चल अकेला // डॉ. आभा सिंह

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अपने बचपन से सुनती आ रही हूं की ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ अब इस कथन में सामाजिक प्राणी का अर्थ समझते-समझते समझा कि, क्योंकि मनुष्य (साध...

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अपने बचपन से सुनती आ रही हूं की ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ अब इस कथन में सामाजिक प्राणी का अर्थ समझते-समझते समझा कि, क्योंकि मनुष्य (साधारण मनुष्य) अधिक समय तक एकांत में नहीं रह सकता इसलिए कहा जाता है कि वह सामाजिक प्राणी है। यदि कोई व्यक्ति शोरगुल या भीड़ भरे स्थान पर अकेला हो तो उसकी नजर किसी अबोध बालक की भांति अपने आस-पास परिचित चेहरा ढूंढने का प्रयास करने लगती है और यदि इस शोध पर संदेह हो (क्योंकि वर्तमान में शोध पर संदेह करने का चलन है।) तो किसी खरीदी केंद्र या बाजार जैसे स्थानों का निरीक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार के शोध का प्रतिफल यह होगा कि महिलाओं को उनके बातूनी स्वभाव के कारण नाना प्रकार के विशेषणों से सुशोभित करने वाले पुरुष भी जान जाएंगे कि बातों के अभाव में वे स्वयं भी असुरक्षित ही महसूस करते है।

मेरा यह निजी विचार उस वक्त सार्वजनिक हो गया जब मैंने भीड़ भरे एक बाजार में दो सज्जनों को परिचित होने का प्रयास करते देखा भी और सुना भी। प्रारंभ में तो ये दोनों बीच बाजार से एक दूसरे से अनजान से गुजर रहे थे परंतु क्योंकि इतने भी गुजरे हुए नहीं थे कि परिचय के सबसे आसान हथियार का उपयोग करना न जानते हो, सो थोडी ही देर में दोनों ने अपने सजीव होने का एहसास अपनी मुस्कुराहट के माध्यम से कराया। इसी के साथ पहले ने अभिवादन का भी इस्तेमाल किया (अभिवादन - मांग और पूर्ति के सिद्धांत का सटीक उदाहरण है) और कहा - नमस्ते भैय्या

दूसरा बोला - बिल्कुल सस्ते नहीं पूरे सौ रु किलो है भई टमाटर।

पहले को पहले तो अटपटा लगा फिर वह बात स्पष्ट करते हुए बोला - अरे नहीं भई मैंने तो नमस्ते कही, रही बात टमाटर की तो टमाटर ही क्या आजकल कुछ भी सस्ता नहीं।’

दूसरे ने अपनी उसी अनुभवी शैली में कहा - हां भई, गढ्ढे ही गढ्ढे है, रास्ता तो कहीं है ही नहीं।’

अब दार्शनिक बनने की बारी पहले की थी वह बोला - भय्या इन्हें गढ्ढे न कहो हो सकता है यहीं से विकास रुपी पेड़ उगेगा, या विकास रुपी सुरंग बनेगी जो हमें दूसरी दुनिया (शायद स्वर्ग या नर्क भी) में ले जाएंगी तभी तो यह गढ्ढे साधारण गढ्ढे नहीं है।

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दूसरा ‘जागते रहो’ वाले भाव घोष में बोला - ‘हां भई अड्डे ही अड्डे है हर दल गुंडे बदमाशों से सजे अड्डे है।’

मैंने महसूस किया पहला व्यक्ति वर्तमान में रहते हुए भी विनम्र था (इतिहास गवाह है कि एक समय था, है और रहेगा जब विनम्र व्यक्ति को बड़ी विनम्रता के साथ मूर्ख समझ लिया जाता था, जाता है और जाता रहेगा) इसलिए मुझे लगा कि हो न हो अवश्य इसने ‘एहसान मानो घुट्टी’ का सेवन किया हो अन्यथा जो विनम्रता वर्तमान में ‘आग लगा कपूर’ हो गयी हो वह दिखाई न देती। उस पहले ने अपनी छुट्टी की (या घूटी हुई) विनम्रता का उपयोग करते हुए कहा - ‘राजनीतिक दलों की तो बात ही छोड़ो, जो कार्य करने के है उसे ही छोड़कर बाकी सब किया जा रहा है।

दूसरा तो था ही ‘दूसरा’ बोला - ‘सुबकियां ही ले रहे है भई और क्या कर रहे है, ये नेता हर आम और खास के जीवन की आवश्यकताओं का पर्याय बनते जा रहे हैं। जिस तरह प्याज आंखों में पानी ले आता है ठीक वैसे ही ये हमें रूलाने लगे हैं, कोई शिकायत करे तो चुकुंदर-टमाटर की तरह आंखें लाल करते हैं, पालक-मेथी की हरियाली इनके दिमाग पर काई की तरह जम गई है, जिस तरह आलू को बाहर से देखकर पता नहीं चलता कि वह भीतर से काला है या सफेद ठीक वैसे ही इनके चेहरे दिल का पता नहीं चलने देते। चुनावी गप्पे (हां उन्हें मुद्दे न ही कहा जाए तो बेहतर है) याद दिलाने पर हरी कहो या लाल तिड़कते ठीक मिर्ची की ही तरह है। इनकी कृत्रिमता ठीक वैसी ही अरुचिकर है जैसे राष्ट्रपति शासन और रहा-सहा जो स्वाद है वह दल-बदल, हृदय परिवर्तन जैसी महंगी स्थितियां बेस्वाद कर देती है।’

पहले और दूसरे का वार्तालाप बिना धार की तलवार की तरह चल रहा था जिससे कोई वार नहीं हो रहा था पर चल रही थी। पहला जापान कहता था और दूसरा चीन सुनता था, जो अंतर इन दोनों देशों की उत्पादन संबंधी नीतियों में जो अंतर है वही अंतर इन दोनों के वार्तालाप में था। पहले की समस्या यह थी कि उसे रास्ता काटना था सो वार्तालाप का सिरा पकड़े रखने का दायित्व भी उसी का था। वह बोला - ‘महंगाई तो कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही है।’

दूसरा बोला - मत पूछो भई महंगाई तो दिन पर दिन चढ़ती ही जा रही है।’

रस्ता-सस्ता, गढ्ढा-अड्डा, बढ़ती-चढ़ती सारा वार्तालाप तुकबंदियो में चल रहा था, किन्तु पहले की समझ में ठीक उस ईमानदार प्राध्यापक की समझ थी जिसे कक्षा में बैठे अस्सी-नब्बे छात्रों के चेहरे देखकर ही समझ जाता है कि किसे समझ रहा है और किसे नहीं परंतु हर एक को समझाने की सुलझन में पाठ्यक्रम को पूर्ण करने की उलझन बनी रह जाती है।

ये दोनों साथ-साथ ठीक वैसे ही चल रहे थे जैसे गठबंधन की सरकार चलती है (खिंची-खिंची सी) इस बार पहल दूसरे ने की और कहा - ‘पैदल चलने वालों के लिए तो रास्ता ही नहीं रहा।’

पहला बोला - ‘हां ये वाहन धारी पैदल को इंसान ही नहीं समझते।’

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इस पर दूसरे ने कहा - ‘हम परेशान होने अलावा और क्या कर सकते है, इनकी पढ़ाई-लिखाई इन्हें केवल बेरोजगार बना रही है और ये अपनी बेरोजगारी पर फख्र महसूस करते है, ना चिंता न चिंतन केवल एक्शन-रिएक्शन।’

रुपए की गति से ये दोनों भी चलते जा रहे थे (धीरे-धीरे) दोनों का आपस में कोई मेल नहीं था, पर तालमेल बनाने की पूरी कवायद चल रही थी। बिदा लेते हुए पहले ने कहा - ‘चलिए यह मुलाकात अच्छी रही।’

दूसरा बोला - ‘हां भई कोई बात अच्छी नहीं पर यह मुलाकात अच्छी रही।’ दूसरा बोला - ‘हां भई कोई बात अच्छी नहीं पर यह मुलाकात अच्छी रही।’

इन तुकबंदियों में चली बातचीत से पहले की समझ में यह आने लगा था कि यह जो दूसरा व्यक्ति वह बात नहीं कर रहा है अपितु अपनी परिस्थितियों से सवाल-जवाब कर रहा है। पहले ने अंदाजा लगाया कि यह जरुर सरकारी सेवानिवृत्त कर्मचारी है जो दरअसल ‘कुछ न कर पाने की पीड़ा’ से पीड़ित है।

अपने अब तक के हुए वार्तालाप की कसौटी पर पहले ने दूसरे से पूछा - ‘क्यों भई क्या आप सेवानिवृत्त कर्मचारी है?

दूसरा अपने ही अंदाज में बोला - हां लाचारी ही है। हम सेवानिवृत्त है ना, कुछ नहीं कर सकते, वैसे जब हम सेवा में थे तब भी बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं थे।’

पहले ने बिदा लेते अंदाज में कहा - ‘चलिए अपना ध्यान रखिए।’

दूसरा बोला - काहे का गुमान रखिए भई, हमारे लिए तो केवल बीमा योजना वाले ही दुआ मांगते हैं।’

पहले की समझ में नहीं आया की इनकी पीड़ा क्या है राजनीतिक भ्रष्टाचार, महंगाई, हुडदंग मचाते युवक-युवती, अव्यवस्थित तथाकथित विकास, शहर संरचना या उससे भी बढ़कर कुछ न कर पाने का दुःख जिसके चलते इनकी अवस्था स्थितप्रज्ञ और पलायनवादी की पतली रेखा पर खडे व्यक्ति की तरह हो गई है जो एक मुद्दे पर आते है, प्रारंभ करते है और दूसरे विषय पर कूद लेते है। अपने सामने उस पीढ़ी की बेचैन अवस्था को देख रहा था जिसने स्वतंत्रता और प्रसन्नता के क्षितिज को महसूस किया था।

अब रस्ता लंबा जरुर था लेकिन खामोशी नहीं थी, पहला बोला - ‘किसी काम में मन लगा लो, वरना खली समय कैसे काटा जाएगा।’

दूसरा बोला - ‘हां टाटा भी जाएगा और बाटा भी जाएगा यह स्पर्धा का युग किसी को चैन नहीं लेने देगा।’

पहला बोला - ‘हां इतनी अकूत संपत्ति परंतु वही बिल्ली और बंदर की कहानी।’

दूसरा बोला - ‘मनमानी नहीं तो और क्या, हमें कमाने लिए बेचैनी, इन्हें कमाए हुए के कारण बेचैनी।’

दोनों चलते-चलते मुख्य सड़क तक आ गए सामने की बड़ी चौड़ी सड़क देखकर पहले को लगा अब दूसरा विकास की बात करेगा किन्तु दूसरा अवकाश में था यह उसकी सेवानिवृत्ति की खुशी थी या श्रवण शक्तियों की लामबंदी नहीं पता किन्तु उन्हें यह अहसास ही नहीं हो पा रहा था कि दूसरे की शब्दावली भी उपयोग की वस्तु है, क्योंकि दूसरा कुछ देखकर नहीं बोलता था बल्कि जो उसके मन में आए वह बोलता था। दोनों अपने-अपने रास्ते चल पडे़। दूसरा तो अपने कहे पर अटल चलता गया और पहला खड़ा होकर सोचने लगा कि कबीर ने यूं ही नहीं कहा कि -

चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय

दुई पट भीतर आय के साबुत बचा न कोय।’

---०००---

डॉ. आभा सिंह

सहायक आचार्य एवं विभाग प्रमुख

(हिन्दी विभाग)

वी.एम. वी. कॉमर्स जे.एम.टी आर्ट्स एवं

जे.जे.पी. साइन्स कॉलेज वर्धमान नगर, नागपुर

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रचनाकार: चल अकेला // डॉ. आभा सिंह
चल अकेला // डॉ. आभा सिंह
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