कहानी - अपरिभाषित - नीरज झा

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"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.." उसे ना ज़माने की परवाह थी, न अपनों की फ़िकर...! उन दिनों मैं कॉलेज के फाइनल ईयर में था...शहर ...

"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.."

उसे ना ज़माने की परवाह थी, न अपनों की फ़िकर...!

उन दिनों मैं कॉलेज के फाइनल ईयर में था...शहर से कॉलेज दूर होने की वज़ह से शहर के ही एक छोटे से लॉज में रह रहा था..हमारे शहर में बिजली की कोई कमी नहीं थी..सुबह से लेकर ढलती रात के दरमियाँ दस-बारह दफ़े तो आ ही जाती थी...!

मेरे कमरे से सटा एक कमरा पिछले कुछ महीनों से ख़ाली पड़ा हुआ था...उस रात जब ग़ुलाम अली की ग़ज़ल "इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊंगा.." गुनगुनाता हुआ मैं अपने कमरे में पहुंचा तो बगल वाले कमरे से काफ़ी ठहाकों की आवाज़ आ रही थी...वो तन्हा कमरा किराये पे उठ चुका था..खाना बाहर ही खा लिया था सो बिस्तर पे लेटे-लेटे एक पुरानी मैगजीन पढ़ने लगा..इमरोज़ और अमृता की प्रेम-कहानी...!

पर उस कमरे से उठते शोर की वज़ह से मेरा अंतर्मुखी स्वभाव विचलित होने लगा..अधूरी रह गई वो प्रेम कहानी, जो आज पढ़ जाना चाहता था मैं..क़िताब टेबल पे रख दी और एक सिगरेट सुलगा ली...बल्ब की तेज रौशनी जाने क्यों आज आंखों को जला रही थी..सो लाइट्स ऑफ कर दी और मिताली सिंह की ग़ज़ल सुनने लगा.."मुझे माफ़ कर मेरे हमसफ़र तुझे चाहना मेरी भूल थी..किसी राह पे तुझे एक नज़र यूँ देखना मेरी भूल थी..!

जाने कब आँख लग गई.. और जब नींद खुली तो सुबह के दस बज रहे थे..संडे था सो कॉलेज अटेंड करने का भी कोई मसला नहीं था आज..बाहर निकला..एक नज़र बगल वाले कमरे पे डाली तो एक बड़ा सा ताला कमरे के दरवाज़े पे लटकता दिखा...और मैं वाशरूम की तरफ़ बढ़ गया.

दोपहर को किसी ने दरवाज़ा नॉक किया..दरवाज़ा खोला तो मेरे सामने एक बिल्कुल ही साधारण कदकाठी वाला एक 18-19 साल का लड़का खड़ा था..

"नमस्ते भैया"..उसकी आवाज़ में लिहाज़ और तहज़ीब दोनों ही महसूस किया मैंने..

"आओ बैठो"..मैंने उससे बैठने का इशारा किया..किसी छोटे बच्चे की तरह उसने मेरी बात मानी और कुर्सी पे बैठ गया.

कुछ देर हमदोनों ही चुप रहे..मैं आदतन ही ख़ामोश रहा और फ़िर चुप्पी उसने तोड़ी.."कल रात के लिए सॉरी..वो लगेज कुछ ज़्यादा हो गया था सो कुछ दोस्तों को साथ लाना पड़ा.. और दोस्तों को तो पार्टी करने का बस बहाना चाहिए..इसलिए...."

मैंने उसकी बात बीच में ही काट दी.."अरे नहीं ये सब चलता रहता है..और बताओ किस चीज़ की तैयारी करने शहर आए हो..?

वो रत्ती भर मुस्कुराया और बोला, "बस यूँ ही" ..

मुझे थोड़ा अजीब लगा पर नज़रअंदाज़ किया..और फ़िर कुछ इधर-उधर की बातें हुईं...बातों-बातों में पता चला कि उसका नाम रोहन है..

"अभी चलता हूँ भैया..शाम को फ़ुरसत में बातें करेंगे."

मुझे भी थोड़े नोट्स रेडी करने थे..मैंने जाने दिया उसे..इस तरह उससे मेरी पहली मुलाक़ात हुई..पर उसकी आवारागर्दी के क़िस्से बहुत देर से मेरे कानों तक पहुँचे..!

उस रात जब रोहन मेरे कमरे में आया, तब मैं लैपटॉप पे विक्रमादित्य मोटवाने की फ़िल्म "उड़ान" देख रहा था..

"रोहन तुम फ़िल्म देखो, मैं तबतक चाय बना लेता हूँ."

"ठीक है भैया.."

कुछ मिनट बाद ही हमदोनों के हाथ में चाय के कप थे..फ़िल्म अपने क्लाइमेक्स की तरफ़ बढ़ी जा रही थी...और एक सिगरेट अपनी वफ़ाओं का सुबूत देते हुए मेरे होंठों तले जली जा रही थी..मैंने रोहन की तरफ़ देखा..उसकी आँखों में बेचैनी के ढेरों रेशे तैरते नज़र आए मुझे..उसने एकबारगी मेरी तरफ़ देखा और बिना कुछ बोले मेरे हाथों से सिगरेट लेकर अपने होंठों तले दबा ली..जलती सिगरेट अपनी बेबसी पर चीखती रही...!

"रोहन, तुम सिगरेट भी पीते हो.."

वो ख़ामोश रहा..और फ़िर अचानक उठ खड़ा हुआ..

"भैया, क्या आप ये मूवी मेरे फ़ोन में कॉपी कर दोगे..? "

"बैठ जाओ, दो मिनट में कॉपी कर के दे रहा हूँ.."

वो चला गया था..पर उसकी वो दो छोटी-छोटी बेचैन आँखें मेरी मुंदी पलकों के नीचे तैर रही थी...आख़िर क्या देख लिया था रोहन ने उस फ़िल्म में, जो इतना बेचैन हो गया था..?

मेरे सेमेस्टर के एग्जाम्स नज़दीक आ रहे थे..कमरे से बाहर निकलना बहुत कम कर दिया था मैंने..जब कभी पढाई से मन ऊब जाता तो नज़रें रोहन को ढूँढती थी..पर वो अक्सर ही कमरे से बाहर रहता था..कभी-कभार जो मुलाक़ात हो भी जाती थी तो हाय-हेल्लो तक सिमट कर रह जाती थी..

इम्तिहान ख़त्म हो चुके थे..और मैं महीने भर के लिए गाँव चला गया..और जब वापस आया तो रोहन के बारे में बहुत कुछ सुनने को मिला..मोहल्ले के लड़कों के साथ मारपीट..रोहन की गर्लफ्रेंड का उसे छोड़ के चले जाना..लॉज के लड़कों ने बताया कि अब वो शराब भी पीने लगा है..!

"मेरे सिरहाने जलाओ सपने, मुझे ज़रा सी तो नींद आए.."

ज़्यादा देर रोहन के बारे में सोच नहीं पाया..बिस्तर पे जाते ही गहरी नींद ने मुझे अपनी आग़ोश में ले लिया..कुछ टूटती-बिखरती ख़्वाहिशों ने ख़्वाबों के लिबास ओढ़ लिए..और मैं उन ख़्वाबों में उलझा हुआ जाने कब तक सोता रहा...और जब नींद खुली तो रोहन मेरे सिरहाने बैठा हुआ था..पहले से काफ़ी दुबला हो गया था वो..उसकी आँखें उदास थी..दर्द में डूबी हुई..!

आज पहली दफ़ा उससे एक अनजाना सा लगाव महसूस हुआ मुझे..ऐसा लगा जैसे हमदोनों को ही एक अदद दोस्त की ज़रूरत है..वो भीड़ में भी अकेला था शायद..!

"हर तऱफ, हर जगह बेशुमार आदमी

फ़िर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी.."

"रोहन, शर्ट पहन लो..ज़ख्म पे मक्खियाँ बैठ रही हैं.."

उसके चौड़े सीने पे गहरे ज़ख़्म उभर आए थे..जो शायद मारपीट के दौरान लगे थे..

"ऐसे ज़ख़्म तो मुझे आए दिन मिलते ही रहते हैं..आप फ़िकर मत करो भैया.."

उसके ज़र्द होंठों पर दर्द भरी मुस्कुराहट फैल गई...!

कितनी अजीब बात है ना..एक क़ातिल, जो ग़ैरों के सीने में खंज़र घोंपता है..उसके दिल पे भी उसका कोई अपना ही गहरे ज़ख़्म दे जाता है...!

"किसी ख़ूबसूरत लड़की ने ही ये घाव दिए होंगे..जिसे सीने से लगाए बैठे हो.."

वो झेंप गया.."नहीं भैया..ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हो.."

अबकी बार हमदोनों ही हँस पड़े थे..

"अच्छा रोहन, तुम कुछ देर आराम करो..मैं यूँ गया और यूँ आया.."

और जब तलक़ मैं बाज़ार से मरहम लेकर लौटा.. वो सो चुका था..उसे जगाना सही नहीं लगा..मैं ख़ामोशी से उसके घावों पर मरहम लगाने लगा..

"आह !

दर्द हो रहा है भैया.."

"चुप-चाप सोए रहो..."

"आपको पता है भैया..पापा को शराब से फ़ुरसत नहीं और मम्मी को पापा से फ़ुरसत नहीं मिलती....मुझे भी अपनेपन और प्यार की ज़रूरत हो सकती है..कभी उन्होंने समझा ही नहीं..एक अदद प्यार की तलाश में, मैं यहाँ से वहाँ भटकता ही रहा हूँ.."

वो जज़्बाती हो रहा था..इससे पहले कि उसके जज़्बात आँखों से बह निकलते..मैंने उसे गले से लगा लिया..और एक मजबूत दरख़्त, मेरे सीने पे मोम की तरह पिघलता चला गया..और उसकी आँखों से गिरते गर्म आँसुओं ने हमारे इस दोस्ती के अटूट रिश्ते पे दस्तख़त किए..!

गुज़रते वक़्त के साथ हमारा ये रिश्ता और भी मजबूत होता गया..आज हमदोनों ही दो अलग-अलग शहरों में हैं..पर रिश्ते की गरमाहट आज भी वैसी ही है..!

प्रेम को हर किसी ने अपनी-अपनी परिभाषाओं में बाँधने की कोशिश की..पर प्रेम अपरिभाषित ही रहा..हर बंधन से मुक्त..स्वच्छंद..पवित्र..!

"सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो..प्यार को प्यार ही रहने दो..कोई नाम न दो.."

हमारे इस रिश्ते को आप क्या नाम दोगे.. दोस्ती या प्यार..?

कोई भी नाम दो..क्या फ़र्क़ पड़ता है..!

दिल का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है..जानता ये जहान सारा है..!

__नीरज झा

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रचनाकार: कहानी - अपरिभाषित - नीरज झा
कहानी - अपरिभाषित - नीरज झा
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