इन दोनों का काम फिर है क्या ? अजी जनाब, इनके सिवाय स्कूल में दो-दो दफ़्तरेनिग़ार बैठे हैं काम करने, फिर दाऊद मियाँ को काम करने की क्या ज़रूरत ? और इधर स्कूल की कोई लड़की आती नहीं किताब इशू कराने ? फिर, क्या काम करेंगे हमारे शेर खां साहेब ? बस, दोनों साहेबान के पास वक़्त ही वक़्त।

साबू भाई – फिर ये दोनों साहेबान, करते क्या हैं ?

मनु भाई - फिर दोनों उस्तादों का काम क्या ? ज़र्दा चखना, और हफ्वात हांकना। या फिर नींद लेना, और क्या ?

साबू भाई – फिर क्या ? इन निक्कमों को करना क्या ? पूरी जिस्म की ताकत लगा देंगे, इन फ़िज़ूल के कामों में।

हाजी मुस्तफ़ा – अजी साहब, स्कूल की छुट्टी होने के बाद ये दोनों मुअज्ज़म घर जाने के लिए..स्कूल से पैदल ही निकलते हैं। रास्ते में कई लोगों से मुलाक़ात करते हुए, आख़िर तक़रीबन शाम के साढ़े सात बजे अपने रिहायशी मकान पहुंचते हैं।

साबू भाई – अरे बिरादर, इन दोनों की बेग़में इन पर भरोसा कतई रखती नहीं। क्या कहूं, आपको ? इनके निकलने के बाद घर से इनकी बीबियां तहक़ीकात में जुट जाती है। अरे जनाब, बार-बार इनकी बीबियों के फ़ोन हमारी दुकान पर आते हैं।

[पहली पारी की मोहतरमा ग़ज़ल बी और जैलदार मेमूना, स्कूल का मेन गेट पार करके बाहर आते हैं। ग़ज़ल बी अपने घर की तरफ़ क़दम बढ़ा देती है, मगर गुफ़्तगू के शौकीन रहे मेमूना भाई आकर बेंच पर बैठ जाते हैं। उनके बैठ जाने से ये निक्कमें लोग, अपनी चल रही गुफ़्तगू बंद नहीं करते। यहाँ तो मनु भाई भी, आगे कहते जा रहे हैं।]

मनु भाई – साबू भाई, ग़नीमत है...आपने शेर खान साहेब की बीबी की तल्ख़ आवाज़ नहीं सुनी, परसों की बात ठहरी..आपके यहाँ हाज़र न होने के कारण हमने फ़ोन का चोगा उठाया क्या जनाब ? ऐसा लगा...बस, कोई इंसान नहीं जंगजू शेरनी दहाड़ रही हो ?

हाजी मुस्तफ़ा – यह गरज़ती आवाज़ ज़रूर, शेर खान साहेब की बीबी की होगी। फिर, मोहतरमा ने कुछ कहा होगा ?

मनु भाई – अजी साहेब क्या कहूं, आपसे ? उनकी बीबी गरज़कर ऐसे बोली “इतना वक़्त, कहाँ गुज़ार दिया ? यह कोई वक़्त है, घर रवाना होने का ? यह घर है, या सराय ? अजी क्या कहूं, आपसे ? आवाज़ सुनकर हम तो दहल गए। हाय अल्लाह, हमें तो शक हो गया...कहीं यह फ़ोन हमारी खातून का तो नहीं ?

हाजी मुस्तफ़ा – फिर क्या हुआ, बिरादर ?

मनु भाई – हाजी साहेब, कौन उलझे ऐसी शेरनी से ? हमने डरकर चोगे को क्रेडिल पर रख दिया, तभी घंटी बजने लगी। हाय ख़ुदा, यह तो क़िस्मत हमारी ख़राब रही। हमने चोगा उठाया, अरे सुना क्या हुज़ूर ? सुनकर, हमारा जिस्म थर-थर कांपने लगा।

हाजी मुस्तफ़ा – फिर क्या हुआ, बिरादर ?

मनु भाई – मोहतरमा की कड़कती आवाज़ चोगे से निकली कि “कैसे बदतमीज़ हो मियां ? क्या आपको किसी मोहतरमा से बात करने की तहज़ीब नहीं, हम आकर वहा आपको तहज़ीब सिखाएं क्या ?

साबू भाई – आप तो जनाब साबिर ठहरे, कुछ बोले नहीं ?

मनु भाई – हमने तो यही समझा कि हम अपनी खातून से बात कर रहें हैं। बस हमने, बस इतना ही कहा कि “मेरी महबूबा, नाराज़ मत हो...” बस, हमने प्यार से इतना ही कहा, हुज़ूर। बस, आसमानी फ़रमानी आ गयी। वह चीखकर बोली, कि “बदतमीज़। किसको कह रिया है, महबूबा ? जानता नहीं, हम शेर खान साहेब की खातून बीबी बेनजीर हैं।

हाजी मुस्तफ़ा – [हंसते हुए, कहते हैं] – फिर तो हुजूरे आला की पतलून, गीली हो गयी होगी ?

साबू भाई – जनाबे आली, वक़्त ख़राब है। तसलीमात अर्ज़ करता हूँ, इन एहाबाबों की बीबियों से दूर रहना ही अच्छा है। जनाब, ये...

मेमूना - मैं आपको राज़ की बात बताता हूँ, जनाब। आपके ये दोनों एहबाब जब छुट्टी होने पर स्कूल से निकलते हैं तब ये दोनों सीधे अपने घर नहीं पहुंचते, स्कूल से घर तक के सफ़र में, इन लोगों की कई दफ़्तरों के दफ्तरेनिग़ारों से मुलाक़ात होती है। अरे जनाब, ये सभी इनकी राह में आंखें बिछाए खड़े मिलते हैं। इनको इन्तिज़ार रहता है कि, कब ये दोनों महानुभव उधर से गुज़रे और ये लोग उनसे मिलकर अपना काम सलटा लें।

साबू मियां – इन लोगों से, ये दोनों क्यों मिलेंगे ? ये दोनों तो, बिना मतलब किसी से बात भी नहीं करते हैं।

मेमूना – साबू साहेब, महकमें के लोगों से महकमें की ताज़ी जानकारियाँ हासिल करेंगे तो इन मुसाहिबों से ज़मीन के प्लोटों की जानकारी। कई मर्तबा इनको, क़र्ज़ लेने वाले ज़रूरतमंद जान-पहचान वाले मिल जायेंगे, जो अपनी अबसार बिछाए इनका इन्तिज़ार करते...

हाजी मुस्तफा – बस फिर, क्या ? इन दफ़्तरेनिग़ारों से ढेर सारी जानकारी हासिल करेंगे जैसे तबादलों की। फिर क्या ? चर्चा का मसाला, इनकी जेब में। किनका तबादला हो रहा है, व किनका तबादला क्यों रोका गया ?

फन्ने खां – फिर क्या ? यह सारा मसाला यहाँ इसी बेंच पर बैठकर, हम लोगों के बीच परोस दिया करते हैं। और इसके बदले हम उनको जानकारी देते रहते हैं कि, इस मोहल्ले में कौन-कौन है सफ़ेदपोश ? किस-किस के बीच चल रहा है, याराना ? अजी हम तो यह भी बताते रहे है इनको कि, हमारे एम.एल.ए. साहेब का याराना मोहल्ले की किस-किस औरत के साथ चल रहा है ?

साबू भाई – अरे छोड़िये, इनके इस याराना को। हमें तो खाली, अपना याराना दाऊद मियाँ के साथ बढ़ाना है। जो अभी आकर इसी बेंच पर बैठकर, ज़मीन के प्लाट के ग्राहक लाकर हमारी हर्ज़-बुर्ज़ मिटाने वाले हैं। लीजिये देखिये, उधर..[सड़क की ओर, उंगली का इशारा करते हैं] साइकल थामे, दाऊद मियाँ आ रहे हैं।

[सबकी निग़ाह, दाऊद मियाँ पर गिरती है। दाऊद मियाँ को देखते ही, मेमूना भाई बेंच से झट ऐसे उठते हैं, जैसे उन्हें बिजली का करंट लग गया हो ? फिर, वे घबराते हुए कहते हैं।]

मेमूना – [घबाराते हुए, कहते हैं] – लो आ गए, साहब बहादुर। [सभी से कहते हैं] सलाम, साहब बहादुरों। अब तो हमें रुखसत हो जाना चाहिए, कहीं आली जनाब हमें कोई स्कूल का काम नहीं सौंप दे ? अब छुट्टी होने वाली है, खुदा कसम कहीं वक़्त ख़राब न कर दें हमारा ?

[फिर क्या ? तेज़ क़दम चलते हुए, वापस स्कूल में दाख़िल हो जाते हैं। थोड़ी देर बाद, दाऊद मियाँ वहां पहुंचते हैं। अपनी साइकल को बबूल के पेड़ के सहारे खड़ी करके, जनाब आकर बैठ जाते हैं बेंच पर। फिर क्या ? साबू भाई झट अपना उल्लू सीधा करने के लिए, आकर बैठ जाते हैं उनके पहलू में।]

साबू भाई – [दाऊद मियाँ के नज़दीक बैठकर, कहते हैं] – सलाम, दाऊद मियाँ। खैरियत है ? [मनु भाई से] ज़रा मनु भाई, ज़र्दे की पेसी थमाना। चलिए, दाऊद मियाँ को सुर्ती चखाते हैं।

[मनु भाई दाऊद मियाँ को ज़र्दे की पेसी थमा देते हैं। अब दाऊद मियाँ पेसी से ज़र्दा और गीला चूना निकालकर, उसे अपनी हथेली पर रखकर अंगूठे से मसलते हैं। फिर, लबों पर मुस्कान लाकर साबू भाई से कहते हैं।]

दाऊद मियाँ – [लबों पर मुस्कान लाकर] – वालेकम सलाम, मियाँ। आप जैसे एहबाबों की दुआ से, अब खैरियत है। बस, आपकी मेहरबानी से जी रहे हैं हुज़ूर। ना तो हम जैसे निक्कमों को कौन पूछता है ?

[फिर साबू भाई और मनु भाई को सुनाते हुए, पास बैठे फन्ने खां साहब से कहते हैं।]

दाऊद मियां – [फन्ने खां साहब से, कहते हैं] – क्यों, फन्ने खां साहब ? आप भी इस बात की तसलीम करते हैं या नहीं ? कहीं हमने, क़ाबिले एतराज़ बात तो न कह दी ?

[फन्ने खां साहब अपनी घनी मूंछों पर ताव देते हैं, फिर लबों पर मुस्कान छोड़ देते हैं। मगर, बोलते कुछ नहीं। तब, साबू भाई पछताते हुए कहते हैं।]

साबू भाई – [पछताते हुए, कहते हैं] – हैं हैं हैं..! हमें अफ़सोसनाक ज़हालत में न डाले, हुज़ूर। जबीं यह है...

फन्ने खां – हाँ बिरादर, आप ठहरे साबू भाई। काम ऐसे करते हैं जैसे “नहर पर चल रही है पनचक्की, धुन की पूरी पक्की, काम की पक्की।” खैर, आ जाइए मक़सद पर..अब समझा दीजिये अपना मफ़हूम...आखिर, आप चाहते क्या हैं ?

हाजी मुस्तफा – ये अब क्या कहेंगे, अब आपसे ? सच्च यही है, इन निक्कमों से काम लेना आसान है। इस कारण, एरा-गैरा आदमी इन निक्कमों को काम सौंप दिया करते है।

साबू भाई – [आब-आब होते हुए, कहते हैं] – गुस्ताख़ी के लिए, माफ़ी चाहता हूँ। [फन्ने खां साहब की तरफ देखते हुए, कहते हैं] फन्ने खां साहब, आप जैसे दानिशों को हमने निक्कमा कहा। क्या करें ? मगर, अब मज़बूरी है। क्या कहूं, आपसे ? अब तो जनाब, ऐसा वक़्त आ गया है आज़कल..गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।

दाऊद मियाँ – [मंद-मंद मुस्कराते हुए, कहते हैं] - जनाब, आगे यह भी कह दीजिएगा कि “काम बनाने के लिए गधे की लात भी खानी पड़ती है।” [उठते हैं]

साबू भाई – [चौंकते हुए, कहते हैं] – कहाँ चल दिए, बिरादर ? आपकी लातें, दुलती जो भी आप कहें, सहनी तो पड़ेगी ही। अजी ये आपकी लाते और दुलती नहीं है, पैसों की बरसात है।

[हथेली पर ज़र्दे और चूने को अच्छी तरह से मसलकर, उन्होंने अच्छी-ख़ासी सुर्ती बना डाली है। अब वे दूसरे हाथ से, उस सुर्ती फटकारा लगाते हैं। जिससे खंक फैलती है, जो पास बैठे साबू भाई के नासा-छिद्रों में चली जाती है। फिर क्या ? आली जनाब छींकों की झड़ी लगा देते हैं। मगर अब तो वक़्त-वक़्त की बात है, जनाब साबू साहब अब बेनियाम नहीं होते है। क्योंकि, अब तो मियाँ को गधे की लात और दुलती खानी अच्छी लगती है। अपने होंठों के नीचे सुर्ती दबाकर, अब सभी बैठे मुअज्ज़मों को सुर्ती चखाते हैं। फिर, मनु भाई को पेसी सौंपकर साबू भाई से कहते हैं।]

दाऊद मियाँ – हुक्म कीजिये, मेरे आका। इस गधे के लिए क्या हुक्म है ?

साबू भाई – [होंठों के नीचे सुर्ती दबाते हुए, कहते हैं] – हुआ यूं बिरादर, आज़कल हमारा धंधा कुछ मंदा चल रहा है। इधर सीमेंट के भाव बढ़ गए और उधर बाज़ार में मंदी। पैसा लौटकर वापस नहीं आ रहा है, जनाब। इस बात से आप पूरे वाकिफ़ हैं, हुज़ूर।

दाऊद मियाँ – इस गधे के बिरादर, अब आप वापस याद दिला दीजिये। वैसे भी मोहल्ला-ए-आज़म साबू भाई, अभी आप निक्कमें ही हैं...हम निक्कमों की तरह। अब तो आप और हम एक ही बिरादरी के निकले, यानि आपको निक्कमा कह दें या गधे के बिरादर। फिर, काहे की औपचारिकता ?

साबू भाई – आपका पड़ोसी जग्गू मियाँ है, ना ? उसका मकान हमारे पास गिरवी पड़ा है, अब पैसे देकर छुड़ाना तो दूर, यह मरदूद ब्याज भी नहीं दे रहा है।

दाऊद मियाँ – इसमें पूछने की क्या बात है ? ले लीजिये ब्याज, किसने मना किया है आपको ? हम आपकी खिलाफ़त कभी नहीं करेंगे। जब चाहे आप डंडे मारकर, उससे ब्याज वसूल कर सकते हैं। जनाब, आपको कोई नहीं रोकेगा।

साबू भाई – यही मुसीबत की जड़ है, हुज़ूर। उसका मकान बिकवाने के लिए जिस-किसी ग्राहक को मकान देखने भेजता हूँ, उसके सामने यह नामाकूल ग़रीबी का रोना रोकर उसे भगा देता है। हाय अल्लाह, अब पैसे कहां से लाऊं ?

दाऊद मियाँ – [बेंच पर वापस बैठते हुए, कहते हैं] अब बताइये, मेरे मुअज्ज़म अब आपकी क्या ख़िदमत करूँ ?

साबू भाई – देखिये जनाब, नूरे खरादी के जाव में हमने सौ बाई सौ का एक प्लाट खरीद रखा है। क्या बताऊँ जनाब, आपको ? अब वहां बस्ती बसने लगी है। बस हुज़ूर, ख़ाली पक्की सड़क नहीं बनी हैं।

दाऊद मियाँ – अरे जनाब, क्या आपने मुझको मुनिस्पलटी का वार्ड मेंबर समझ रखा है ? अब जाइए, जाइए अपनी पड़ोसन मुन्नी तेलन के पास..जो आपके मोहल्ले की वार्ड मेंबर है। वह ज़रूर सड़क बनवा देगी। न बनवाये तो कहिये आप अपने एहबाब एम.एल.ए. साहेब को, वे ज़रूर अपने बज़ट के कोटे में सड़क बनवा देंगे।

साबू भाई – जनाब, आप ग़लत समझ रहे हैं। मुझे सड़क नहीं बनवानी है, बस ख़ाली अपना प्लाट बिकवाना है। कुछ पैसे हाथ आ गए तो, मैं भी आपके कुछ काम आ सकूंगा।

दाऊद मियाँ – [लबों पर मुस्कान लाकर, कहते हैं] – देखो साबू भाई, गए महीने हमने मज़ीद मियाँ कबाड़ी के जाव से कुछ प्लाट ख़रीदे हैं। अरे साहेब, क्या बताऊँ अब आपको ? सारी रक़म प्लाट ख़रीदने में काम आ गयी। अब हमारे पास रोकड़ रक़म बिलकुल बची नहीं। आप हमारे अज़ीज़ ठहरे, अगर आप...

साबू भाई – सकोंच मत कीजिये, कह दीजिये। आपकी हर शर्त मंज़ूर है, जनाब। बोलिए मेरे एहबाब, आप क्या कहना चाहते थे ?

दाऊद मियां – बात ऐसी है, हुज़ूर। आपका प्लोट बिकवाने के लिए, हमें ग्राहक ढूँढ़कर लाना होगा। ग्राहक ढूँढ़ने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी, यह भी हो सकता है हमें स्कूल से छुट्टी लेनी पड़े। बस, आप...

साबू मियाँ – आप तो जनाब, अपना काम बोलिए..आपके लिए क्या किया जाय ?

फन्ने खां – [साबू भाई से] – मैं राज़ की बात बता देता हूँ, आपको। बस, आप दो परसेंट कमीशन दे दीजिएगा दाऊद मियां को। फिर, सौदा पक्का। आखिर घोड़ा बिना घास खाए कैसे दौड़ेगा, बिरादर ? [दाऊद मियाँ की तरफ देखते हुए] अब तो, खुश ?

[दाऊद मियां अपने लबों पर मुस्कान छोड़ते हैं। फिर, दोनों आराम से बैठकर प्लाट के मुद्दे पर गुफ़्तगू करने लगते हैं। स्कूल की छुट्टी होने का वक़्त हो गया है, हमेशा की तरह सितारा मेडम के शौहर वहां आ गए हैं। अपनी मोटर साइकल को स्टैंड पर खड़ी करके, अब वहां खड़े-खड़े अपनी बीबी का इन्तिज़ार करते हैं। तभी स्कूल में, छुट्टी की घंटी लग जाती है। पहली पारी की सभी बच्चियाँ बैग लटकाए स्कूल गेट से बाहर निकलती है, और जल्द ही उनके क़दम घर की तरफ बढ़ जाते हैं। अब इन दोनों की गुफ़्तगू पूरी हो गयी है, दाऊद मियां उठते हैं और साबू भाई से कहते हैं।]

दाऊद मियां – [उठकर, कहते हैं] – अब रुखसत होना चाहता हूँ, हुज़ूर। अब आप, फ़िक्र न करें। प्लाट बिकवाने का भार, अब मेरे कन्धों पर आ गया है। बस, आप प्लाट के कागजात की फ़ोटो कोपी और जाव के काटे गए प्लोटों के नक़्शे की कोपी मेरे पास भेज देना।

साबू भाई – शुक्रिया, बिरादर। आपको ज़रा तकलीफ़ दी।

दाऊद मियाँ – [हंसते हुए, कहते हैं] – अब यह निक्कमा गधा, अपने बिरादर साबू भाई के मुंह से ढेंचू ढेंचू की मधुर आवाज़ सुनना चाहेगा। क्या जनाब, क़ाबिले एतराफ़ है ?

[साबू भाई को छोड़कर, सभी बैठे मुअज्ज़म, ठहाके लगाकर जोर से हंस पड़ते हैं। अब दाऊद मियां, साइकल थामे स्कूल में दाख़िल होते दिखाई देते हैं। उनके जाते ही फन्ने खां साहेब मनु भाई को अपने पास बैठाकर, शतरंज खेलना शुरू करते हैं। साबू भाई और हाजी मुस्तफ़ा साहब, उनके खेल को तन्मय होकर देख रहे हैं। धीरे-धीरे, मंच की रोशनी लुप्त हो जाती है।]

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अंक तीन मंज़र दो नेत बनाम मिलनसारिता

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार –

चाँद बीबी – पहली पारी की चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। मृत राज्य कर्मचारी आश्रित कोटे से आयी हुई है, और सेकेंडरी बज़ट की चपरासी पद पर काम करती है। स्टाफ़ क्या करता है, और क्या नहीं करता है ? उनकी हर बात की जानकारी बड़ी बी को देती है, इस तरह वह कान भरने की आदत काम में लेकर स्कूल में सियासती चालें चलती रहती है।

इमतियाज़ बी – स्कूल में सेकंड ग्रेड टीचर, हेड मिस्ट्रेस और मुमताज़ बी की खिलाफ़त करने वाली।

[मंच रोशन होता है, बरामदे की दीवार पर लगी घड़ी में दस बजने का वक़्त हो गया है। स्कूटर बाहर रखकर, आक़िल मियाँ बरामदे में दाख़िल होते हैं। अब उनकी निग़ाह दाऊद मियाँ पर गिरती है, जो अपनी सीट पर बैठे हैं। इनकी सीट के आगे ही टी क्लब का स्थान है, जहां गैस के चूल्हे पर चाय का भगोना रखती हुई पहली पारी की चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी चाँद बीबी नज़र आती है। अब आक़िल मियाँ दाऊद मियाँ के पास आते हैं, और उनसे कहते हैं।]

आक़िल मियां – [नज़दीक आकर] – असलाम वालेकम। दाऊद मियां, खैरियत है ?

दाऊद मियाँ – वालेकम सलाम। स्कूल में आते ही दस्तखत करने का काम सबसे पहले किया करो, मियाँ। फिर जब चाहो तब, गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू कर देना। [हाज़री रजिस्टर थमाते हैं]

[हाज़री रजिस्टर में दस्तख़त करके, वे वापस रजिस्टर दाऊद मियाँ को सौंपते हैं। फिर, वे दाऊद मियाँ से कहते हैं।]

आक़िल मियाँ – [पास रखी कुर्सी पर बैठते हैं] – जनाब, यह रूखापन कैसे ? चेहरे से हवाइयां उड़ रही है, क्या बात है हुज़ूर ? किनसे नाराज़ है, आप ?

चाँद बीबी – [चाय बनाती हुई, कहती है] – कह दीजिये, हुज़ूर। अभी इस वक़्त स्कूल कोई मेडम यहाँ हाज़र नहीं है, जो सुनेगी आपकी बात ? बस, आप खुलकर बोल सकते हैं।

[दाऊद मियाँ वैसे आदमी ठहरे, जो घाट-घाट का पानी पी चुके थे। वे संदेह की नज़र से, चाँद बीबी को सर से पाँव तक घूरते हुए कहते हैं।]

दाऊद मियाँ – [चाँद बीबी को सर से पाँव तक घूरते हुए, कहते हैं] – बीबी, आज़कल दीवारों के भी कान होते हैं। न मालुम..

चाँद बीबी – [घबराती हुई, कहती है] – क्या कह रहे हैं हुज़ूर ? हम तो इधर की बात उधर करते नहीं, बाकी रहे आक़िल मियाँ...वह काहे कहेंगे..?

आक़िल मियाँ – दाऊद मियाँ कह दीजिए, सत्य बात कहने में घबराहट कैसी ?

दाऊद मियाँ – अरे मियाँ, क्या कहूं अब आपको ? इस कमज़ात नेत का रोना है। जब से इस स्कूल में आया हूँ, तब से किसी मेडम के बेटे या बेटी के निकाह तो कभी किसी मेडम का नया मकान बनवाये जाने की ख़ुशी में दावत..खुदा रहम, बार-बार इनविटेशन कार्ड मिलते ही रहते हैं।

आक़िल मियाँ – जनाब इनविटेशन कार्ड का मिलना, खुशी की बात है ग़म की नहीं। अरे हुज़ूर, खुशकिस्मत वाले को दावत पर बुलाया जाता है। आप खुशकिस्मत इंसान हैं, इसलिए आप दावत में जाकर लज़ीज़ खाने का लुत्फ़ उठा सकते हैं। मगर यहाँ तो आप कार्ड आते ही ग़मगीन होकर बैठ जाते हैं..यह कैस अलील पाल रखा है, आपने ?

दाऊद मियाँ – दावत गयी, चूल्हे में। क्या मैं उल्लू लगता हूं, या मैं गधा हूं ? कहीं आपने मुझे, बिना पूंछ का बन्दर तो समझ न रखा है ?

आक़िल मियाँ – हुज़ूर, मुझे क्या मालुम ? ऐसा हो सकता है, मेरी नाक-भौं की कमानी के ग्लास साफ़ न हो ? इस कारण मुझे साफ़ नज़र न आ रहा हो। इसलिए आप खुद उठकर, आईने में अपनी सूरत देख लीजिएगा। फिर क्या ? दूध का दूध, और पानी का पानी...सच्चाई सामने आ जायेगी आपके कि आप क्या हैं ?

चाँद बीबी – हुज़ूर, हमें क्या करना, आप क्या हैं ? आप चाहे उल्लू बनें या उल्लू के पट्ठे ? आप खुद ही बता दें, कि आपको किस नाम से पुकारा जाय ?

दाऊद मियाँ – आप-दोनों समझते ही नहीं, ख़ाली बकवास करते जा रहे हैं ? यहाँ तो हर माह इन कार्डों की वज़ह नेत डालते-डालते हमारी जेबें ख़ाली होती जा रही है, इस तरह तो जनाब तनख्वाह का बड़ा हिस्सा महिना ख़त्म होने के पहले ही ख़त्म हो जाता है।

आक़िल मियाँ – मिलनसारिता बढ़ती है, हुज़ूर। जनाब, मैं तो यही कहूँगा कि आप जैसा मिलनसार इस स्कूल में कोई नहीं है। स्कूल की बात छोड़ो जनाब, यहाँ तो कई सरकारी दफ़्तरों के दफ़्तरेनिग़ार और अफ़सर भेजते रहते हैं इनविटेशन कार्ड आपको।

चाँद बीबी – वजा फ़रमाया, हुज़ूर। आप खुशअख्तर हैं, जनाब। इतने सारे दफ़्तरेनिगार और अफ़सर, आपको खुशी के मौक़ों पर आपको याद करते हैं। और यहाँ हम-दोनों को, कोई याद भी नहीं करता ?

दाऊद मियां – क्या कहूं, बीबी ? यह मिलनसारिता अब नसीबे दुश्मना जान जोखम बन गयी है, आज़कल। सुनिए, कल की ही बात है। हम स्कूल से निकलकर पनवाड़ी की दुकान तक ही पहुंचे थे, और सोचा “चलिए, थोड़ी सुर्ती चख ली जाय।” बस, फिर क्या ? जैसे ही हम वहां रुके, और वहां मिल गए साबिर मियाँ..

चाँद बीबी – अच्छा, फिर क्या हुआ जनाब ?

दाऊद मियां – क्या कहूं, बीबी ? झट उन्होंने शादी का कार्ड थमा दिया, और कहने लगे “मियाँ, छोटी बहन खालिदा का निकाह अगले जुम्मे रात को है। इस निकाह में आप वकील हैं, इसलिए आपका तशरीफ रखना बहुत ज़रूरी है। ज़रूर आना, भूलना मत।”

आक़िल मियां – ख़ुशी की बात है, मुज़दा है। जनाब, घबराओ मत। ऐसी जिम्मेदारी, कम लोगों को ही मिलती है।

दाऊद मियां – मुज़दा को मारो, गोली। अरे मियाँ नेत तो अब देनदारी बन गयी है आज़कल। यहाँ तो रुपये देने की बात है, जेब ख़ाली करने की। मुझे वकील बनाने का मफ़हूम है, नेत के नाम मुझसे रुपये वसूल करना। अरे मियां, अब क्या कहें ? सच्च यही है है कि “इस मिलनसारिता को निभाते-निभाते, इन लोगों के पास नेत के नाम से मेरी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा चला जाता है। खुशियाँ इन लोगों की, और मेरी जेब से रुपये निकलते रहे ? यह कहाँ का इन्साफ है ?

चाँद बीबी – [प्यालों में चाय डालती हुई, कहती है] – आपका दायरा तो जनाब, बहुत लंबा है। इस तरह तो हुज़ूर, आपके घर में जब-कभी शादी वगैरा फंगशन हुए हो...उस वक़्त खुदा की कसम, नेत के रुपये खूब इकट्ठे हो जाते होंगे ? आपका सिर्किल बहुत बड़ा है, इसलिए नेत के रुपयों की किश्तियाँ [थैले] भर जाती होगी ?

दाऊद – ख़ाक...कन्नी काट लेते हैं, मरदूद बहाने बनाकर। कहते हैं कि “हम आते तो थे, मगर करें क्या ? आते वक़्त हमारे वालिद की तबीयत ख़राब हो गयी।” कोई कहता है कि “सरकारी टूर पर चला गया। नौकरी का सवाल था, मियाँ...बड़े साहब को मना नहीं कर सकता था। वे नाराज़ हो जाते।”

चाँद बीबी – मरदूद भले कहीं जाएँ, आपको क्या ? मगर, नेत के रुपये तो लगा जाते।

आक़िल मियाँ – अभी चंद रोज़ पहले आपकी भतीजी का निकाह था, आपने शादी के कार्ड स्टाफ़ को दिए..उस वक़्त हम सबने नेत का चंदा इकठ्ठा करके स्टाफ़ सेक्रेटरी के पास जमा करवा दिया। हुज़ूर, आपको नेत के रुपये मिले या नहीं ?

चाँद बीबी – हुज़ूर, सेक्रेटरी साहब ने हमसे भी नेत के रुपये लिए थे। क्या सेक्रेटरी साहिबा ने नेत के रुपये आपके पास जमा करवाए, या नहीं ? [चाय का प्याला थमाती हुई, कहती है] चलिए, अब आप चाय पीजिये, ना तो चाय ठंडी हो जायेगी।

दाऊद मियाँ – बुरा न मानना, चाँद बीबी। शायद, आपका कहना सच्च हो ? हो सकता है, मुमताज़ मेडम ने स्टाफ़ सेक्रेटरी की हैसियत से आप-सब से नेत के रुपये लिए होंगे..! मगर, नेत के रुपये पहुंचाना तो बहुत दूर...इस मोहतरमा ने गिफ्ट ख़रीदकर, लाकर भी नहीं दिया।

चाँद बीबी – [चाय की चुश्कियाँ लेती हुई, कहती है] – हुज़ूर, सच कह रहे हैं...आप ? मुझे भरोसा नहीं हो रहा है।

दाऊद मियाँ – क्या कहूं, चाँद बीबी ? इस बात को चंद रोज़ ही नहीं, छ: माह बीत गए हैं। कई बार मैंने सेक्रेटरी साहिबा को याद दिलाया, मगर बात वहीँ की वहीँ...बस, ढाक के पत्ते वही तीन।

आक़िल मियाँ – [चाय की चुश्कियाँ लेते हुए, कहते हैं] – जनाबे किबलिया, बहुत क़ाबिलियत भरी है, आपमें। अपनी क़ाबिलियत को काम में लीजिएगा ना, हुज़ूर ज़रा याद कीजिये ना। डवलपमेंट कमेटी के मेम्बरान की कमज़ोर नस पकड़कर, आप उनसे डवलपमेंट सम्बन्धी काम को कैसे अंज़ाम दे दिया करते हैं ? जनाब एक बार यही तरीका, इस्तेमाल कीजिये ना।

दाऊद मियाँ – [खुश होकर, कहते हैं] – बहुत अच्छा, उस्ताद। अब सारा प्लान, मेरी समझ में आ रहा है। अब सुनिए, मेरी बात। मुमताज़ मेडम क्या करती है, और क्या नहीं करती..? ये सारी राज़ की बातें इमतियाज़ मेडम की जानकारी में रहती है। बोलो, क्यों ?

आक़िल मियाँ – सीधी सी बात है, दोनों है एक-दूसरे की जानी-दुश्मन। एक बड़ी मेडम की है ख़ास चमची, तो दूसरी है उनकी विरोधी।

दाऊद मियां – ठीक समझे, मियाँ। अब इस इमतियाज़ का मुंह खुलवाना आसान है। बस थोड़ी सी तारीफ़ कर लीजियेगा, इमतियाज़ की। और एक शोला भड़काकर छोड़ दीजिये, मुमताज़ के मसाले का।

आक़िल मियाँ – फिर क्या होगा, मियाँ ?

दाऊद मियाँ – फिर देखिएगा, हमारा कमाल। यह इमतियाज़ अनार के पटाके की तरह ऐसी फूट पड़ेगी कि, अपने-आप बिना कहे मुमताज़ की सारी गोपनीय बातें दहकते अंगारों की तरह मुंह से उगल देगी। फिर उस्ताद, हो जाएगा किला फ़तेह।

आक़िल मियाँ – [बैग से ताज़े विदेशी गुलाब के फूल निकालकर मेज़ पर रखते हुए, कहते हैं] – लीजिये, ये है बारूद। इमतियाज़ को शौक है, ताज़े गुलाब के फूलों का। [उंगली से इशारा करते हुए] लीजिये, यह मोहतरमा इधर ही आ रही है।

[आक़िल मियाँ के जाने के बाद, इमतियाज़ मेडम आती है। दाऊद मियां के करीब रखे मेज़ और कुर्सी को ख़ाली पाकर वह अपना बैग मेज़ पर रख देती है, और खुद आराम से कुर्सी पर बैठ जाती है। तभी मौक़ा पाकर दाऊद मियाँ उनकी मेज़ पर गुलाब के फूल रखते हैं, फिर उनके पास अपनी कुर्सी ले जाकर उस पर बैठ जाते हैं। फिर, उनसे कहते हैं।]

दाऊद मियाँ – आपकी क़दमबोसी से, ये गुलाब के फूल खिल उठे। अब आप मेहरबानी करके, इस नाचीज़ के रखे तौहफ़े को क़बूल कीजिये। हमारे भतीजे ने अपने हाथों से तैयार किये हैं, विदेशी गुलाब के पौधे।

[विदेशी गुलाब के फूल पाकर, इमतियाज़ मेडम खुश हो जाती है। उन फूलों को अपने बैग में रखकर, वह उन्हें शुक्रिया अदा करती है।]

इम्तियाज़ – शुक्रिया, भाईजान। [बैग से टिफिन निकालती हुई, कहती है] मैं ठहरी साफ़ दिल की, इस मुमताज़ के तरह दिल में मैल नहीं रखती। बड़ी बी के सामने साफ़-साफ़ उसे सुना दिया, कि “अरे शर्म से डूब मरो, चुल्लू भर पानी में। पैसे नहीं दे सकी तो अब, गिफ्ट लाकर दे दो जाकर। काहे, स्कूल का नाम बदनाम करती हो ?’

[टिफिन खोलती है, इमतियाज़। रोटी का निवाला तोड़कर सब्जी में डूबाकर मुंह में रखती है, फिर उसे चबाती हुई कहती है।]

इमतियाज़ – [निवाला चबाती हुई, कहती है] – सुनिए, दाऊद मियाँ। यह बेदर्द मोहतरमा क्या बोली ? [मुमताज़ की आवाज़ की नक़ल उतारती हुई, कहती है] “दाऊद मियाँ की भतीजी के निकाह के वक़्त जो नेत के रुपये इकट्ठे किये थे, वे सारे रुपये हमने शमशाद बेग़म के बेटे रामदीन की शादी में लगा दिए।”

चाँद बीबी – ऐसे कैसे हो सकता है, बेग़म ?

इमतियाज़ – इस मोहतरमा का यही कहना था कि, ‘शमशाद बेग़म हमारी ख़िदमत में रहती है, उनके इकलौते बेटे रामदीन की शादी में पैसे लग जाने से दाऊद मियाँ नाराज़ नहीं होंगे..मगर, वे खुश ज़रूर होंगे...’

दाऊद मियाँ – [बात काटते हुए, कहते हैं] – क्या ज़माना आ गया है, यह कोई तालिफ़े क़ुलूब है ? किसके पैसे किसे लगा दिए ? अपनी सकत [ग़लती] मानती नहीं, मुख्ती होकर खुद को बेगुनाह समझती है ? अरे मेडम, हमारे मुख्बिरे सादिक ने ख़बर दी है कि, इस मोहतरमा ने गिफ्ट लाने का टेक्सी का भाड़ा भी हिसाब में जोड़ लिया।

चाँद बीबी – खुदा रहम। ऐसी मोहतरमा ठहरी, जो अपनी स्कूटी पर सवार होकर गिफ्ट लायी..और हिसाब में जोड़ लिया इसने, टेक्सी का भाड़ा ? कमाल है, मेडम। हाय अल्लाह, ऐसा काम तो कोई सवाली भी नहीं करता। वे बेचारे दो रोटी मिलने पर, खुद को सइद समझते आये हैं।

इमतियाज़ – अजी मारो गोली, अब गिफ्ट आने से रहा। [दाऊद मियाँ से] मियां, अब तुम ऐसा काम करो कि ‘इस सक्रेटरी साहिबा को नसीहत मिल जाए...और, आगे से ऐसा ग़लत काम करने की चेष्टा नहीं करें।’ तब ही, हमारा दिल खुश होगा।

दाऊद मियां – क्यों मायूस होती हैं, आप ? आप जानती नहीं, चुहिया ज़्यादा ऊँची छलांगे क्यों लगाती है ? उपनिषद की कहानी में पंडित विष्णु दत्त ने क्या कहा ? उसने कहा था कि, अगर चुहिया के अन्न-भण्डार पर कब्ज़ा जमा लो...बस, फिर वह लम्बी छलांगे लगाना भूल जायेगी।

इमतियाज़ – समझ गयी, भाईजान। स्टाफ़ सेक्रेटरी की कुर्सी इससे छीन लो, यही इस चुहिया का भण्डार है।

[इतना कहकर, इमतियाज़ ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगती है। अब खाना ख़त्म हो गया है। टिफिन को बंद करके वह उसे अपने बैग में रख लेती है। तभी चाँद बीबी आकर, उसे चाय से भरा प्याला थमा देती है। वह चुश्कियाँ लेती हुई, चाय पीती है। दाऊद मियां वापस अपनी बातों का सिलसिला चालू कर देते हैं।]

दाऊद मियाँ – ग़नीमत है, इमतियाज़ बी..हमारे मिनिस्ट्रीयल स्टाफ़ पर किसी की बुरी नज़र लग गयी है। देखिये इस स्कूल में कई सालों से पूल बज़ट के चपरासी साक़िब मियाँ और मुमु बाई नौकरी कर रहे हैं। उन बेचारों का तबादला क्या हुआ ? उन बेचारों को बिना पार्टी दिए, बड़ी बी ने तत्काल रिलीव करके भेज दिया प्राइमरी स्कूल।

चाँद बीबी – [जूठे प्याले उठाती हुई, कहती है] – यह तो अच्छा हुआ, आक़िल मियाँ ने अपनी जेब से पैसे खर्च करके उनको पार्टी दे दी...इससे स्कूल की इज़्ज़त बच गयी। जनाब यह बात आपको याद है, या नहीं ?

दाऊद मियाँ – हाँ याद है, उस दिन शनिवार था। आक़िल मियाँ ने बड़ी बी से कई बार इल्तज़ा की कि, रिसेस के बाद बाल-सभा रख ली जाय और बच्चियों के सामने इन दोनों को विदाई दे दी जाय।

[दाऊद मियाँ दोनों हाथ ऊपर ले जाकर जम्हाई लेते हैं, फिर टेबल की दराज़ से ज़र्दा और गीला चूना लेकर हथेली पर रखते हैं। फिर उस मिश्रण को, अपने अंगूठे से मसलते हुए कहते हैं।]

दाऊद मियां – मगर, करें क्या ? बड़ी बी जैसी शेरनी के सामने, किसकी चली है ? बड़ी बी ने साफ़ इनकार कर डाला, और आक़िल मियाँ के मंगवाए गए गुलाब के फूलों के हार इन दोनों को नहीं पहनाये। ये दोनों बेचारे चपरासी मुंह लटकाए, प्राइमरी स्कूल चले गए ड्यूटी ज्वाइन करने।

[चाँद बीबी चाय के बरतन उठाकर नल के पास चली जाती है, उन बर्तनों को धोने। आसमान से बादलों के गड़गड़ाने की आवाज़ सुनायी देती है, बिजली कौंधती है और इधर दाऊद मियां हथेली पर अंगूठे से मसले हुए ज़र्दे और गीले चूने के मिश्रण पर लगाते हैं ज़ोर की थाप्पियाँ। उधर बादलों को स्पर्श करता हुआ ठंडी हवा का झोंका बरामदे में दाख़िल हो जाता है, और और टेबल पर रखे काग़ज़ों को उड़ा देता है। इधर उस मिश्रण पर थप्पी लगाये जाने से, ज़र्दे की खंक उड़ती है। अब बादलों से पूरा नभ ढक जाता है, तेज़ बरसात होने की आशंका के कारण बड़ी बी छुट्टी की घंटी लगवा देती है। शमशाद बेग़म छुट्टी की घंटी लगाकर लोहे का डंडा यथा-स्थान रखती है। पहली पारी की बच्चियां घंटी की आवाज़ सुनकर बस्ते लिए स्कूल के मेन-गेट की तरफ बढ़ती है। सब बच्चियों के जाने के बाद चाँद बीबी के दिल में उतावली मची है, वह कितनी जल्दी जाकर बड़ी बी के सामने इमतियाज़ बी और दाऊद मियाँ की गुफ़्तगू का मसाला परोसें ? अब आसमान में छाये बादल, ज़ोर से गड़गड़ाते हैं। बरामदे में बैठे दाऊद मियाँ अच्छी तरह से जानते हैं कि, अभी चाँद बीबी उनके कमरे में जाकर उनके खिलाफ़ मोती पिरोकर आ गयी है। अब उनको भी आशंका होने लगी है कि, कब बड़ी बी कमरे से बाहर आकर इन बादलों की तरह गड़गड़ाना चालू न कर दें ? अब ये काले-काले बदल नभ में छा गए हैं, और सूरज दिखाई नहीं दे रहा है। चारों तरफ अँधेरा छा जाता है। धीरे-धीरे, मंच पर अँधेरा हो जाता है।]


अंक तीन मंज़र तीन शादी की नेत

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

नए किरदार –

मुमु बाई और साक़िब मियाँ – पूल बजट के चपरासी।

शबनम, गुलशन आरा, वगैरा – स्कूल की बच्चियां।

मुमताज़ – स्कूल कसेकंड ग्रेड की टीचर, बड़ी बी की ख़ास मर्ज़ीदान। इमतियाज़ की विरोधी।

तौफ़ीक़ मियाँ – सलीकेदार चपरासी जो बारवी क्लास तक पढ़ाई कर चुके हैं। अक्सर सफ़ेद सफ़ारी पहनते हैं और मधुर भाषी है मगर सियासती चालें चलने में माहिर। शतरंज के शातिर खिलाड़ी।

[दूसरा दिन, मंच रोशन होता है। पहली पारी ख़त्म होने का वक़्त हो गया है। आज़ स्कूल में काफ़ी चहल-पहल है। ऐसा लगता है, बरामदे में कोई मिटिंग रखी जा रही है। यही कारण है, मेडमों के बैठने के लिए कुर्सियां और इनाम रखने की टेबल लगा दी गयी है, और साथ में माइक की भी व्यवस्था कर ली गयी है। इस टेबल पर लिस्टें और इनाम रखे हैं, ये उन बच्चियों की लिस्टें हैं जिन्होंने आला दर्ज़ा हासिल किया है। इस टेबल के पास, उदघोषक ग़ज़ल बी और बड़ी बी के बैठने के लिए कुर्सियां रखी है। खम्बे के सहारे दो स्टूल रखे हैं, जिन पर पुष्प हारों से लदा एक बांस रखा है। माइक के दूसरी तरफ़ दो स्टूल रखे हैं, जिन पर तबादला होकर गए दोनों चपरासियों के बैठने की व्यवस्था की गयी है। बहुत आग्रह करने के बाद, मुमु बाई और साक़िब मियाँ इन स्टूलों पर बैठ जाते हैं। टेबल पर स्कूल में फर्स्ट, सेकंड और थर्ड आने वाली बच्चियों को दिए जाने वाले इनाम सुव्यवस्थित रखे गए हैं। अब सामने आँगन पर कतार बनाकर, स्कूल की बच्चियां बैठने लगी है। सभी मोहतरमाएं अपनी सीट पर बैठ गयी है। अब बड़ी बी तशरीफ़ रखती है, अब उनका इशारा पाकर, ग़ज़ल बी मीटिंग की कार्रवाही शुरू करती है। वह उठकर बड़ी बी से अर्ज़ करती है कि, वे जल्द मीटिंग की कार्रवाही शुरू करें। अब बड़ी बी रशीदा बेग़म माइक थामे खड़ी होती है, और बच्चियों से कहती है।]

रशीदा – [माइक थामे, कहती है] – नेक दुख्तराओं। आज़ हमें ग़म भी है और खुशी भी। आज़ हम अपने दुखी दिल से, मुमु बाई और साक़िब मियाँ को विदाई दे रहे हैं। मगर खुशी इस बात की है कि, हमारी स्कूल की दुख्तराएं हमेशा की तरह बेस्ट एथेलीट रही है। हमारे एजुकेशन महकमें ने फर्स्ट, सेकंड और थर्ड स्तर पर हमारी स्कूल की दुख्तराओं को सेलेक्ट किया है। अब मैं चाहूंगी बारी-बारी से दुख्तराएं यहाँ आयेगी और अपना इनाम लेती जायेगी।

[ग़ज़ल बी उठकर, बड़ी बी रशीदा को बच्चियों की फ़ेहरिस्त की एक कॉपी देती है। इस फ़ेहरिस्त में बताया गया है कि, किस बच्ची को किस स्तर का इनाम दिया जाना है ? यानि, पूरा ब्यौरा लिखा है। रशीदा बेग़म फ़ेहरिस्त देखकर, इनाम उठाती है। उधर ग़ज़ल बी दूसरी कॉपी अपने पास रख लेती है, फिर वह माइक थामकर कह रही है।]

ग़ज़ल बी – [माइक थामकर, कहती है] – अब आप सभी शान्ति रखें। [फ़ेहरिस्त देखती है] चलिए अब मैं नाम बोल रही हूँ, जिसका नाम बोला जाय...वह बच्ची यहाँ आकर बड़ी बी से अपना इनाम ले जाएँ। [बच्ची का नाम बोलती है] दसवी क्लास की गुलशन, यहाँ तशरीफ़ रखें। गुलशन थर्ड आयी है।

[गुलशन आती है, उसके आते ही तालियों की गड़गड़ाहट होती है। और वह अपना इनामं ले जाती है, इसके बाद ग़ज़ल बी दूसरी लड़की का नाम बोलकर उसे अपने पास बुलाती है।]

ग़ज़ल बी – अब क्लास आठवी की शबनम, तशरीफ़ रखें।

[शबनम आती है, फिर अपना इनाम बड़ी बी से लेकर चली जाती है।]

ग़ज़ल बी – अब अपना दिल थामकर सुनिए...

[बच्चियों के बीच फुसफुसाहट होती है, इधर आने वाली बच्ची के नाम को लेकर स्टाफ़ में भी चुहलबाजी बढ़ जाती है। कमरे के दरवाजे के पास ही, तौफ़ीक़ मियाँ और जमाल मियाँ खड़े-खड़े गुफ़्तगू कर रहे हैं। तौफ़ीक़ मियाँ जमाल मियाँ को कोहनी मारकर, उनसे कहते हैं।]

तौफ़ीक़ मियाँ – [कोहनी से टिल्ला देकर, कहते हैं] – मियाँ, आफ़ताब आ रहा है। दीदार कर लीजिये, हुज़ूर। यह वह स्कूले नूर है, जो अपनी खूबसूरती के साथ अपने काम में भी अव्वल रहता है। यह वही दुख्तरा है, जनाब।

[बड़ी बी के पास आ रही उस खूबसूरत लड़की को, मियाँ आँखे फाड़े देखते हैं। तभी ग़ज़ल बी माइक थामकर, आगे कहती है।]

ग़ज़ल बी – [माइक थामे, कहती है] – स्कूल-ए-नूर रोशन आरा...

[तालियों की गड़गड़ाहट के आगे, ग़ज़ल बी की आवाज़ सुनायी नहीं देती। रोशन आरा बड़ी बी के पास पहुँच जाती है। उसके आते ही, ग़ज़ल बी कहने लगती है।]

ग़ज़ल बी – लीजिये सुनिए, हमारी स्कूल-ए-नूर क्लास नाइंथ की रोशन आरा फर्स्ट आयी है।

[बड़ी बी के पाँव छूकर, रोशन आरा उनकी दुआ लेती है। फिर सभी बैठी मेडमों को सलाम करती है। इसके बाद बड़ी बी से अपना इनाम लेकर, अपनी सीट पर आकर बैठ जाती है।]

ग़ज़ल बी – अब मैं साक़िब मियाँ और मुमु बाई से रिक्वेस्ट करती हूँ, वे दोनों आकर पुष्प हार और अपना गिफ्ट क़ुबूल कर लें।

[दोनों अपनी सीट से उठते हैं और बड़ी बी के पाँव छूते हैं। बड़ी बी रशीदा बेग़म मुमु बाई को पुष्प हार पहनाती है, और साक़िब मियाँ के हाथों में पुष्प हार रख देती है। फिर दोनों अपना गिफ्ट बड़ी बी से लेकर, अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं। उधर दाऊद मियाँ अपने पास बैठे लाइब्रेरियन शेर खां साहब को व्यंग-भरा जुमला सुना बैठते हैं। न जाने कैसे, बड़ी बी उनके उनके कहे जुमले को सुन लेती है ? सुनकर, वह पीछे मुड़कर उन्हें ज़वाब दे बैठती है।]

दाऊद मियाँ – [शेर खान साहब से, कहते हैं] – चलो अच्छा हुआ, आखिर दोनों मुलाज़िमों की दिल-ए-तमन्ना पूरी हुई। बड़ी बी के हाथ से, बच्चियों के सामने विदाई पाकर वे खुश हुए। मगर...

रशीदा – [पीछे मुड़कर, दाऊद मियाँ से कहती है] – मगर क्या ? आपको दुःख हो रहा है कि, आक़िल मियाँ के पैसे बेकार खर्च हो गए ? मियाँ, एक बार दिमाग़ में यह बात बैठा लो कि ‘हम इस स्कूल के मुखिया हैं। हम किसी दूसरे की दी गयी पार्टी में आकर, विदाई पाने वाले मुलाज़िम को पुष्प हार नहीं पहनाते हैं।’

[फिर क्या ? अपनी तक़रीर पेश करती हुई जो कुछ कहती है, उसका ज़वाब दाऊद मियाँ से देते नहीं बनता..बस बेचारे अवाक रहकर, चुपचाप सुनते जा रहे हैं।]

रशीदा बेग़म – [तक़रीर पेश करती हुई, कहती है] – आज़ की पार्टी, स्टाफ़ के चंदे से हो रही है। इस पार्टी में हमारा हक़ बनता है, विदाई पा रहे मुलाज़िम को पुष्प हार पहनाने का। अब समझे, क्या कहा हमने ?

[अब स्टाफ़ का हर मेंबर आकर, उन दोनों को पुष्प हार पहना रहा है। उधर स्कूल की बच्चियों ने आकर, उन दोनों मुलाज़िमों के ऊपर गुलाल और अबीर उड़ाने लगी है। कई बच्चियां मुमु बाई के जाने की ख़बर पाकर बेचारी इतनी ग़मगीन हो गयी है कि, उनकी आँखों से तिफ्लेअश्क गिरने लगे हैं। वे लाचारगी से क़ातर सुर में, मुमु बाई से कहती जा रही है कि “मुमु बाई, आप मत जाओ। हम तुम्हारे बिना कैसे रहेंगी ?” तभी बड़ी बी की दिल को दहलाने वाली आवाज़, गूंजती है। जिसे सुनकर बेचारी बच्चियां सहम जाती है, और अपनी-अपनी क्लासों में जाकर बैठ जाती है।]

रशीदा बेग़म – [तेज़ आवाज़ में, चाँद बीबी से कहती है] – चाँद बीबी। जाओ, छुट्टी की घंटी लगाओ।

[छुट्टी की घंटी लगती है, बच्चियां अपना बस्ता लेकर क्लासों से बाहर आ जाती है। उनके रूख्सत हो जाने के बाद, दूसरी पारी की बच्चियां बस्ता लिए क्लासों में दाख़िल होती है। उधर पूरा स्टाफ़, बड़ी बी के कमरे में दाख़िल होता है। अन्दर दाख़िल होकर, सभी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। इन सबके बैठ जाने के बाद तौफ़ीक़ मियाँ, चाँद बीबी और शमशाद बेग़म मिठाई और नमकीन से भरी तश्तरियां लेकर कमरे में दाख़िल होते हैं। उनके पीछे-पीछे मेमूना भाई तश्तरी में चाय से भरे प्याले रखकर लाते हैं। मिठाई, नमकीन और चाय सभी को सर्व करके सभी मज़कूरी [चपरासी] बाहर आकर, नाश्ते की तश्तरियां उठाकर मिठाई-नमकीन खाना शुरू करते हैं। कमरे के अन्दर बैठा स्टाफ़ चाय-नाश्ता लेता हुआ, बातचीत करता जा रहा है। अब कमरे के अन्दर अपनी सीट पर बैठी रशीदा बेग़म, अंगड़ाई लेकर कहती है।]

रशीदा बेग़म – [अंगड़ाई लेकर, कहती है] – चलिए, आज़ हमने स्टाफ़ सेक्रेटरी का रोल निभा ही लिया।

[बड़ी बी की बात सुनकर, मुमताज़ बी घबरा जाती है। उसे संदेह हो गया है, ‘कहीं उसकी स्टाफ़ सेक्रेटरी की कुर्सी, खतरे में तो नहीं आ गयी ?’ वह झट अपनी कुर्सी के दोनों हत्थे मज़बूती से पकड़ लेती है, और जांच कर लेती है “कहीं उसकी कुर्सी, हिल तो नहीं रही है ?” उसकी ऐसी दशा देखकर, दाऊद मियाँ फटाक से मज़ाक में कह देते हैं।]

दाऊद मियाँ – [परिहास करते हुए, कहते हैं] – क्यों घबरा रही हो, मुमताज़ बी ? आपकी कुर्सी सलामत है, मगर आपकी नाकामी के कारण बड़ी बी को आपके ओहदे का काम करना पड़ा।

आक़िल मियाँ – क्या करें, बड़ी बी ? ज़माना ख़राब आ गया है, हमारे नसीब ही फूट गए। हाय ऐसा कमज़ोर स्टाफ़ सेक्रेटरी इस स्कूल के पल्ले पड़ा है, जिसकी नाकामी के कारण आज़ बड़ी बी को पार्टी का चंदा इकठ्ठा करने की तकलीफ़ देखनी पड़ी।

इमतियाज़ – स्टाफ़ से चंदा वसूल करना, महज़ कोई बच्चों का खेल नहीं है। बड़ी बी, कई लोगों की मुखालिफ़त का सामना करना पड़ता है।

दाऊद मियाँ – सदाकत से कहता हूँ, बड़ी बी। आपके बराबर, स्टाफ़ सेक्रेटरी का काम कोई इस स्कूल में कर नहीं सकता। अल्लाह के फज़लो करम से, आज़ से ही आप ही स्टाफ़ सेक्रेटरी का ओहदा संभाल लें।

रशीदा बेग़म – [बालों के जूड़े को ठीक करती हुई, कहती है] – आपने वजा फ़रमाया, मगर हम करें क्या ? हम ठहरे, इस इंस्टिट्यूट के हेड। हम कैसे कर सकते हैं, यह काम ? बस, हमने स्कूल की गारिमा बनाए रखने के लिए यह काम किया। मगर अब मैं यह ज़रूर कहूंगी, यह ग़लती आप लोगों की है।

दाऊद मियाँ – वह कैसे, हुज़ूर ?

रशीदा बेग़म – आप सबने, ऐसा कमज़ोर स्टाफ़ सेक्रेट्री रखा ही क्यों ? कीजिये ना, स्टाफ़ सेक्रेट्री का इलेक्शन। आप लोग चुनाव नहीं करते हैं, इस कारण मुझे मज़बूर होकर मुमताज़ मेडम को स्टाफ़ सेक्रेट्री बनाना पड़ा।

दाऊद मियाँ – [खुश होकर, कहते हैं] – ठीक है, बड़ी बी। अब जल्द ही आपके हुक्म की तामिल होगी। अब कल से ही स्टाफ़ सेक्रेट्री के इलेक्शन की तैयारी..

[अब फिर, क्या ? मक़सद पूरा होता देख, इमतियाज़ के ठहाके गूंज़ने लगे। ठहाके सुनकर, मुमताज़ बी अपनी कुर्सी को ज़ोर से थाम लेती है। अब उसे पूरा शक हो गया है कि, ‘अब यह स्टाफ़ सेक्रेट्री की कुर्सी ज़्यादा दिन उसके पास रहने वाली नहीं। कोई नामाकूल मोहतरमा आकर उसकी यह कुर्सी ज़रूर छीन सकती है।’ बस, अब उसे जुगत लड़ानी है कि ‘किस तरह यह कुर्सी, उसी के पास ही रहे।’ उधर दाऊद मियाँ के दिमाग़ में शैतानी हरक़तें सर उठने लगी है, अब वे पास बैठी इमतियाज़ मेडम के कान में कुछ फुसफुसाते नज़र आ रहे हैं।]

दाऊद मियाँ – [कान में फुसफुसाते हुए, कहते हैं] – इमतियाज़ बी, अब हम सब आपके साथ हैं। अगला स्टाफ़ सेक्रेट्री बस, आप ही हैं। अल्लाह के फ़ज़लो करम से, आपकी जीत ज़रूर होगी। भतीजी की शादी के वक़्त नेत न मिलने का बदला, अब आपकी जीत से ज़रूर ले लिया जाएगा।

[अब स्टाफ़ में कानाफूसी होने लगती है, जिसका शोर-गुल इतना बढ़ जाता है...बेचारी मुमताज़ कुछ सुन नहीं पाती, वह कमरा छोड़कर बाहर निकल आती है। धीरे-धीरे, मंच पर अँधेरा छाने लगता है।]

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  1. पाठकों,
    कई बार ऐसा होता है, हम लोगों की शादियों में नेत के रुपये लगाते जाते हैं मगर जब हमारे घर में हमारे पुत्र, पुत्री या भाई या बहन की शादी हो तब ये लोग नेत के रुपये लगाते नहीं और कोई बहाना बनाकर किन्नी काट जाते हैं कि "जनाब, घर पर वालिद की तबियत नासाज़ थी, इसलिए आ न सके । या फिर कह देंगे कि क्या करता जनाब, सरकारी टूर पर चला गया, अगर न जाता तो साहब नाराज़ हो जाते ।" बस इस तरह दाऊद मियां ऐसे हाल से गुजरते परेशान हो गए, तनख्वाह का बड़ा हिस्सा नेत लगाने में चला जाता और उनके कुछ हाथ आता नहीं ।

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  2. आदमी को गरज़ पड़ती है, तब गधे को भी बाप बना लेते हैं । इस नाटक में दाऊद मियां को साबू भाई निक्कमा कहते हैं और काम पड़ने पर उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं मानों गधे को बाप बनाया जा रहा हो ?

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  3. आदमी को गरज़ पड़ती है, तब गधे को भी बाप बना लेते हैं । इस नाटक में दाऊद मियां को साबू भाई निक्कमा कहते हैं और काम पड़ने पर उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं मानों गधे को बाप बनाया जा रहा हो ?

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: हास्य नाटक- दबिस्तान-ए-सियासत अंक ३ के मंज़र एक से तीन // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
हास्य नाटक- दबिस्तान-ए-सियासत अंक ३ के मंज़र एक से तीन // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
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