कहानी // अनकहा सच // डॉ. मंजरी शुक्ला

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अनकहा सच कितनी बार अपनी पसंदीदा नीली कलम उठाई और डायरी के बीच में फँसा दी। भूरे ज़िल्द की डायरी के सफ़ेद पन्नों ने जैसे अपनी उम्र पूरी कर ली ह...

अनकहा सच

कहानी // अनकहा सच // डॉ. मंजरी शुक्ला

कितनी बार अपनी पसंदीदा नीली कलम उठाई और डायरी के बीच में फँसा दी। भूरे ज़िल्द की डायरी के सफ़ेद पन्नों ने जैसे अपनी उम्र पूरी कर ली हो और हल्की पीली चादर तान कर सोने जा रहे हो। तकदीर का खेल पर पन्नों के बीच छुपकर भला कहाँ चैन पाता है, वो तो आज़ाद होकर सबको अपनी उँगलियों पर नचाकर मुस्कुराता है और तमाशा देखता है। ना जाने कितने ख़्याल धुएँ की तरह मेरी आँखों में चुभते हुए, रंगीन सपनें पनीले करते हुए, गालों पर फ़िसल कर झूठी और मायावी दुनियाँ से आज़ाद हो गए। आज मान बहुत याद आ रही है। रात रात भर रोते हुए, कभी काले बादलों के बीच तो कभी सितारों की ओढ़नी में माँ का चेहरा तलाशने की नाकाम कोशिश करती रही, पर वो ना मिली। कई बार सोचा कि उनके बारे में लिखूँ पर पता नहीं क्यों मैं कभी माँ के बारें में लिख नहीं सकी...धुँधले अक्षरों के बीच शब्द जैसे गुम हो गए।

लिखती भी कैसे..क्या लिखती.....इंसान अपनी गलतियों को अँधेरे में भी नहीं सोचना चाहता। कई गलतियाँ तो मुझसे भी हुई, अनजाने में सही और कई बार माँ की बात नहीं मानते हुए डंके की चोट पर कुछ कर दिखाने के चक्कर में। कहाँ से कहाँ पहुँच गई मैं। बीती घटनाओं को याद करते ही रोंगटे खड़े हो जाते है। समझती रही कि मैं वक़्त को अपने हिसाब से चला रही हूँ। आसपास के लोग जो मेरी सुंदरता के कसीदे पढ़ा करते थे, उनके बीच इठला कर और अपनी अदाएँ दिखाकर खुद को मैंने कभी किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं आँका और आज इस जिद का नतीजा मेरे सामने है। गोरा, चिट्टा, घुँघराले सुनहरे बाल और नीली आँखों वाला मेरा बेटा सोमू, जिसके बाप का नाम सिर्फ़ मुझे पता है। ना तो मेरा बेटा जानता है कि उसका पिता इस दुनियाँ में है भी या नहीं और ना ही तीन साल की मासूम उम्र में उसे इतनी समझ है। पर घर के बाहर की देहरी से लेकर दीवार पर टंगे भारत के नक़्शे तक सबको उसके बाप का नाम जानने की उत्सुकता है। चाहे तीन बच्चे छोड़कर भागी हुई पड़ोस की श्यामा का पति हो, जो तंबाखू मसलते हुए उसे देखकर और जोर से ताली पीटकर भद्दी सी मुस्कान देता है या बगल के घर में रहने वाला छुटभैया नेता, जिसकी नज़र उसके चेहरे से उतरती हुई हमेशा गर्दन पर ठहर जाती है। ऐसा लगता है कि मेरे पति का नाम प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाएगा, तभी तो सभी के माँ बाप फ़ेंटा कसकर तैयार खड़े हैं, उनके भावी कर्णधारों को बताने के लिए। जब मुझे कोई उपाय ना सूझा तो मैंने अपनी चाची की बात पर अमल करना शुरू कर दिया, जिनका मानना था कि एक चुप हज़ार बलाएँ टालती है। इस बात पर कभी मैं अपनी सहेलियों के साथ हसँते-हँसते लोटपोट हो जाया करती थी, पर समय कई बार उन्हीं बातों पर हमें वापस चलना सिखाता हैं, जहाँ से हम बहुत तेज दौड़कर आगे निकल आते है। शायद हम ठीक से उस जगह पर चले ही नहीं थे या कदम ऐसे फ़िसले थे कि बहुत नीचे तक गिरने के बाद कुदरत ने हमें सही राह दिखाने के लिए वापस उसी जगह पर एक बार फ़िर पहुँचाया दिया होता है। कहते है इतिहास खुद को दोहराता है और यहाँ भी वहीँ बात चरितार्थ हुई। जिस चाची के साथ मैंने उनके जीवन के ढेर सारे अच्छे - बुरे अनुभव बाँटें..जिनके साथ मैं बहुत ही गंभीर भाव मुद्रा बनाकर बैठती तो ज़रूर थी पर मन ही मन उन पर हँसती थी, उनका मज़ाक उड़ाती थी और उनकी कही एक भी बात को अमल में लाने की कोशिश नहीं करती थी। मैं सोचती थी कि ये तो पुराने ज़माने की चिड़चिड़ी बुढ़िया हैं। इन्हें भला वो सब कहाँ पता हैं जो मुझे पता है। पर मेरी सोच गलत निकली। विज्ञान की तरक्की और नए उपकरणों को देखकर इंसान की सोच भी बदले, ये ज़रूरी नहीं। जैसे चाची के ज़माने में मर्द औरत को पैर की जूती बनाकर रखना चाहता था, वैसे ही आज भी। हाँ..अपवाद तो हर जगह होते है, वो चाची के समय में भी थे, पर औरत को बिस्तर पर उसकी औकात दिखाकर रौब गाँठने वाले किस्से सुनाकर दम्भ भरने वालों से शायद ही कोई गली अछूती हो। मैंने सोमू के पिता के नाम नहीं बताने के लिए धीरे-धीरे लोगों से कटना शुरू कर दिया। ना मैं किसी से बात करती और ना ही किसी को जबरदस्ती मेरे घर के सुराख़ का छेद और बड़ा करके घर के अँदर झाँकने का मौका देती।

क्योंकि किसी को नहीं पता है कि पीटर ने मुझे उसके नाम की कीमत पचास लाख रुपये के रूप में दी है ,जो उसके नाम के साथ ही बैंक के लॉकर में महफूज़ रखी हुई है। इतनी बड़ी रकम के साथ ही मैंने मेरे बेटे के बाप का नाम दुनियाँ की नज़रों से छुपाकर एक तिजोरी में बंद करके रख दिया है।

आज अपने स्याह पड़े चेहरे और साँवली रंगत को देखकर आईने के सामने जाने का भी मन नहीं होता। पर समय ने ही मुझे ज़लील और बर्बाद किया है। कभी मैं भी सोमू जैसी ही धूप सी उजली और गोरी थी।

मैं जहाँ भी जाती थी, लोगों की निगाहें मुझ पर ही ठहर जाती थी, पर तब उम्र के तकाज़े के कारण मैं समझती थी कि वे सभी लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं इसीलिए मेरी तरफ भरपूर निगाहों से देखते हैं। यह तो मेरी माँ ने मुझे बताया कि मैं बहुत सुंदर हूँ।

उसी ने मेरे दिमाग में भरा कि पढ़ाई लिखाई जैसी बातें मामूली और गैर जरूरी होती हैं अगर कुछ काम आता है तो वह है आकर्षक व्यक्तित्व और खूबसूरत चेहरा। मुझे आज भी याद है कि मेरी पतली दुबली माँ जब पीली साड़ी के साथ लो कट ब्लाउज़ पहन कर निकलती थी तो तेल लेने वाले बनिए की धार ना जाने कितनी बार बर्तन के बाहर गिर जाती थी। माँ खिलखिलाकर हँस देती और बनिया अपनी गन्दी सी बनियाइन ठीक करते हुए निहाल हो जाता। माँ की चपलता और उनके उन्मुक्त व्यवहार ने जैसे सभी को उनका दीवाना बना रखा था।

जब भी मैं अपनी कपड़ों से भरी अलमारी देखती हूँ तो ढेर सारे कपड़ों से ठसाठस होने के बाद भी मुझे लगता है कि मेरे पास कम कपड़े है तो मुझे माँ बहुत याद आती है। माँ के पास कभी बहुत सारे कपड़े नहीं रहे, पर चार जोड़ी कपड़ों को भी कैसे सलीके से रखा जा सकता है, यह उनसे बेहतर शायद कोई नहीं बता सकेगा। मैं जब भी उन्हें अकेले में बैठकर रोता देखती तो कुछ भी समझ ना पाती और उनके साथ ही रोने बैठ जाती। मेरे पूछने पर भी उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया, बस अपनी साड़ी का पल्लू कानी ऊँगली में लपेट कर घुमाना शुरू कर देती और आसमान की ओर ताकने लगती।

अँधेरी रातों में भी वो ना जाने क्या सोचती रहती और घंटों उसी तरह बैठी रहती। मैं थककर उनकी गोद में वहीँ पसर जाती और अगली सुबह जब मेरी आँख खुलती तो माँ हमेशा की तरह हँसते -मुस्कुराते हुए फुर्ती से घर के काम निपटा रही होती।

आईने के अंदर झाँकने पर पता चलता है कि समय कितनी तेजी से बीतता है,वरना पल,घंटे और दिन तो जैसे सरकते ही नहीं..घड़ी की सुइयों के साथ मेरी लापरवाह उम्र भी कई बाँध तोड़कर मतवाली हवा की तरह चल पड़ी। धीरे ही सही, पर पहुँच गई मैं अपने सोलह वर्ष में, जब मैं किताबों के अंदर सिर झुकाकर माथा पच्ची कर रही होती तो माँ आकर समझाती-"गुड़िया रानी, ज़्यादा पढ़ोगी तो आँखों के नीचे काले घेरे पड़ जाएँगे। जरा घूम-फिर भी आया करो सामने वाले घर में जाकर।"

यह कहकर माँ ठहाका लगाकर हँसती और मैं शरमा कर नजरें झुका लेती।

सामने वाले घर का इशारा मैं खूब समझती थी। वो घर मेरी सहेली मंजूषा का था, जिसका सफ़ेद रंग का बहुत खूबसूरत सा मकान था। घर बहुत बड़ा तो नहीं था पर उसकी मम्मी ने बड़े ही सलीके से घर को सजा रखा था। दरवाज़े से ही रंगबिरंगे झाँकते फूल और दीवार तक इतराकर चलती मालती के फूलों से लदे गुच्छे,जैसे मन मोह लेते। मंजूषा के घर में सभी लोग काले-कलूटे थे। कई बार बैंगन की सब्जी खाते वक्त मुझे उसके परिवार वाले याद आ जाते। उसका भाई भी काला कलूटा था पर उनके पास बहुत पैसा था, शायद इसीलिए हमेशा गोरे रँग और सुँदरता की बात करने वाली मेरी माँ उन लोगों पर पूरी तरह से लट्टू थी। पर यहाँ पर माँ की दाल इसलिए नहीं गल पा रही थी क्योंकि मंजुषा के पिता का देहांत कई बरस पहले ही हो चुका था। सुना था कि वह बहुत बड़े व्यापारी थे और अपने पीछे बेहिसाब धन दौलत छोड़ गए थे। पर मंजुषा की माँ इस बात को दुनिया के सामने राज़ ही रखना चाहती थी, इसलिए वह हमेशा हल्के रंग की साधारण सूती साड़ी पहनती और बच्चों को भी बिल्कुल साधारण तरीके से रखती। मंजूषा के भाई को तो मुझे ताकने के अलावा कोई और काम ही नहीं था।

भगवान जाने वह मरगिल्ला सा कार्टून करैक्टर सा दिखने वाला प्राणी इतने बड़े ख़्वाब कैसे देख रहा था। वो लुप्त हो चुकी डायनासौर की प्रजाति की मोटी छिपकली सा दिखने वाला कलूटा, मुझे जैसी लड़की से दोस्ती करना चाहता था, जिसके पीछे शहर के एक से एक स्मार्ट लड़के पड़े हुए थे। मुझे तो उसके भाई को देखकर ही मन करता था कि अपनी नीली बद्दी वाली चप्पल खींचकर उसके मुँह पर मार दूँ। कम-से-कम उसके अजीब से चेहरे पर चप्पल पड़ते ही जब उसका चौकोर काले फ्रेम का चश्मा टूटेगा तो कुछ दिन वह मुझे देख नहीं पाएगा। उसका नाम भी बहुत ही अजीबोगरीब था। शक्ल से भी ज़्यादा, "निबलू"...... भगवान जाने नींबू से मिलता जुलता नाम उसके घरवालों ने कहाँ से रख लिया था। पहले तो मुझे लगता था कि शायद नींबू का की कोई पर्यायवाची है, जो उसकी बुद्धिमान सी दिखने वाली माँ ने रख दिया होगा। कम बोलने वालों के साथ हमेशा यह खुशकिस्मती रहती है कि लोग उन्हें अक्सर अकलमंद ही समझते हैं चाहे वे पूरे के पूरे "ढ" ढक्कन के हों और एक मैं हूँ जो दाँत फाड़-फाड़ कर हँसती रहती हूँ कि सामने वाला डायरी के खुले पन्नें पढ़ने में दो पल का भी समय नहीं लगाता।

हाँ...तो मैं बता रही थी निबलू के बारे में। मैंने माँ से कहा कि वह दिन भर मुझे देख कर सीटी बजाया करता है। इस पर मेरी माँ मुस्कुरा भी और वह मुझे सीटी बजाने के फ़ायदे बताते हुए इसे होंठों का एक बेहतरीन व्यायाम बताने लगी। मैंने चिढ़ते हुए कहा -"दुनिया की सारी माँ अपने बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए कहती हैं और यहाँ तक की मंजुषा की मम्मी भी... फ़िर आप ही क्यों मुझे मंजूषा के उस अजीब सी शक्ल वाले भाई से दोस्ती करने के लिए कह रही है। मैं मर जाऊंगी पर इतने बदसूरत लड़के से कभी शादी नहीं करूंगी।" यह सुनकर मैंने डरते हुए माँ की तरफ़ देखा क्योंकि मुझे लगा कि कहीं एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरा स्वागत ना कर दे पर माँ की आँखों में आँसूं झिलमिला गए।

वे भरे गले से बोली-"कई बार जो हमें दिखता है, वह खूबसूरत नहीं होता पर वह हमारे लिए बहुत बेहतर होता है। तेरी उम्र एक ऐसी परियों की दुनियाँ है, जहाँ पर हर राजकुमारी अपने राजकुमार का ही सपना देखती है जबकि असलियत में यह दुनिया उसी राजकुमारी की कहानी के राक्षसों से भरी पड़ी हुई है। खुश किस्मत होती है वह राजकुमारी जिसे अपने ख़्वाबों का राजकुमार मिल जाता है, वरना मेरे जैसे भी तो लोग हैं इस दुनिया में....." कहते हुए माँ भरभरा कर रो पड़ी। मैंने माँ की ओर देखा और आज पहली बार मुझे उनके ऊपर तरस आया। रोने के कारण उनका गोरा चेहरा बिलकुल लाल हो गया था। नाक पर पसीने के मोती बिखरें थे और काले घुँघराले बाल जूड़े से खुलकर कंधे तक आ गए थे।

मैंने धीमे से कहा-"मेरे पापा कहाँ है? क्या तुम आज भी मुझे इस बात का जवाब नहीं दोगी?"

माँ बड़े ही प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोली-" वह कायर थे। उन्हें जैसे ही पता चला कि तू मेरे पेट में है वो घर से कहीं चले गए। कुछ दिनों तक उनका कोई पता ठिकाना नहीं मिला। मैं पागलों जैसी यहाँ से वहाँ भटकती रही। उनके जितने दोस्तों को मैं जानती थी, मैंने सबसे पूछा पर कहीं कुछ पता नहीं चला किसी ने कहा शायद वो शहर छोड़कर चले गए थे।"

मैंने आश्चर्य से पूछा -"तो क्या आपके अलावा और किसी ने उन्हें ढूँढने की कोशिश नहीं की?"

"क्यों करता कोई ..तेरे दादाजी ने ही तो उन्हें खुला सांड बना रखा था कि जहाँ चाहे मुँह मारता फिरे।" माँ ने क्षोभ से कहा

मैंने माँ का काँपता हाथ पकड़ा और कहा-"पर आख़िर हुआ क्या था?"

"मैं खुद ही कहाँ समझ पाई थी। जैसे ही मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ, मैंने सबसे पहले ये खुशखबरी सुनाने के लिए तेरे पापा के कमरे में गई, जहाँ पर वो कोई किताब पढ़ते हुए सिगरेट पी रहे थे। मैं भावातिरेक में कुछ बोल ही नहीं पाई और उनका हाथ मेरे पेट पर रख कर मुस्कुरा दी। दो पल को तो वो कुछ समझ ही नहीं पाएँ और हँस दिए पर जैसे ही वे समझे उन्होंने दाँत पीसते हुए कमरे की दीवार पर किताब दे मारी और जलती हुई सिगरेट ज़मीन पर फेंक दी। किताब के पन्नें फरफरा कर फ़र्श पर बिखर गए और जलती हुई सिगरेट उनकी चप्पल पर। मैं डर के मारे काँपने लगी। जब तक मैं कुछ समझ पाती....

माँ ने ये कहते हुए अपनी कलाई ज़ोरो से दबा ली, पर उन्हें बीच में रोकने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।

माँ जैसे खुद से ही कह रही थी -"तेरे आने की बात सुनकर ही तेरे पापा स्लीपर डालकर कमरे से निकल गए थे। मैं उनके पीछे -पीछे भागी पर तब तक वो कार लेकर वहाँ से चले गए।"

"पर मम्मी, मैं तो उनकी अपनी बेटी थी ना, तुम्हारी तो उनसे शादी हुई थी ना, फ़िर वह तुम्हें छोड़कर क्यों चले गए?"

माँ बीच वाली ऊँगली में पहनी माणिक की अँगूठी को आगे-पीछे करते हुए बोली-"तू मर्दों को नहीं जानती,तभी तो ...तभी तो मैं तुझे समझाती हूँ कि किसी के काले गोरे रंग पर मत जा। मैं अपनी सहेली की शादी में गई थी। वहीं पर तेरे पापा से मिली थी। माँ की आँखों में जैसे पापा का चेहरा घूम गया। वह दरवाजे पर ऐसे देखने लगी, जैसे पापा उन्हें अभी भी वहीँ खड़े दिखाई दे रहे हो।

"तेरे पापा लाल शर्ट और काली पैंट पहने हुए एक कोने में खड़े पान खा रहे थे, पर उनकी भूरी आँखें और होंठ मुझे आज भी याद है। पता है तुझे, वह करीब दो घंटे तक एक ही जगह पर अपनी कोहनी टिकाए मुझे देख रहे थे। मेरी सभी सहेलियाँ मुझे छेड़ रही थी। ढोलक की थापों के बीच में वो हँस रही थी और तेरे पापा की ओर इशारा करके दिखा रही थी। उन सबका मुस्कुराना, मुझे छेड़ना सब जैसे एक सपने सा लग रहा था। मैं ख़ुद को परियों की शहज़ादी समझ रही थी और मन ही मन इतरा रही थी। थोड़ी देर पहले लगने वाली उमस भरी गर्मी का महीना मानों फूलों से भरा बसँत का मौसम हो गया था। मैं कल्पनालोक में विचर रही थी.. उड़ रही थी..रह-रहकर मुझे एक मीठा सा एहसास हो रहा था कि कोई मुझसे इतना भी प्यार कर सकता है। मौका पाकर मैं झट से अपनी सहेली के कमरे में जाकर आईने को ताक आती और सोचती, क्या मैं वाकई इतनी सुन्दर हूँ या मोहब्बत अचानक हमें ख़ूबसूरत बनाकर पूरी कायनात को खुशनुमा बना देती है।

मेरी सहेलियों ने मुझसे जब बताया कि तेरे पापा ने उनमें से किसी को एक नज़र भी नहीं देखा तो मेरा मन मोर सा नाच उठा। मैंने अब पहली बार तेरे पापा की तरफ़ नज़र भर कर देखा। मेरी सबसे सुंदर सहेली शामली उनके आगे पीछे चक्कर काट रही थी पर वह बस टकटकी लगाए मुझे ही देख रहे थे। बचपन में फ़ैब्रिक पेंटिंग सीखते समय मैने चाँद और चकोर की बड़ी ही खूबसूरत पेंटिंग बनाई थी, पर आज पहली बार जैसे वह साकार हो कर मेरी आँखों के आगे आ गई थी। हाँ, आज मैं सचमुच चाँद ही तो लगती, अगर आज सफ़ेद झिलमिल सितारों वाली साड़ी पहन लेती और यह सोच कर मैंने अपनी नीली साड़ी की तरफ़ देखा और हँस दी। दूर खड़े तेरे पापा ने मेरे हँसने को मेरी सहमति समझा और मुस्कुरा दिए। तभी मुझे मेरी माँ आती दिखाई दी। अगर पूरे मोहल्ले में कहीं पत्ता भी खड़कता था, तो उन्हें जैसे बहती हवा सबसे पहले जाकर बता आती थी,और यहाँ तो बात उनकी अपनी बेटी की थी। वह भी लोगों को धक्का देते, दो लोगों के बीच रास्ता बनाते ऐसी दौड़ती चली आ रही थी, मानों किसी चोर का पीछा कर रहीं हो। जब वो मेरे पास आई, तो उनकी साँस धौकनीं सी चल रही थी।

माँ मेरा हाथ धीरे से दबाते हुए बोली जानती है इस ब्याह में सब तेरी ही बातें कर रहे हैं। वह लड़का देख रही है ना तू जो पिछले एक घंटे से तुझे ताकता ही चला जा रहा है। सब बता रहे हैं, बहुत अमीर है वह। माँ गदगद स्वर में बोली

फिर मेरे और करीब आकर धीरे से बोली कि लोग कहते है, वे करोड़पति लोग है। सब कह रहे है कि तू उसे पसँद आ गई है। मैं तो कहती हूँ कि अगर तेरी उससे शादी हो जाए ....

मैंने उनकी बात बीच में काट कर कहा, हाँ जानती हूँ, तो तुम गंगा नहाने चली जाओ।

अरे हाँ, सच कह रही हूँ, गंगा जी क्या.. यमुना.. नर्मदा.. गोदावरी.. सारे तीरथ एक साथ कर आऊँ। इतना अच्छा हीरो जैसा लड़का भाग्य से मिलता है। अरे तू उसको देख तो, कम से कम एक घंटे से ऊपर हो गया। मैं उसे बहुत देर से देख रही हूँ। वह बस तुझे ही एकटक देखे जा रहा है और जरा उसकी माँ को तो देख, जो गहनों में लकदक बैठी चमक रही है। हे भगवान..तू जिसको भी देता है, छप्पर फाड़ कर देता है एक हमें देखो सारी उम्र बीत गई पर इन काली बिछियों को साबुन के पानी के घोल में धोकर, कपड़े वाले ब्रश से रगड़-रगड़ कर चमका कर ही खुश हो गए और उस लड़के की माँ को तो देखो, दसों उँगलियों में कैसे हीरे जड़े मोटे-मोटे बिछुआ पहने बैठी है। माँ ने एक ओर ताकते हुए कहा

फिर जैसे खुद ही नींद से जागी और मेरा हाथ पकड़कर मनुहार करते हुए कहने लगी- मेरी रानी बेटी, मेरी बात मान, मेरे पास तो पैसे है नहीं, तेरी शादी करवाने के लिए..और तू भाग वाग मत जाना किसी लुच्चे लफ़ंगे के सँग, क्योंकि उमर तो तेरी दुधारू गाय के बराबर हो रही है, हाँ, पर तू ज़रा दुबली पतली है तो लगती मिमियाती बछिया ही। अगर तू भाग गई तो मेरी बड़ी बदनामी हो जाएगी। गंगा मैया का स्नान तो छोड़ ही दे, मुझे ना जाने कहाँ मुँह धोने जाना पड़ेगा। माँ की बात सुनकर मैं हँस दी और मैंने कहा, ठीक है मैं तैयार हूँ। तुम बात कर लो और मैंने माँ को मुस्कुराते हुए हाँ कर दिया। जैसे उस वक्त मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। वो कहा गया है ना,विनाश काले विपरीत बुद्धि ...जब बुद्धि विनाश की ओर जाती है तो उसे कुछ भी नहीं दिखता।

मेरे जन्म के समय ही पिता चले गए थे, इसीलिए माँ को मैं सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी लगती थी। माँ को लगता था, मेरे हाथ पीले हो जाए तो वह गंगा स्नान को हरिद्धार चली जाए। मुझे भी लगा, इतने अच्छे घर का लड़का है, कम से कम पैसे लत्ते की तो मुझे कभी कोई कमी नहीं रहेगी। मैंने माँ की ओर देखा, जो इस विवाह में भी एक साधारण पीली साड़ी, हरे ब्लाउज़ और नारँगी पेटीकोट के साथ पहनकर आई थी। लाख कोशिशों के बाद भी उनकी सस्ती पीली साड़ी का पल्लू, साड़ी की लंबाई कम होने के कारण, हरे ब्लाउज़ को ढक नहीं पा रहा था। माँ को देखकर मेरा दिल भीग गया। आज भी मुझे माँ की आँखों की चमक याद है, जब वो तेरे होने वाले पापा देख रही थी। ना चाहने पर भी ख़ुशी के मारें बार- बार उनकी भीगी पलकों पर आँसूं छलछला उठते थे।

पर माँ को कम से कम यह तो पता करना चाहिए था कि मैं ऐसी कौन सी हूर की परी थी कि एक घंटे के अंदर ही एक करोड़पति लड़का, जिसके आगे-पीछे नौकरों की फ़ौज चलती थी, जो दिखने में भी इतना खूबसूरत था अचानक ही मुझ पर मर मिटा। पर ऐसा ही होता है, जब किस्मत खराब होती है तो ऐसा ही होता है..और ये कहते हुए उनकी आँखों के जैसे सैकड़ों दिए एक साथ जले और बुझ गए। दो आँसूं आखों से होते हुए उनकी कलाई पर गिर पड़े।

और फिर माँ ने अपनी कलाई इतनी जोर से दबा ली कि उनकी हरी चूड़ी चिटक गई। मैंने माँ का हाथ तुरंत पकड़ते हुए पूछा-"यह क्या कर रही हो।" पहली बार मुझे माँ से सच में सहानुभूति हुई। मैंने बहुत सावधानी से उनकी टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े उठाए और एक तरफ़ रखते हुए कहा- "लगता है, आपका दिमाग खराब हो गया है।"

"हाँ.. बेटा दिमाग ही तो खराब हो गया था मेरा। मैंने सिर्फ आठ इंच का चेहरा देखा। उस चेहरे के पीछे जो कई स्याह चेहरे छिपे बैठे थे, उन्हें नहीं देख सकी। मुझे उसके आगे भी उसको देखना चाहिए था। मुझे उसके बारे में पता करना चाहिए था, शायद जानते बूझते हुए मैंने नहीं पता किया कि कहीं ऐसी किसी बात का पता ना लग जाए, जिससे मैं उससे शादी ना करूँ और मेरी आँखों के आगे मेरी माँ का चेहरा घूम गया। मेरी माँ के पास बिल्कुल पैसे नहीं थे। उन्होंने सोचा उनका भी बुढ़ापा आ जाएगा और मैं जानती हूँ, उनकी गलती नहीं थी। वह यह सोच कर खुश हो गई थी कि मैं रानी की तरह राज करुँगी। मैं शायद जिंदगी भर कुँवारी रहती तो भी वह मुझे बैठ कर खिलाती पर उनकी किस्मत बहुत खराब थी मुझसे भी ज़्यादा। हाँ, तो मैं तुझे बता रही थी कि कैसे तेरे पापा घर के बाहर चले गए थे, जब एक शाम को वो लौटकर आए तो सीधे धड़धड़ाते हुए कमरे में चले गए। मैं उनके पीछे-पीछे भागी जब तक वो कुछ कहते, मैं उनके सामने जाकर खड़ी हो गई और उनसे पूछा -"पर क्यों करा अबॉर्शन! क्या तुम्हें बच्चा नहीं चाहिए? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि हमारा पहला बेबी आ रहा है।"

"पागल हो गई है क्या? बच्चों की लाइन लग लगाएगी क्या…पहले लड़का चाहिए होगा, फ़िर लड़की चाहिए होगी.. तुझे तेरा फिगर खराब करना है क्या? साँड़ जैसी हो जाएगी। बहुत जल्दी ही मटक-मटक के चलने लगेगी। कौन जाएगा मेरे साथ पार्टी में यहाँ वहाँ.. ना दोस्तों के साथ नाच पाउँगा.. ना कहीं घूम सकूँगा। बस तेरी तिमारदारी में लगा रहूँगा आया की तरह चौबीसो घंटे ..."

"अरे, करोड़पति होना भी कोई आसान बात नहीं है। रुतबा कायम रखना पड़ता है।"

मुझे तेरे पापा की बात सुनकर जैसे चक्कर आने लगे। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें हो क्या गया है। दो महीनों तक पलकों पर बैठाए रखने वाला आदमी बच्चा गिराने की बात इतने आराम से कर रहा है जैसे सड़ा हुआ दाँत निकालने की सलाह दे रहा हो।

मैंने तेरे पापा से हिम्मत करते हुए कहा- "पर लोग खुश होते हैं, शादी के बाद फैमिली बनाते हैं।"

"मैं नहीं बनाउँगा। कान खोलकर अच्छी तरह सुन लो, मैं बिल्कुल भी नहीं बनाउँगा।"

"पर आप बच्चा गिराने की बात कर रहे हैं, इससे मेरे शरीर पर भी नुकसान हो सकता है।"मैंने आखिरी शस्त्र फेंका

"कुछ नहीं होगा तेरे शरीर को .... तेरा शरीर बड़ा सोने का बना है ना ...तू क्या समझती है जो पचास औरतें मेरा बच्चा गिरा चुकी है, सब का शरीर खराब हो गया है।"

मैं सन्न रह गई। ऐसा लगा जैसे कोई मुझे नुकीले पंजों से नोच रहा है। खुद को संभालने के लिए मैं वहीँ पलंग का कोना पकड़ कर खड़ी हो गई। पर तेरे पापा इस पर भी नहीं रुके, उन्होंने कहा, अगर तुझे लगता है कि तुझ जैसी काली कलूटी पर मैं मोहित हो गया तो बड़ी गलतफहमी में जी रही है तू आज तक। अरे, मेरे दोस्त से मेरी शर्त लगी थी पूरे दस लाख रुपये की। वो कह रहा था कि तुझे कोई पटा नहीं सकता। पूरे दस लाख नगद देने पड़े बेचारे को।

अनिल मिश्रा पाँच साल तक तेरे पीछे लगा रहा, याद है तुझे?"

"मुझे मेरी क्लास का वो लड़का याद आ गया, जो सारे समय चश्मे के पीछे से मुझे घूरा करता था।

"पर उसने तो मुझसे कभी कुछ नहीं कहा।" मैंने हारे हुए सिपाही की तरह बोला

"क्योंकि उसकी कभी हिम्मत नहीं पड़ी, मुझे उस शादी में ही पता चला था कि वह तुझसे प्यार करता है। पाँच साल में तूने उसको एक बार भी नहीं देखा, तो मैंने शर्त लगाई कि मैं तुझे दो घंटे में अपना बना कर दिखाऊंगा।"

"तो तुमने मुझे शर्त में जीता है..कहते हुए मैं उनके आगे रोने लगी।

फ़िर भी मैंने अपने आँसूं पोंछते हुए कहा-"कोई बात नहीं, जो हो गया सो हो गया उसे सपना समझ कर भूल जाओ। अब तो मैं तुम्हारी पत्नी हूँ। यह तुम्हारा बच्चा है।"

तेरे पापा ठहाका लगते हुए बोले-"तुम जैसी बहुत पत्नी आई और बहुत पत्नी गई। मेरे बाबूजी को नहीं देखा है क्या, आज की तारीख़ में भी पच्चीस बरस से कम उम्र की औरत उनके कमरे में नहीं जाती है।"

मैं शर्म और अपमान से सिहर गई। अब मुझे समझ में आया कि माँ हमेशा चुप क्यों रहती थी।

हे भगवान... कहते हुए मैंने अपने कानों पर उँगलियाँ रख ली। रोते हुए मैं कमरे से बाहर भागी। सीढ़ियाँ उतरते समय मैंने माँ जी को देखा, जो रेलिंग पकड़े वहीं पर खड़ी थी। उनका आँसुओं से तर चेहरा और सूजी आँखें देखकर मैंने अपनी नजरें झुका ली। माँ जी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक लाल रंग के कपड़े की पोटली थमाते हुए धीरे से बोली-"कोई ज़रूरत नहीं है, तुझे अपने बच्चे को गिराने के लिए। यहाँ से चली जा और एक नई जिंदगी बना। यह बच्चा तेरा भी है।" मैंने झुककर उनके पैर छुए और तीर की तरह दरवाज़े से बाहर निकल कर मैं सीधे तेरी नानी के यहाँ पहुंची।

घर में ताला लटका हुआ था। आस पड़ोस से पूछने पर पता चला कि तेरी नानी हरिद्वार निकल चुकी थी। बहुत खुश थी वो मेरी शादी के लिए। सारे देवी देवताओं को बधाई देने गई थी। आख़िर बरसों की साध जो पूरी हुई थी उनकी। मैं उनकी नादानी पर मुस्कुरा दी। पड़ोस वाले लड़के को बुला कर मैंने सड़क पर पड़े एक पत्थर से ताला तोड़ा और घर के अंदर गई। अंदर से कुंडी लगाकर मैंने पोटली खोली, तो उसमें ढेर सारे सोने के गहने चमचमा रहे थे और हजार रुपयों की एक मोटी सी गड्डी थी।

अपनी सासू माँ के लिए मेरे मन में भगवान से भी ज़्यादा इज्जत पैदा हो गई। पता नहीं देवी जैसी औरत के गर्भ में राच्छस कैसे आ गया था पर दूसरे ही पल जब उसके बाबूजी याद आए तो ये कोहरा भी मेरे मन से छंट गया। जब तेरी नानी कई दिन बाद लौटी तो मेरी हालत देखकर सदमा खा गई। मेरे लाख समझाने के बाद भी मेरे भाग्य का दोषी उन्होंने खुद को मान लिया और दिन रात मेरी चिंता में घुलने लगी। कुछ ही दिनों में उन्होंने खटिया पकड़ ली। मेरे पास कोई पूँजी तो थी नहीं, तो वही गहने बेच-बेचकर घर का खर्चा और उनकी दवाई करवाई। माँ की तबीयत इतनी खराब हो गई थी कि आधे से ज़्यादा गहने बिक गए। घर भी माँ ने मेरी शादी के लिए गिरवी रख दिया था, जो उन्होंने बताया नहीं था। घर छुड़वाना भी बहुत ज़रूरी था वरना मैं और माँ कहाँ जाकर रहते। मैंने माँ से कहा भी कि नया घर ले लेते हैं पर वो नहीं मानी। उनका कहना भी सही था। जिस घर में उन्हें पचास बरस हो रहे थे, वो घर अब वो कैसे छोड़ देती।

आस पड़ोस के लोग अब पड़ोसी ना होकर रिश्तेदार बन चुके थे। उन लोगों से दूर जाना मूर्खता होती। जब अपनों ने ही घर से बाहर फेंक दिया था, तो इन्हीं लोगों ने संभाला था। माँ के सुख दुख में सब एक पैर से खड़े थे। धीरे-धीरे समय बीता और मैंने एक जगह नौकरी कर ली। फिर तू गोद में आ गई और दिन जैसे पँख लगाकर उड़ने लगे। आज देख तेरे सामने खड़ी हूँ बिलकुल अकेली। कई रिश्ते आए, सब ने कहा शादी कर लो, पर एक बार आग में कूदने के बाद दुबारा हिम्मत ही नहीं पड़ी। तुझे देखकर मैं अपना सारा दुख भूल गई। बस अब तू ही है जिस पर मेरी सारी आशाएँ टिकी है इसलिए कह रही हूँ। मैंने सामने वाले निबलू की आँखों में प्यार देखा है। बहुत प्यार करता वो तुझसे। उसकी माँ भी अच्छी औरत है। थोड़ा स्पष्ट और कड़वा बोलती है, पर ऐसे लोग खतरनाक नहीं होते। तू मीठा बोलने वालों से हमेशा सावधान रहना। तुम निबलू से हाँ कर देना।"

मैंने पहली बार माँ के दर्द को समझा और उनका हाथ पकड़ते हुए कहा-" पर माँ, अभी तो मैं सिर्फ़ सोलह साल की हूँ और आगे पढ़ना चाहती हूँ।"

"मैं अभी नहीं कर दूँगी तेरी शादी, बस तू उसको मना मत करना। मैं रोका करवा दूँगी। उसके बाद शादी तो होती ही रहेगी। पर बीच में तेरे कदम कहीं फ़िसल ना जाए। कहीं तुझसे वो गलती ना हो जाए जो मुझसे हुई।"

"नहीं, माँ तुम निश्चिंत रहो। ऐसा कुछ नहीं होगा।"

कहने को तो मैंने माँ से कह दिया पर अचानक ही दो साल बाद कॉलेज पहुँचने पर मुझे एक लड़का मिला। उसके सुनहरे घुंघराले बाल और नीली आँखें देखते ही जैसे मैं अपनी सुध बुध खो बैठी। वह मुझे देख कर धीरे से मुस्कुराया और मैं इतना खुश हो गई कि उसकी मुस्कराहट को दिन में कई बार सोचकर हँसती रही। दिन भर में कई बार अकेले में उसे सोचना और गुनगुनाना मुझे अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे हम लोगों की बातचीत होने लगी। उसने मुझसे कहा कि वह मेरे बिना नहीं रह सकता। वो सिडनी से आया था, हिंदुस्तान घूमने और हमारे कॉलेज से प्राचीन इतिहास की कुछ जानकारी लेने।

वो फ़ोन पर आधी-आधी रात तक कसमें खाकर, मुझे उसके साथ सात समंदर पर ले जाने की बात करता और मैं उसके सपनों में खोई रहती। इसी बीच निबलू ने एक दिन हम लोगों को कॉलेज के एक कोने में आपत्तिजनक हालात में देख लिया। ना वो चीखा ना चिल्लाया और ना ही उसने कुछ कहा, बस वो चुपचाप सिर झुकाकर वहाँ से चला गया। माँ ने कई बार मुझसे निबलू के बारे में पूछने की कोशिश की पर मैं टाल गई। एक दिन कॉलेज जाने से पहले मुझे उल्टियाँ शुरू हो गई। मुझे लगा, माँ मुझे पानी देंगी, मेरी पीठ थपथपाएँगी पर माँ को तो जैसे काठ मार गया था। वो बस सूनी आँखों से मुझे देखती रही। मैंने माँ को जाकर झिंझोड़ा और उनके पैरों में गिर पड़ी। मैंने माफ़ी माँगने में बहुत देर कर दी थी। माँ का सर एक ओर लुढक़ चुका था। वो हमेशा के लिए मुझे छोड़ कर जा चुकी थी, मेरी दुनियाँ उजाड़ करके। पता नहीं कैसे आस पड़ोस के सब लोग आए और माँ को ले गए। कई दिनों तक तो मुझे कोई होश नहीं था, निबलू अब छत पर नहीं आता था। मैं कॉलेज से पीटर के घर का पता लेकर गई तो पता चला कि उसकी सगाई भी हो चुकी थी।

मैंने रो-रोकर उसके घरवालों को अपनी बात सुनाई। पर उसके घर जाकर मुझे पता चला कि ना तो पीटर मुझसे प्यार करता था और ना ही उसे मुझसे सहानभूति थी। पर उसके पापा को लगा कि अगर पीटर मेरे केस में फँस जाएगा तो कभी वापस ऑस्ट्रेलिया नहीं जा पाएगा और जेल में ही उसका आधा जीवन बीत जाएगा। पैसा बहुत था उनके पास, इसलिए तुरंत मुझे पचास लाख रुपये देने की बात करते हुए पीटर को छोड़ देने की विनती करने लगे। मैंने पीटर की तरफ़ देखा जो गुस्से में मुझे देखकर थूक रहा था। मैंने पैसों के लिए हाँ कर दी और घर आ गई। दूसरे दिन एक बैग भरकर मेरे पास पैसे आ गए। कहते है इतिहास खुद को दोहराता है, पर ऐसे दोहराएगा,मुझे पता नहीं था। आज मैं अपने बेटे सोमू के साथ वैसे ही अकेले रहती हूँ, जैसे कभी मेरी माँ मुझे लेकर रहती थी......


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COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. डॉ मंजरी शुक्ला की कहानी अनकहा सच, जीवन के खुरदरे धरातल के यथार्थ को अभिव्यंजित करती कहानी है।
    भाषा एवं शिल्प की कसावट उन्हें एक कुशल कहानीकार सिध्द करती है।
    मेरी हार्दिक बधाई।

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  2. डाक्टर मंजरी शुक्लाजी, आप सचमुच में कहानीकार के अलावा एक सुलझे हुए कलाकार भी हो ! इंसानियत के हर रूप को उजागर करके कुदरत
    के रंग को इसमें मिलाकर लेख को सुन्दर आवरण से सजाया है आप ने ! साधुवाद ! हरेंद्र रावत एक्स फौजी

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    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. सुन्दर कहानी है मंजरी जी . बधाई . याद है पिछले साल हम आज के दिन एक साथ थे साँची में .

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रचनाकार: कहानी // अनकहा सच // डॉ. मंजरी शुक्ला
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