गुल्ली-डंडा और सियासतदारी (कहानी) --डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

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गुल्ली - डंडा और सियासतदारी (कहानी) --डॉ . मनोज मोक्षेंद्र सि यासत का सुरूर जिस आदमी पर चढ़ जाए, वह इंसानियत की नाज़ुक सरहद लांघ कर सारी श...

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(कहानी)

--डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

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सियासत का सुरूर जिस आदमी पर चढ़ जाए, वह इंसानियत की नाज़ुक सरहद लांघ कर सारी शैतानी तहज़ीब ओढ़ लेता है। कौन कहता है कि कोई सियासतदार अपने कुटुंब-कुनबे, जाति-पाति, ढोंग-पाखंड और धार्मिक आडंबर के मकड़जाल में ही उलझा रहता है? दरअसल, ख़ुदगर्ज़ी, ग़ुरूर और ख़ुशामद-पसंदी तीनों ही उसकी समूची शख़्सियत का ताना-बाना बुनते हैं। इस सुरूर में वह मदमस्त होकर यह भी भूल जाता है कि वह ब्राह्मण है या श्रमण, निखालिस सनातनी है या वर्णसंकर, बलित है या दलित, मर्द है या औरत। उसे तो बस, इतना ही याद रहता है कि उसे अपने तिकड़म से येन-केन-प्रकारेण आवाम की निग़ाहों में चढ़े रहना है। जब तक उसे सत्ता की रबड़ी मयस्सर नहीं हो जाती, उसके लिए लोग-बाग जनता-जनार्दन होते हैं और जब वह सत्ता की रबड़ी-मलाई में आकंठ निमग्न हो जाता है, उसके लिए वे ही गाय-गोरू, भेंड़-बकरी सरीखे दीखने लगते हैं। इस निरीह जनता नामक दुधारू गाय को हर पाँचवे साल खूँटे में बाँधने के लिए एक जम्हूरियाई स्वांग रचा जाता है। और जब वह खूँटे में बंध जाती है तो उसके पैरों को भी एक-दूसरे से जकड़कर इस तरह बाँध दिया जाता है कि वह पगुराने-रम्हाने के सिवाय कुछ न कर सके। फिर, बेख़ौफ़ होकर उसके थन से़ दूध की आख़िरी बूँद तक निचोड़-निचोड़ दूह ली जाती है।

यही बात अक्षरशः हल्कू पासवान पर लागू होती है जो पहले तो मुसहर टोले के अंबेडकर गाँव में तब्दील होने तक टोले के एक-एक आदमी का हमदर्द बना फिरता था। पर, जब वह अपने मामा धनेसर पासवान से सालभर तक राजनीति का सबक सीखकर गाँव वापस आया तो उसने गिरगिट की तरह रंग बदलना शुरू कर दिया। उसने मुसहर टोला के मसीहा धनीराम मिसिर के ख़िलाफ़ ऐसी साज़िश रची कि उन्हें परिवार समेत जानबूझकर लगाई गई आग की खुराक बना दिया और मीडिया में यह अफ़वाह फैला दिया कि उसने और उसके गाँववालों ने किन्हीं अज्ञात कारणों से लगी आग से उन्हें बचाने के लिए जी-जान से कोशिश की थी; पर, दुष्टदैव के आगे किसका वश चलता है! उसके इस काइएं करतूत से उसके मामा को भी आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने उसे रातों-रात नेता बनने पर हार्दिक बधाई दी।

धनीराम मिसिर सचमुच पूरे मुसहर टोला के ख़ैर-ख़्वाह थे। उन्होंने अपने ब्राह्मणी अहं को तजकर मुसहरों की ज़िंदगी में सुधार लाने के लिए क्या-क्या नहीं किया था? उनकी बढ़ती लोकप्रियता के चलते हल्कू लड़कपन से ही उनसे इतना जला-भुना रहने लगा था कि मिसिरजी उसे फूटी आँख नहीं सुहाते थे। वाकई मिसिरजी कोई नेता का तगमा ओढ़ने के लिए यह सब नहीं कर रहे थे। दरअसल, उनमें तो इंसानियत कूट-कूटकर भरी हुई थी। दीन-दुखियों को देखकर उनका मन पसीज़ जाता था और वह सारे सनातनी ताम-झाम भूलकर मानवता की सेवा में दत्तचित्त हो जाते थे। बस, उन्हें तो दो जून की रोटी चाहिए थी और इसके बदले में वह अपने होठों की मुस्कान जन-जन को देना चाहते थे। उन्होंने अपनी मुस्कान दी भी; पर, विधि के विधान के आगे वह बेबस हो गए और तथाकथित दलित लोगों के बीच पल-बढ़ रहे डाह के कारण, सियासी शैतान के कौर बन गए। दलित बाहुबलियों ने उन्हें रौंदकर मच्छर की तरह मसल डाला।

इस सियासतदारी में ब्राह्मण वही होता है जो शक्ति-संपन्न होता है; जन्म से यहाँ कोई ब्राह्मण नहीं होता। निर्बल ब्राह्मण को तो उसी तरह दलन का शिकार होना पड़ता है जिस तरह तथाकथित शूद्र हुआ करते हैं या हुआ करते थे। मिसिरजी को पहले तो अपने ब्राह्मण-बहुल बम्हरौली गाँव में केवल इसलिए दलन का शिकार होना पड़ा क्योंकि उनकी बहन मधुरिया ने कुजात रमई तेली के साथ भागकर उसके साथ ब्याह रचाया था। इसके दुष्परिणामस्वरूप, उन्हें अपने ब्राह्मण समुदाय से इस कदर तिरस्कृत होना पड़ा था कि वह कहीं भी मुँह दिखाने के काबिल नहीं रह पाए थे। किसी तरह उन्होंने मुसहर टोले में आकर मुँह छिपाया। बम्हरौली गाँववालों ने उन्हें मूड़ी-पूँछ समेत सपरिवार अग्निदेव को बलि चढ़ाने की कोशिश की गई। पर, किसी तरह घर के पिछवाड़े से कूद-फ़ाँदकर और लुक-छिप कर उन्होंने मुसहर टोले में पनाह लिया। इस तरह, अपनी और अपने बाल-बच्चों की जान बचाई।

सियासतदारी में पहले तो आदमी का कुनबा बदलता है, फिर जाति और धर्म, उसके बाद उसकी पहचान ही बदल जाती है। उसके छोटे-मोटे कार्यों को रेखांकित करके उस पर बड़प्पन का मुलम्मा चढ़ाने की कवायद कुछ इस तरह की जाती है कि उसे अवतारी पुरुष माना जाने लगता है। बित्ते-भर का हल्कू लौंडा, पहले तो हल्देव भइया बना, फिर हल्देव सत्यार्थी और उसके बाद सत्यार्थी स्वामी के रूप में ताड़ का पेड़ बन गया। अपने नाम में लगातार परिवर्तन करके उसने आख़िरकार, आम आदमी को इस वहम में डाल ही दिया कि हो-न-हो यह किसी राजघराने का महान समाजसेवी है जिसने अपना ऐश्वर्य और सारे ठाट-बाट त्यागकर अपना सर्वस्व दीन-दुखियों की सेवा में अर्पित कर दिया है।

मुसहर टोला के नाम का चोला छोड़कर अंबेडकर गाँव बन चुके इस गाँव ने जब नाती-पूत समेत बौद्ध धर्म अपना लिया तो हल्देव सत्यार्थी को अपनी कुर्सी डगमगाती-सी जान पड़ी क्योंकि इस सामूहिक बौद्धीकरण से वह बिल्कुल अनजान थे। या, यूँ कहना चाहिए कि उन्हें इस बात पर हैरानी हो रही थी कि इस गाँव में उनकी ग़ैर-हाज़िरी में ऐसी राजनीति खेली जा रही है जिससे उन्हीं को गच्चा दिया जा सकता है। गाँव का बच्चा-बच्चा राजनीति ऐसे खेलने लगा है जैसेकि गुल्ली-डंडा। इन्हें भी समझ में आने लगा है कि राजनीति एक रोज़ग़ार-धंधा है जिसमें तिकड़म लगाकर और तीन-पाँच करके क़िस्मत चमकाई जा सकती है। स्लेट-पेंसिल, कापी-किताब लेकर स्कूल-पाठशाला जाने का मतलब है फ़िज़ूल में अपने भेजे का कबाड़ा निकालना है। इसलिए, गाँव में जो धार्मिक रुझान आया है, वह इसी राजनीतिक सुगबुगाहट के कारण आया है। तभी तो जहाँ उनकी मर्ज़ी के बिना एक भी पत्ता हिलने की गुस्ताख़ी नहीं कर सकता था, वहीं उन्हें छोड़, सभी ने अपना धर्म बदलने की ज़हमत खुशी-खुशी उठाई। बहरहाल, उन्हें इस बात का कतई मलाल नहीं हो रहा था कि सभी मुसहरों ने बौद्ध धर्म क्यों अपना लिया है। पर, उन्हें यह बात हज़म नहीं हो पा रही थी कि एक नाचीज़-सा नौजवान--बिरजू का मनोबल इतना बढ़ गया कि उसने पहले तो सारे गाँववालों को बरगलाकर उनका धर्म-परिवर्तन करवाया; फिर, सियासतदारी में उनसे पंजा लड़ाने की चुनौती देने की गुस्ताख़ी कर रहा है। यानी, यहाँ जो कुछ हो रहा है, वह बिरजू की मर्ज़ी से हो रहा है। उन्हें यह डर अंदर से साल रहा था कि कहीं बिरजू पॅालिटिक्स के रणक्षेत्र में उन्हें मात न दे दे! वह भुनभुनाने लगे, "हमें यह सबक कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि कनखजूरा देखने में पिद्दी-सा होता है; लेकिन, कान में घुसकर वह असह्य पीड़ा का सबब बनता है।"

उन्हें तो यह पता ही था कि गाँववालों की मदद के बग़ैर विधायक की कुर्सी कभी नसीब नहीं होने वाली थी। मतदान की रात जबकि मतपेटियाँ डाकबंगले में रखी गई थीं, उनकी हेराफेरी करने में गाँव के एक-एक आदमी ने जान पर खेलकर अहम रोल अदा किया था। तभी तो सत्यार्थीजी ने अपने मामा धनेसर की ज़मानत ज़ब्त करवाकर यह साबित कर दिया कि सियासतदारी में कोई किसी का सगा नहीं होता। जिस आदमी ने सत्यार्थीजी को राजनीति का ककहरा पढ़ाया, उसे ही उन्होंने धूल में मिला दिया। उनकी माई कलावती को भी अपने बेटे के इस काले करतूत से एकदम बदहज़मी हो गई। पर, वह कर भी क्या सकती थी? एक ऐसे मर्द के आगे उसकी एक न चली जो उसी का लाडला बेटा है और जिसने उसके ही भाई और अपने सगे मामा की चिता सजाई है।

यों तो गाँववालों को यह बात बिल्कुल अखर रही थी कि उन्हीं की बिरादरी का एक आदमी, जिसकी सामाजिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा में दिन-दूनी और रात चौगुनी बरकत हो रही है, अब वह केवल मनुवादियों का प्रबल समर्थक हो गया है। इतना ही नहीं, एक ब्राह्मणी से प्रेम-प्रपंच खेलकर और उसके बाद उससे ब्याह रचाकर इतरा रहा है जबकि उसकी पहली लुगाई ज़िंदा है जिसकी काबलियत और गुण के सारे लोग बरसों से कायल रहे हैं। बेशक! सत्यार्थीजी के इस नागवार हरकत से गाँववालों का रह-रहकर उबाल खाना लाज़मी था।

लेकिन, गिद्ध की नज़र रखने वाले सत्यार्थीजी सारे गाँव की नब्ज़ थामे हुए हालात के संगीन होने से अच्छी तरह वाकिफ़ थे। इसलिए, वह कोई ऐसी चाल चलने की ताक में थे कि वह सियासी कबड्डी में प्रतिपक्षी के सभी गुइयां को अपने वश में कर लें और वे सभी जानबूझकर अपनी पराजय भी स्वीकार कर लें। वह कोई अनाड़ी खिलाड़ी तो हैं नहीं कि साँप को मारने के प्रयास में उनसे उनकी लाठी ही टूट जाए और साँप उन्हें उछल कर डस ले। वह ऐन वक़्त पर जबकि बिरजू जेल की हवा खा रहा था जिस कारण सारे गाँववाले उनसे बेहद ख़फ़ा चल रहे थे, अपने हिंदुत्त्व की केंचुल छोड़कर बौद्ध बन गए। लोगबाग हैरत के समंदर में डुबकी लगाने लगे कि मिसिरजी का यह अंधभक्त पाखंडी हिंदू, अचानक बौद्ध कैसे बन गया! यही नहीं, उसकी दूसरी लुगाई ने भी बौद्ध बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया जो शांडिल्य गोत्र के एक खांटी बाँभन परिवार की बिटिया थी। पर, सत्यार्थीजी तो यह सोच-सोचकर बड़े चौड़े हो रहे थे उन्होंने नौजवान नेता बिरजू का फन उठने से पहले ही उसे कुचल दिया और अपनी तिकड़म की सँड़सी से उसके जहर उगलने वाले दाँतों को उखाड़ फेंका।

जिस स्थान पर गाँववालों ने ख़ुद हल्कू (सत्यार्थीजी) द्वारा फैलाए गए जातीय द्वेष में अंधे होकर अपने दिल को ठंडक पहुँचाने के लिए मिसिरजी के घर की सपरिवार चिता जलाई थी, वहाँ सत्यार्थीजी ने पहले तो धनीराम मिसिर की याद में एक शहीद स्मारक बनवाया। फिर, वह वहाँ रोज भिनसारे जाकर मिसिरजी की आत्मा की शांति के लिए उनकी मूर्ति के आगे ध्यानमग्न बैठकर, पूजा-अर्चना करने लगे। लेकिन यह सब उनका सियासी कर्मकांड था जिसे भुच्च ग्रामीण क्या समझ पाते? दूसरे गाँव-जवार के सवर्ण लोग उनके इस बदले हुए रूप को देख, यह कह-सुन रह थे कि...'हो-न-हो, सत्यार्थीजी पिछले जन्म में कोई बड़े संत-महात्मा रहे होंगे, तभी तो वह एक बाँभन का पाँव इतने नेम-धर्म से रोज़ पखारते हैं...' जनम कुंडली और पतरा बाँचने वाले कुछ ब्राह्मण यह साबित करने पर तुले हुए थे कि पिछली कई योनियों में सत्यार्थीजी कुलीन ब्राह्मण घराने में पैदा हुए थे जहाँ का संस्कार इस जन्म में भी उनके साथ है। सत्यार्थीजी भी अपना भाग्यफल जानने के लिए बम्हरौली गाँव के ज्योतिषियों के यहाँ बार-बार जाने से बाज़ नहीं आ रहे थे। उनके इस आचरण पर सारे बाँभन उन पर जान लुटा रहे थे। सवर्ण उनकी तारीफ़ों के पुल बाँधते नहीं अघा रहे थे। लेकिन, उनके प्रति सवर्णों और ख़ासकर ब्राह्मणों की बढ़ती हमदर्दी से अंबेडकर गाँव के सारे दलित लोग उनसे खार खा रहे थे।

इसलिए, बिरजू के नेतृत्व में गाँववासियों ने सत्यार्थीजी को पटखनी देने के लिए धुआंधार बग़ावत का झंडा खड़ा कर दिया और उनसे कोई राय-सलाह किए बिना, बिरजू के कहने पर हिंदू धर्म पर लात मार दी तथा 'बुद्धम शरणम गच्छामि' बाँचते हुए सारे बौद्ध कर्मकांड अपना लिए।

पर, सत्यार्थीजी ऐन वक़्त पर सम्हल गए और जब उन पर ब्राह्मणों का पिट्ठू होने का दोष मढ़ा गया तो उन्होंने झटपट शहीद स्मारक को अंबेडकर पार्क में तब्दील करा दिया। फिर, वह घर-घर घूमकर यह मुनादी करने लगे कि 'हम तो लड़कपन से अंबेडकर-भक्त रहे हैं। सवर्णों का समर्थन हासिल करने के लिए मिसिर-भक्त होने का हम तो सिरफ़ नौटंकी खेलते रहे हैं ताकि दमदार नेता बनकर अपनी जाति और समाज का भला कर सकें। हमारा मक़सद सवर्णों को किसी प्रकार से कोई फ़ायदा पहुँचाना नहीं रहा है; बल्कि, उनके समर्थन को अपनी बिरादरी के हित में भुनाना रहा है।'

लेकिन, उन्हें यह बात पच नहीं रही थी कि गाँव के एक टुटपुँजिए नेता यानी बिरजू ने उनकी मान-मर्यादा में सेंध लगाई है। उन्हें न तो अंबेडकर से, न ही मिसिर से कुछ लेना-देना है। उन्हें तो बस, इस बात की फिक्र थी कि वह किस तरह सियासतदारी में अव्वल बने रहें। कोई भी ऐरा-ग़ैरा उनके आगे सिर उठाने की ढिठाई न कर सके। इसलिए, उन्होंने बिरजू के अहं को चकनाचूर करने के लिए एक षड़यंत्र रचा। एक दिन अपनी मर्सिडीज़ गाड़ी को पार्क में अंबेडकर की मूर्ति से जानबूझकर भिड़ाकर मूर्ति को चकनाचूर कर दिया। जो मूर्ति बिरजू समेत सारे गाँव का गुरूर थी, उसे उन्होंने धूल-धूसरित कर दिया। ख़ुद तो गाड़ी की ब्रेक फेल होने का बहाना करके ड्राइवर समेत उस दुर्घटना से बाल-बाल बचने का नाटक खेला। फिर, मौका मिलते ही गाँव की पंचायत को ठेंगा दिखाकर ख़ुद को पाक-साफ़ साबित भी कर दिया और अपने प्रतिद्वंदी बिरजू को एक फ़र्ज़ी रेप केस में फँसाकर जेल का रास्ता दिखा दिया।

जब तक बिरजू जेल में बंद रहा, वह सत्यार्थीजी से बदला लेने का सपना ही पालता-पोसता रहा। दरअसल, बिरजू ने गाँव की छोटी-मोटी पंचायती राजनीति में दस्तक देकर आगे बढ़ने का सबक सत्यार्थी से ही लिया था। पर, उसकी तो गरदन ही उमेठ दी गई। उसे लगा कि जैसे वह कोई भयानक सपना देख रहा है। वह हक्का-बक्का रह गया। सत्यार्थीजी ने उसे चारो खाना चित कर दिया--बाक़ायदा उसी की लाठी उसी के सिर पर दे मारी। जिस व्यक्ति ने उन्हें पंचायत के कटघरे में खड़ा किया, उसे उन्होंने हवालात में डलवा दिया। गाँववालों की भी उनके सामने एक न चली। पुलिस बिरजू को हथकड़ी पहनाकर रफ़ू-चक्कर हो गई जबकि सब एक-दूसरे का मुँह ताकते रह गए। सत्यार्थीजी ने मांगुर मछरी की भाँति अपनी धारदार पूँछ से उनके हाथों को लहूलुहान कर दिया और उनके चंगुल से फिसलकर महफ़ूज़ हो गए।

पर, सत्यार्थीजी को अपनी इस चाल का नतीज़ा अपने अनुकूल नहीं लगा। जब जेल में सड़ रहे बिरजू को अपना आदर्श मानने वाले ग्रामीण उनकी जान के प्यासे बन गए क्योंकि उन्होंने ही बिरजू को जेल का रास्ता दिखाया था, तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ कि बिरजू को अपना दुश्मन बनाकर वह एक नाचीज़ आदमी को बेवज़ह लोकप्रिय बना रहे हैं। उन्होंने पलक झपकते ही अपना पैंतरा बदला। वह सीधे प्रदेश की राजधानी गए और अपने प्रभाव से बिरजू को रिहा कराने का फरमान बाकायदा मुख्यमंत्रीजी से लेकर सीधे उसके पास जेल में जा धमके। हवालात में पड़ा बिरजू उन्हें अपने सामने देख, एकदम बौरा गया और भूखे हाथी की तरह चिग्घाड़ उठा, "तेरी भैन को! अपने काले करतूत की सजा हम पर थोपकर अब इहाँ काहे आया है? हमारी खिल्ली उड़ाने आया है क्या?"

उसके बाद जब जेल के सिपहसालारों ने बिरजू की कोठरी का ताला खोला, वह अपने सामने सत्यार्थीजी को खड़ा देख, सकपका गया कि आख़िर, माज़रा क्या है। जिस गेहुँवन साँप ने उसे डसा था, वही उसका ज़हर निकालने क्यों आया है? गुस्से में उसके शरीर में रक्त का प्रवाह बिजली की गति से चलने लगा। पर, इसके पहले कि बिरजू साँड़ की तरह अपने सींग सत्यार्थीजी के पेट में घुसेड़ देता, उनके बॅाडीगार्डों ने उसे चारो ओर से दबोच लिया।

तब सत्यार्थीजी अंगड़ाई लेते हुए कुटिलता से मुस्करा उठे, "अरे बुड़भक! तूँ रहा ढोल-गंवार ही। इ सब सजा जो तुम भुगत चुके हो ना, इससे तुम्हारा ही भला होने वाला है। आग में तपके ही सोना निखरता है।"

फिर, जब उन्होंने उसके चेहरे पर अपनी कुटिल नज़रें गड़ाई तो उसकी सारी उत्तेजना फुस्स बोल गई।

"ऊ कइसे?" बिरजू ने अचरज से अपना मुंह बा दिया।

"ऊ अइसे कि हम ठहरे गुरू चाणक्य के सुपर चेला। जदि हम तुमको पहिले ही बता देते कि हवालात से रिहा होने के बाद तुम नेता बन जाओगे तो तुमको हमारे बचन पर कइसे बिस्वास होता। अब इ बूझ लो कि जब तुम इहाँ से छूटके अपने गाँव जाओगे तो सारे गाँववाले तुम्हारी इतनी जय-जयकार करेंगे कि तुम खुसी के मारे बौरा जाओगे।" सत्यार्थीजी ने अपना सीना चौड़ा करते हुए अपनी मूँछों पर कई बार ताव दिया।

बिरजू को उनकी सारी बातें किसी अनबूझ पहेली की तरह लग रही थीं। ताज़्ज़ुब से उसका मुंह खुलकर और बड़ा हो गया, "तुम हमको चुतिया बना रहे हो क्या?"

उन्होंने गुमान में ऐंठ रहे बिरजू के कंधे पर अपना हाथ रखा, "हम तुमको जेल भेजने का जो चाल चले थे, उससे तुम्हारा कद ऊँचा हो गया है। तुम्हारी नेता बनने की ख़्वाहिश सचमुच पूरी हो गई है। हाँ, तुमको कुछ कष्ट जरूर झेलना पड़ा है और इसके लिए हम शर्मिंदा हैं। पर, हमें राजनीति में तुम्हारा संग पाने के लिए इहै खेल खेलना पड़ा। एक से दू भला। अब हम दोनों जने मिलके राजनीति का गुल्ली-डंडा खेलेंगे। हम तुम्हारे नेता-सरीखे दाँव-पेंच को पहले ही भाँप लिए थे। तब, हमने यह पक्का इरादा कर लिया कि हम तुमको अपना पार्टनर बनाके रहेंगे। इ सब जो हमारा तुम्हारे ख़िलाफ़ बखेड़ा लग रहा है, उससे तुम मक़बूल हो गए है। अब, बड़ा मजा आएगा। हम दोनों मिलके अपने गाँव का नाम रोशन करेंगे।"

उन्होंने जैसे ही अपना हाथ बिरजू के कंधे से हटाया, उसने अपना सीना अकड़ाकर सीधा किया। वह कुछ क्षणों तक सोचते हुए उनके साथ चलता रहा। फिर, उसके माथे पर आए बल मिटने लगे। उसके मेहराए चेहरे पर धीरे-धीरे नूर आने लगा। वह एकदम से विहंसते हुए बकबका उठा, "हल्कू भइया, हमें तुमको समझने में सचमुच बड़ी भूल हुई। हम तो बूझ रहे थे कि तुम सारे गाँववालों का अहित करने पर तुले हुए हो। हम भी कितने बुद्धू हैं कि हमको तुम्हारी रजनीति इतनी देर बाद समझ में आई?"

सत्यार्थीजी ने उसके मुंह से आ रही बदबूदार बास के चलते, रुमाल अपनी नाक पर रखा और उसकी गलबँहिया में फिर से खड़े हो गए, "आख़िर, तुम हमारे छुटभइया हो ना। हमारी बिरादरी के, एक ही कुनबे के, एक ही गाँव के...हाँ, अंबेडकर गाँव के नाक हो तुम..."

सत्यार्थीजी का एक-एक शब्द बिरजू पर जादू-मंतर की तरह प्रभाव डाल रहा था। वह बिरजू की पीठ ऐसे सहला रहे थे जैसेकि किसी रूठे बच्चे को लालीपाप देकर मनाने की कोशिश की जा रही हो।

कुछ क्षण के बाद, सत्यार्थीजी ने लंबी राहत की साँस ली। निःसंदेह! महावत ने बिगड़ैल हाथी पर काबू पा लिया था।

सत्यार्थीजी ने अपना मुंह फिर बिरजू के कान से सटा दिया, "अब, बिरजू! इहै टाइम है कि हम तुम्हारे साथ रजनीति का पहला खेल शुरू करें..."

सपेरे की बीन से मंत्रमुग्ध हुए साँप की तरह बिरजू ने यंत्रवत सिर हिलाया, "ठीक है, हल्कू भइया!"

वह उसी तरह फुसफुसाते रहे, "गाँव पहुँचके, तुम सबजने से यही बताना कि तुम्हारे जेल जाने से वापस आने तक जो कुछ भया है, ऊ हमदोनों की मिलीभगत से ही हुआ है। हाँ, एकठो ज़रूरी बात इ है कि जब तुम हमारी गाड़ी में बैठोगे तो तुम बुधबाबा वाला गेरुआ लबादा पहिन लेना। हम भी पहिन लेंगे ताकि गाँववाले समझ जाएं कि हम सुच्चे बौद्ध बन गए हैं..."

उन्होंने चलते-चलते जेल की गेट से बाहर कदम रखा। लेकिन, बिरजू तो भौंचक रह गया। वह जो कुछ वहाँ देख-सुन रहा था, उसे वह सब हैरतअंगेज़ लग रहा था। अंबेडकर गाँव के लगभग सौ सवा सौ लोग उसकी आवभगत के लिए खड़े बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उसने सिर उठाया, भीड़ बेतहाशा हुँकारने लगी, "सत्यार्थीजी की जय, बिरजू भइया की जय..."

सत्यार्थीजी ने अपने दोनों हाथ भीड़ की ओर उठाए, "हमारे प्यारे भाइयों! आज से बिरजू भइया, चौधरी ब्रजभूषण के नाम से जाने जाएंगे।"

भीड़ फिर, नारेबाजी करने लगी, "चौधरी ब्रजभूषण की जय! दलितों के मसीहा, चौधरी सा'ब की जय!"

हर्षोत्तेजना के उन क्षणों में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी कि बिरजू ने अपना सिर झुकाकर सत्यार्थीजी के पैर छुए। सत्यार्थीजी उसके इस आचरण पर सोचने लगे, 'जो आदमी एक बार झुक गया, वह उनसे दो-बारा आँख मिलाने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता।' उन्होंने अपने दोनों हाथ उसके सिर पर रखकर आशीर्वाद दिया, "सियासतदारी में अव्वल बने रहो!" फिर, वह, उसे अपने सीने से आलिंगनबद्ध करते हुए अपनी मोटरकार में साथ-साथ सवार हुए। जब मोटरकार हौले-हौले आगे चल रही थी तो भीड़ भी जयघोष करते हुए सभी को यह संदेश दे रही थी कि उसकी राजनीतिक जागरुकता पूरे समाज का कायापलट कर देगी।

नौलक्खा जेल से अंबेडकर गाँव का करीब तीन किलोमीटर का रास्ता बिरजू ने सत्यार्थीजी के साथ उनकी मोटरकार में तय किया जबकि ज़्यादातर गाँववाले पैदल ही और कुछ साइकिल से चलते हुए उनके पीछे-पीछे ठीक अंबेडकर पार्क के सामने आकर जमा होने लगे। जो लोग सत्यार्थीजी और बिरजू के साथ आए थे, उन्हें यह देख अत्यंत कौतूहल हो रहा था कि जेल की गेट के पास गाड़ी में तो दोनों साधारण कमीज़ और पैंट में सवार हुए थे जबकि अंबेडकरपार्क के पास गाड़ी से उतरने के बाद उनका हुलिया ही एकदम कैसे बदल गया। यानी, सत्यार्थीजी और ब्रजभूषण चौधरी सिर मुड़ाए हुए गेरुए लबादे में खड़े थे जैसेकि ख़ुद गौतम बुद्ध अपने प्रिय शिष्य आनन्द के साथ पधारे हों।

गाँव के बुज़ुर्ग--लखई बाबा, लल्लन ताऊ और भिक्खू चच्चा, बिरजू की अगवानी करते हुए, एकदम बावले होकर सत्यार्थीजी की ओर बढ़े--उनकी पीठ थपथपाने के लिए। सत्यार्थीजी ने करबद्ध होकर बड़े सम्मान से दोनों के पैर छुए। लल्लन ताऊ तो उस बदले हुए माहौल को देखकर खुशी से फुलझड़ी हो रहे थे। उन्होंने तत्काल आगे बढ़कर बिरजू को गले लगाया, "तो तुम इ जेलयात्रा करके सत्यार्थीजी के साथ रजनीति का सबक सीख रहे थे। हम तो बूझ रहे थे कि सत्यार्थी गाँववालों को डबलक्रास कर रहा है। हमजने डर रहे थे कि तुम्हें जेल से छुड़ाने के बहाने सत्यार्थी चंपत हो जाएगा। लेकिन, इसके पीछे हम गाँव के मुस्टंडे लौंडों को लगा दिए रहे कि जदि इ बिरजू को जेल से छुड़ाने के बजाए कहीं भागने-पराने की कोसिस करें तो इनका उहीं काम-तमाम करके उपर को पठा देना..."

लल्लन ताऊ की बात सुनकर सत्यार्थीजी अट्टहास करने लगे।

बिरजू यानी ब्रजभूषण चौधरी का चेहरा अपने गाँव में इस भाईचारे को देखकर फूल की माफिक खिला हुआ था जैसेकि वह जेलखाने की तीन महीने की सज़ा न काटकर अपने किसी धन्ना-सेठ रिश्तेदार के यहाँ से आया हो जहाँ उसे बेनागा सुअर का गोश्त चाँभने को और रम की बोतल चढ़ाने को मिला हो। भिक्खू चच्चा उसे सिर से पैर तक बार-बार निहार रहे थे, "अरे बिरजुआ! तूं शच-शच बता कि तूं शत्यार्थीजी के कौनो मेहमानखाने शे आ रहा है या जेलखाने शे। बड़ा बढ़िया तन्दुरुश्ती बनाके आया है..." वह अपने हाथ से उसकी बाँहें टटोलकर उसकी तन्दुरुस्ती का ज़ायज़ा लेने लगे।

गाँववालों को यह कहाँ उम्मीद थी कि जिस बिरजू को सात साल का सश्रम कारावास मिला था, वह किस करिश्मा के चलते तीन महीने के भीतर ही रिहा हो जाएगा? वे तो उसकी एक झलक पाने के लिए इस तरह धक्कम-पेल करते हुए उमड़ पड़े थे जैसेकि किसी दूसरे ग्रह का कोई अज़ूबा प्राणी वहाँ भटककर आ गया हो।

जब बिरजू उनकी बात पर घिघिया-घिघियाकर अपनी खुशी का इज़हार कर रहा था कि तभी सत्यार्थीजी अनुरोधपूर्वक बोल उठे, "भिक्खू चच्चा! अब तुम बिरजू को इज़्ज़त दो। इसे ब्रजभूषण चौधरी कहके गुहराओ क्योंकि इ अब बड़े राजनेता बनने जा रहे हैं। कल देखना, जिलाभर के अख़बारों में ब्रजभूषण चौधरी का फोटू छपा होगा और इ ख़बर भी होगा कि जन-जन के मसीहा ब्रजभूषण चौधरी जेल से रिहा होकर सीधे समाज-सेवा में लग गए हैं..."

सत्यार्थीजी की बातें सुनकर वहाँ उपस्थित सभी बुज़ुर्गों का सीना गर्व से चौड़ा हुआ जा रहा था। तभी, भिक्खू ने हाथ जोड़कर, खुशी के मारे हिहियाते हुए सचमुच अपने भगवान यानी सत्यार्थीजी को प्रणाम किया, "तुम्हरी किरपा इ गाँव पर बनी रही तो शारे लल्लू-पंजू के भी फोटू भी छपेंगे। तुमही इ गाँव के अंबेडकर हो। हमजने तो अब बूझ पाए हैं कि तुम भगवान के औतार हो, हमारे अंबेडकर भगवान हो। तुम जो कुछ भी करोगे, उशशे हमारे गाँव का उद्धार होगा..."

सत्यार्थीजी ने उनके हाथ पकड़कर नीचे करते हुए उनके कंधे को थपथपाया, "आपको याद होगा कि जब हमारी मर्सिडीज़ गाड़ी, ब्रेक फेल होने की वज़ह से अंबेडकर बाबा की मूरती से टकराई थी तब आपजने इ समझ लिए थे कि हम बाबासाहेब के विरोधी हो गए हैं और इ कुकर्म जानबूझ के किए हैं और आपजने हमें पंचायत में घसीट लाए थे। पर, हम भी आपजने की कृपा से अपना मनोबल नहीं टूटने दिए। हम जानते थे कि स्वर्ग में बैठे अंबेडकर बाबा हमें देख रहे हैं और ऊ हमारे साथ नाइंसाफ़ी नहीं होने देंगे। इ अंबेडकर भगवान की कृपा है कि हम इहाँ ज़िंदा आपजने की ख़िदमत करने के लिए हाज़िर हैं। उस दिन हम पंचायत में अपजने से एकठो वादा किए थे कि बिरजू प्रदेश की कमान सम्हालेगा औ' हम केंद्र की। अब आप देखते जाइए कि इ दू-तीन बरिस में हम क्या करते हैं। हम कइसे पासा चलके औ' गोट बइठाके ब्रजभूषण चौधरी को मुख्यमंत्री बनाते हैं?"

अंबेडकर बाबा की मूर्ति के सामने यह मज़मा लगा हुआ था, गाँव के हजारों लोग बात का बतंगड़ बनाते हुए बड़ी-बड़ी डींगें हाँक रहे थे और अपने जनप्रिय नेता सत्यार्थीजी के साथ-साथ ब्रजभूषण चौधरी का आवभगत करने में तल्लीन थे कि तभी सत्यार्थीजी की पत्नी सहजा पांडे सत्यार्थी ने आकर घोषणा की, "अब आपलोग पार्क में चलिए; अंबेडकर बाबा की प्रतिमा स्थापित कर दी गई है और मिसिर जी की प्रतिमा को भी गेरुआ लबादा पहनाकर उनका बौद्धीकरण किया जा चुका है। अब हम अपने देश के सबसे बड़े राजनेता सत्यार्थीजी से अनुरोध करेंगे कि वे अपने कर-कमलों से बाबा साहेब की प्रतिमा का अनावरण करें..."

सत्यार्थीजी झटपट चलकर पार्क की गेट के सामने खड़े हो गए। उन्होंने बिरजू को इशारे से बुलाकर उसके दाएं हाथ को बाएं हाथ से उठाते हुए कहा, "हमारे सगों से सगे गाँववालों! अंबेडकर भगवन की मूरती का अनावरण हम नहीं, हमारे प्रिय नेता ब्रजभूषण चौधरी करेंगे..."

इस घोषणा से तो सत्यार्थीजी ने सभी का दिल जीत लिया। क्योंकि उन्होंने गाँव के एक ऐसे युवा को महत्त्व दिया था जो सभी का चहेता था। वे सचमुच तहे-दिल से उनका गुणगान कर रहे थे।

पार्क में तालियों की कर्णभेदी गड़गड़ाहट के साथ ब्रजभूषण चौधरी ने अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण किया और सत्यार्थीजी की कुछ फुसफुसाहट सुनते हुए चिल्ला उठा, "आज से सत्यार्थीजी को हम स्वामी सत्यार्थीजी क हकर गुहारेंगे।"

उसके बाद गेरुआ लबादा पहने हुए प्रसन्नचित्त मुद्रा में सत्यार्थीजी मंच पर खड़े हुए, "आज जिस तरह का कायाकल्प हमारे अंबेडकर गाँव का हुआ है, भविष्य में ऐसा ही पूरे देश का होने वाला है। अपने जीवन के अंतिम दिनों में हिंदू से बौद्ध बन चुके मिसिर स्वामीजी का सौगंध खाकर कहता हूँ कि जब तक इस देश के चप्पे-चप्पे का अंबेडकरीकरण नहीं हो जाता, हम चैन से नहीं बैठेंगे। हमारे मिसिर स्वामीजी में अंबेडकर भगवन की आत्मा व्याप्त थी और अंबेडकर बाबा, भगवान बुद्ध के अवतार थे। उनकी प्रेरणा से ही बलित वर्ग के धनीराम मिसिरजी ने दलित समाज की जीवन-पर्यंत सेवा करते हुए शहीद हुए थे और अपने जीवन के अंतिम दिनों में खुद बौद्ध बन गए थे। उन्होंने पूरे समाज को यह संदेश दिया था कि आज देश की भलाई इसी में है कि इसे अंबेडकरदेश कहा जाए। हमारा यहाँ उपस्थित सभी मिडियाजनों से यह जोरदार अनुरोध है कि वे हमारी इस मांग को केंद्र सरकार के सामने तत्काल रखें..."

बिरजू की वापसी के बाद अंबेडकर गाँव में दीवाली जमकर मनाई गई। बिरजू की बुढ़िया माई कलौतिया सारे लाज-शर्म छोड़कर घर-घर के सामने कमर मटकाते हुए नाचती फिर रही थी। छँटाक-छँटाक भर के बच्चे रात-दिन चुहुलबाजी करते हुए लगातार गाए जा रहे थे, "सत्यार्थी राजा का लगा दरबार/ जहाँ पर बिरजू भए थानेदार।" बिरजू का भी दिमाग सातवें आसमान पर था। वह अपने यार-दोस्तों के साथ सत्यार्थीजी की गद्दी में चौबीसो घंटे बैठकी लगाए हुए और शराब-कबाब उड़ाते हुए दिन के उजाले में इस हसीन ख़्वाब में खोया रहता था कि वह दिन दूर नहीं जबकि उसे वे सभी भोग-विलास के साधन सुलभ होंगे जो बम्हरौली, कायथाना और ठकुराना गाँव के बड़े लोगों के पास हैं।

पर, सत्यार्थीजी सचमुच गाँव में आए इस बदलाव से किसी भी तरह से खुश नहीं थे। उनके जी में आ रहा था कि गाँव को आर.डी.एक्स. या डाइनामाइट से उड़ाकर इस तरह धूल-धूसरित कर दिया जाए कि आने वाले सैकड़ों सालों तक इस गाँव का नामोनिशान तक न मिल सके। उनके इस आक्रामक विचार का कारण सिर्फ़ ब्रजभूषण चौधरी था जिसे उन्हें अनजाने में ही सींचकर पौध से पेड़ बनाना पड़ा। बस, अपने गाँववालों की हमदर्दी बटोरने के लिए ही उन्होंने उसे सिर चढ़ाया।

गाँव में ब्रजभूषण चौधरी का दबदबा बढ़ता जा रहा था जिसके चलते सत्यार्थीजी के दिन का चैन और रातों की नींद हराम थी। ब्रजभूषण तो उनकी परछाईं बनकर अंबेडकर गाँव से राजधानी तक उनका साथ नहीं छोड़ता था जबकि उन्हें वह कतई नहीं भाता था। वह बड़े असमंजस में थे कि आख़िर, वह करें तो क्या करें! अगर उसे दुरदुराते हैं तो अंबेडकर गाँववाले फिर, उनके दुश्मन बन जाएंगे। और अगर उसे यूँ ही अपने आएँ-बाएँ रखते हैं तो वह उन्हें आस्तीन के साँप की तरह आतंकित करता रहेगा। चाहे सत्यार्थीजी विधान सभा अधिवेशन में व्यस्त हों या किसी मीटिंग या सभा में, जनता से मिलने-जुलने और उनकी समस्याएं सुनने के लिए बिरजू कभी अंबेडकर गाँव में तो कभी राजधानी स्थित उनके आवास पर तैनात रहता था। उसे अपने इस कामकाज से बड़ा सुकून मिल रहा था क्योंकि उसकी सर्वत्र पूछ बढ़ती जा रही थी। सत्यार्थीजी सामने गद्दी में बैठे होते थे जबकि लोगबाग चौधरी ब्रजभूषण से मुखातिब रहते थे। इससे उनकी लोकप्रियता में मंदी का दौर शुरू हो गया था क्योंकि ज़्यादातर मुलाकाती यह सोचने लगे थे कि उनका काम तो ब्रजभूषण से ही बनना है।

बेशक! इस बात पर सत्यार्थीजी का चिंतित होना ज़ायज़ था। एक रात, वह राजधानी स्थित अपनी सरकारी कोठी में मधु मिश्रा के साथ रज़ाई में दुबके हुए थे। वह इतने अन्यमनस्क थे कि लाख कोशिशों के बावज़ूद जब मधु उन्हें गरम नहीं कर पाई तो उसने अपनी पीठ फेर ली। बेशक, उनके खून में जैसे पहाड़ से आने वाला बर्फ़ीला ठंडा पानी घुल गया हो।

"आज आपको क्या हो गया है, विधायकजी?" उसकी खिसियाहट में भी प्यार का सुरूर था।

"हमें भी ताज़्ज़ुब हो रहा है कि हम..." वह हकलाकर रह गए।

"हम जानते हैं कि आप आजकल बड़ी दुइधा में हैं।" मधु ने उठकर सहानुभूति में उनके बाजू सहलाए।

"हाँ, हमें बिरजू का थोपड़ा देखना ज़रा भी बरदाश्त नहीं हो रहा है। वो स्साला रात-दिन हमारी परछाईं बनके हमारे आगे-पीछे डोलता फिरता है..." उनके नथुने गुस्से में फड़फड़ाने लगे।

"आप हुकुम करें तो उस हरामी के पिल्ले को जहन्नुम का रास्ता दिखा दें..." रजाई ओढ़े-ओढ़े, मधु उनकी आँखों में झाँकने लगी।

"लेकिन, उससे हमारी मुसीबत कम नहीं होगी। गाँववाले समझेंगे कि हमने ही उसे टपका दिया..." उनकी आँखों में बेचारगी का धुंध साफ नज़र आ रहा था।

"तो गाँववालों का ही सफाया कर देते हैं। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।" मधु मिश्रा की आँखों में शोखी खून बनकर उतरने लगी।

उसकी बात सुनकर सत्यार्थीजी लातों से रजाई को फेंक, एकदम से उठ बैठे। उन्होंने झट सिगरेट सुलगाई और बार-बार कश लेते हुए आँखें गोल-गोल नचाने लगे।

"इ कइसे हो सकेगा, मधुबाला?" सत्यार्थीजी उत्तेजना में उसकी तुलना मशहूर फिल्म तारिका मधुबाला से करते हुए उसे मधुबाला ही पुकारते थे।

"भैंरोभाई को सुपारी दे दीजिए। वो आर.डी.एक्स. से समूचे गाँव को राख में तब्दील कर देगा। लोग पचासों साल तक अंबेडकर गाँव का नामोनिशान तक नहीं ढूँढ पाएंगे।" मधु ने जितनी सहजता से यह बात कही, सत्यार्थीजी को यह बात उतनी ही असहज लगी।

"तुम भी ना, औरतों जैसी बुड़भकई की बात करने लगती हो। तुम्हारी बात का न सिर है, न पैर।"

"विधायकजी, अब यही एक चारा है कि अंबेडकर गाँव का ही सफाया कर दीजिए।"

"लेकिन..."

"लेकिन-वेकिन कुछ भी नहीं। हम मीडियावालों को यकीन दिला देंगे कि यह काम नक्सलियों ने किया है, बाक़ायदा विदेशी ताकत की मदद से। फिर, आप अंबेडकर गाँव के ख़ात्मे पर मीडिया में और टेलीविज़न पर घड़ों आँसू बहाकर जनता की हमदर्दी भी खूब बटोर लीजिएगा। इस काम में तो आप जन्मजात माहिर हैं।"

सत्यार्थीजी पलभर के लिए उसकी तारीफ़ पर कुटिल मुस्कान को सिगरेट के धुएं में उड़ाते हुए अचानक उठ खड़े हुए।

"अरे, ऊ गाँव में सात हजार लोग रहते हैं।" उनके मन के किसी कोने में गाँववालों के प्रति मोह का वायरस अभी भी ज़िंदा था।

"लेकिन, ई सात हजार लोग आपकी किस्मत पर ग्रहण लगाए बैठे हैं। हमे भी सुकून मिलेगा कि इसी तरह हमारी सौत सहजा पांडे का भी वारा-न्यारा हो गया..."

सत्यार्थीजी की आँखें फिर गोल-गोल नाचने लगी, ठीक जैसे बाघ अपने शिकार को देख अपनी आँखें गोल-गोल नचाने लगता है।

मधु मिश्रा ने कोई हड़बड़ी दिखाए बिना, एक नंबर मिलाते हुए टेलीफोन का चोंगा सत्यार्थीजी के मुँह से सटा दिया, "लीजिए, भैंरोभाई को सुपारी दे दीजिए।"

सत्यार्थीजी ने मधु की आँखों में झाँककर देखा तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि एक औरत की आँखों में जो हैवानियत तिर रही है, वह उन जैसे मर्द की आँखों में क्यों नहीं तिरती। उन्होंने पलभर के लिए चोंगा अपने मुँह से हटाया जिसे मधु ने ज़बरन उनके मुँह से सटा दिया।

सुबह से ही सत्यार्थीजी अपने राजधानी स्थित बंगले में बड़ी ऊहापोह की स्थिति में इधर-उधर टहल रहे थे। मधु मिश्रा बार-बार भैंरोभाई का नंबर मिलाकर बात करने की कोशिश कर रही थी जबकि उसके मोबाइल पर रिंग तो जा रही थी लेकिन उधर से कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था। सत्यार्थीजी एकबैक बड़बड़ाने लगे, "इ स्साले भैंरो को क्या हो गया है? कल रात तक तो उससे ख़ूब बतकही हो रही थी; बता रहा था कि अंबेडकर गाँव के कोने-कोने में सैकड़ों डाइनामाइट बिछा दिया गया है। बस! जैसे ही सुबेरे का पाँच बजेगा, रिमोट कंट्रोल से गाँव को उड़ा दिया जाएगा। लेकिन, हमको लगता है कि कुछ गड़बड़ हो गया है। आठ बजने को आया; लेकिन, न तो उसका कोई ख़बर आया, न टी.वी. से कोई रपट आई कि..."

तभी मधु मिश्रा ने टी.वी. चालू कर दिया और एक समाचार चैनल लगा दिया। सत्यार्थीजी बड़े ताज़्ज़ुब में थे कि देश-दुनिया की ख़बर दी जा रही थी; लेकिन, अंबेडकर गाँव के उड़ाए जाने की ख़बर नदारद थी। वह एकदम से खिसिया उठे, "मधुबाला! बंद करो इस बुद्धू बक्से की नौटंकी। अब हमें लगता है कि अंबेडकर गाँव की भभूत हम अपने माथे पर नहीं लगा पाएंगे..."

उन्होंने अपनी बात ख़त्म भी नहीं की थी कि उनके कान खड़े हो गए। कोई ख़ास रपट जर्नलिस्ट चौरसिया देने जा रहे थे, "अब सुनिए एक ख़ास ख़बर! अंबेडकर गाँव को डाइनामाइट से उड़ाने की साज़िश नाकाम कर दी गई। ख़ुफ़िया रिपोर्ट बताती है कि गत रात कुछ आतंकवादी गाँव में घुसकर सैकड़ों डाइनामाइट बिछाते हुए पकड़े गए। लेकिन, एक भी आतंकवादी, पुलिस के हाथ नहीं लग सका। जिस समय पुलिस आतंकवादियों की धर-पकड़ में लगी हुई थी, उस समय पत्रकारों की टीम ने एक स्थानीय समाजसेवी भैंरो ठाकुर से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि कुछ नेता गाँव में हो रहे रिकार्डतोड़ विकास से जले-भुने थे। इसलिए, वे इसे देश के नक्शे से ही नेस्तनाबूद करने की साज़िश चल रहे थे। उन्होंने बताया कि सामाजिक विकास में उक्त गाँव ने राष्ट्रीय मानदंडों को भी पछाड़ दिया है। इस ख़बर से क्षेत्रीय विधायक अत्यंत खिन्न हैं। मैं विधायक श्री सत्यार्थी स्वामीजी से इस घटना पर टिप्पणी चाहूँगा। हैलो स्वामीजी, हैलो, हैलो..."

सत्यार्थीजी का टेलीफोन अचानक खनखना उठा। मधु मिश्रा ने उनके कान में कुछ फ़ुसफ़ुसाकर कहा और टेलीफोन का चोंगा उनके कान से सटा दिया।

"हैलो, स्वामीजी! आप तक हमारी बात पहुँच पा रही है कि नहीं!"

सत्यार्थीजी तत्काल भावुक होकर बिलखने लगे, "हाँ, चौरसियाजी! मैं आपकी बात सुन रहा हूँ। मुझे इस साज़िश के बारे में सुनकर हार्दिक आघात पहुँचा है। मैंने अंबेडकर गाँव के हर व्यक्ति को अपने बच्चों की तरह पाला-पोसा है। उन्हें अपने खून से सींचा है। मुझे यह सोचकर बेहद दुःख हो रहा है कि आख़िर! देश के सुरक्षातंत्र को क्या हो गया है। आतंकवादियों की पैठ देश के छोटे-छोटे गाँवों तक हो गई है? क्या आज सारा देश बारूद पर सो रहा है? मैं देश के निकम्मे और मतलबी नेताओं को धिक्कारता हूँ और केंद्रीय सरकार से पुरजोर अनुरोध करता हूँ कि वह इस घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए तत्काल त्यागपत्र दे दे..."

बोलते-बोलते सत्यार्थीजी का गला बिल्कुल रुँध गया।

चौरसियाजी बीच में ही बोल उठे, "अच्छा-अच्छा, स्वामीजी! सारा देश जानता है कि आप अंबेडकर गाँव के लिए क्या हैं!"

फिर, सत्यार्थीजी से संपर्क काटते हुए चौरसियाजी ने रपट जारी रखी, "अंबेडकर गाँव कुछ वर्षों से सूर्खियों में रहा है जहाँ धनीराम मिसिर जैसे महान समाजसेवी ने दलितों के उत्थान में उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी; लेकिन, सियासी षड्‌यंत्रों के तहत उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। ब्राह्मण से बौद्ध बन चुके मिसिरजी दलितों के मसीहा थे। उनके ही पदचिन्हों पर चलते हुए सत्यार्थी स्वामीजी आज भी दलितों के सामाजिक उत्थान के लिए कृतसंकल्प हैं..."

शाम को दूरदर्शन पर आयोजित एक इंटरव्यू में सत्यार्थीजी, भैंरो ठाकुर और वरिष्ठ पत्रकारों के बीच राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर गंभीर बातचीत हुई। सत्यार्थीजी ने साफ़ शब्दों में कहा, "मुझे ज़ेड लेविल की सुरक्षा मुहैया कराई जाए क्योकि जिन राष्ट्रद्रोहियों की कुदृष्टि अंबेडकर गाँव पर है, वे गाँव के विकास के सूत्रधार उनकी यानी सत्यार्थी स्वामीजी की जान कभी नहीं बख़्शेंगे।"

अगले दिन के सभी अखबार ब्रजभूषण चौधरी के सचित्र साक्षात्कार से अटे पड़े हुए थे। कहीं-कहीं पिछले पन्नों पर सत्यार्थीजी के घड़ियाली आँसुओं की चर्चा की गई थी। हाँ, भैंरो (ठाकुर) की इस ख़्वाहिश को बारंबार रेखांकित किया गया था कि जब वे अपने क्षेत्र से विधायक की कुर्सी हासिल करेंगे तो उनकी बदौलत एक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात होगा।

बहरहाल, सत्यार्थीजी मधु मिश्रा के साथ रज़ाई में लेटे-लेटे अख़बारों के पन्ने पलटते हुए उनके संपादकों को टेलीफोन पर फ़टकार लगाने के लिए गला फाड़-फाड़कर चिल्ल-पों मचा रहे थे जबकि मधु मिश्रा एक हाथ में पानी का गिलास लिए हुए उनके होठों से लगाकर उनका गला सींच रही थी और इतनी ठंड में उनके माथे पर आ रहे पसीने को रुमाल से लगातार पोंछती जा रही थी।

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जीवन-चरित

लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लिखता रहा हूँ।}

वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव

पिता: (स्वर्गीय) श्री एल.पी. श्रीवास्तव,

माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव

जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)

शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से

पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज़: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन

लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक़्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इंक़लाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6.एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; 7-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 8. अदमहा (नाटकों का संग्रह) ऑनलाइन गाथा, 2014; 9--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 10.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), शीघ्र प्रकाश्य; 11.

संपादन: महेंद्रभटनागर की कविता: अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति

--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित

--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन

--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन

--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि) आदि

"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक

"वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक

'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक

हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमोक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, इ-कल्पना, अनहदकृति, ब्लिज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित

आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गुल्ली-डंडा और सियासतदारी (कहानी) --डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
गुल्ली-डंडा और सियासतदारी (कहानी) --डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
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