मन // शबनम शर्मा की नई कविताएँ

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मन स्थिरता का नाम नहीं, पल-पल कुलांचे भरता, कभी इस पार तो कभी उस पार, पहुंच जाता, अपनों के करीब, दुश्मनों से दूर, बना लेता अप...


मन

स्थिरता का नाम नहीं,
पल-पल कुलांचे भरता,
कभी इस पार
तो कभी उस पार,
पहुंच जाता,
अपनों के करीब,
दुश्मनों से दूर,
बना लेता अपनी जगह
अपने फैसले
अपने फासले,
इक अदृश्य डोर से बंधा,
कितने सब्जबाग देखता,
रूला देता अंखियन को
कभी ठहाकों में डूबा देता,
दिखाता वो, जिसकी
कल्पना न की थी,
डराता, सिहराता, हंसाता,
रूलाता, मनाता, रूठाता,
तो कभी किसी अंधेरे
में उकडू हो, बच्चे की
मानिद बैठ जाता ये
मन।



रिवाज़

सुबह उठ बुहारना आंगन,
झाड़ना पूरा घर,
नहा-धोकर
दीया बाती जला,
नित ताकना इक बार,
सभी दरवाजों की ओर
जो अभी नहीं, अपने
वक्त पर चाय की चुसकियों
के साथ खुलेंगे
व आयेगी आवाज़
‘‘माँ क्या है?
सुबह-सुबह ही छटर-पटर
करती हो, नींद नहीं आती’’
सुनकर, अनसुना कर
चल देती रसोई की ओर,
बनाती इन नाशुत्रों के
लिये नाश्ता,
कभी रोटी, कभी परांठा
और थका लेती खुद को
सभी पेट भर खाते
पर उठते हुए कभी
कहना न भूलते
‘‘माँ मोटे हो जाएँगे,
कुछ हल्का-फुल्का
बना दिया करो।’’
चुपचाप देखती, सोचती
उन दिनों को
जब हाथ में रोटी लिये
मक्खन की डली के
साथ, रोली-पोली बना
लड़-लड़कर, छीना झपटी
करते खाते थे ये बच्चे।
अभी बासन भी न मंजते
कि दोबारा भूख-भूख
करते थे ये बच्चे,
थमाती थी मक्कई, गेहूँ का भूजा
साथ में छाछ,
और चढ़ाती चुल्हे पर
दाल की हांडी, बीनती चावल
गूंथती आटा,
दोपहरी निपटते ही शाम
और फिर रात कब हो जाती
पता ही न चलता,
आज कंधे पर कंप्युटर
का बैग लिये निकलते
पूरा दिन कुर्सी पर बैठे
गड़ाये आँखें सामने,
अकड़ा लेते हाथ पाँव
बढ़ा लेते तोंद
व शिकायत करते
उसी माँ को
जिसके हाथ भी जले, सिके
रोटियों संग
‘‘कुछ हल्का-फुलका बना
लिया कर माँ।’’
सुन सब की, फिर भी दूध
से मलाई उतार
गिलास भर, थमाती सबको,
कहती, ‘‘पी लो, इसमें अब
मोटा होने का कुछ भी नहीं।’’
माँ है जानती सब
रिवाज़, सब ढंग व खिला ही
देती है अमृत जो आज नहीं
कल पता चलेंगे इनको।

कबूतर

‘धांय’ की आवाज़,
मौत का खौफ़,
तूफान की तरह
सैंकड़ों कबूतर
उस सामने वाली इमारत
की आखिरी मंजिल
से उड़े,
कि आज वो बूढ़ा कबूतर
टस से मस न हुआ,
मैंने उसे इशारा कर
बुलाया, वो सधी हुई
उड़ान में उड़कर
मेरे पास आया।
मैंने पूछा, ‘‘तुम्हें डर नहीं लगा?’’
बोला, ‘‘जानती हो तुम,
बरसों पहले घना जंगल
था यहाँ,
पेड़ों पर थे हमारे आशियाने,
दिन गुटर-गूं में,
तो रात एक दूसरे से
सट कर सोने में निकल
जाती थी,
सुबह होते ही
देखने जाते थे पास वाले
घर में निकले अंडों से
कबूतरी के बच्चे,
लिबाते थे दााना,
मनाते थे जश्न,
कट गये पेड़,
बन गई अट्टारियाँ,
रहने लगे लोग
चिपका कर अपने नाम
की पट्टियाँ।
देखता हूँ मैं, रोता हूँ में,
क्यूंकि इन सब कबूतरों
की उड़ान शाम को
यहीं खत्म होती है
ले जाता हूँ किसी
खाली घर की बालकनी में
सुनाता हूँ लोरी व सुला
देता हूँ, पर कब तक......
हर रोज तान देते हैं
ये बंदूक हमारी तरफ
बिन सोचे कि इन्होंने
घर बनाये हैं
हमारे घर छीन कर,
बदलते-बदलते आशियाँ
थक गया हूँ मैं।’’
दास्तान उसकी सुनकर
मेरा दिल, मेरी आँखें
रो पड़ीं,
पर जैसे ही मैंने उसे
सांत्वना देनी चाही,
झट से उड़ने को तैयार
पंख फैला उसने कहा
‘‘तुम भी तो हमारे
घर में रहती हो
कभी रोका उसे कि
बन्दूक से मत मारे हमें।’’

खुशी

न जाने कितने पल,
घंटे, महीने
वो काम करता
यही सोच, कि इसमें
किस-किस की हँसी
छिपी है,
फिर भी सुननी पड़ती
कभी ‘आह’ तो कभी ‘वाह’
दुनिया के लिये ‘आह’
कहना जितना आसान
‘वाह’ कहने को ज़माना
चाहिये,
आसानी से नहीं
मिलती दुआ,
न ही दी जाती
खुशियाँ किसी को
क्यूँकि न जाने
कितने जज़्बातों को
सलीब पर लटकना
होता है,
दुनिया के चेहरों पर
खुशी देखने हेतू।

सफेद बाल

मुझे डर लगता है
सफ़ेद बालों से,
इसलिये नहीं कि
ये मौत की मंजिल
दिखाते हैं हमें,
इसलिये भी नहीं,
कि अब सुन्दर नहीं
लगते हम,
बस सिर्फ तो सिर्फ
इसलिये कि छीन लेते हैं ये
हमारी हँसी,
मार देते हैं वर्षों से
रह रहे उस छोटे बच्चे को,
जो आईसक्रीम, तो कभी
चॉकलेट माँगता है
छीन लेते हैं ज़िन्दगी
के रंग,
जिन्हें ओढ़कर
ठहाके लगाते थे कभी हम
कभी अंगुली मार
गोलगप्पे में डुबकी
लगाते थे हम,
छीन लेते हैं हमारा
वो सजा कमरा,
बिठा देते हैं
घर के पिछवाड़े
वाले दलान में,
जहाँ तमाम रिश्ते
हवा में घूमते,
और कहा जाता
माँ-बापू सो रहे हैं,
चूड़ी वाला भी रंगीन
चूड़ियाँ नहीं दिखाता
भद्दे-भद्दे रंगों के
मोटे-मोटे कड़े देकर
कहता, ‘‘माँ जी, ये
आप पर ठीक रहेंगे
जबकि झाँकती
चिड़ाती वो बंधी
डोर में हरी चूड़ियाँ
फेरी वाला, हलके
रंगों के सूट ढूंढता,
जबकि लाल, पीली
हरी चुनरिया, लहरा-लहराकर
ढाँपती,
सच में डरती हूँ मैं,
इन सफे़द बालों से
जो इन्सान के अन्दर
से, उस वाणी से चाल
तक को धीमा कर
देते हैं व बना देते हैं अपंग।’’



तेरी चिरइया

आजकल की व्यस्तता
और बेटियों का पीहर,
बचपन पढ़ाई में
जवानी नौकरी में
कि कब बड़ी होकर
चली जाती ससुराल,
मानों सब बातें
कल की ही हों,
शादी के बाद
घर आई बिटिया,
वक्त पंख लगा
कुछ ही क्षणों में
पूरा हो गया,
जी भर न बैठ पाये
न बतिया सके
कि लगी, वो अपना
सामान बाँधने,
देख उसे
काँप उठा मेरा मन
पर छिपा लिये
मैंने अपने आँसू
वो देर से उठने वाली,
कमरा बिखेरना भूल गई
‘‘माँ भूख लगी’’ की
वो शैतान आवाज़, लगाना भूल गई,
हर काम को हाँजी, हाँजी,
इन्कार तो जैसे वो भूल गई।
मैं सोच ही रही थी
कि वो मेरे पास
आकर, मेरे हाथ पकड़कर बोली,
‘‘माँ बहुत मन करता है
ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर
आप दोनों के साथ रहूँ,
करूँ जी भर के आपकी
सेवा, नहीं मन करता छोड़ आपको
जाने को माँ’’
कि वो गले लग रो पड़ी,
मैंने उसे अलग किया,
कहा, ‘‘बेटी दो घरों की
शान है, धरोहर है, जननी है,
रक्षक है, जहाँ भी रहो
तुम मेरे साथ हो।’’
सुन मेरी बात आंसुओं भरी
मुस्कराहट से सूटकेस की
जिप लगाने लगी।


मेला

सुबह से बच्चे खुश,
आज मेला देखने
जाना है,
कभी कोई, तो कभी कोई
पहनावे पहन-पहन कर,
सबसे पैसे माँगकर,
मेले के सपने
संजो रहे
कि आज माँ जी ने कभी कहा
‘‘मैं भी तुम संग चलूँगी।’’
मज़ाक लगा सबको
हैरानी भी, पर माँ जी तैयार
होकर एक छोटे बच्चे की
तरह चल पड़ी,
मेला देखा, घर आई,
पाँव सूज गये,
तबीयत बिगड़ गई,
गरम पानी में पाँव डाले बैठी थी
कि मुझसे रहा न गया
पूछ ही लिया
‘‘अम्मा ये क्या
नया चाव चढ़ा आज
तुम तो कभी न जाती थी।’’
कराहती, मुस्कुराती बोली,
‘‘सुन लम्बी कहानी है यह
बचपन में माँ कहती
‘‘मेले नहीं जाना,
भीड़ में बाबा उठा
ले जायेगा’’
जवानी में, बाबूजी की
कठोरता, जवान लड़की,
शराबी लड़कों के
धक्के, नहीं जाना,
ब्याह कर आई, सास की सीख,
सज-धज कर बहू-बेटियाँ
मेलों में हमारे घर से जाएँ,
न भाई न, रिवाज़ को न’’
दबी रही मेले जाने की इच्छा,
कि आज हिम्मत कर ही
ली, देखने की मेला
कैसा होता है,
और लगी मलने गरम पानी
में पाँव, जैसे कह रही हो,
‘‘ये तो ठीक हो जायेंगे
मेला तो देख लिया।’’

बच्चा

अंधेरे मुँह दोनों का निकलना,
उठता बच्चा,
चहुँ ओर ताकता,
शून्य-शून्य-शून्य,
आया के सिवा कोई
चारा न देख,
फैला देता बाँहें,
न रोता, न जिद्द करता,
पहन शाला की वर्दी
अनमने मन से दूध गटक,
धीमे-धीमे कदमों से
चला जाता ज़िन्दगी के कुछ
सबक सीखने,
टुकुर-टुकुर देखता, दोस्तों
को, जो माँ या पापा की
गोद में से उतर,
बस में बैठते,
आ जाता, कुछ घन्टों बाद,
बस से उतर,
थैला थमा आया को,
घिसटता सा घर तक आता।
जिद्द करता
नीचे खेल रहे बच्चों संग,
खेलने की,
पर वो बन्द कमरे में,
सुला दिया जाता,
दूध पिलाकर घंटों के लिये,
क्यूंकि करने हैं बाई ने
घर के बाकी काम भी,
शाम को उठता, कुछ खाता,
मास्टर जी से होमवर्क करता,
झांकता ऊपर की मंजिल
से नीचे, बच्चों को खेलते
देख, कि अन्धेरा फिर आता
नन्हा कुछ भी खा-पी सो जाता
थके माँदे, दोनों वापस आते
और हर रोज कहते,
‘‘ओह! बेबी सो गया।’’

शमशान घाट

कल शिवमन्दिर से लौटते,
मैं और रिकशावाला,
ध्यान गया बांई ओर,
शान्त आग की लपटें,
अपने कार्य में मगन,
बाहर खड़ा कारों, स्कूटरों,
लोगों का हजूम।
‘‘कोई बड़ा आदमी मरा है
बीवीजी’’ की आवाज ने
मुझे झकझोर दिया।
सोचने लगी,
इतना बड़ा शहर,
रहने को जगह नहीं,
जिस ओर देखो लोग ही लोग,
दौड़ रहे, न जाने किस मंजिल
की ओर,
छोटे पड़ रहे शहर, इमारतें
सब्र ही नहीं आ रहा
वो सेठ, वो राजा,
कोई भंगी, कोई फ़कीर,
कोई मालिक, कोई नौकर,
कोई बूढ़ा, कोई जवान,
सबकी अपनी-अपनी सोच
अपने-अपने नाम,
बात छोड़िये गैरों की,
बाँटने में शर्म नहीं,
अपनों से भी
पर वाह री ये श्मशान भूमि,
शत-शत प्रणाम है तुझे,
जहाँ आते ही रुतबा,
नाम, अकड़, पैसा सबको
बराबर कर देती
और शहर के शहर
समा लेती ये मिट्टी
खुद में, क्षणों में,
जहाँ एक ही आवाज़
आती, ‘‘मुर्दा जल रहा।’’

औरत परीक्षा है

जन्म लेने से पहले,
मशीनों से गुजरती,
ताकती, सहमी सी
सुनती गर्भ में ही
अपने भविष्य के फैसले,
वो इस संसार को देखे या
न देखे, कुछ भी पता नहीं
होता, कि तभी तीखे औजारों
की आवाज़ से बैठ जाता
उसका नन्हा दिल
घुट जाती आवाज़,
और कुछ ही पलों में
खत्म कर दी जाती उसकी लीला,
कभी-कभार गलती से
जन्म ले भी लिया,
तो आज़ाद नहीं है वो
करने हैं उसे घर के,
भाई-बाप और स्कूल
के काम,
सुनने हैं अगले घर जाने के ताने,
तैयार करना है खुद को
उस दहलीज़ के लिये,
जिस का लेशमात्र भी
पता नहीं है उसको,
फिर जाना है उस घर
में सज-संवर कर
जहाँ मुँह बाए खड़े हैं
छोटे से बड़े सब आस
लगाये कि बहू आयेगी
ये करेगी-वो करेगी,
न होने पर कई
तमगे पहना दिये जायेंगे।

शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चौकी के पीछे,
मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब,
जिला सिरमौर, हि.प्र.

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 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: मन // शबनम शर्मा की नई कविताएँ
मन // शबनम शर्मा की नई कविताएँ
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