तनूजा तरनि तनुजा दिल स्नेहित उत्पत्ति तेरी सुहाती है किलकारी गर्जन तेरी मन को हर्षा जाती है तू संभले गिरि-उठि उठि-गिरि चलना तुझको आ जा...
तनूजा
तरनि तनुजा दिल स्नेहित
उत्पत्ति तेरी सुहाती है
किलकारी गर्जन तेरी
मन को हर्षा जाती है
तू संभले गिरि-उठि उठि-गिरि
चलना तुझको आ जाता है
तुतलाती वाणी तेरी
कल कल करती ध्वनि
मन को हर्षा जाती है
चलती मंजिल में तेरे
कितनी बाधाएँ आ जाती हैं
बाँध बना रोकना चाहें तुझको
फिर भी तू बढ़ जाती है
तू लड़ती भानु दिवाकर से
मेघवाल सहारा बन जाते हैं
कितने कूड़ा कीचड़ पड़ते रस्ते में
अनुजा बने सहारा हैं
जब तू होती उफ़ानों में
लहराता हुआ तिरंगा जैसे
मन को भाती है
तृप्ति नयन को करती
मन को असीम लुभाती है
जब होती छेड़छाड़ तुझसे
तू रणचंडी बन जाती है
करती तहस नहस
हाहाकार मचाती है
मिले सहारा तुझको तो
तू अन्नपूर्णा बन जाती है
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नदी
वह नारी है न संघारी है
उसने बस्ती नही उजाड़ी है
सरिता जो शीतलता दे जाती
वैतरणी से पार लगाती है
होती मानव कल्याणी है
जिसने बस्ती पाला पोसा
प्यासे को पानी दे जाती है
लहराती बलखाती है
अल्हड़ मस्त मगन मुस्काती है
डगरों में अवरोधक डाले हमने
उसको भड़काया उकसाया है
तब उसने उत्पात मचाया है
क्रिया की होती प्रतिक्रिया
न्यूटन ने यही बताया है
जब बोये कांटे हमने डगरों में
हमको सबक सिखाया है
गर नहीं रुके अब भी हम
पड़ना हम पर ही भारी है
समझें लहरी लहरों से भी बढ़
कुलंकषा सी हाहाकारी है।।
दहेज़ और लड़की की चिंता
जब वह बन्द कली थी
अब बन विकसित कुसुम
छटा लुभाती नयनों को
हृदय प्रेम में बन अंकुर
करती प्रेम का मौन समर्थन
ओठों में लिए मधुर मुस्कान
अंगों में शिथिल आलस्य
आँखों में बनकर तिरछी चितवन
वह रूपवती है चतुर प्रवीन
लिए हुए गुणों की खान
फिर भी है चिंतित आधीर
क्या है इनका कुछ भी मान
पंख होते वह उड़ जाती
मन में लिए हुए अभिलाषा
भावी पति के लिए
कहीं से धन संचय कर लाती
अच्छी बहुरानी बनकर
घर की रानी बन जाती
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हंस और कौवे
मानस का राजहंस
मानसरोवर से भरी उड़ान
जगत देखने को प्यासी आँखे
सुख दुख का, करने अनुमान
चुनकर पहुँचा दरबार
अब उसकी नज़रों में
सुखिया सब संसार
क्योंकि उसके सुख के
भरे पड़े औजार
स्वच्छ हवा में उड़ने वाली
नन्ही चिड़िया तिनका
बिन बिन कर लाती
नीड़ बनाती
बारिश से पहले
दाना पानी लाती
परिवार बढ़ाने खातिर
अण्डे पाल पोसकर
मन ही मन इठलाती इतराती
दुष्टता की मूरत
स्वारथ की सूरत
कुनबा तोड़ना ही काम
बाज़ है उसका नाम
चिड़िया के अंडों पर
बैठा घात लगा
मौका पाते ही
कर डाला काम तमाम
न्याय की लिए हुए अभिलाषा
चिड़िया पहुँची राजहंस के पास
त्राहि त्राहिमाम की करी पुकार
राजहंस ले पहुँचा न्यायिक दरबार
कांव कांव करते कौवे भरा हुआ मैदान
कलाबाजियां खाते सौ सौ गतियों का गुमान
सिद्धहस्त हैं उड़ने में बचने और बचाने में
कभी न करते शील
शरणागत को नोच नोच कर खाने में
शिकार यहाँ खुद आ गिरा,
शिकारी की गिरफ्त में
आरोपी भी था आया
बचत की जुगत में
जब मोल भाव की बारी आई
हंस राज के मन में बेचैनी छाई
फ़िकर है किसे चिड़िया की,
अण्डे तो पहले ही गए
नज़र गोश्त आ टिकीं
इससे पहले समझ आता कुछ
बचने के सारे रास्ते ही खो चुकी।।
ख्वाहिशों का बोझ
किताबों के बोझ से भी ज़्यादा है
माँ बाप की ख़्वाहिशों का बोझ
बेकार है बार बार नीचा दिखाकर
ऊपर उठाने की कोशिश
खुश हो जाइए उसकी काबिलियत से
क्यों चाहिए नब्बे परसेंट से ही ऊपर
बचपन गीली मिट्टी सा है
जैसा ढालोगे ढल जाएगा
पर रहे याद "दिये" की सी मिट्टी में घड़े नहीं बना करते
थमाइये नन्हे मुन्हे हाथ में उसके शौक की डोर
फिर देखिए कितनी ऊंची उड़ती है मन की पतंग
मन लगता है गायकी में तो गायक ही बनेगा
माँ बाप के डर से सचिन नहीं बना करते
फिर यह भी तो सोचिए, गर सब बन ही गये
इंजीनियर, डॉक्टर, ऑफिसर
सहयोग के लिए मैकेनिक, कंपाउंडर भी तो चाहिये
इंजीनियर मैकेनिक का काम व डॉक्टर कंपाउंडर का
काम नहीं किया करते
कहाँ खुश हैं डॉक्टर इंजीनियर भी अपनी ज़िंदगी से
खुश तो हम होते थे अपनी अमीरी देखकर
जब बारिश के पानी मे कागज के जहाज़ चला करते थे।
डॉक्टर इंजीनियर तो बारिश के पानी में
भीगने से बचने के सौ जतन किया करते हैं।।
इंसाफ़ की आस
तुम्हें सुनाती सच
जीवन का एक घिनौना
सपने में आयी एक लड़की
बतायी कुछ यूँ घटना
कंप्यूटर की क्लास
खत्म हुई थी कुछ देर से
कपड़ो की प्रदर्शनी भी
लगी थी पार्क में
घूमते घूमते खो गयी
हो गयी देर रात
बाहर देखा
ऑटो वालों की करामात
मोल भाव के फेर में
निकल गयी कुछ दूर
चौंक कर मुड़ी
पीछे देखा एक कार खड़ी थी
इसके आगे न आता कुछ भी याद
होश आया तो पाया नंग धड़ंग पड़ी थी
घटना को हो चुके अब पूरे दो वर्ष
पर उस रात्रि की याद को
न निकाल पा रही दिलो दिमाग से
सराबोर हूँ अब भी भय व संशय से
भर जाता है गला
क्रोध व रुदन से
जब कचहरी में चिल्लाता वकील
क्या क्या घटा उस रात्रि में
बताओ सब कुछ विस्तार से
जो भी न घटा था उस रात्रि में
घट जाता है हर तारीख में
जब बचाओ पक्ष का वकील
चिल्लाता
तुम्हे कैसे पता
हुआ क्या था तुम्हारे साथ में
जबकि तुम तो न थी होश में
झूठी है मेडिकल रिपोर्ट
या बोलती तुम झूठ हो
गर मान भी लूं हुआ
तुम्हारे साथ रेप है
कैसे पता ये मेरे ही
मुवक्किल ने ये किया है
भर जाती हूँ दुखों से
लबालब पैर तक
जब याद आती है
दादा जी की बात
जब घटी इतनी बड़ी घटना
क्यों न मर गयी ये उसी रात
पर उन्हें कैसे बताऊं
ये चलती फिरती जिंदा लाश है
जिसे अदालत से भी
न इंसाफ की आश है
जिसकी वजह से बंद हो गयी
पढ़ाई छोटी बहन की
बन्द हो गया निकलना
उसका भी घर से बाहर
पड़ोसी सांत्वना के नाम पर
छोड़ जाते हमें संताप पर
मैं भले जिंदा बच गयी उस रात
पर मर गयी आज
सुनकर जज यह बात
सुनवाई अब बन्द कमरे में होगी
मुझे रास न आई ये बात
न मुझे है कोई ऐतराज
न शर्मो हया
फिर अदालत का यह कैसा
न्याय है
अपराधी खुला घूमता है
पीड़िता घर में ही नज़र बन्द है।
उम्मीदों की लाश
सर्द मौसम की प्रभात में
ऊषा की लालिमा की ह्रास में
टहलते टहलते पहुँचा चौक
एक अदद चाय की तलाश में
चौक तक पहुंचना था
धुंधलुके, धूल व धुंवे रूपी
कोहरे की चादर करके क्रॉस
टिमटिमाती मोबाइल की टॉर्च में
दिखी एक नौ जवां के
उम्मीदों की लाश
न तन में थे वशन
न जाति धर्म का मर्म था
इसकी उम्मीदें मरी कैसे
या किसी ने उम्मीदों को मारा था
पर इन्हें कोई क्यूँ मारेगा भला
ये तो रोज मरते ही हैं
करते करते काम की तलाश
जो रोज घुट घुटकर
जीता व मरता है
उसे मारकर कोई क्यों
अपने हाथ गन्दा करता है?
कल तक जो था
एक आंदोलन का मुखिया
आज उसने क्यों आत्महत्या कर लिया
ये कायरता नहीं बलिदान है
एक अच्छे नेता के नेतृत्व
कौशल के निशान है
भगत सिंह ने बहरे कानों तक
आवाज पहुंचाने के लिए
असेम्बली में बम फेंका
इसने ऐसे ही कानों
के लिए जिंदगी को दांव पर झोंका
बस फर्क ये है
भगत सिंह की आवाज़ को
प्रेस ने जन जन तक पहुंचाया
आज के प्रेस ने जन समस्याओं
के हर समाचार को दबाया
फिर प्रश्न ये है
भगत सिंह के समय में
देश परतन्त्र था
पर मीडिया हरगिज़ न था
आज देश भले स्वतंत्र है
पर मीडिया ने भूला दिया
कि यह जनतंत्र है
गर मीडिया ने भूमिका निभाया होता
ये आज जिंदा होता
इसके भी मजबूत हाथों में काम होता
गर मिल जाते इन हाथों को काम
ये कुछ भी करने को तैयार थे
ये बोर्डर में दुश्मन के छक्के छुड़ा देते
या किसी अदनी सी फैक्ट्री में
काम करके देश की जीडीपी बढ़ा देते
ग्रामीण सोच व शौचालय
किया निरीक्षण गांव का पाया
हर घर मे शौचालय तैयार हैं
फिर भी न होता इसका उपयोग
क्योंकि जंगल अपरम्पार हैं
फिर क्यों रखे तशरीफ़ चार दिवारी में
क्या कमी है नदियों-नालों की करते बेड़ा पार हैं
एक ही आंगन में रसोई-पाखाना
पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।
पंडित जी एक समस्या और भी भारी
जिसका न मिलता कोई निदान है
कैसे घुसे सफाई वाला घर के अंदर
खुद से करना तो नाक कटाने समान है
सफाई वाले को कहाँ समझते मानव,
वे इंसान होकर भी जानवरों से बेजान हैं
होता कहाँ इनके साथ मानव सा व्यवहार है
पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।
गर बना पाखाना घर के अंदर
पानी का क्या इंतजाम है
लगेगी लाइन पानी लाने की
फिर पाखाने जाने का क्या काम है
छूटेगी मजदूरी, सूखेगीं फसलें
खेतों के काम तमाम है
पानी पहुँचे घर घर बिजली ही आधार है
पंडित जी का विचार, ये तो बंटाधार है।
बिछे पाइप लाइन, बिजली पहुँचे हर ग्राम हो
हो नाली का निर्माण, सफ़ाई का भी इंतजाम हो
करें स्टोरेज वर्षा जल का,
तालाबों पर न गंदगी का नाम हो
न हों गंदे जंगल, जमीं, नाले, नदी
प्रकृति का भी यही पैगाम हो
नुक्कड़ नाटक ही संदेशा पहुंचाने का
समुचित आधार है
हो शौचालय का ही उपयोग,
नहीं तो सच में ही बंटाधार है।
ग्राहक से उपभोक्ता तक का सफर
औद्योगिक क्रांति ने देश में उत्पादन बढ़ाया है
पर कंपनियों ने ग्राहक को उपभोक्ता बनाया है
इस उपभोक्ता को विज्ञापन ने खूब रिझाया है
किचेन-बाथरूम के नल में पानी आए न आए
सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।
विज्ञापन ने बिन जरूरत को भी जरूरत बनाया है
जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य हैं
पर उपभोक्ता ने हवा पानी का दाम चुकाया है
उपभोक्तावादी कुसंस्कृति ने हसरतों का नया तूफ़ान लाया है
सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।
वे भी क्या दिन थे!
बहन की शादी में मिलकर उठाई थी चारपाई
दावत के प्रयोग में आई जूठी पत्तल व कढ़ाई
मिलकर करते थे काम, न पता क्या है महंगाई
आधुनिकता ने अब है मंगाई टेंट से गद्दा व रज़ाई
बाज़ार ने पसारे पैर, गाँव को भी आगोश में उठाया है
इस टेलीविजन ने विज्ञापन को गाँव तक पहुंचाया है
सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।
क्या यही है हमारी गंगा जमुनी तहजीब
हम भूलते जा रहे अपनी संस्कृति व इतिहास
कमाते खूब हैं फिर भी न है संतुष्टि का एहसास
गर चाहिए संतुष्टि, उपभोक्ता से ग्राहक बनना होगा
अपनी जरूरत को ही जरूरत समझना होगा
इस टीवी के विज्ञापन के आगोश से उबरना होगा
कभी तो अपने किचेन व बाथरूम के नल में पानी लाना होगा
गर आ जाए अपने नल में पानी, हमारे बदन में भी झाग होगा
फिर क्यों सुंदरियों के बदन से साबुन का झाग मन को लुभाएगा ॥
देश की उपलब्धि एवं नारी सम्मान
जिस देश में हो रहा हर घंटे बलात्कार है
फिर वो क्या कठुआ क्या मेरठ उन्नाव है
ये सिलसिला कायम पूरे भारत में
वो फिर क्या उत्तर प्रदेश क्या बिहार है
अदालतों में बेशुमार पीड़ितों को इंसाफ़ का इंतजार है
कागजों पर कानून है पर अदालतें लाचार हैं
ऐसे में क्या हमें अन्य उपलब्धियों पर गर्व करने का अधिकार है
जाँच के लिए जवाबदेह पुलिस लापरवाह है
वकील से लेकर मंत्री विधायक तक आरोपियों के साथ है
तभी तो बेटी रही पुकार है कि उसके जीवन में क्यों अंधकार है?
क्या इसका न कोई सुधार है या यूं ही बढ़ता रहेगा अत्याचार है!
सुनकर भी बहन बेटियों की सिसकियाँ और रुदन, मौन इस समाज के ठेकेदार हैं।
क्या तब भी अपनी अन्य उपलब्धियों पर हमें गर्व का अधिकार है?
पर ये कौन समझे कि हर किसी के मुकद्दर में कहाँ बेटी का भाग्य है
रब को हो पसंद उस घर का यह सौभाग्य है
फिर क्यूँ कोख से कफन तक इतना विभेद है
लड़की के जन्म पर लक्ष्मी आयी की बधाई है
पर लड़के के जन्म पर खुशियां अपार हैं
तभी तो लड़कियों का जीवन जंजाल है
कहीं पत्नी तो कहीं बहु पर अत्याचार है
समाज के ठेकेदार मूक व बेबस लाचार हैं
क्या तब भी अपनी अन्य उपलब्धियों पर हमें गर्व का अधिकार है?
गर यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा
फिर क्या होगा महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान का?
क्या इसके लिए जिम्मेदार आधुनिकता की होड़ है
या फिर हमारी दक़ियानूसी सोच है
ऐसे में समाज का क्या सरोकार है?
आखिर कहां थमता यह अत्याचार है?
वो तो कुछ करे जो इसके लिए जिम्मेदार है
नहीं तो हमारी सारी उपलब्धियाँ बेकार है
गर हों सुरक्षित बहु बेटियाँ तभी अपनी उपलब्धियों हमें पर गर्व का अधिकार है।
आज की राजनीति
लक्ष्य है संविधान की प्रस्तावना का
बढ़ाना सार्वभौमिक भारतीय बंधुत्व की भावना का
जिसमें सुनिश्चित हो व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता व अखंडता
न हो स्थान धर्मगत, जातिगत व सम्प्रदायगत भेदभाव का।
हे दुष्यन्त! तेरा मकसद तो न था हंगामा खड़ा करना
फिर क्यूं है हंगामा सबसे बड़ी पंचायत में
गर मिल लिया गले नेता प्रतिपक्ष नें
आंख मारना विमर्श का विषय है देश में
इंसान को मारना विमर्श न है किसी भी प्रदेश में।
सत्तर सालों के बाद भी
वंचित है आम भारतीय
बिजली, सड़क, पानी, रोटी कपड़ा मकान से
क्योंकि वोट पड़ते हैं हिन्दू और मुसलमान से
दलित, आदिवासी पिछड़े अति पिछड़ों का भाषण में ध्यान से।
सभी हैं मुस्लिमों के हमदर्द
सब समझते हैं किसानों का दर्द
दलितों की पीड़ा, आदिवासियों का मौन
हे मेरे भारत महान
फिर भी क्यूं हैं पिछड़े शिक्षा, विकास गरीबी से
ये दलित आदिवासी और मुसलमान।
गर ऐसा ही रहा तो क्या नहीं हो जाएगी प्रस्तावना तार तार
भारत का मूल ढांचा बेकार
हर कोई होगा हिन्दू और मुसलमान
पर न होगा कोई स्वभाव से इंसान।।
वीरता पुरस्कार
हो रही थी इस वर्ष के राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा
चौंक गया सुनकर प्रथम पुरुस्कार की उद्घोषणा
विपरीत परिस्थितियों में अदम्य साहस दिखाया था
आंदोलन में होने वाली पानी की बौछारों का,
मुख मोड़कर अपने खेतों में हरियाली लाया था
फ़सलो को न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर बेंचकर,
सूदखोर का ही नहीं बैंकों का भी कर्ज चुकाया था
गुड़िया को नई फ्रांक व धनिया को साड़ी लाया था
छुपा लिया था नई जूतियों में अपनी फटी बेवाइँया
कर दिया बड़ी बेटी का व्याह होने से पहले रुसवाइंया
उद्घोषक बड़ी खुशी से उद्घोषणा किये जा रहा था
लोगों द्वारा दोनो हाथों से तालियां पीटा जा रहा था
मैंने जैसे ही ताली बजाई, खुल गई मेरी रजाई
श्रीमती जी ने जड़ दिया गाल पर भरपूर थप्पड़
और फटकारा, नींद में क्या किये जा रहे हो बड़बड़।
अब न था नींद का नामो निशान, थप्पड़ जोरदार था
पर थप्पड़ ने कम, सपने ने किया ज्यादा प्रहार था
जो कड़कती सर्द में, धूप में या काली घटाओं में
लड़कर आ जाता दुष्कर आशमानी आपदाओं से
मानता न हार वह, हों चाहे जो भी परिस्थितियां
फिर क्यों टूट रहा 'प्रेमचंद का होरी' आभावों से।
पत्थर की मूर्ति तो फव्वारों से रोज धुलते रहे
वह और उसके खेत बिन पानी के सूखते रहे
आखिर उसका भी शरीर हाड़ मांस का है
कब तलक गलता और गलाता रहेगा
जब किसी को उसकी सुध नहीं वह
किसके लिए आलू गोभी मटर बचाता रहेगा
बेंचता इनको भी तो पेमेंट समय पर कहाँ मिलती है!
इनको खाने वाले तो भुगतान कर शान से खाते हैं
पर होरी-बुक्का के हिस्से का माल कौन खा जाते हैं
कर्ज, मर्ज और फर्ज को यह कभी भी नहीं भूलता
पर कर्ज चुकता न कर पाना उसकी मजबूरी है
क्योंकि आलू-गन्ने की पेमेंट अभी भी अधूरी है
मर्ज का तो पता नहीं, पर फर्ज बखूबी निभाता है
तभी तो सारा जहां, शान से खाता और सोता है
जैसे फर्ज वह निभाता है, गर व्यवस्था भी बदल जाये
कर्ज माफ़ हो या न हों, पर रुकी पेमेंट पूरी हो जाये
फिर कोई भी होरी-बुक्का न, सावन में फाँसी झूलेगा
उसके भी परिवार वालों का भी चेहरा खुशी से झूमेगा।
बीरेन्द्र निषाद "शिवम विद्रोही"
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