प्राची - सितम्बर 2018 - कहानी // तुम्हारे लिए // नीरजा हेमेन्द्र

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नीरजा हेमेन्द्र जन्म - 24 सितम्बर स्थान - कुशीनगर, गोरखपुर (उ. प्र.) शिक्षा - एम.ए.(हिन्दी साहित्य), बी.एड. संप्रति - शिक्षिका प्रकाशन - चार...

नीरजा हेमेन्द्र

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जन्म- 24 सितम्बर

स्थान- कुशीनगर, गोरखपुर (उ. प्र.)

शिक्षा- एम.ए.(हिन्दी साहित्य), बी.एड.

संप्रति- शिक्षिका

प्रकाशन- चार काव्य संग्रह, चार कथा संग्रह तथा एक उपन्यास. पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन. अनेक सम्मान प्राप्त.

जीवन में गति हो न हो, कोई परिवर्तन हो न हो, हम चलें या न चलें, समय का पहिया सदा अपनी गति से चलता रहता है। समय चक्र पूर्ण कर ऋतुयें भी परिवर्तित हो जाती हैं, किन्तु मेरे जीवन में सब कुछ ठहर-सा गया है. तथापि समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा है। वर्ष-दर-वर्ष मैं उम्र की सीढियाँ चढ़ती जा रही हूँ। विवाहोपरान्त घर गृहस्थी के उत्तरदायित्व निभाने में इतनी व्यस्त हुई कि ठहर कर पीछे देखने का समय नहीं मिला और आज ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे उन्नीस वर्ष की उम्र में विवाह हो जाने के पश्चात् मैं सीधे उम्र के पचासवें पड़ाव पर पहुँच आ पहुँची हूँ। विवाह के समय मैं उन्नीस वर्ष की थी।

विवाह के लगभग पाँच वषरें के अन्दर ही तीनों बच्चे मेरी गोद में आ गये थे। दो बेटे व एक बेटी। अब बच्चे बड़े हो गये हैं। जीवन में सब कुछ परिवर्तित हो गया है। किन्तु बहुत कुछ अपरिवर्तित भी है। जैसे कि मैं आज भी प्रातः चार बजे उठती हूँ। घर के आवश्यक कार्यों को करने के पश्चात् तैयार होना व अपने पति समीर को आवाज लगाना तथा विद्यालय के लिए निकलना... सब कुछ पूर्ववत् है। मैं एक सरकारी विद्याालय में अध्यापिका हूँ। मुझे विद्यालय आठ बजे तक पहुँच जाना होता है।

मेरा बड़ा बेटा बंगलौर में एक मोबाइल कम्पनी में इंजीनियर है। उसका विवाह हो चुका है। वह दो वर्ष की एक बेटी का पिता है। उससे छोटी अमीशा है। उसने एम.बी.बी.एस किया है और पी.जी.की तैयारी कर रही है। अमन सबसे छोटा है। इस समय उसकी आयु पच्चीस वर्ष है। अमीशा अपने साथ मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले एक विजातीय लड़के के साथ प्रेम विवाह करना चाहती है। लड़का अच्छा है। मुझे भी पसन्द है। किन्तु समीर को उस लड़के से अमीशा के मेलजोल बढ़ाने पर आपत्ति है। वह लड़का भी एक अच्छे मेडिकल कॉलेज से पी.जी. कर रहा है। समृद्ध घर का लड़का है, तथा गाँव से सम्बन्ध रखता है। जमीन, धन-सम्पदा, खेती सब कुछ है उसके परिवार में। मैं इस तथ्य से वाकिफ हूँ कि ऐसा योग्य लड़का मैं अमीशा के लिए ढूँढ़ना चाहूँगी, तब भी नहीं ढूँढ़ पाऊँगी। फिर भी समीर को वह ठीक नहीं लगता। मुझे स्मरण हैं वो दिन जब अमीशा का एमबीबीएस का अन्तिम वर्ष पूरा होने वाला था। अन्तिम वर्ष उसका कॉलेज के हॉस्टल में रुकना आवश्यक था। क्योंकि इस वर्ष उसकी ड्यूटी डॉक्टर के साथ वार्ड में लगती थी। जो आवश्यकतानुसार कभी दिन तो कभी रात की शिफ्टों में होती थी। तब वह रविवार को ही घर आ पाती थी।

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"आज इतनी देर क्यों हो गयी घर आने में?" एक रविवार शाम के नौ बजे अमीशा के घर में प्रवेश करते ही समीर ने पूछा था।

"पापा इस रविवार हमारी इमर्जेंसी ड्यूटी थी। आज का अवकाश मिलने वाला ही नहीं था। अन्तिम समय लगभग आठ बजे अवकाश की सूचना हमें मिली।" अमीशा ने घबराते हुए कहा था।

"मेडिकल कॉलेज से घर की दूरी आधे घंटे की है। तुम्हें डेढ़ घंटे लग गये घर आने में?" समीर ने उसके आने वाले समय को और बढ़ाते हुए पूछा।

अमीशा ने उनकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप कमरे में चली गयी थी।

जब से समीर को यह ज्ञात हुआ है कि अमीशा अपने साथ पढ़ने वाले लड़के को पसन्द करती है तथा उसके साथ ही विवाह करना चाहती है, तब से उसके किंचित मात्र भी विलम्ब से आने पर संदेह करने लगते हैं। उन्हें यह डर लगा रहता है कि अमीशा कहीं उस लड़के के साथ घूम तो नहीं रही। एक पिता के दृष्टिकोण से उनकी चिन्ता अपने स्थान पर सही है। किन्तु मैं चाहती हूँ कि इन दायित्वों के निर्वहन में बच्चों की भावनायें आहत न हों। माता-पिता के प्रति बच्चों के मन में सम्मान की भावना में कमी न होने पाये। इसलिए ऐसा करने से मैं समीर को रोकती हूँ। मैं समीर की इस सोच में भी परिवर्तन करना चाहती हूँ। उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहती हूँ कि अमीशा ऐसी लड़की नहीं है। यदि ऐसी होती तो वह मेडिकल की कठिन पढ़ाई कैसे करती? उसका मन अध्ययन में कैसे लगता? उसने कठिन परिश्रम से एमबीबीएस की शिक्षा पूरी की है। समीर के उल्टे-सीधे प्रश्नों से अक्सर घर का माहौल तनाव पूर्ण हो जाता है।

समीर का इस प्रकार के प्रश्न पूछना और अमीशा पर संदेह करना मुझे अच्छा नहीं लगता। अमीशा समझदार लड़की है। यह तो अच्छा है कि वह अपने पापा की बातों का बुरा नहीं मानती। हँसती रहती है। अपने काम में व्यस्त रहती है। लड़कियाँ होती ही ऐसी हैं। मै अमीशा में स्वयं को देखती हूँ। अमीशा ही क्यों मुझे प्रत्येक लड़की में अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देता है।

समय के साथ अमीशा ने भी पी.जी. पूरा कर लिया। अमीशा ने जिस लड़के को पसन्द किया था उसने गोल्ड मैडल प्राप्त करते हुए पी.जी. पूरा किया। वह लड़का अब समीर को भी अच्छा लगने लगा था। बल्कि समीर भी कभी-कभी यही बात कहते हैं कि ऐसा लड़का हम ढूँढ़ते तो भी नहीं मिलता।

मेरे सबसे छोटे बेटे अमन का स्वास्थ्य सबके लिए चिन्ता का कारण बना रहता है। बचपन में अमन भी उसके दोनों बच्चों की तरह बिलकुल ठीक था। इण्टरमीडियट तक पढ़ने में भी अच्छा था। मुझे स्मरण है जब प्रथम प्रयास में ही मेरे बड़े बेटे का चयन आईआईटी में हो गया था। उसे एक अच्छा सरकारी कॉलेज मिला और वह बाहर पढ़ने चला गया। दूसरे वर्ष अमीशा ने भी सीपीएमटी की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसकी भी मेडिकल क्लासेज शुरू हो गयी थीं। घर में और सभी नाते-रिश्तेदारों में इस बात की चर्चा और प्रसन्नता थी कि मेरे दोनों बच्चों में से एक का चयन इन्जीनियरिंग और एक का चिकित्सा के क्षेत्र में हो गया है। वह भी प्रथम प्रयास में। आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में प्रत्येक माता-पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा पढ़-लिख कर डॉक्टर या इंजीनियर बने। मेरे दोनों बच्चों ने हमारा सम्मान बढ़ाया था। अतः घर में उत्सव का माहौल था। रहा सबसे छोटा अमन तो वह भी चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहता था। पढ़-लिखकर डॉक्टर बनना चाहता था। इसके लिए वह भी परिश्रम व लगन से पढ़ाई कर रहा था। उसका उत्साह बढ़ाने के लिए उसके दोनों बड़े भाई-बहनों का दृष्टान्त समक्ष था। वह भी उन जैसा ही सफल हो कर सबकी प्रशंसा का पात्र बनना चाहता था।

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समय आया और उसने मेडिकल की परीक्षा दी। अति उत्साह में यहीं पर उससे और हमसे भी चूक हो गयी। हम स्वयं समझने और अमन को यह समझाने में असफल हो गये कि किसी भी कार्य को करने में सफलता और असफलता दोनों की संभावना रहती है तथा यह भी कि असफलता ही सफलता की प्रथम सीढ़ी है। प्रथम प्रयास में वह असफल हो गया। हम भी सफलता के अभ्यस्त हो गये थे। उस समय हमने अमन की भावनाओं को सम्हालने का प्रयत्न नहीं किया। उसके मन में निराशा भरती चली गयी। बाद में जब उसका व्यवहार असामान्य होने लगा तब हमने उसे सम्हालने का प्रयास अवश्य किया। कदाचित् तब तक देर हो चुकी थी। वह उद्विग्न रहने लगा। शाम को जब पूरा घर एक साथ बैठ कर टीवी देखता, हँसता, बातें करता तब अमन वहाँ से चला जाता और बालकनी में जा कर चुपचाप खड़ा हो जाता। हम समझते कि मेडिकल में चयन न हो पाने के कारण वह परेशान है। पुनः प्रयास करेगा और सब कुछ ठीक हो जायेगा। किन्तु हम ग़लत थे। अमन के भीतर निराशा के साथ, भाई बहन की तुलना में स्वय को कम समझना व असफलता का डर बैठ गया था। साथ ही यह भी कि हम सब उसे कम प्यार करते हैं और उसके बड़े भाई व बहन को सफल होने के कारण अधिक प्यार करते हैं।

किसी मेहमान के घर आने पर वह सामने नहीं आता। चुपचाप अपना कमरा बन्द कर अन्दर बैठा रहता। कभी-कभी वह मुझसे बताता कि रात भर उसे नींद नही आती। अपने पापा से वह कम बातें करता। नींद न आने से उसकी मानसिक उलझनें बढ़ने लगीं। रात भर बैठा रहता। वह अवसादग्रस्त रहने लगा। चिकित्सक को दिखाया गया। उन्होंने कहा कि ठीक हो जायेगा। किन्तु कब? हम सब उसके ठीक होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब तो नींद की दवाओं से ही उसे नींद आती है।

एक दिन हमने धूमधाम से अमीशा का विवाह कर दिया। विवाहोपरान्त वह भी एक निजी अस्पताल में डाक्टर में पद पर कार्य करने लगी है। बड़े बेटे के बंगलौर व विवाहोपरान्त अमीशा के अलग शिफ्ट हो जाने से घर में सूनापन व्याप्त रहने लगा है। मैं और समीर दिन भर अपनी-अपनी नौकरी पर चले जाते हैं। इस बीच अमन घर पर अकेला रहता है। अकेलेपन से बचाने के लिए मैंने व समीर ने उसे आगे कोई अन्य व्यवसायिक कोर्स कर लेने के लिए कहा। उसने होटल मैनेजमेन्ट करने के लिए कॉलेज में दाखिला ले लिया। जैसे-जैसे उसका कोर्स पूरा होता जा रहा था, मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसका मन पढ़ने में नहीं लग रहा है। किसी प्रकार उसने होटल मैनेजमेन्ट का कोर्स पूरा किया। तत्पश्चात् वो पुनः पूरे समय घर में रहने लगा। बाहर की दुनिया, मित्रों, रिश्तेदारों से अलग वह अपनी दुनिया में कैद रहने लगा। रात में उसे नींद नहीं आती तो अक्सर बालकनी में खड़ा हो जाता। खाने में भी अरुचि हो गयी थी। परिणामस्वरूप उसका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। इधर कुछ और परिवर्तन उसमें आये। वह अपना कक्ष व बिस्तर छोड़कर मेरे व समीर के साथ सोने लगा। कदाचित् कोई भय समाहित हो गया था उसके हृदय में। अन्ततः हमें उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पड़ा।

आज चार वर्ष हो गये। अभी तक अमन का स्वास्थ्य ठीक नही हो पा रहा है। उसके स्वास्थ्य की चिन्ता में सभी परेशान रहते हैं। होटल प्रबन्धन का कोर्स पूरा कर लेने के पश्चात् भी वह नौकरी कर पाने की मनःस्थित में नहीं है।

आज मेरा अवकाश है। घर के प्रतिदिन के सभी कार्य समाप्त हो गये हैं। इस समय दोपहर के एक बज रहे हैं। अमन सो रहा है। चिकित्सीय परामर्श के अनुसार उसे जो दवा दी जाती है उसके प्रभाव से वह देर तक सोता है। दोपहर एक बजे से पूर्व वह कभी उठ नहीं पाता। कभी-कभी और देर तक सोना चाहता है। मेरा मन उद्विग्न हो रहा है। घर के अन्दर मन नहीं लग रहा है। मैं बालकनी में कुर्सी डाल कर बैठ गयी। बालकनी में बैठ कर भी मन में विचारों का उथल-पुथल जारी है... क्या जीवन इतना दुरूह होता है? उसे जी लेना क्यों किसी चुनौती की भाँति प्रतीत होता है.....? जीवन बचपन-सा सरल क्यों नहीं होता? मेरी स्मृतियों में बचपन के दिन किसी चलचित्र् की भाँति सजीव होने लगे हैं...

...मेरा जन्म गाँव में हुआ था। थोड़ा विकसित व कुछ बड़ा गाँव। बड़े-से घर के बाहरी हिस्से में बड़ा-सा दालान था। जिसमें लगे फलों के वृक्ष प्राकृतिक व स्वस्थ वातावरण का सृजन करते थे। आम, अमरूद, करौंदे, नींबू आदि के वृक्ष ऋतुओं के अनुसार फलों से भर जाते। संयुक्त परिवार एक साथ रहता था और सबके लिए था एक रसोई घर। गाँव के सरकारी इण्टर कॉलेज से मैंने दसवीं तक की परीक्षा पूर्ण की थी। गाँव का खुला वातावरण... जहाँ पेड़-पौधे, जंगल अधिक थे। कंक्रीट के जंगल अर्थात मकानों की संख्या कम थी। हम सब भाई बहन व गाँव के बच्चे पढ़ाई करने के पश्चात् मिले खाली समय में सब मिलजुल कर खूब खेलते थे। अकेलेपन व निराशा से उत्पन्न अवसाद जैसी बीमारियों का नाम गाँव में कोई नहीं जानता था। मुझे मेरे बचपन का पसंदीदा एक खेल अब भी स्मरण है और वो है गाँव में किसी भी निर्माणाधीन मकान की छत से नीचे पड़े बालू के ढेर पर छलांग लगाने की प्रतियोगिता का। जिसमें मैं बहुधा विजयी होती। अथवा वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूला झूलना... खेतों की पगडंडियों पर दौडना... कितने सारे खेल खेलते थे हम सब बच्चे। किसी भी खेल में मैं प्रथम आने का प्रयत्न करती, बहुधा प्रथम आती भी। मैं लड़कियों वाले खेल कम खेलती। सदैव लड़कों से टक्कर लेती। हॉकी हो या गिल्ली डंडा लड़कों की टीम में बहुधा मैं अकेली लड़की होती।

देखते-देखते मैंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। घर में मेरे विवाह की बातें होने लगी थीं। उस उम्र में मैं विवाह शब्द से परिचित अवश्य थी, किन्तु अर्थ से नहीं। अपने विवाह की चर्चा सुनकर मुझमें कोई विशेष उत्सुकता जाग्रत नहीं होती जैसी कि उस उम्र की अन्य लड़कियों में होती होगी। उस समय मेरा सपना था कि पढ़-लिख कर अलग व सबसे अच्छा कुछ बनना। मैं समझती खेतों में, बागों में भाई-बहनों के साथ खेलना, कच्चे आम, कच्चे-पक्के अमरूद तोड़ना व बड़े चाव से खाना... यही जीवन है। माँ की कई डाँट खाने के उपरान्त घर के कुछ कार्यों में उनका हाथ बँटाना तथा पुनः उनकी दृष्टि बचाकर खेलने भाग जाना। तब यही जीवन था। जीवन का यही अर्थ समझ में आता था।

एक दिन मुझे पता चला, मेरा विवाह तय हो गया है। मैं दसवीं कक्षा में थी। लड़का ग्रेजुएशन कर रहा था। वो जौनपुर के एक छोटे-से गाँव का रहने वाला था। विवाह के उपरान्त मैं ससुराल आ गयी। इतने वषरें के पश्चात् भी ससुराल की स्मृतियाँ अभी तक मेरे मन-मस्तिष्क में ताजा हैं। दिनभर घूँघट में रहना, घूँघट में रहते हुए ही घर के कार्य करना, शौच के लिए खेतों में जाना... वह भी भोर होने से पहले और रात्रि में। कितनी दुर्दशा हुई थी मेरी ससुराल के गाँव में... मैं ही जानती हूँ।

कहाँ बचपन का वो उन्मुक्त जीवन और कहाँ ये जीवन जिसमें बचपन कहीं बिला गया था। कदापि मेरे भीतर कुछ साहस शेष रह गया था। अतः आगे पढ़ने के लिए मैंने विद्रोह के स्वर को मुखर किया। ससुराल से माँ के घर आकर किसी प्रकार बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। तत्पश्चात् आगे स्नातक की शिक्षा के लिए अपनी इच्छा प्रकट की। माँ के घर में शिक्षा का वातावरण था ही, ससुराल पक्ष के लोग भी शिक्षित थे, किन्तु बहू की शिक्षा के प्रति उदासीन व कुछ-कुछ विरोधी भी। अतः मैंने दृढ़ता से अपनी बात रखी। किसी प्रकार स्नातक में माँ के घर से प्रवेश दिलाया गया। मैं पढ़ने के लिए अधिकतर माँ के घर रहने लगी थी।

उन दिनों और आज के समय में कितना फ़र्क आ गया है। आज अमीशा अपनी पसन्द के लड़के से ब्याह की बात बेबाक हो कर कह सकती है। उन दिनों मैं समीर से ब्याह के पश्चात् भी खुलकर बात नहीं कर सकती थी। ससुराल तो ससुराल माँ के घर भी नहीं। उस समय लज्जा या कह सकते हैं बड़ों के सम्मान के भाव का एक आवरण-सा बना रहता था। जिसे पार करने की इच्छा नहीं होती थी।

मुझे स्मरण है एक बार माँ के घर समीर मुझसे मिलने आये। माँ ने उनकी खूब आवभगत की। समीर की इच्छा थी कि कोई फिल्म देखी जाय। इच्छा मेरी भी थी, क्योंकि विवाह से पूर्व फिल्म देखने की इच्छा प्रकट करने पर माँ कहा करती थी, "शादी के बाद अपने पति के साथ सिनेमा देखने जाना।" अर्थात मेरी सभी इच्छायें विवाह के उपरान्त ही पूरी होनी थी। विवाह ऐसा हुआ और ससुराल ऐसी मिली कि वहाँ ये असम्भव था। अतः माँ ने समीर के साथ फिल्म देखने जाने की आज्ञा दे दी। मैं मन ही मन प्रसन्न थी. सुबह से ही जाने की तैयारियों में व्यस्त थी। घर के कायों में माँ का हाथ बँटाया। मन में प्रसन्नता की लहरें प्रवाहित हो रही थीं। आज ये पहनूँगी... इस प्रकार तैयार होऊँगी आदि... आदि। आर्कषक लगने की पूर्ण तैयारी थी। जैसा कि प्रत्येक युवती के मन के नयी-नयी शादी के पश्चात् ऐसी इच्छा होती है। मैं और समीर दोनों तैयार हो गये। हॉल घर से अधिक दूर नहीं था। वहाँ तक जाने के लिए पापा ने समीर को अपनी साइकिल दी जिस के पीछे के कैरियर पर मुझे बैठना था। मैं बैठ गयी। समीर ने साइकिल आगे बढ़ाई। मैंने मन ही मन सोचा- घर से कुछ दूर जा कर स्थान बदल कर मैं साइकिल के आगे लोहे की राड पर बैठ जाऊँगी। अभी ये विचार मन में उठ ही रहा था कि मैंने देखा कि मेरा छोटा भाई राहुल अपनी साइकिल से हमारे साथ ही चल रहा है। माँ ने हम लोगों के साथ उसे भी लगा दिया था। छोटे कस्बों में ब्याहता लड़की भी अपने पति के साथ अकेले नहीं आ-जा सकती थी। जब राहुल साथ ही साथ चल रहा था तो मेरा साइकिल पर आगे आकर बैठने का प्रश्न ही नहीं था। संस्कारों व अदब भरा जीवन हुआ करता था उस समय। हम सब शिष्टाचारों से बँधे थे। कभी कभी मैं सोचती हूँ कि वो सारे बन्धन, सारी बन्दिशें बिलकुल सही थीं। कम से कम समाज में नैतिकता व रिश्तों की मान-मर्यादा बड़े-छोटे का आदर, सम्मान था। इसी कारण गाँव की बेटी सबकी बेटी हुआ करती थी। आज वो सब मर्यादायें उच्छृंखलता भरे वातावरण व दुनियावी भीड़-भाड़ में न जाने कहाँ गुम हो गयी है?

पुराने दिन अब मात्र स्मृतियों में शेष रह गये हैं। किन्तु स्मृतियों में कब तक रहा जा सकता है? इनसे निकल कर वर्तमान में, यथार्थ के धरातल पर आना ही पड़ता है। मेरा वर्तमान यही है कि मुझे अब अमन की चिन्ता होने लगी है। मैं सोचती हूँ कि अभी तो समीर के माता-पिता हमारे साथ रहते हैं। मेरे और समीर के काम पर चले जाने के पश्चात् समीर की देखभाल करते हैं। किन्तु कब तक? उम्र के अन्तिम पड़ाव पर उनकी सक्रियता क्षीण होती जा रही है। उनका बहुत बड़ा सम्बल यही है कि घर में अमन को अकेले नहीं रहना पड़ता।

ऋतुयें परिवर्तित हो रही हैं। चारों तरफ का परिदृश्य परिवर्तित हो रहा है। पाँच वर्ष पूरे हो जायेंगे, अमन का स्वास्थ्य ठीक नहीं हो पा रहा है। नाते-रिश्तेदारों और समीर के अम्माँ-बाबू जी का विचार है कि यदि अमन का विवाह कर दिया जाये तो कदाचित् उसकी दशा और स्वास्थ्य में सुधार हो जाये। समीर भी यही चाहते हैं। किन्तु कैसे? कौन देगा अपनी पुत्री?

"हम किसी निर्धन घर की कम पढ़ी-लिखी लड़की लायेंगे." मेरी सास सुभद्रा देवी ने अपने विचार रखे।

"हाँ... हाँ... ऐसी ही लड़की सही रहेगी। निर्धन घर की रहेगी तो हमारी बात मानेगी।" समीर ने उनकी बातों का समर्थन करते हुए कहा।

"कम पढ़ी-लिखी लड़की क्यों? अमन तो शिक्षित है। उसका उपचार चल रहा है। ईश्वर ने चाहा तो उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो जायेगा।"

मैंने अपनी बात रखी।

मेरी बात सुन कर सब चुप हो गये। घर में सन्नाटा पसर गया। कदाचित् उन्हें मेरी बात ठीक नहीं लगी।

"अमन अभी नौकरी करने की स्थिति में नहीं है। हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए।" मैंने अपनी बात पूरी की।

"हमारी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर नहीं है कि हम अमन व उसकी पत्नी को खिला न सकें, उनका उत्तरदायित्व न उठा सकें। विवाह के पश्चात् हो सकता है कि उसकी किस्मत बदल जाये और वह ठीक हो जाये।" सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद में हमारी ओर देखते हुए मेरे श्वसुर अमरनाथ ने कहा।

"इसके लिए हम अमन के ठीक होने की प्रतीक्षा क्यों न कर लें।" मैंने कहा।

घर में मेरी बात से कोई सहमत नहीं था। मैं वहाँ से बिना कुछ बोले चली आयी। अमन के लिए वधू की तलाश प्रारम्भ हो गयी। अमन अब मुझसे अपने मन की बात नहीं बताता। पहले वह अक्सर मुझसे कहा करता था, "आपने मुझे डॉक्टर बनने नहीं दिया। मुझे होटल मैनेजमेन्ट का कोर्स करवा दिया। मैं ये नौकरी कभी नहीं करूंगा। मुझ पर आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया।" मैं उसे समझाते हुए कहती, "नहीं बेटा, ऐसा नहीं है। हम सब ने प्रयत्न किया कि तुम्हारा भी चयन मेडिकल में हो जाये, किन्तु ऐसा नहीं हो पाया।" मैं उससे कैसे कहती कि उसके नम्बर कम थे, इसलिए चयन नहीं हो पाया। उसकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि उससे ऐसी बातें की जायें और उसकी समस्या को और बढ़ाया जाये।

अमन के लिए लड़की देखी जाने लगी। सजातीय व

निर्धन परिवार की लड़की प्राथमिकता पर थी। एक परिचित के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गयी। उसकी अविवाहित तीन बहनें भी थीं। परिवार इतना निर्धन कि साधारण विवाह का खर्च भी वहन न कर सकें।

हम सब लड़की देखने गये। सभी को पसन्द थी वह लड़की।

"तुमने कहाँ तक पढ़ाई की है?" मैंने उस लड़की से पूछा।

"जी, दसवीं तक।" उसने सकुचाते हुए कहा।

"आगे क्यों नहीं की पढ़ाई?"

"पहले हम गाँव में रहते थे। बड़ा स्कूल गाँव से दूर था। बापू के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो शहर में हमें भेज सकें। इसलिए मैं पढ़ नहीं सकी।" उसने तत्काल उत्तर दिया।

मैं समझ गयी कि यह लड़की बुद्धिमान है। उसे आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला।

"यहाँ...शहर में माँ व बापू दोनों को काम मिल गया है। इसलिए मेरे छोटे भाई-बहन पढ़ने स्कूल जा रहे हैं।" उसने आगे बताया।

"अभी तुम्हारी उम्र अधिक नहीं है। तुम्हें आगे पढ़ने का अवसर मिले तो क्या तुम पढ़ना चाहोगी?" मैंने पूछा।

"मैं दसवीं पास हूँ। इसके आगे यदि कोई व्यवसायिक कोर्स करने का अवसर मिलेगा तो अवश्य करूँगी। जैसे टेलरिंग, कुकिंग, टाइपिंग आदि। यही ठीक रहेगा मेरे लिए। इनमें ही मेरी रुचि है।" उसने कहा।

उसकी बातें सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई। मैंने मन ही मन सोचा कि अमन के लिए इतनी समझदार लड़की पुनः नहीं मिलेगी। यही अमन के लिए सही जीवनसाथी होगी... उसके सुख-दुख में उसका संबल होगी। उसकी बातों से मेरी सास, मेरे पति भी संतुष्ट दिखे। लड़की का नाम सुरभि था. उसके माता-पिता से अपनी पसंद-नापसंद की सूचना फोन द्वारा देने की बात कह कर हम घर आ गये। जबकि वास्तविकता यह थी कि सुरभि मुझे बहुत अच्छी लगी थी।

घर में आकर मैंने देखा कि अमन अब तक सो रहा था। वह देर रात तक जगता है। उसकी अनभिज्ञता में उसे नींद की दवा दी जाती है, तब जाकर उसे कहीं नींद आती है। घर में सबकी बातचीत के स्वर सुनकर वह कुछ ही देर में उठ गया। हमने पहले से ही उसे बता दिया था कि उसके विवाह की बात चल रही है। एक दो अन्य लड़कियों की तस्वीरें भी हमारे पास थीं। आज हमने कई तस्वीरों में से सुरभि की तस्वीर दिखाते हुए उसे बताया कि इस लड़की से उसका विवाह तय करने की हम सबने सोची है। उसका चेहरा भावशून्य था। अमन ने न जाने क्या समझा या हमने उसे अपनी बात समझाने में कोई कमी कर दी थी।

"माँ! मैं सभी लड़कियों से विवाह करूँगा क्या? मैं इन सबसे विवाह कैसे कर सकता हूँ?" लड़कियों की सभी तस्वीरों की ओर संकेत करते हुए उसने कहा। अमन का मासूम चेहरा व उसका उत्तर सुनकर मैं सदमें में हूँ।

मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह जारी है। सुरभि के घरवालों को मैं क्या उत्तर दूँ? सुरभि अमन की अस्वस्थता के बारे में जानती नहीं है। उसके परिवार की निर्धनता का लाभ उठाते हुए अमन की अस्वस्थता बता कर भी यदि सुरभि से अमन का विवाह करा देती हूँ तो सुरभि के हृदय पर क्या बीतेगी? कैसे वह पूरा जीवन अमन के साथ व्यतीत करेगी? क्या सुरभि के साथ अन्याय नहीं होगा? सुरभि में मुझे अपना प्रतिबिम्ब दिख रहा है। किसी के जीवन से नहीं खेल सकती मैं। सुरभि बुद्धिमान लड़की है। भविष्य में वह बहुत कुछ करना चाहती है। आगे बढ़ने व कुछ बनने का माद्दा है उसमें। अवसर उसे मिलना ही चाहिए। अमन के साथ विवाह हो जाने के पश्चात् उसकी प्रखरता की धार कुंद हो जायेगी। जटिलताओं में घिर जायेगी वह। अपने लाभ के लिए मैं ऐसा नहीं होने दूँगी।

मैंने निर्णय ले लिया है। अमन के भाग्य में जो लिखा होगा, वह होगा। जब वह स्वस्थ हो जायेगा, तब उसके योग्य कोई न कोई लड़की अवश्य मिल जायेगी। किन्तु सुरभि के जीवन को जटिलताओं में उलझाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मैंने ये भी सोच लिया है कि सुरभि के घरवालों से ये नहीं कहूँगी कि सुरभि मुझे पसन्द नहीं है; बल्कि ये कहूँगी कि मेरा बेटा सुरभि के योग्य नहीं है।

मैं अपने मोबाइल फोन से सुरभि के पिता का नम्बर मिला रही हूँ.

सम्पर्क- ‘नीरजालय’, 510/75,

न्यू हैदराबाद, लखनऊ -07

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: प्राची - सितम्बर 2018 - कहानी // तुम्हारे लिए // नीरजा हेमेन्द्र
प्राची - सितम्बर 2018 - कहानी // तुम्हारे लिए // नीरजा हेमेन्द्र
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