माह की कविताएँ

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                   श्याम चंदेले बारिश की आहट ... देखो कैसे बिजली कौंधी हवा संग आयी आँधी पीपर पात डोल रहे हैं कुछ बादल मन मोह रहे हैं ...

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                   श्याम चंदेले


बारिश की आहट ...


देखो कैसे बिजली कौंधी

हवा संग आयी आँधी

पीपर पात डोल रहे हैं

कुछ बादल मन मोह रहे हैं

पवन भी हो गईं है वेग मयी।।

खिड़की मेरी टूटी हुई है ,

धड़धड़ धड़धड़ काँप रही है

बादल भी अब गहरे काले हो रहे हैं

बिजलियों के  उजाले हो रहे हैं

एक बड़ी बूँद टपकी अभी अभी

कुछ  यहाँ गिरी कुछ कहीं कहीं

उमड़ घुमड़ करने लगे हैं अब मेघ

पवन का बढ़ गया अब वेग

लगता है अब छत टपकने वाली है

बारिश आने वाली है


                               श्याम चंदेले

                               बालाघाट म.प्र.

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प्रिया देवांगन "प्रियू"

बरसा रानी

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बरसा रानी  बरसा रानी ,

जल्दी से तुम आओ ।

खेत सारे सूख गयें है ,

हरियाली तुम लाओ ।

सबको है इंतजार तुम्हारा ,

कब तक तुम आओगे ।

सबके मन में खुशियाँ ,

कब तक तुम लाओगे ।

जल्दी से तुम आ जाओ ,

इंतजार  मत कराओ ।

सूख रहे हैं कंठ हमारे ,

जल्दी प्यास बुझाओ  ।

जब तुम आओगी ,

चारों तरफ हरियाली होगी ,

सब किसानों के मन मे

खुशहाली होगी।



प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया  (कवर्धा )

छत्तीसगढ़

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मिहिर भट्ट


मैं अनेकों भावधारों में बहा

मैं अनेकों भावधारों में बहा-
इन क़्वार-भादों में रुका
जौ उड़द की खेतियों में ठिठका, हँसा
पर्वतों की प्रीत में बांधा गया।
कुछ अकिंचन था कि ऐसा
भर दिया हो घट किसी ने
प्रेत-बाधा से की ज्यों जकड़ा गया हो।

चीड़ के वन में बरसते-पात धरती
जब महकती गन्ध दोपहर बाद वाली
कुछ अकिंचन सूत्र ही तो  हैं कि ऐसे
जहाँ जीवन को नवल माधुर्य मिलता।
ये यहाँ का श्रांत जीवन ही सुहाता है मुझे
इन्हीं सूने रास्तों पर मणि मरकत-सा पला हूँ।

आज भी जीवन वही है, आज भी वह चेतना
मधुरता का अंश मिलता, वही जीवन देशना।
मैं समझता हूँ, अनेकों पल जगत में छिप रखे
जहाँ मन को ठहरना सोचना पड़ता कि कैसे-
इस तरावट, इस सजावट से उबरकर चल सके।

पराभव हो गया- उस बाजार का।
तिरोहित हो गया यह संसार भी
आ गया इन घाटियों में - बस गया जो
इसी पर्वत-चेतना का अंश बनकर।


["मेरे पाथेय से"]
@मिहिर
ईमेल mrityunjaymihir@gmail.com
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सुशील शर्मा

मैं भारत का फौजी हूँ

मैं भारत का फौजी हूँ ,
मैं वतन के सपने गढ़ता हूँ।
पहले सीमा पर लड़ता था ,
अब अपनों से लड़ता हूँ।

सीमा पर शत्रु मर्दन कर ,
सीना तान कर खड़ा रहा।
गोली बारूदों के गीतों में ,
निश्चय निर्भय मैं अड़ा रहा।
 
महाकाल का गर्जन सुन,
शत्रु सेना में खलबल था।
उसपार मौत का तांडव था,
इस पार विजय कोलाहल था।

बरसों देश की सेवा कर ,
जब मैं अपने घर वापिस आया।
परिवार सहित सब हर्षित थे ,
सुरभित सा जीवन मुस्काया।

लेकिन इस भारत में देखो ,
कैसा ये तंत्र समाया है।
भ्रष्ट तंत्र की अमरबेल ने ,
अपना अधिकार जमाया है।

मासूमों से बलात्कार से,
ये धरती अपनी डोल रही।  
भ्रूण हत्याओं के पापों को,
न जाने कैसे झेल रही।

आरक्षण के हथियारों से ,
प्रतिभाएं काटी जाती हैं।
धर्म जाति की दीवारों से ,
मन नस्लें बांटी जाती हैं।

आम आदमी की सुविधाएँ,
फाइल में गुम होतीं हैं।
अपराधों के साये में,
लुटती अबलाएं रोतीं हैं।

संविधान के वटवृक्ष पर,
राजनीति की आरी है।
लोकतंत्र के गलियारों में,
तानाशाही जारी है।

वोटों की खातिर नेताओं के ,
जमीर मर जाते हैं।
भारत की रोटी खाकर,
पाक के गीत सुनाते हैं ।

शिक्षा और स्वास्थ्य अब ,
भारत की गलियों में बिकते हैं।
चोरों और दलालों से,
अब नेताओं के रिश्ते हैं।

हर चौराहे  पर अब देखो ,
चोरों की पहरेदारी है।
लूट रहें हैं वही देश को ,
जिन पर सब जिम्मेदारी है।

मैं भारत का फौजी हूँ ,
मैं इनको मज़ा चखाऊंगा।
भारत के गद्दारों को,
फांसी तख़्त चढ़ाऊंगा।

बलात्कारियों के सीनों को,
चौराहे पर चाक करो।
देशद्रोहियों के शरीर को,
चीरफाड़ कर फांक करो। 

सत्य अहिंसा के मसले पर,
गाँधी का अनुयायी हूँ।
लेकिन अन्यायी के संग,
मैं भगतसिंह का भाई हूँ।

पर्यावरण की रक्षा करने का,
  मैं अपना धर्म निबाहूँगा।
जल जमीन जंगल को,
अंतिम दम तक बचाऊंगा।

हर नारी सम्मानित होगी ,
हर बेटी मुस्कायेगी।
जो भी आँख इन्हें घूरेंगी ,
वो आँख फोड़ दी जाएगी।

राजनीति में शुचिता को,
अब आगे लाना होगा।
धर्म ,जाति ,क्षेत्रीयता का ,
बंधन झुठलाना होगा।

संविधान की रक्षा करना,
हम सब का दायित्व बने।
हर भारत में रहने वाला ,
देशभक्त स्वायित्य बने।

देश की सीमाओं पर मैंने,
दुश्मन की गोली झेली है।
अपने वतन की रक्षा करने,
मैंने खून की होली खेली है।

मैं भारत का फौजी हूँ ,
मुझे अपने वतन से प्यार है।
यह सोंधी चन्दन सी मिट्टी,
मेरा जीवन आधार है।

मैं भारत का फौजी हूँ ,
मैं भ्रष्टों को सबक सिखाऊंगा।
मैं अधिकारों को पीछे रख,
अपने कर्तव्य निबाहूँगा।

मैं भारत का फौजी हूँ ,
भारत के गीत सुनाऊंगा ।
नव विकास के नवरथ पर,
अब भारत को ले जाऊंगा।
--
धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे

अर्जुन उवाच
हे कृष्ण रण में सामने ये कौन हैं?
बंधु मेरे इस प्रश्न पर सब मौन हैं।।

भिक्षान्न में होकर प्रसन्न मुझे कुछ न चाहिए।
बंधुओं का वध कैसे करूँ हे केशव बतलाइए।।

पितामह की गोद गुरु के चरण क्या भूल जाऊं।
राज पाने के लिए क्या इन पर बाण चलाऊं।।

युद्ध मुझको अब करना नहीं हे माधवा।
ऐसी विजय से तो हार अच्छी हे केशवा।।

मेरा ही रक्त सामने है युद्ध मैं कैसे करूँ।
मुझसे न होगा युद्ध ऐसा चाहे मैं खुद मरूं।।

मन उद्विग्न धनुष त्याग पार्थ विक्षिप्त सा ।
शस्त्र रहित मोहित चित्त शोक संतप्त सा ।।

श्री भगवानुवाच
पार्थ तुम इन अज्ञानों से क्यों इतने भरे।
क्यों जी रहे हो अपने अंतस इतने संशय धरे।।

धर्म क्या होता है तुम इसको सूझ लो।
कर्म क्या होता है तुम इसको बूझ लो।।

मैं ही परा अपरा आकाश हूँ।
मैं ही धरा मन का विश्वास हूँ।।

नित्य मुझ में ही प्रवाहित कर्म सब।
नित्य मुझ में समाहित धर्म सब।।

अनगिनत आकाश गंगाएं मुझ से विहित।
करोड़ों सूर्यमंडल है मुझ में निहित।।

शून्य से विराट की प्रकृति हूँ मैं।
जीव अविनाशी की प्रवृति हूँ मैं।।

माया में रहकर सदा हूँ मैं माया से रहित।
यह अनादि अखंड ब्रह्मांड है मुझ में निहित।।

शब्द से अनहद का आधार हूँ मैं ।
मौन के संदेश का संचार हूँ मैं ।।

परम का मैं मूर्त स्वरूप हूँ।
अनंत का मैं अद्भुत रूप हूँ।।

युद्ध मैं हूँ शुद्ध मैं हूँ  धर्म मैं हूँ पार्थ मैं।
कर्म मैं हूँ विजय मैं हूँ आत्मा का अर्थ मैं।।

तमस मैं हूँ राज मैं हूँ शुद्ध सत्य सतोगुणी।
योग मैं हूँ क्षेम मैं हूँ राजसी रजोगुणी।।

चित्त मैं हूँ बुद्धि मैं हूँ ध्यान का आधार हूँ।
जीव मैं हूँ प्रकृति मैं हूँ ,ये प्रकट संसार हूँ।।

आदि मैं हूँ,अनादि मैं हूँ ,न है कुछ मुझ से रहित।
समय हूँ मैं काल हूँ, भूत भविष्य मुझ में विहित।।

जन्म मैं हूँ, मृत्यु मैं हूँ, अहम का आभास हूँ।
प्रेम मैं हूँ,सत्य मैं हूँ, जीव का विश्वास हूँ।।

आदि अनादि नियंता, सर्वज्ञ हूँ मैं।
सच्चिदानंद अचिन्त्य, अविज्ञ हूँ मैं।।

ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं,भूत भावन परमात्मा।
स्वर्ग हूँ मैं अपवर्ग हूँ मैं,हिरण्यगर्भ आत्मा।।

सत हूँ असत भी,ब्रह्म रूप गुणों की खान हूँ।
कल्प हूँ ,संकल्प हूँ ,ज्ञानियों का ज्ञान हूँ।।

विष्णु हूँ मैं, सूर्य हूँ, मैं नक्षत्राधिपति चंद्रमा।
इंद्र हूँ मैं,वेद हूँ मैं, काम की मैं मधुरिमा।।

शिव हूँ मैं,नाद हूँ मैं,यज्ञ हूँ मैं, प्रजापति।
शील हूँ मैं श्रेष्ठतम राम हूँ मैं, रमापति।।

हूँ अजन्मा, रूप है अविनाशी मेरा।
योगमाया से प्रकट, परमात्मा मैं हूँ तेरा।।

बुद्धि ज्ञान और तर्कों से मैं परे।
परा अपरा शक्तियों को जो धरे।।

गूढ़ से गुह्तम मेरा आभास है।
मुझे पाता वही जो मेरा दास है।।

मुझ को समर्पित कर्म तुम अपने करो।
परिणाम की चिंता न तुम मन में धरो।।

इंद्रियों को वश में करे स्पृहा रहित।
क्रोध को जीते जो समता सहित।।

काम को वश में करे वो नरोत्तम कहाता है।
हे परंतप वही सच्चा ज्ञान पाता है।।

कर्म फल के बिना जो कर्म करता रहे।
मुझ परम योगी में वो सदा रमता रहे।।

पाप उसके नष्ट मैं सारे करूँ।
उचित अनुचित भोग उसके मैं हरूँ।।

अंतःकरण जिसका ज्ञान से तृप्त है।
जीवात्मा वही सुख से संतृप्त है।।

योग से अभ्यास से जो मोह माया छोड़ दे।
हे नरोत्तम पुरुष ऐसा प्रलय का मुंह मोड़ दे।।

हे धनंजय भिन्न मुझसे कोई कर्ता नही।
मैं ही सब करता हूँ कोई दूसरा कर्ता नही।।

सुन हे पार्थ असमय में मोह नहीं शोभता।
नपुंसकता त्याग साहस जुटा क्यों दुख भोगता।।

हे पार्थ अब त्याग संशय गांडीव को कर में उठा।
सव्यसाची हे धनंजय साहस को मन में बिठा।।

अर्जुन उवाच
आप ही सब में समाहित आप ही भगवान हैं।
आप ही हैं देह धारी निर्गुण प्राण अपान हैं।।

आप ही हैं परम अक्षर विश्वरूप अनादिका। 
अचल अविचल चल चराचर मोक्षरूप प्रदायका।।

दिव्य से भी दिव्यतर हैं विराट रूप ईश्वरा।
सहस्त्रकोटि सूर्य सम अखंड ब्रह्माण्ड अधीश्वरा।।

खुल गए हैं चक्षु मेरे अति गोपनीय गीता ज्ञान से।
युद्ध मेरा शुरू होगा गांडीव के शर संधान से।। 

धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे युद्ध में अर्जुन खड़ा।
पाञ्चजन्य जय घोष से रण में कोलाहल बढ़ा।।

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हे कृष्ण



नरहरि छंद
विधान -प्रतिचरण 19 मात्राएँ ,चरणान्त -1112
यति -14 ,5 चार चरण ,दो चरण सम तुकांत

प्रभु हमारी लाज रख लो ,दुख हरो।
हे तरन तारन माधवा ,मन भरो।
हरि केशवा अपराजिता ,अब मिलो।
मन मोहना रवि लोचना ,मन खिलो।


हुलसे जिया राधा पिया ,नित हरे ।
हरि माधवा ,प्रभु श्यामला ,रस भरे।
गोकुल सुधा गोपी जिया ,मन पिया।
वंशी बजी राधा सखी ,खिल जिया।

यशोमति सुत मुरलीधरा ,मन भरा।
विपदा हरो पावन करो, हरि हरा।
शुचि ज्ञान दो प्रभु भान दो ,दुख हरो।
विमल दरस देकर निर्मल ,उर करो।

---

सहमे स्वप्न

काँधे पर टंगा बस्ता
चॉकलेट की बचपनी चाहत
और फिर
बाँबियों-झाड़ियों में से निकलते
वे सांप ,भेड़िये और लकड़बग्घे
मासूम गले पर खूनी पंजे
देह की कुत्सित भूख में
बज़बज़ाते लिज़लिज़ाते कीड़े 
कर देते हैं उसके जिस्म को
तार-तार।
एक अहसास चीख कर
आर्तनाद में बदलता है  
और वह जूझती रही,
चीखती रही,
उसका बचपन टांग दिया गया
बर्बर सभ्यता के सलीबों से।
सपने भी सहमे हैं उस
सात साल की बच्ची के।
सड़कों पर आवाजें हैं
फांसी दे दो !
गोली मार दो !
इस धर्म का है !
उस धर्म का है !
कुत्तों ,भेड़ियों का
कोई धर्म नहीं होता
साँपों की
कोई जात नहीं होती।
एक यक्ष प्रश्न
इन साँपों से इन भेड़ियों से
कैसे बचेंगी बेटियां ?
सत्ता के पास अफ़सोस है
समाधान नहीं।
समाज के पास संस्कारों
के आधान नहीं।
उस बेटी के प्रश्न के उत्तर
इतने आसान नहीं।

(मंदसौर में सात साल की बच्ची का बलात्कार )

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प्रमोद जैन प्रेम


गणितीय रचना
        कामना

गणित के नेग औ चलन हुई कामना ।
अपनी ही चाहों का फलन हुई कामना ।।

जुडना हो जुडें आप , घटना हो घटिये ,
स्वयं से ही स्वयं का गुणन हुई कामना ।।

अपने विचारों के बिगड़ गये अनुपात ,
तेरे - मेरे भाग की चुभन हुई कामना ।।

अपने ही वर्गों के मूलों में स्वयं हुये ,
अपनी जमीनों में दफन हुई कामना ।।

बात - बात घातों के भी घात - प्रतिघात हुये ,
अपनी ही घातों में गगन हुई कामना ।।

तिरछी नजरियों के तिर्यक गुणन हुये ,
अपने ही मन में मगन हुई कामना ।।

  गजल
                       फूलों का हार

मौसम है गर्म फूल के कपडे उतार दो ।
फिर झुलसी हुई देह को पानी की धार दो ।।

चंदा हमारी रात का है आसमान पर ,
थोडी सी जगह देख जमीं पर उतार दो ।।

जो आखिरी है आदमी अपनी कतार का ,
उसके जो बाद आये उसे भी कतार दो ।।

इठलाता हुआ फूल चलके पास आयेगा ,
तुम भी तो जरा प्रेम से बाहें पसार दो ।।

जो दिल के है करीब मगर फासलों पै है ,
यादों के आईने की तुम जुल्फें संवार दो ।।

दो हदों के बीच में बहती रही है जो ,
सारी हदों को तोड़ कर उसको उवार दो ।।


शब्द

दो लाइनों के बीच में शुमार हो गये ।
हम हासियों में कैद बार - बार हो गये ।।
हम धूल बनके बिखरे थे , दिल के दालान में ,
जो कह दिये गये हैं सो बेकार हो गये ।।
हम अनकहे ही ठीक थे  , दिल के करीब थे ,
होठों पे आके तेरे जार - जार हो गये ।।
कुछ सत्य थे , संकोच में दब कर के मर गये ,
कुछ सत्य  जो कि , धार में मझधार हो गये ।।
बहुरूपियों से हो गये चेहरों को ओढ कर ,
सारे जहां में झूठ के व्यापार हो गये ।।
यूं ठीक था , चुपचाप ही रहते सभाओं में ,
कह कर के बात अपनी गुनहगार हो गये ।।
जब भी हमें पढा गया , पैगाम से लगे ,
हम शब्द थे अब , प्रेम के उद्गार हो गये ।।
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सलिल सरोज

इस जहाँ  में ख़लिश मैं ही हूँ दीवाना  या
रात की ख़ामोशी सुनता है कोई और भी

आसमान के नींदों में चहलक़दमी करके
धरती के  ख़्वाब बुनता  है कोई और भी

हवा  के ज़ुल्फ़ों से बिखरे आफ़ताबों को
ओस की डाली में चुनता है कोई और भी

धूप के टुकड़ों से सिली मख़मली चादर
जिस्म पे अपने ओढ़ता  है कोई और भी

फ़िज़ा के मदहोश होंठों से जाम पी कर 
सुरमई आँखों को मूँदता है कोई और भी 

2
मैं पीने को तो समंदर भी उठा लाता
तेरी निगाहों से क्यों रिहाई नहीं मुझे

महफ़िल झूम उठा है तेरी झलक से
वो तस्वीर तेरी क्यों दिखाई नहीं मुझे 

वो नज़्म तेरे ही गाके मशहूर हो गया
दिलकश तराने क्यों सुनाई नहीं मुझे

चर्चे थे  हमारे  ही  नाम के ज़माने में
ये राज़ कभी भी क्यों बताई नहीं मुझे

मैं  तो बीमार हूँ बस तेरे ही इश्क़ का
मयस्सर होंठों की क्यों दवाई नहीं मुझे

3
अब तुम्हारा रहम नहीं मुझे भी हिस्सेदारी चाहिए
मुल्क  चलाने  के वास्ते मुझे भी भागीदरी चाहिए

हर हाथ हो  मज़बूत अपने नेक इरादों को लेकर
अपना भाग्य लिखने को मुझे भी दावेदारी चाहिए

सदियों तक  हुआ राज़तंत्र  भेष बदल बदल कर
तुम्हारी नियतों  में तो  मुझे भी ईमानदारी चाहिए

न ही लालच,न सहारा और न ही कोई होशयारी
गर हूँ वतन का हिस्सा तो मुझे भी खुद्दारी चाहिए

कैसे छल कर जाते हो हर एक अपने वायदों से
गर अब नहीं संभले तो मुझे भी राज़दारी चाहिए 

4
मैं पीने को तो समंदर भी उठा लाता
तेरी निगाहों से क्यों रिहाई नहीं मुझे

महफ़िल झूम उठा है तेरी झलक से
वो तस्वीर तेरी क्यों दिखाई नहीं मुझे 

वो नज़्म तेरे ही गाके मशहूर हो गया
दिलकश तराने क्यों सुनाई नहीं मुझे

चर्चे थे  हमारे  ही  नाम के ज़माने में
ये राज़ कभी भी क्यों बताई नहीं मुझे

मैं  तो बीमार हूँ बस तेरे ही इश्क़ का
मयस्सर होंठों की क्यों दवाई नहीं मुझे    

सलिल सरोज
B 302 तीसरी मंजिल
सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट
मुखर्जी नगर
नई दिल्ली-110009
Mail:salilmumtaz@gmail.com

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सुशील यादव


वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई के बलिदान दिवस पर
##

तुम रक्षक हो सीमा-प्रहरी ,पथ में आगे बढे चलो
पहाड़ दुर्गम  को लाघों,दुरूह घाटी चढ़े चलो
मानवता के तूल तुम्ही  ,मिट्टी के हो कारीगर
बिन मन्दिर पूजे जावो ,मूरत वो भी  गढ़े चलो
#
एक दिया तम में रखना ,एक जले आधी आगे
हो अडिग विश्वास तुम्हारा ,सर-पैर ले दुश्मन भागे
सीमा से जब वापस आओ ,माँ के लाल बहन-वीरा
हर  सुहागन दृग देखना , कैसे सोये दिन जागे
#
शांति जिसने जकड़ लिया, 'पर' अहिंसा के हैं काटे
मक्कारी  चादर ओढ़े ,परचम जिहाद के  बांटे
मजहब के चण्डालों का,मखौल क्यों नहीं  उड़ाये ,
इनकी मकसद के जड़ को,क्यों न अभी कतरें- छांटे
#
लक्ष्मी-बाई सा साहस ,अपने भीतर आप भरो
जीवन शब्दकोश निकालो ,कायरता से काश डरो
लोहा लेने की बारी , कतार पीछे  क्या रहना
जन-जन में चिश्वास जगे ,आपातकाल उसे  लड़ना
#
मर्दानों की शक्ति लेकर , एक रानी  रण में आई
उम्र की कोमल काया थी ,उतरी न थी  तरुणाई
अंग्रेजो को रण में तब ,कैसे  खूब छकाती थी
वो थी  रानी झाँसी या ,संदेश भरी  पाती थी

16.6.18
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राजकुमार यादव


हर आने जाने वालों का चेहरा पढ़ रहा हूं
लोग सोच रहे है कि मै क्या पढ़ रहा हूं.

अपनी बेरूखी जिंदगी से प्यार हो गया है
अपनी जिंदगी के लिए दुआ पढ़ रहा हूं

हवाओं पे ऊँगुलियों से कोई लिख कर चला गया
मैं तो सिर्फ उसका ही लिखा पढ़ रहा हूं

नहीं भाती मुझे आपकी सियासत साहेब!
इश्क के जुर्म में किताब ए खुदा पढ़ रहा हूं

सड़क पे भीख मांगते बच्चों की किस्मत क्या
दस रुपया देने के बहाने उनके हाथ की रेखा पढ़ रह हूं.

आज रुख बदले है इन हवाओं ने अपना
जमाना मंगल  पे गया,मैं अभी चिट्ठियां पढ़ रहा हूं.


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चंचलिका शर्मा


" भूख "

भूख तुम कैसी
दिखती हो , ज़रा बताना
किस रुप रेखा की
तुम बनी हो ?......

एक तुम ही तो हो
जो कभी किसी से
कोई भेद भाव
नहीं रखती हो .....

हर किसी को
बेहद चाहती हो
बड़ी खूबसूरती से
याद दिला जाती हो .....

बच्चा बिलख कर
रो उठता है
तुम उसे अपना
एहसास दिला जाती हो .....

तुम्हारा वजूद वही
मगर अलग अलग
घरों में तुम्हारी ख़ातिरदारी
अलग अलग होती है .....

गरीब के घर
तुम संतुष्ट नहीं
रुखा सूखा , अतृप्त
रह जाती हो .....

अमीर के घर
तुम खुश जरुर दिखती हो
मगर कभी कभी शायद
ऊब सी भी जाती हो .....

कहीं कहीं तुम्हारी
अवहेलना भी होती है
समय से परे हटकर
निस्तेज कर दी जाती हो .....

पर एक बात तो तय है
खुश होकर भी तुम याद आती हो
दुःख में भी कहाँ कोई भूल सकता
तुम अपनी याद दिला जाती हो ....

तुम्हारा जाति बंधन नहीं
न ही कोई भेद भाव है कहीं
फिर क्यों अलग अलग थाली में
व्यंजन अलग परोसी जाती है ? ......
----- .
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जितेन्द्र वर्मा

रात ज़िन्दगी
दिखाती जो सपने
मिथ्या ज़िन्दगी

कहे ज़िन्दगी
हर पल जी मुझे
पल ज़िन्दगी

हमने देखा
ख़ूबसूरत दृश्य
खिली ज़िन्दगी

भागे ज़िन्दगी
मौत से साथ दौड़
हारी ज़िन्दगी

अजूबा लगे
यह कैसी ज़िन्दगी
जादू ज़िन्दगी

कहे ज़िन्दगी
जी लो मुझे जनाब
मरना तो है

एक उत्सव
रोज़ होता है जैसे
जियो ज़िन्दगी

मंजिल दूर
ज़िन्दगी है हांपती
कहाँ हो तुम?

गीत ज़िन्दगी
बजाती मन वीणा
बोले अन्खियां

रेत जिन्दगी
फिसले जो मुट्ठी से
पानी से टिके

कैसे ऒर क्यों
कोई छोड़ जाता है
जॆसे ज़िन्दगी?

दिल-दिमाग
करे जुगलबन्दी
सही ज़िन्दगी

छुपाये दर्द
जीता रहता हूँ मैं
दर्दे - ज़िन्दगी

पूरा सच है
यह जो मिली ज़िन्दगी
सब झूठ है

सब झूठ है
जो ललचाता हमें
सच ज़िन्दगी

जितेन्द्र वर्मा
ए ४८ फ्रीडम फाइटर एन्क्लेव
नयी देहली - ११०६८
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  अमित 'अहद'


  
ग़ज़ल
काश ऐसा समाज हो जाये
प्यार जिसका रिवाज हो जाये

प्यार ही प्यार हो दिलों में बस
ठीक सबका मिज़ाज हो जाये

कोई भूखा मरे न दुनिया में
इतना सस्ता अनाज हो जाये

चूर हैं जो थकन से बरसों की
उन पलों की मसाज हो जाये

जो बहुत ही गरीब हैं जग में
मुफ्त उनका इलाज हो जाये

मज़हबी रोग से जो पीड़ित हैं
अब तो उनका इलाज हो जाये

जानता हूँ फरेब देगा वो
कल जो होना है आज हो जाये

ऐ ख़ुदा हर किसी के दिल में अब
प्यार का इम्तिज़ाज हो जाये

लुत्फ बढ़ जाये और उल्फ़त का
दूर तेरी जो लाज हो जाये

ऐ ख़ुदा इस जहान में हर सू
बस मुहब्बत का राज हो जाये

शायरी तो 'अहद' बहुत कर ली
अब ज़रा कामकाज हो जाये !

                 
    अमित 'अहद'
    गाँव+पोस्ट -मुजफ़्फ़राबाद
    जिला -सहारनपुर (उत्तरप्रदेश )
    पिन कोड़-247129
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रमेश शर्मा


दोहे रमेश के  रमजान ईद  पर
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चलो मनाएँ ईद हम,सबको लेकर साथ!
भुला पुरानी दुश्मनी, ले हाथों में हाथ! !

सीमा खुशियों की सभी,गई तुरत वो फाँद!
आया जैसे ही नजर,.....उसे ईद का चाँद! !

रही हमेशा देश को, यही मित्र उम्मीद!
ईद मनाएँ साथ में, हरिया और हमीद!!

रोजाना फिर ईद है, हर महीना रमजान !
हमने अंदर का अगर,मार दिया शैतान !!

जाते-जाते भी यही, सिखा गया रमजान !
होती है हर धर्म की, ...कर्मों से पहचान !!

आंसू जिसने दीन का,..लिया हमेशा चूम !
रहमत से रमजान की,हुआ न वो महरूम !!

बरकत की सौगात है,   ..महीना ये रमजान !
दिल से अपने कीजिये, हाथ खोल कर दान !!

निर्बल का लाचार का, रखें हमेशा ध्यान !
देता है पैगाम ये , ....पाक माह रमजान !!

भूखे और गरीब को, दिया नहीं यदि दान !
कैसे होगा सार्थक, .......यह तेरा रमजान !!

भूखे के मुंह में कभी , दिया नहीं इक ग्रास !
फिर तो तेरा व्यर्थ है, किया हुआ उपवास !!

रोजा रखे रसूल तो,  .राम रखे उपवास !
अपना अपना ढंग है,करने का अरदास !!

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प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘


दुर्गावती

24 जून रानी दुर्गावती बलिदान दिवस पर



गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का
दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने
दिये कई है रत्न देश को माँ रेवा की घाटी ने

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी
गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी
प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था
हरेक दिशा में चमकदार सूरज सा चढता जाता था

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राज्य अटकता था
बादशाह अकबर की आँखों में वह बहुत खटकता था

एक बार रानी को अकबर ने स्वर्ण करेला भिजवाया
राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

बदले में रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया
और कूट संकेत रूप में उसे आगरा पहुंचाया

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा
बढा क्रोध अकबर का रानी से न थी वांछित आशा

एक तो था मेवाड़ प्रतापी अरावली सा अडिग महान
और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

घने वनों पर्वत नदियों से गोंड राज्य था हरा भरा
लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

आती हैं जीवन में विपदायें प्रायः बिना कहे
राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ
विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

रानी की शासन क्षमताओं, सूझ बूझ से जलकर के
अकबर ने आसफ खाँ को तब सेना दे भेजा लडने

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा
आसफ खाँ सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा  

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला
नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार
युद्ध क्षेत्र में रण चंडी सी उतरी ले कर में तलवार

युद्ध हुआ चमकी तलवारें सेनाओं ने किये प्रहार
लगे भागने मुगल सिपाही खा गोंडी सेना की मार

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ
काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

भूमि बडी उबड खाबड थी और महीना था आषाढ
बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले में थी बाढ

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार
तेज धार में हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

तभी फंसी रानी को आकर लगा आँख में तीखा बाण
सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

सेना का नेतृत्व संभालें संकट में भी अपने हाथ
ल्रड़ने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विश्वास

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस
बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढें जोश और हाहाकार
दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार
तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है माँ रेवा के पानी में
जिसकी आभा साफ झलकती हैं मंडला की रानी में

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला में ब्याही थी
सारे गोडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

असमय विधवा हुई थी रानी माँ बन भरी जवानी में
दुख की कई गाथायें भरी है उसकी एक कहानी में

जीकर दुख में अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान
24 जून 1564 को इस जग से किया प्रयाण

है समाधि अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार
गौर नदी के पार जहाँ हुई गोंडो की मुगलों से हार

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार
बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दें जो उपहार

कभी दगा देती यह दुनिया कभी दगा देता आकाश
अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास


A 1 एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर 482008

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आशुतोष मिश्र तीरथ


स्त्री रूप तेरे


हे स्त्री वह भी तुम्ही हो
जब धरातल पर मैं आया
सर्वप्रथम तुम्ही ने वात्सल्य
प्रेम से मुझको सहलाया

हां वह भी तुम्ही हो
बड़ा होते ही जिसका स्नेह मिला
तुम से लड़कर भी डरता
और जिसे मैंने दीदी कहा

है इसमें भी को शक नही
कि स्त्री ने मुझे मजबूत बनाया
सलाह से दादी के मुझको
गया था काजल बुकवा लगाया

हे स्त्री वह भी तुम्ही हो
जो मुझे मारकर पढ़ाती थी
मेरी कमियों को छुपा अक्सर
खूबी को ही बताती थी
हे स्त्री तेरा सम्बन्ध सलोना
बुआजी कहलाती थी।।

जरा और बड़ा होने पर
इक परी बन तुम आई
अधिक कहीं तुम मुझसे
परिवार को थी भाई

होने लगी थी अब मुझे
तुमसे छुटकी बहुत जलन
क्योंकि सबकी प्यारी अब तुम
गई थी घर में बन

हे स्त्री सम्बन्ध है एक और अनमोल
जिसे हम मित्र कहते हैं
होवे जो कुछ मन में अपने
आगे उसके विचार रखते हैं

है पवित्र सबसे सम्बन्ध यह
इस मायावी जग में
प्रेम सहयोग की भावना होती
मित्र के प्रिये रग - रग में

हे स्त्री वह भी तुम्ही हो
जब जीवन लेता मोड़ नया
जब जीवन साथी बन तुम आती हो
इस लालची संसार में भी
अर्धांगिनी कहलाती हो

हे स्त्री प्रिये पावन
रूप तेरे अनेक सुहावन
चाची ताई मामी मौसी भी हैं रूप तेरे
हे स्त्री तुमने
बनकर के नानी
सुनाई थी जो मुझे कहानी
है वह आज भी याद मेरे

हे स्त्री बारम्बार तुम्हें
तीरथ करे प्रणाम है
दुर्गा काली चण्डिका
भी तुम्हारा नाम है।।
---.

बहुत दिनों पश्चात

अपना आज का भारत


यह भारतीय  देश  है ऐसा
जो अपने बेटों पर रोता है।
कुछ शहीद यहाँ तो बाकी
व्यक्ति भ्रष्टाचारी  होता हैं।।

भ्रष्टाचार बढ़ा यहाँ पर इतना
लोग कहते विकास न होने देंगे।
करना कार्य आदत नहीं हमारी
सरकारी अनुदान दौड़ के लेंगे।

लाइट लगेगी जो राहों पर
उसको भी हम ही चुराएंगे।
घर के सामने ग्राम समाज
को हम अपना बतलाएंगे।।

बड़े बड़े पदों पर भारत में
अब श्री टोटी चोर बैठते हैं।
जो खा खिला लैट्रिन गुर्गों को
भारत को दिन रात लूटते हैं।।

कभी कभी कोई सुपर एक्टिव
डिटेक्टिव कर दिया जाता है।
तत्पश्चात आतंकवादी अनेक
राष्ट्रीय   शहीद  कहलाता  है।।

कुछ ऐसे भी थे वीर यहां जो
खोज अनशन की कर गए।
भूख हड़ताल में भी कईयों के
वजन यहाँ पर बढ़ गए।।

भ्रष्टाचार से मन मेरा अब
यारों बहुत घबराता है।
हमेशा न सही कभी-कभी
मन मुझको बेईमान कह जाता है।

आशुतोष मिश्र तीरथ
जनपद गोण्डा
कापीराइट एक्ट के अंतर्गत

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डॉ. रूपेश जैन 'राहत'

"विशुद्ध वंदना"

वेष दिगम्बर धारी मुनिवर करुणा अब जगाएँगे

पार करो खेवैया नहीं तो हम भव में ठहर जाएँगे

भक्ति भाव से आपको पुकारें हे! विशुद्ध महासंत

कृपा प्रकटाओ अपनी नहीं तो हम किधर जाएँगे

आपने ठहराई आस अब लेता हूँ दोनों हाथ पसार

नाम आपका लेकर बाधाओं से हम पार हो जाएँगे

कर्म किये भवों से खोटे पास आपके अब आये हैं

ले लो शरण में हमें भाग्य हमारे भी सँवर जाएँगे

विषयों का विष पीकर विषधर से क्या कम हैं हम

दे दो आशीष हमें इस गरल से हम मुक्त हो जाएँगे

सब करके देखा फिर भी चैन कहीं न मुझको आया

आपने ठुकराया प्रभु तो अब हम और कहा जाएँगे

लड़ता रहा जग से, आत्म से आयी युद्ध की बारी है

थामलो हाथ मेरा गुरुवर हम भी भव से तर जाएँगे

अंत अब नमन करूँ श्री आचार्य परमेष्टि मंगलकार

चरण रज माथे धरूँ 'राहत' कर्म कंटक मिट जाएँगे
--


गाफ़िल


ग़म में ग़ाफ़िल दीवाना इतना, कि

ग़म की अंधेरी रात में

ग़म ही चिराग़ हो गया।

जलती रही उसकी चिता रात भर

बिना किसी के आग दिए ही

अपने ग़म कि गर्मी से राख हो गया।

सहर की हवाओं ने उड़ा दी

उसकी चिता की राख

फ़िज़ा में दूर कही वो खो गया।

सर्द हवाओं ने हमें बताया

बदनसीब दीवानों का

क़िस्सा और एक ख़ाक हो गया।

---.
  सोच रहा हूँ


एक दिन मेरे दोस्त को, मैं लगा गुमसुम

बोला वो, क्या सोच रहे हो तुम

बातें बहुत सी हैं

सोच रहा हूँ, क्या सोचूँ, बोला मैं।


अलग-अलग हैं कितनी बातें

क्या-क्या हैं नए सन्दर्भ

विषयों की विविधता इतनी

चुनना बना जी का जाल।


दुःख पे जाऊं

जो लम्बे समय तक रहता है याद

या सुख पे, जो विस्मृत हो जाता है जल्दी

यादों से हर बार।


पिछले करीब समय में, क्या मिला मुझे

जोर शायद इसपे डालूँगा

परन्तु संशय बना है अभी भी

क्या यही है सही विषय सोचने का।


झंझावात ये जटिल

झकझोर रही कपाल

सचमुच सोचना क्या है मुझे

प्रश्न है ये जंजाल।



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बृजमोहन स्वामी "बैरागी"


 
तब हम किताबें और कापियां फाड़ते थे
जैस एक कम उम्र की औरत
पागलों की तरह अपने प्रेमी की क़मीज़ें फाड़ती है।
बात वहीं पर खत्म होती जाती
जहां से हम कायनात देखते सारी,
देखना;
न देखने का पर्यायवाची था।
एक लड़की रंगोली बना रही थी
मेरे दोस्त के दिल पर
और मैं अकेला खुद को बचाते हुए
आंदोलन में इतना गहरा कूदा
कि चौराहे पर जनता इकट्ठा हुई,
दुआ कीजिए कि
'जनता' कोई फूहड़ शब्द नहीं है
और यह भी
कि 'एक अनार सौ बीमार' जैसे मुहावरे का अर्थ
सभ्य लोग जानते थे।
यह अमिताभ बच्चन की किसी दिलफेंक फिल्म की तरह घटित हुआ
जब मेरा दोस्त प्यार में डूबा,
इंतज़ार करने का उपकरण मेरे पास होता तो
उदास रसोई में बिल्लियां जूठन का जश्न मनाती पकड़ी जाती
और छत पर टंगी मकडिय़ां सबसे गिरीह नींद सोती।
दुनियां बचाने की फ़िक्र में
कोई झमेला नहीं कर रहीं थी भाषाएँ
मैंने क्रांतिकारियों को कभी प्यार से बोलते नहीं सुना,
जिस क्षण मेरा दोस्त बेवज़ह मारा गया
मैंने फ़टी हुई जेब की जगह देखा
मेरी आत्मा का रंग काला था।
और आप यकीन मानें
प्यार उस वक़्त का एक अनोखा शब्द था
जिसे जब हमने समझने की कोशिश की,
वे स्कूल के दिन थे
और मैं आज भी डरता हूँ
अख़बार के परिवार परिशिष्ट से
जो पुरुष के लिए अलग है, औरत के लिए अलग।
उस वक़्त हमसे कोई बोलता
तो हम सीधे उसकी गिरेबान में धँस सकते थे,
रेलगाड़ियों में कई दफा कुल्फी खाते हुए
मेरे दोस्त समेत कई लोगों ने यह समझा कि
"आत्माएं" भाप से चलने वाले डिब्बों में रहती है
जो किसी पटरियों से जुड़े होते हैं,
उनकी जीभ और होंट उनसे आगे-आगे चलते,
वे ब्रह्माण्ड की स्मृतियों को खोद देते पूरी जिंदादिली से।
ख़ैर,
जैसे-तैसे मैं प्यार को जलाकर वहां से लौटा
तो राष्ट्रगान बज़ा मेरे कानो में
और मुझे लगा कि सावधान खड़े होने पर ये ज़रूरी है
कि हम इस पर गहनता से सोचें
कि आखिर देश के अनगिनत लोगों तक पहुंचने वाला सरकारी भोंपू
कब अपनी परिभाषाएं बदलेगा....
हम उन दिनों में जी रहे थे
जहां
सार्वजनिक शौचालयों से सार्वजनिक चौराहों तक
पागल आदमी उन बैनरों के नीचे खड़े हैं
जिन पर सामाजिक जागरूकता की नई संस्थाओं के
शुभारंभ की घोषणाएं हैं।
और इन सबके दौरान
एक पुरानी खुशबू खिड़की पर झुकी हुई झांक रही होती है
पुरानी गलियाँ
पुरानी लड़कियां
पुराने गीत
पुरानी भूमिकाएं...
अपने नाख़ून चबाती हुई ओझल होती हैं।
मुड़कर देखो, एक बात और...
जब वह मरा तो मैं उसके सिरहाने खड़ा था,
उसने कहा कि एक कविता सुनाओ
प्यार और आत्मा के बारे में
आंदोलनों और क्रांतियों के बारे में
मैं चुप रहा कई देर।
उस दिन आसमान पूरी तरह सफेद था खांड की तरह चिपचिपा,
उस पर लिखा था -
प्यार दरअसल एक चौराहा है।

(पेरुवीयन क्रांतिकारी हिल्डा गेडिया को समर्पित)


- बृजमोहन स्वामी "बैरागी"
[युवा लेखक और आलोचक]
सम्पर्क - birjosyami@gmail.com

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रामचन्द्र दीक्षित 'अशोक'

********मैं तो प्रकृति हूं*********

*****************************

संवेदना सहजता की मैं सरल प्रवृत्ति हूं

ज्ञान-विज्ञान दान में न कभी मैं रिक्त हूं

हृदय खोल मांग लेना मैं उदार चित्त हूं

मैं ही तुम्हारी पोषक मैं तुम्हारी वृत्ति हूं

***

सभी लोकों दिशाओं में मैं अविजित हूं

मैं ही तो सूरज चांद तारों में ज्वलित हूं

कर्म अकर्म सभी में मैं ही तो फलित हूं

मैं भला बुरा रास्ता चलने की संगति हूं

***

जन्म से लेकर मृत्यु तक मैं निमित्त हूं

अच्छी बुरी गतिविधि मैं अंकगणित हूं

भोगना परिणाम हो मैं बहुत त्वरित हूं

सुख दुख की स्थिति बराबर निहित हूं

***

मैं कहानियां व कथानक में कथित हूं

दृष्टिकोण मानव में मैं ही तो सुचित हूं

रचनाओं में सदा रहता अन्तर्निहित हूं

मैं कवियों व कविताओं का कवित्त हूं

***

मैं सब में समान भेदभावों से रहित हूं

न किसी के प्रति दुराग्रहों से ग्रसित हूं

किसी के प्रभावों से मैं न प्रभावित हूं

मैं ही प्रत्येक पक्ष में पक्षपात रहित हूं

***

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डॉ राजीव पाण्डेय

माँ मेरे आस पास

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रोम रोम रोमांचित करता, साँसो का आभास।

माँ मेरे आस पास। माँ मेरे आस पास।

कृष्ण सरीखा रुप बनाकर, मस्तक काला टीका।

नजर टोटके सभी बचाती, सीखा कहाँ  सलीका

खुशियों में खेले लाल लड़ैता ,दूर रहें संत्रास।

रात शयन के समय लोरियां,प्रातः मंगल गाती।

रोज प्रार्थना शाम आरती ,सब कुछ ही सिखलाती

उसकी शिक्षा के कारण ही,है संस्कार का वास।

फ़टी पेंट में बार बार ही ,उसने पैबंद लगाये।

सारीअभिलाषा पूरण कर ,नूतन पंख सजाये।

आँसू अंदर अंदर रोये,  चेहरा नहीं  उदास।

कलम बुदक्का और पट्टिका, सुबह-सुबह चमकाती।

चटनी संग दो रोटी देकर, स्कूल छोड़ने जाती।

मन्दिर मांगे रोज मनौती, हो बेटा कुछ खास।

काला कौआ काट खायेगा, इससे भी समझाया

इसीलिये मैंआजतलक भी, झूठ बोल ना पाया।

उसकेआचरणों को ही माना भजन आरती रास।

तुलसी नीम का काढ़ा पीकर, भागे सारे रोग

आटे वाले पुए आज तक, लगते छप्पन भोग।

ऐसी माँ के चरणों का मैं, सदा रहूँ मैं दास।


©डॉ राजीव पाण्डेय

कवि,कथाकार,सम्पादक,समीक्षक

1323,भूतल, वेवसिटी

गाजियाबाद


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मोहित नेगी मुंतज़िर

1ग़ज़ल

तुझको जीवन से जाने न दूंगा कभी
हाथ  फैला  न  ख़ैरात  लूंगा  कभी।

मेरी  हसरत  है  ऊंचाई   दूंगा  तुझे
ज़ीस्त में कुछ अगर कर सकूँगा कभी।

हम ज़बां पा के जो बात कह ना सके
उसको कह जाता है कोई गूंगा कभी।

मेरे  तेवर  से  पहचान  लोगे  मुझे
अपने तेवर बदल ना सकूँगा कभी।

टालता है यूँ घर चलने की बात वो
अब नहीं बाद में घर चलूंगा कभी।

© मोहित नेगी मुंतज़िर

2. कविता

बूढ़ी सांसें चल रही थीं
  सहारे लाठी के
  मैं हथप्रभ था
  झुका हुआ था शर्म से
  और सोचता था
  काश!
  मैं कुछ कर पता...
  मगर अफ़सोस!
  इंसानियत की हुई हार...
  सिवाय सोचने के
  कुछ कर न पाया मैं!

उस कंपकंपाते बदन को देखकर
हो रहा था प्रतीत
मानो डोल रही हो धरती
और कांप रहा हो आकाश!
देखता रहा स्थिर, अविचल,
हताश, उदास, शोकपूर्ण
  गंभीर नज़रों से
  क्या है जीवन??
आखिर इतनी असमता क्यों??
आखिर दुख का प्राकटय
इतना निर्मम भी होता है??
क्यों सूख जाते हैं
अपनेपन के स्रोत??
क्यों नदी सा उफ़ान भरता जीवन
कहीं लुप्त हो जाता है...
क्या जिजीविषा हो जाती है कम??
या रूठ जाती है किस्मत??

वो चलता रहा सड़क पर
एक निडर पथिक-सा
आज देखता हूँ
कि हाथ फैला लेता है वह
हर किसी के सामने
क्या न रहा होगा स्वाभिमान
जीवन में उसके??
या केवल ज़िन्दगी जीना ही
अब उसका स्वाभिमान बन गया है।

©मोहित नेगी मुंतज़िर

जीवन परिचय
नाम- मोहित नेगी
उपनाम - मुंतज़िर
जन्मतिथि- 12 नवम्बर 1995
जन्मस्थान - सौंराखाल गांव, रुद्रप्रयाग उत्तराखंड।
शिक्षा - सिविल इंजिनीरिंग(पॉलीटेक्निक), बी. ए., एम. ए. (शिक्षा शास्त्र, लोक प्रशासन), Master diploma in computer education आदि।

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, सैंकड़ों साहित्यिक मंचों से काव्यपाठ, हिन्दी तथा उर्दू के साथ  गढ़वाली के प्रसिद्ध कवि।

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अविनाश ब्योहार

1) कोर्ट में
मुकदमे बाजी
बहुत बढ़
गई है।
यही बात
मेरे जेहन में
कील की तरह
गड़ गई है।।
आज मुकदमा लड़ना
काम है
हूश का।
इसीलिये अदालत
मुझे लगती है
कुंदा आबनूस का।।

2) वे मुंह माँगा
दहेज लेते हैं!
फिर नववधु
को क्यों
ग़रक़ी देते हैं!!

3)आजकल लोग
केवल इसीलिये
भलाई करते हैं!
क्योंकि वे
खुदनुमाई करते हैं!!

4)हमारी व्यवस्था
हमारे लिये
खुद ही
गाली है!
एक तरफ जाम
टकरा रहे हैं
दूसरी तरफ
खुश्क साली है!!

5)वे देश की
आबरू को
तार तार करेंगे!
ऐसे लोग
क्या गम
गुसार करेंगे!!
---

न्यायालय के नाम से
मुझे होती है कोफ्त!
क्योंकि वहाँ न्याय की
होती है खरीद फरोख्त!!
पुलिस का काम है
देशभक्ति और जनसेवा!
लेकिन वह आम लोगों से
खाती है मेवा!!
रोजगार कार्यालय में
रोजगार का टोटा है!
क्या करें बेरोजगारों
का भाग्य ही
खोटा है!!
आप कहेंगे कि
कविता उलटबांसी है!
दरअसल प्रजातंत्र नें
देश की तस्वीर
ऐसी ही तराशी है!!
---.

प्रजातंत्र में
वर्ण व्यवस्था का
ये हाल है!
कि राजपूत जी
का लकड़ी का
टाल है!!
अब क्या करें
महिमा मंडित!
पान की गुमटी
खोलकर बैठा
है पंडित!!
जो ज्ञान का
कोष था वो
हो गया सून!
कलम चलाने वाला
कायस्थ बेच
रहा परचून!!
अब बात करें
यादव जी के
हेयर कटिंग
सेलून की!
वे कहते हैं
हम तो जुटा रहे
रोटी दो जून की!!
कभी किसी नें
ये बात सोची!
कि शिक्षा विभाग का
मंत्री होगा मोची!!
बेरोजगारी एक
बवाल है!
शिक्षा व्यवस्था पर उंगली
उठाता सवाल है!!
लोग सरकारी नौकरी
पर इस कदर
मर रहे हैं!
कि उच्च वर्ण के
लोग भी स्वीपर
के लिये आवेदन
कर रहे हैं!!
जब वर्ण व्यवस्था
नहीं हैं तो
जातियाँ क्यों हैं!
बुझे हुये दीपक में
बातियाँ क्यों हैं!!
इसीलिये जाति नहीं
आदमी का केवल
नाम होना चाहिये!
इस अधुनातन युग
का ऐसा अवाम्
होना चाहिये!!
क्यों कि ऐसी
प्रजातांत्रिक व्यवस्था से
मिला दारूण दुःख है!
आँख का अंधा
नाम नयनसुख है!!
----
1) अगवानी हेमन्त
की करती
है शेफाली!
धूप गुनगुनी
सेंक रही
है देह!
रिश्तों की
गागर से
छलका नेह!!
यौवन फूलों
पे है,
अलि बजायें तालि!
चंपा, जूही, बेला
से महके
हैं सपने!
आजकल रिसाला
में गीत
लगे छपने!!
कौवे बैठे
मंगरे पर
गाते कव्वाली!

2) हो रही है
संझा बाती
शाम ढले!
खुशनुमा मौसम
है सर्द
हवा है!
दरीचे का
खुलना जीवन
रवा है!!
नखत फलक
पर मानो
दीप जले!
पेड़ों में कोटर
कोटर में
नीड़ है!
किस धुन
में चलती
शहरों की
भीड़ है!!
खंजन से
नयनों में
स्वप्न पले!

3) स्वप्न में
बहने लगी,
रौशनी की
इक नदी!
अंधकार के
साये अब
लगते हैं बौने!
भर भर
लाई उजाली
खुशियों के दौने!!
यौवन का
भार हुई
डाल फूलों
से लदी!
संबंधों को
जीते हैं
देहरी, द्वार, झरोखे!
जो उपहास
उड़ाते इनका
वे खाते हैं धोखे!!
जीवन की
आपा धापी में
खोई है
नेकी बदी!
---
//आक//

पतझर में
फूल रहे आक!
सूरज की किरणें
अंगार हो गईं!
सुतली सी
नदिया की
धार हो गईं!!
करतीं हवायें
ताक झाँक!
तपती है धूप
गर्म तवा सी!
सूखे हैं कंठ
दिशायें प्यासी!!
मगरे पर बैठा
है काक!

//कलेवर//
सूरज धधक
रहा है उसके
तल्ख हुये तेवर!
किरनें हैं
लावा सी
बरस रहीं!
प्यासी हिरनी
जल को तरस रही!!
लुटि पिटी
हरियाली उसके
बंधक हैं जेवर!
पतझर से
मुकरा है
हरा भरा नेह!
पत्तों की
पेड़ों से
छूट रही देह!!
गरम मिजाजी
मौसम का
भोंडा हुआ कलेवर!


अविनाश ब्योहार
रायल एस्टेट,
माढ़ोताल, कटंगी रोड
जबलपुर।

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सोनू हंस


उर्मिला विरह


सुन रे ओ मलय पवन
मेरा इतना बैरी न बन
तेरी ये बयार मुझे दहकाती
सुरभि न तेरी मुझे महकाती
मनमानी कर मुझे सतावे क्यों?
मुझ बिरहन को जलावे क्यों?

री कुसुम-कली क्यों इठलाती
क्या तू मुझको है बहकाती?
तू स्निग्ध गात पात संग अठखेली
मुझ पर मनसिज की भौंहें खेली
पर विफल कुसुमायुध के आयुध सारे
रहूँ अडिग अनंग शर कोई मारे

घन घन-घनकर घने बरस रहे
ये नयन प्रियतम को तरस रहे
मेरे कंत जबसे गए कानन
अक्षि बरसे बनकर सावन
क्या हृदय में मुझको वे लाते होंगे!
क्या बरखा-बिंदु उन्हें भी जलाते होंगे!

पर जानूँ उनको वे कर्तव्य-विमुख न होंगे
बिना पूर्ण प्रण किए मेरे अभिमुख न होंगे
हैं नाथ धर्म के गहन वन में
कौंधा विचार उर्मि के मन में
सौमित्र नहीं विषयगामी बनूँगी
स्वामी तुम्हारी ही अनुगामी बनूँगी

बिन पिय विपद् हाँ झेलूँगी
मैं उर्मि समय-ऊर्मि में खेलूँगी
पर नारी मन है भर आता ही है
बिन सींचै प्रसून कुम्हलाता ही है
बरसेंगे मेघ, मलय-कुसुम भी होंगे
पर नाथ अहा! अभी संग न होंगे।


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दुर्गा प्रसाद प्रेमी


(01)
!प्रेमी पंछी प्रेम का सबै नबाऊँ शीश।
जनहित में लडिय़ां लिखूँ ईशवर का आशीश।
ईशवर का आशीश पढो सब लुत्फ उठाओ।
शब्द शब्द आशीष ज्ञान की शिक्षा पाओ।
कह प्रेमी कविराय समझ शब्दों की बानी।
पढ लिख बने महान शब्द जो महिमा जानी।
(02)

निर्बल हूँ लाचार मैं नमन मेरा व्यापार।
दीन हीन से दोस्ती यही मेरा व्योहार।
यही मेरा व्योहार खुशी मन को मिलती है।
दीन हीन की दुआ मेरी किस्ती चलती है।
कह प्रेमी कविराय सहारा कर्म कमाया।
जीवन का सुख मिला हीन को गले लगाया
(03)
धर्म बुरा न होत है होता तुक्ष्य बिचार।
बेद कथा उल्टी कहे करता नहीं बिचार।
करता नहीं बिचार राह बतलाये उल्टी।
कह प्रेमी कविराय भरोसा उठ जाता है।
उल्टा तत्थ न कभी काम जग में आता है

(04)
प्यारा हिन्दुस्तान है प्यारे इसके लोग।
मानव मानव एक हैं बुद्धि का संजोग।
बुद्बि का संजोग समझ जो कम पाते हैं।
जाति पाति में फँसे भँवर गोता खाते हैं।
कह प्रेमी कविराय हाट न बिकती बुद्धि।
पा शिक्षा को करो आत्मा अपनी सुद्धि।

(05)
नत मस्तक है हिन्द को हिन्दी को सम्मान।
शान तिरंगा हिन्द की हिंदी जिसकी जान।
हिन्दी जिसकी जान मान है जग में ऊँचा।
वीरों को सम्मान जान दे जिनने सींचा।
कह प्रेमी कविराय तिरंगा मान हमारा।
जय हो भारतवीर अमर गुणगान तुम्हारा।

(06)
दुर्दशा देख अब देश की होता है अफसोस।
नित गोली चलती यहाँ मन में होत क्लेश।
मन में होत क्लेश शेष अब आसहै बाकी।
कह प्रेमी कविराय सुनो सब भारत बासी।
कोई न होगी छूट करो दुशमन को फाँसी।
(07)
राज गुरु नेता सभी करते हैं व्यभिचार।
मूर्ख जनता को करें शब्द बोलकर चार।
शब्द बोलकर चार राज संसद में करते।
कह प्रेमी कविराय भरें सब नोट तिजोरी।
जनता करे सबाल माँग कब होगी पूरी।
(08)
माँगे सुरक्षा देश की चौबन्द हो सब काज।
निर्भय जनता जी सके ऐसा हो जाये राज।
ऐसा हो जाये राज काज कोई बन्द न होबे।
कह प्रेमी कविराय क्या यह सब हो पायेगा।
हिन्द देश का राज शान्ति चल पायेगा।
(09)
शान्त रहो और चुप रहो करता हिन्द पुकार।
इसीलिए तो हिन्द पर होते अत्याचार।
होते अत्याचार करे दुशमन मनमानी।
कह प्रेमी कविराय हिन्द अब नहीं डरेगा।
दुशमन का कोई बार हिन्द अब नहीं सहेगा।
(10)
दया धर्म मन में नहीं जपता राधे राम ।
सत्य कर्म को त्याग कर नित्य करे दुस्काम।
नित्य करे दुस्काम राम का नाम लजाबे।
कह प्रेमी कविराय भक्त अपने को कहता।
झूठ बोलकर नित्य ठगे जनता से पैसा।
(11)
जान गई न जात की चला गया इंसान।
जाति झंझट में गई निर्दोषों की जान।
निर्दोषों की जान मान क्यों जग ने खोया।
कह प्रेमी कविराय देखकर कर दिल है रोया।
जाति हुआ शिकार पसारे पैर है सोया।
(12)
यह मरा या वह मरा मरा सिर्फ इंसान।
हिन्दू मुस्लिम न मरा मरा सिर्फ इंसान।
मरा सिर्फ इंसान सभी की रुह एक है।
कह प्रेमी कविराय न कोई तुर्क सेख है।
जाति झंझट छोड सभी की राह एक है।
(13)
लहू और आहार है सबका एक समान ।
लहू लहू से मिल रहा कर देखो पहचान।
कर देखो पहचान लहू का रंग एक है।
कह प्रेमी कविराय लहू न दो रंग होता।
फिर क्यों मानष जाति पाति फँस खाता गोता।
(14)
हीन द्वारे जाति है चतुर द्वारे ज्ञान।
धनी द्वारे आस है निर्धन के सम्मान।
निर्धन के सम्मान मान निर्धन है करता।
कह प्रेमी कविराय धनी धन झोली भरता।
निर्धन जोडे हाथ धनी न किसी से डरता।
(15)
धनी तिजोरी धन भरा निर्धन खाली हाथ।
नित प्रताड़ित हो रहा निर्धन है बिन बात।
निर्धन है बिन बात साथ न कोई देता।
कह प्रेमी कविराय नित्य वो जुल्म है सहता।
निर्धन बना गुलाम समय न मिलता पैसा।


(16)
समय तीर का आसरा समय तीर निसहाय।
समय रहे साधन मिले असमय नहीं विसाय।
असमय नहीं विसाय काज न असमय होता।
कह प्रेमी कविराय समय नित खाता गोता।
समय न आबे हाथ समय जो बिरथा खोता।
(17)
चार ईंट का चबूतरा कर मन्दिर निर्माण।
जनता को देता फिरै भक्ति का प्रमाण।
भक्ति का प्रमाण कहे मैं रामभक्त हूँ।
कह प्रेमी कविराय भक्ति का अर्थ न जाने।
भक्ति कहते किसे नहीं मतलब पहचाने
(18)
भक्ति भरोसा राम का तजि माया अभिमान।
मन मारे जो आपना औरों का सम्मान।
औरों का सम्मान जगत में भक्त कहाबे।
कह प्रेमी कविराय करे जीबों की रक्षा।
भूख प्यास को त्याग सबै दे बेद दीक्षा।
(19)
बेद दीक्षा दे सबै करबाये जलपान।
ऐसे मानव जगत में होते बहुत महान।
होते बहुत महान बसे मन इनके गीता।
कह प्रेमी कविराय भला जन जन का करते।
देते नित्य आशीष दुआओं झोली भरते।
(20)
साधु का मन साधना तजि मन भोग विलास।
नित्य जपे सतनाम को हरि मिलन की आस।
हरि मिलन की आस जपे नित माला फेरे।
कह प्रेमी कविराय जगाये अलख निराला।
हरि बसे मन आस बही है सन्त निराला।
(21)
सन्त समागम हो जहाँ बहाँ राम का बास ।
तजि माया अभिमान को बैठि सन्त के पास।
बैठि सन्त के पास आस मन होगी पूरी।
कह प्रेमी कविराय बात बिगडी बन जाती।
भँवर बीच में फँसी नाँव किनारे लग जाती।
(22)
सन्त समागम सत्य की सत्य सन्त का नाम।
सत्य सन्त ह्मदय बसे सत्य बिना निसकाम।
सत्य बिना निसकाम सत्य का सन्त भरोसा।
कह प्रेमी कविराय सत्य न हाट बिकाता।
सत्य बचन को पाय सन्त जग मान कमाता।
(23)
कर्म करे तो मन भला सत्य भला संसार।
कर्म करे से धन मिले सत्य राम का द्वार।
सत्य राम का द्वार पार भव हो जायेगा।
कह प्रेमी कविराय मिले पापों से मुक्ति।
भव जाना गर पार सत्य बिन नहीं युक्ति।
(24)
सत्य बिना न को तरा सत्य तरैं सब कोय।
सत्य बिना बैकुण्ठ है सत्य जपो सब कोय।
सत्य जपो सब कोय सत्य बिन सार न दूजा।
कह प्रेमी कविराय करो सब सत्य की पूजा.
सत्य बिना सुख नाय  जगत मे कोई दूजा।
(25)
भोंदू चले बजार को लेने गुड और तेल।
गुड को चींटा खा गया तेल हुआ न मेल।
तेल हुआ न मेल सेल सब हुआ मसाला।
कह प्रेमी कविराय अक्ल का खेल यह सारा।
नेक चूक के हेत थूकता है जग सारा
--
गाँव शहर कूँचे गली इंलिश का है राज।
हिन्दी को बिसराय कर इंगलिश हो सब काज।
इंगलिश हो सब काज राज इंगलिश का भारी।
माता को बिसराय कहे ये माँम हमारी।
कह प्रेमी कविराय पिता को डैड बुलाते।
भूले बेद पुरान जिसे सब शीश झुकाते।

हिन्दी हिन्दुस्तान की आन बान है शान।
प्रेमी कहते मत करो हिन्दी का अपमान।
हिंदी का अपमान पढो और सबै पढाओ।
हिन्दी हिन्द महान इसे यों न ठुकराओ।
कह प्रेमी कविराय सभ्यता बनीं रहेगी।
हिंदी हुई जो लुप्त तो जग में हँसी उडेगी।
--
हरि हरि जपते रहो छाँडि मोंह का फन्द।
सच्चा सुख हरि नाम है बाकि सब गलफन्द।
बाकी सब गलफन्द यहीं सब रह जायेगा।
कह प्रेमी कविराय साथ न को जायेगा।
हरि नाम जगसार पार भव हो जायेगा।


नाम-दुर्गा प्रसाद प्रेमी
पिता का नाम-श्री मोती राम
माता का नाम-श्रीमती रामकली देबी
गाँव-मौंजम नगला जागीर
डा. रतना नन्दपुर-262407
त.व.थाना-नवाबगंज
जिला- बरेली उत्तर प्रदेश(भारत)
जन्मतिथि- 05/02/1983
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हरेन्द्र कुमार यादव

"  सुमन-उदासी"
   धुप थी सुहानी,
                       हिरनी जैसी विलखाती है,
प्रियतम को देखकर,
                          क्यों इतनी इठलाती हैं।
चुसते ही गुलाल,
                      रंग भी उड़ जाती हैं,
छा गई उदासी,
                    तों क्यों इतनी विलखाती हों?
चढ़ती हीं उमंग में,
                          खुब हीं इठलाती हों?
  खाई हल्की सी झोंका,
                              तों छा गयी उदासी।
नज़रें मिली थी,
                      जिस प्रेमी से तुम्हारी,
चुस लिया रस,
                    जिस प्रेमी से तुम्हारी ।
चेत लों अभी से,
                      स्नेह है बाकी,
दु;ख-सुख में हों ्
                    तुम सब के साथी।

तों फिर क्यों,
                छा गयी उदासी,
तेरी सुगंध हैं ,
               खुदा को प्यारी ।।
---.

  "क्यों सुमन हुईं उदासी?"
धुप थी सुहानी, हिरनी सी विलखाती
प्रियतम को देखकर, क्यों इतनी इठलाती?
चुसते ही गुलाल रंग भी उड़ जाती
छा गई उदासी, तो क्यों इतनी विलखाती??
               चढ़ती जवानी में,खुब हीं इठलाती थी
                खायी हल्की सी झोंका, तो छा गई उदासी।
                नज़रें मिली थी, जिस प्रेमी से तुम्हारी
                 चुस लिया रस तो,छा गई उदासी।।
चेत लों अभी से, स्नेह है बाकी
दु:ख-सुख में हों, तुम सबके साथी।
तेरी सुगंध हैं,खुदा को भी प्यारी
तों फिर क्यों?छा गई उदासी।।
                      खाई थपेड़े तू ,पवन के झोंको से
                      निहारती रही तू, प्रिय के आगमन को।
                      हुईं मदहोश तू, प्रिय के बांहों में
                      उड़ गई रंग तेरी,छा गई उदासी।।
                     
------
                          "अरहर चढ़ी जवानी में"
    मधुमस्ती में झूम उठे हैं
    मंद पवन के झोंको से
   खुशबू लिए है, आंचल में
   मलय उमंग की झोंको से
  अरहर चढ़ी जवानी में ।।
                                मद होसी सी छाई है
                                इन अलसाई पंखुड़ियों में
                                चुर-चुर सी हों गई है
                               मकरन्दों की मधुमस्ती में
                               अरहर चढ़ी जवानी में।।
  उमंगों के अंनग में
गुरूर सी हो गई
प्रेमी के कर पाश में
वो बेसुध सी हो गई
अरहर चढ़ी जवानी में।।
                              मधुर-मधुर गुन्जार हुईं
                              विनु अम्बर की बरसात हुई
                              झूम उठे तरू उमंग में
                              मद-मृदु सी बरसात हुई
                              अरहर चढ़ी जवानी में ।।
  तनु सिहरा मनु व्हील हुईं
  प्रिय प्रेम में विलीन हुईं
  जीवन के उमंग में चुर हुईं
  पारब्रह्म में विलीन हुईं
  अरहर चढ़ी जवानी में ।।
 
कवीवर-हरेन्द्र कुमार यादव
     एम.ए-हिन्दी,बी.एड्
    
संपर्क -चक इंग्लिश आलम सिंह
पोस्ट-छागापुर
जिला,-जौनपुर (उoप्र
          जन्म     10/04/1993

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भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"


बेस्वाद रोटी "कविता"
**************
वह बच्चा जो बहुत गरीब घर से था।
सुखी रोटी खा रहा था
अपने मां से ज़िद कर बैठा
मां आज लगा ही दो मेरी रोटी में घी
नहीं सुहाती फुटी आंख
ये आग में जली हुई तुम्हारी सुखी रोटी
मां ने घी के सारी की सारी खाली डिब्बों को
खंगाल लिया नहीं मिली एक बूंद भी घी
उदास मां नहीं पूरी कर सकती अपने बच्चे की
ये अनावश्यक इचछाऐं
मां ने बच्चे का दिल रखने के लिए
बच्चे से नज़र बचा कर
रोटी में चुप्पर दी सरसों तेल
अब बच्चा खा कर तृप्त हो गया सुखी रोटी
और वह देखिए जिसे मिल रही थी
घी से चुपड़ी रोटी
उसका पेट कई रोटी खाने के बाद
भी नहीं भरा था
और थाली आगे बढ़ाते हुए
बड़े फख्र से कह रहा था
मां ये रोटी बेस्वाद है।
(C)भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
मकान नंबर २८८/२२ गली नंबर ६ एच नियर हनुमान मंदिर, गांधी नगर गुड़गांव (हरियाणा)
पिन:-९९१०३४८१७६
Email:-bhunesh1976@gmail.com
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अमित कुमार गौतम "स्वतंत्र"


                      गज़ल
-------------
वो भी क्या दिन थे,मगरूफ रहता तेरे प्यार में।
दुनिया से बेखबर होकर,गीत लिखता तेरे प्यार में।१।

मैखाने मंजिल दूर कर,बैठा रहता तेरे इंतजार में।
छलकते ऑसुओं के,अक्स पिया करता तेरे प्यार में।२।

ये क्या नज़रे तीर, डायन कर गई तेरे-मेरे प्यार में।
  मैखाने की दूरी मिट गई, अब तेरे-मेरे तकरार में।३।

वो भी क्या दिन थे, होते कसमे वादे तेरे प्यार में।
  इस कुदरत को रास न आया, अब तेरे-मेरे प्यार में।४।
            
           -अमित कुमार गौतम "स्वतंत्र"
                      (रचनाकार,पत्रकार)
          ग्राम-रामगढ नं-2, तहसील-गोपद                बनास, जिला सीधी, मध्यप्रदेश,                           पिनकोड-486661
                 सम्पर्क-8602217260
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हरेंद्र रावत


इस पार गरीबी सखी बनी, उस पार कल्पना का सागर,
होंगी वहां लक्ष्मी-सरस्वती, होगी खुशियों की गागर !
जहां हर डाल की साख साख पर स्वर्णपंख चिड़ियाँ होंगी,
मोरों का झुण्ड पंख पसारे, वन में नाच दिखाती होंगी !
झरनों की झंकार मिलेगी, और नदियों का निर्मल जल,
जलचर जल की कल कल स्वर में तैर रहे होंगे हर पल !
जहां फूलों में भंवरों की गुंजन, फलों लदी डाली होगी,
नन्ने पौधे लहरा लहरा कर खुशियां अपनी बरसाती होंगी !
धरती  में अमन की बंशी, बंशीधर   बजा रहे होंगे,
नीले अम्बर में चाँद सितारे, मोती से झिलमिला रहे होंगे !
चांदी का ताज वे शीश धरे, हिमालय शान से होंगे खड़े,
होंगे बाकी पर्वत आगे पीछे, ले  वनस्पतियाँ शीश धरे !
मधुमक्खी मधु लुटाएंगी, जब सुरक्षित  उनका घर होगा,
कोयल गीत सुनाएगी, जब  शुद्ध बसंती मौसम होगा !
पर पार उतरना मुश्किल है, नदिया गहरी चंचल धारा,
बार बार उतरा दरिया में, पर बार बार धारा से हारा !
फिर भी हार न मानी मैंने, फिर धारा में उतरूंगा,
कभी तो लहर ऐसी आएगी दरिया  पार मैं कर लूंगा ! हरेंद्र
 

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कृष्ण कुमार चन्द्रा


यात्रा

सारी दुनिया देखी हमने
मन ना कहीं रमा।
अपना घर ही जन्नत है
खूबसूरत है शमा।

देखे अनगिन नर-नारी
बच्चे बूढ़े जवान,
पिता के जैसे कोई नहीं
अच्छी लगती माँ।

पोंगा-पंडित, पंडे-झंडे
और पुलिस के डंडे,
बैल बना के कोल्हू वाला
करवाते हैं परिक्रमा।

पर्वत-नाले, निर्झर-झरने
कल-कल बहती नदियाँ,
घर के छत पर देखा हमने
खूबसूरत आसमाँ।

तिनका-तिनका जोड़ रखे थे
कुछ सपनों के खातिर
लूट लिये फिर भय दिखा के
पैसे थे जो भी जमा।

    कृष्ण कुमार चन्द्रा
       बालको नगर
          कोरबा
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डां नन्दलाल भारती


  पहेली
कैसी पहेली है सुलझती नहीं
मोहमाया निश्छल स्नेह    की
क्यों मां-बाप कूटते रहते   हैं
बूढी ठटरी आखिरी दिन तक
औलाद के सुखद आज और
कल के लिए
क्यों तिरोहित कर देती हैं औलादें
मां-बाप के दर्द को
टकटकी लगी रहती है उनकी
मां-बाप के श्रम से खडी इमारत पर
बने रहते हैं अनजान दुखदर्द से
रह रहकर हींक भी देते है
दर्द की दरिया मे नाक तक
डूबे मां बाप करते रहते हैं कामना
नालायक औलाद की
नहीं बदलती  भावना
कर देता है परित्याग
कर देता है बे-आसरा
बाप बहाता है श्रम बूढी ठटरी को
ठोंक पीटकर
बूढी मां सेंकती है रोटी
आंसू पोंछ पोंछकर
दर्द की सेज टिके मां बाप की
नहीं मरती उम्मीदें
सच भी है बूढी हड्डियों के
बिखण्डित होने के बाद
खडे हो जाते हैं दावेदार
आज के श्रवण कुमार
कितना निर्मल दिल है मां बाप का
अकेले दर्द से जूझते
पार कर जाते जीवन का
आखिरी पल भी
तब तक नहीं आती है  मांबाप की याद
मां बाप को आखिरी दिन भी
बनी रहती है चिंता
औलाद के सुख वैभव की
कैसी है ये मोह की पहेली
मां बाप का नहीं छूटता मोह
नालायक औलादें करती रहती हैं
विद्रोह
नालायकों मां बाप है तुम्हारे भगवान
मां बाप का सम्मान करो........

01/07/2018

सोना चाहता हूँ

सोना चाहता हूँ बाबूजी
सदा के लिए फिलहाल नहीं क्योंकि
कई फर्ज आज भी प्रतिक्षारत् हैं
मुंह बाये आंख खुली थी तबसे
घोर निद्रा मे सोना चाहता हूँ
जागने के लिए बाबूजी
निद्रा से जब जागूँ तो
भूल जाऊँ सारे जख्म बाबूजी
मिले हैं जो अपनो से परायों से
विषमतावादी समाज से श्रम की मण्डी से
ठीक वैसा दर्द जैसे
ठीहे पर कटता है कोई बकरा, मुर्गा
या कोई गाय भैंस जीभ के स्वाद लिए बाबूजी
अब तो आदमी भी आदमी को काटने लगा है
रेत-रेत कर दर्द देने के लिए
वैसे ही नित बलि बलि जा रहे हैं
अपनो की ख्वाहिश के लिए
पसीना बहाकर सिर खपा कर
इंसानी धर्म से बेगाना समाज
उम्र के पल पल गुजरने के बाद
नफरत का बवण्डर
पीछा करता रहता हैं जहाँ बाबूजी
बेगानी श्रम की मण्डी
जहां लहू रिस जाने के बाद भी
सुरसा की तरह जवां रहती हैं
जरुरतें बाबू
घर परिवार ,उम्र के आखिरी दिन तक भी
नहीं छोडती चिंता जिसकी
वही चिंता जो चिता जैसी होती है बाबूजी
दर्द को निद्रा मे बहाना चाहता हूँ
अपनो और परायों के दिए दर्द को
भूल़ाना चाहता हूँ बाबूजी
उठ खड़ा होना चाहता हैं
प्रतिक्षारत् फर्ज पूरा करने के लिए
जिससे धूल जाए सारे गिले शिकवे
इसीलिए घोर निद्रा मे,
सोकर जागना चाहता हूँ बाबूजी।


25/06/2018

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पं.खेमेस्वर पुरी गोस्वामी

राज अधिकार तो छीन लिए तुमने
राजा जैसा हुनर कहाँ से लाओगे?
बोलो साहस इतना तुम, भला कहाँ से पाओगे!

दुर्योधन सा सिंहासन है मिला
युधिष्ठिर से पूजनीय तुम कैसे कहलाओगे?

हमारे अंदर ज्ञान का लौ आलोकित है
अंधेरों से न हम घबराएंगे।

फ़िक्र तुम अपनी करो ऐ नेताओं
खैरात की चांदनी में कब तक नहाओगे?

अमावस की काली रातों में
तुम औंधे मुंह गिर जाओगे।

राम राज जब भी आयेगा,
हर सिंहासन पर हमको ही तुम पाओगे
यदि हमें नजरअंदाज करोगे,
दुनिया को इतिहास किसके बतलाओगे

राज अधिकार भले गया पर गुण हमारे गाओगे
आज भी ढूंढ लो लोगों के दिलों में राज हमारे पाओगे ।।

राज अधिकार तो छीन लिए तुमन
राजा जैसा हुनर कहाँ से लाओगे?

हंसता,खेलता घर में रहता
पापा के गोदी में झूलता
मां की खाता प्यारी डांट
रोज जोहते सब मेरा बाट
घर में भी दुर्गा कहलाता
जिस घर में जाता लक्ष्मी कहलाता
हमेशा दिल से रिश्ता निभाता
मीठी बातों से सबका मन जीत जाता
मायके में रह मस्ती करता सब संग
संस्कार मेरे ससुराल में करते सब पसंद
मेरे बिदाई में बाबूल सग, अम्मा जमीन पर लेटी होती
मेरी किस्मत होती साहब,
बेटा नहीं गर मैं बेटी होती...

“हर उस बेटे को समर्पित जो घर से दूर है”


बेटे भी घर छोड़ जाते हैं
जो तकिये के बिना कहीं…भी सोने से कतराते थे…
आकर कोई देखे तो वो…कहीं भी अब सो जाते हैं…
खाने में सो नखरे वाले..अब कुछ भी खा लेते हैं…
अपने रूम में किसी को…भी नहीं आने देने वाले…
अब एक बिस्तर पर सबके…साथ एडजस्ट हो जाते हैं…
बेटे भी घर छोड़ जाते हैं.!!
घर को मिस करते हैं लेकिन…कहते हैं ‘बिल्कुल ठीक हूँ’…
सौ-सौ ख्वाहिश रखने वाले…अब कहते हैं ‘कुछ नहीं चाहिए’…
पैसे कमाने की जरूरत में…वो घर से अजनबी बन जाते हैं
लड़के भी घर छोड़ जाते हैं।
बना बनाया खाने वाले अब वो खाना खुद बनाते है,
माँ-बहन-बीवी का बनाया अब वो कहाँ खा पाते है।
कभी थके-हारे भूखे भी सो जाते हैं।
लड़के भी घर छोड़ जाते है।
मोहल्ले की गलियां, जाने-पहचाने रास्ते,
जहाँ दौड़ा करते थे अपनों के वास्ते,,,
माँ बाप यार दोस्त सब पीछे छूट जाते हैं
तन्हाई में करके याद, लड़के भी आँसू बहाते है
लड़के भी घर छोड़ जाते हैं
नई नवेली दुल्हन, जान से प्यारे बहिन- भाई,
छोटे-छोटे बच्चे, चाचा-चाची, ताऊ-ताई ,
सब छुड़ा देती है साहब, ये रोटी और कमाई।
मत पूछो इनका दर्द वो कैसे छुपाते हैं,
बेटियाँ ही नहीं साहब, बेटे भी घर छोड़ जाते हैं...!

मां को समर्पित एक प्रयास

मां का जन्म दिया हर बालक, महादेव अंश का अवतार है!
मां की दी गई विद्या, ज्ञान का अथाह सागर है।
माता की बुद्धि..... ,समस्त समस्याओं का समाधान है!
सबकी माताओं की वाणी, वेदों का तो ज्ञान है।
मां की दी गई शिक्षा जीवन,जीने की कला कला का भाव है!
माता की दृष्टि अनेक, संतानों में भी समभाव है।
मां की गांथी चोटी,संकल्पों की है समूह करण!
मां की दया से होती है,हर संकटों का हरण।
मां की कृपा से भवसागर से,तरने का मिले हैं साधन!
मां का कर्ज यही होती है,सर्व जन हिताय कारन।
मां का निवास जिस घर में हो,वो बन जाये देवालय!
मां के दर्शन से शुभ हो, जाये सर्वमंगल कारय।
मां के आशीष से होती है समस्त, सुख वैभवों की प्राप्ति!
मां की सेवा; परलोक सुधारण, वरदान;मोक्ष की प्राप्ति।
मां की क्या खेमेस्वर; बखान करें, पुराणों ने पार न पाई!
जो करते अपनी मां की सेवा, वो.... भवसागर तर जाई।
मां की ममता सबको लगती है,सारे सुखों से प्यारी!
जिनके घर में माता होती, उन्हीं की दुनिया न्यारी।
छोड़ भले दे संगी साथी, छोड़ भले दे भ्राता!
*"तन अपना तज जाती है पर माता होती नहीं कुमाता।"*
मैं अभागा; मां के आंचल का, सुख बहुत है पाया!
मां के ना होने पर सबने,आज तो दुःख बहुत है पाया।
मां की आशीष जिन पर होती,सर्वदा सुख उन्हीं ने पाया!
मां के शक्ति;प्रताप;शाप की, अविरल इनकी माया।
मां के लाल मां की सेवा बजाओ, वक्त करो न जाया!
जिनकी घर में मांये होती सच्चा सुख उन्हीं ने पाया।
सभी ममतामई माताओं को सत सत नमन 

समाज की उन नादान लड़कियो को मेरा संदेश :- 

जो लडकियाँ लव के चक्कर में पड़कर

       अपने माँ-बाप को छोड़कर

          घर से भाग जाती हैं


                        मैं

उन लडकियों के लिए कुछ कहना चाहूंगा

    

    बाबुल की बगिया में जब तू,

               बनके कली खिली,

          तुमको क्या मालूम की,

     उनको कितनी खुशी मिली


   उस बाबुल को मार के ठोकर,

             घर से भाग जाती हो,

जिसका प्यारा हाथ पकड़ कर,

             तुम पहली बार चली


           तूने निष्ठुर बन भाई की,

           राखी को कैसे भुलाया,

      घर से भागते वक़्त माँ का,

             आँचल याद न आया


          तेरे गम में बाप हलक से,

              कौर निगल ना पाया,

           अपने स्वार्थ के खातिर,

        तूने घर में मातम फैलाया


              वो प्रेमी भी क्या प्रेमी,

    जो तुम्हें भागने को उकसाये,

           वो दोस्त भी क्या दोस्त,

        जो तेरे यौवन पे ललचाये


         ऐसे तन के लोभी तुझको,

             कभी भी सुख ना देंगे,

               उलटे तुझसे ही तेरा,

           सुख चैन सभी हर लेंगें


           सुख देने वालों को यदि,

             तुम दुःख दे जाओगी,

     तो तुम भी अपने जीवन में,

            सुख कहाँ से पाओगी


         अगर माँ बाप को अपने,

        तुम ठुकरा कर जाओगी,

      तो जीवन के हर मोड पर,

                ठोकर ही खाओगी


         जो - जो भी गई भागकर,

                     ठोकर खाती हैं,

                  अपनी गलती पर,

        रो-रोकर अश्क बहाती हैं


                  एक ही किचन में,

    रोटी के संग साग पकाती हैं,

                हुईं भयानक भूल,

       सोचकर अब पछताती हैं


             जिंदगी में हर पल तू,

           रहना सदा ही जिन्दा,

         तेरे कारण माँ बाप को,

          ना होना पड़े शर्मिन्दा


         यदि भाग गई घर से तो,

          वे जीते जी मर जाएंगे,

            तू उनकी बेटी हैं यह,

            सोच - सोच पछताएंगे




सैनिक की महिमा

(मेरे तीन चाचा सैनिक हैं जिनके सान्निध्य में भारत के वीर सपूतों को समर्पित एक छोटा सा प्रयास)

यज्ञ जप से पैदा हुई, शक्ति का नाम है सैनिक!
त्याग से जन्मी भक्ति, का धाम है सैनिक!!
सैनिक ज्ञान के दीप जलाने ,का नाम है!
सैनिक का अंधेरे में रह प्रकाश फैलाने के काम है!!
स्वाभिमान से जीने का ढंग है सैनिक!
सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है सैनिक!!
सैनिक हलाहल को पीने की कला है!
सैनिक कठिन संघर्षों को जीकर पला है!!
भक्ति,त्याग,परमार्थ का प्रकाश है सैनिक!
शक्ति कौशल पुरुषार्थ का आकाश है सैनिक!!
सैनिक न धर्म न जाति में बंधा इंसान है!
सैनिक मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है!!
शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है सैनिक!
हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है सैनिक!!
सैनिक मंदिर में पुजा करता  कोई नहीं पुजारी!
सैनिक घर घर भीख मांगता कोई नहीं भिखारी!!
गरीबी में भी सुदामा सा सरल सैनिक!
भावना में दधीचि सा विरल सैनिक!!
सैनिक विषधरों के शहर में शंकर के समान है!
सैनिक हस्त में शत्रुओं के लिए परशु कीर्तिवान है!!
सुखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है मेरा सैनिक!
दिल में सहमे सत्य को बचाता है मेरा सैनिक!!
सैनिक शंकुचित विचारधाराओं से परे एक नाम है!
सैनिक सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है!!
पुराणों की गाथा में कार्तिकेय का पहला उपनाम है सैनिक!
भारत के हर एक व्यक्ति हर वर्ग का तो जान है सैनिक!!
आओ मिलकर करें ऐसे वीरों को नमन्!
सबके जुबां पर हों अब वंदे मातरम्!!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
वं..दे..... मातरम्, वं...दे..... मातरम्!!
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आड़ लेके धरम के, सत्ता सुख के छांव

अस्त्र धरे कोनो हाथ म, कोनो घुंघरू बांधे पांव


छुरी छुपी हे हाथ मं, मुख म बसे हे राम

कंहूं हजरत के नाम ले, करथें कत्लेआम


भोला बचपन विश्व म, भाला धरे हे हाथ

भरे जवानी आज इंखर, छोड़त हवय रे साथ


कराहत हे इंसानियत, चील्लावत चारो डहर

धरम हमार मौन हे, सत्ता के नईहे ठउर


कोई कहे अल्लाह बड़े, कोई कहे श्रीराम

कोई कहे ईसा सही, कोई कहे सतनाम


कहूं धरम के नाम म, चलत हवे बंदूक

कहूं धरम के नाम म, भरत हवे संदूक


आज धरम के मरम ल, समझ हावे कौन

कांव-कांव कौवा करे, कोयल बइठै मौन


हम सबला दू हाथ मिले, करे बर सद्काम

एक हाथ ले जेब भरे, एक हाथ में जाम


नाम ला ले राम के, तबो होही तोर काम

रावण के गर रद्दा चलबे, तब बिगड़ही काम


रावण के रद्दा म चलबे, तब नई मिलही राम

मात-पिता जेखर नहीं, उंखरो हावे नाम

कलयुग में हे कर्म बड़े नहीं कोनो के नाम


अमन-चैन कायम रही, तभे धरम के मोल

पूजा-पाठ-ओ-अजान सब, वरना ढपोसला बोल

नईं ते माथा टेंकई, बस लइकन मन के खेल


उमर पेड़ के सदा बड़े, फूलन के कुछ पल

महक फूल के होवथे कम, काखर हे ये छल


धरम वृक्ष के ओही बड़े, रोज फूले नवा फूल

फूल झरहीं एक साथ अगर, रोज के गड़ही शूल।


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मोहम्मद शफ़ी कुरेशी


“माँ”

“खयाल-ऐ-यार हर एक गम को टाल देता है,

सुकून दिल को तुम्हारा जमाल देता हे|

ये मेरी माँ की दुआओं का फ़ैज़ है मुझ पर,

मैं डूबता हूं, समुंदर उछाल देता है”।

“चलती हुई हवाओं से खुशबू महक उठी है,

माँ-बाप की दुआओं से किस्मत चमक उठी है”।

“गरीब हूं! किसी ज़रदार से नहीं मिलता,

जमीर बेच कर किसी मक्कार से नहीं मिलता,

जो हो सके तो इसको संभाल कर रखना,

ये “माँ” का प्यार है, बाज़ार में नहीं मिलता।”

“ एक बेवफा को मैंने गले से लगा लिया,

हीरा समझ कर काँच का टुकड़ा उठा लिया|

दुश्मन तो चाहता था मुझको मिटाना मगर,

माँ की दुआओं ने “शफ़ी” मुझको बचा लिया”||

             “मोहम्मद शफ़ी कुरेशी”
          

 
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महेन्द्र देवांगन "माटी "

आओ पेड़ लगायें

चलो चलें एक पेड़ लगायें,  धरती में खुशहाली लायें ।
पेड़ लगाकर घेरा बनायें,  गाय बकरी से उसे बचायें ।
सुबह शाम हम पानी डालें,  सुरक्षा का उपाय अपना लें ।
धीरे धीरे पेड़ बढ़ेंगे,  मैना गिलहरी उस पर चढेंगे ।
सबको मिलेगी शीतल छाँव,  सुंदर दिखेगा मेरा गाँव ।
फल फूल भी रोज मिलेगा,  सबका मन खुशी से खिलेगा ।
कभी नहीं इसको काटेंगे , फल फूल को रोज बाँटेंगे ।
हो हमारे सपने साकार,  पेड़ जीवन का है आधार ।

--

पिता (हाइकु विधा )

पिता महान
दुख दर्द सहते
सारा जहान ।

दबे हैं  बोझ
जिम्मेदारी निभाते
सुख की खोज ।

बच्चे सीखते
ऊँगली पकड़ के
पिता सिखाते ।

करें नमन
अपने पिताजी का
हर्षित मन ।

सबसे बड़ा
है घर का मुखिया
जिम्मेदारियाँ ।
 
  *महेन्द्र देवांगन* *माटी*
*पंडरिया कबीरधाम*
छत्तीसगढ़

Mahendradewanganmati@gmail.com

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नवनीता कुमारी


मिजाज मौसम का कभी रूठा तो कभी खुशनुमा नजर है आ रहा,
कभी चिलचिलाती गर्मी बनकर सता रहा |
तो कभी पानी की रिमझिम बूँदे बन लुभा रहा |
बदल रहा है पल- पल मिजाज मौसम के,
छाया है संकट अन्न-धन पे, ऐसा मजाकिया मिजाज मौसम का किसानों को है डरा रहा |
तो कभी गर्मी से राहत देकर लोगों है मना रहा ||
कही बाढ़ तो कहीं सूखा का खौफ लोगों में समा रहा,
बदलता मिजाज मौसम का कहीं खुशहाली, तो कहीं लबो की हँसी चुरा रहा |
कहीं भूकंप तो कहीं सुनामी बनकर कहकहा लगा रहा,
बदलता मिजाज मौसम का खतरा बनकर सबपे मंडरा रहा |
कहीं ओला में अपना वजूद बनाए रखा है,
बदलते मौसम का बड़ा ही अद्भुत नजारा हैं |
कभी पतझड़ बनकर तन्हाई में खो जाता है,
तो कभी हरियाली बनकर सबके दामन खुशियों से भर जाता है |
प्राकृतिक संपदा की करे सुरक्षा, तभी मौसम का मिजाज होगा अच्छा |
पेड़ो को लगाकर प्रदूषण को करे कम,
उग्र मौसम के मिजाज को करे नम |
बदलता मिजाज मौसम का एक कहर है,
किसानों के फसलों के लिए यह जहर है|
वन सुरक्षा को अपना लीजिए और भीषण आपदा से खुद को बचा लीजिए |
देश की उन्नति में ना बाधक बनिए,
खुशियों के केवल साधक बनिए ||

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रीति केड़िया


मिली थी एक सफर में मुझे वह लड़की अनजानी सी

फिर उसकी जिंदगी एक अद्भुत कहानी सी

अंजान होकर भी मुझसे बातें किया करती थी

बातों बातों में मेरे सभी दुख जान लिया करती थी

मुस्कुराता हुआ चेहरा भोली सी सूरत थी

नन्ही सी मुस्कान प्यारी सी मूरत थी

कोई मंजिल नहीं थी उसकी सिर्फ चलती जा रही थी

उसकी बातें  सारी मन को भा रही थी

देखती थी खुली आंखों से सपने सुहाने से

करवाती थी अपनी इच्छा पूरी रूठने के बहाने से

जब होती थी  हमारे साथ हंसते हंसाते सबको

पर अकेले में रोया करती याद करके जाने किसको

उसकी उन आंखों में मैं एक दर्द महसूस किया करती थी

फिर भी वह सभी के साथ खुल कर जिया करती थी

उसकी उस हंसी के पीछे शायद कोई दर्द छिपा था

जाने कौन सा दुख कुदरत ने उसकी किस्मत में लिखा था

कोई तो गहरा दुख था उसे जिसे हमसे छुपाती थी

पूछने पर भी उससे वह नहीं बताती थी

अब भी याद आती है वह उसकी वह अनजान परेशानी

पर नहीं जान पाई मैं उसकी दर्द भरी कहानी


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शुभम कुमार सिंह


#मेरी_नजर_से_नल_पर_कुछ_पंक्ति



तेरे नजर में मैं निर्जीव हूँ

पर याद रख ये सजीव तू तो हमसे है

देता रहा हूँ अमृत रूपी जल तुझे

तूने बनाया मुझे जबसे है


गुजार देता हूँ सुबह से शाम

ऐ इंसान तुमलोगों के लिए

औऱ एक तू है जो देखता मुझे

बस अपनी जरुरतों के लिए


तेरे नजर में तो बस एक जल रूपी साधन हूँ

वरदान बना में प्यासे राहगीरों के लिये

देर रात तक भी तटस्थ रहा हुँ

अपने मुसाफिरों के लिये



मेरे सरलता को बुजुर्गों ने अपनाया

युवाओं ने भी दिल में बसाई है

अपने जल से तो मै

बच्चों के क्रिकेट वाली थकान भी मिटाई है



हालात मेरे जैसे भी हो

कार्य में नहीं कभी रहा कम हूँ

फुर्सत मिले तो सोचना ऐ इंसान

तेरे लिए मैं कितना अहम हुँ



थोड़ी से जो असहज हो गयी

महीनों अकेला पाता हूँ

आखिर क्यों तेरे रहते ये लापरवाह कभी

खेल -खेल में तो कभी गुस्से में मैं पटका जाता हूँ


बड़ी शिद्दत से तू मेरे आस-पास

वाले जगह को गन्दगी से भर रहा है

मेरे खामोशी का फायदा उठाकर तू

मेरे जल को भी बर्बाद कर रहा है



चोट खाकर भी चुप रह जाती हूँ

आखिर तुम भी अपना फर्ज निभाया करो

जब हो जाये जरूरत पूरा तो

फिजूल में मेरा जल न बहाया करो



गर होता रहा मेरे जल का दोहन

तो मै कुछ दिन में तुझसे दूर चला जाऊँगा

माफ करना ऐ लापरवाह इंसान

तुझे तेरी बर्बादी से न बचा पाऊँगा
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नरेश गुज्जर


   कोई पूछे अगर

कोई पूछे अगर तुम्हारे आंसुओं की वजह

तो मेरा नाम ले देना
  कह देना था

एक दीवाना जो दीवानों की तरह

मुझको प्यार करता था

पर मेरा हो ना सका
या तुम चाहो तो

कोई बेवफाई का इल्जाम दे देना
पर जानता हूँ वो तुमसे होगा नहीं
  बडे़ करीब से

जानती थी मुझको,

मुझको तुमने

अपनी जिन्दगी का हिस्सा जो माना था
  सच कहूं तो तुम्हारे इस दर्द की वजह भी तो मैं ही हूँ
मजबूरियां आखिर किसकी नहीं होती,
यूं मजबबरियों का हवाला देकर

किसी को छोड़ना भी कोई बात है भला..
0000000000

श्याम नरेश दीक्षित

धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो
मानव अपितु मानवता से भी प्यार करो।।

जल को आज सँजोकर तुम
फिर से नवनिर्माण करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।।

कल कल पावन पवनों को
आज पूर्ण आकार करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।।

गौ गंगा गायत्री को बचाकर
पृथ्वी को निहाल करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।।

आज भागीरथ बनकर तुम
भू पर अमृत निर्माण करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।।

झर झर झरनों की आहट
चूं चूं चिड़ियों से प्यार करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।।

पुष्प मधुकर और नदियों
का इस प्रकृति को उपहार करो
धरा का वृक्षों से श्रृंगार करो।

नरेश यही विनती करे
न अब वसुंधरा का उपहास करो
धरा का वृक्षों से निर्माण करो।।


कविताकार -गौपुत्र श्याम नरेश दीक्षित
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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. मेरी कविता प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!!

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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: माह की कविताएँ
माह की कविताएँ
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