अलका पांडेय की लघुकथाएँ

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अलौकिक अहसास- अभी हम कुछ दिन पहले एक साहित्य सम्मेलन में वृंदावन गये थे मैं और मेरी दो सहेलियाँ. हम एक दुकान पर बैठ कर चाय नाश्ता कर रहे थे...

अलौकिक अहसास-

अभी हम कुछ दिन पहले एक साहित्य सम्मेलन में वृंदावन गये थे मैं और मेरी दो सहेलियाँ.

हम एक दुकान पर बैठ कर चाय नाश्ता कर रहे थे. तभी मेरी नजर दूर एक बच्चे पर पड़ी. मैले कुचैले कपड़ों में बड़ी कातर निगाहों से देख रहा था. मेरा मन बहुत बेचैन हो उठा उसकी नज़रों में एक कशिश थी. उसे मैंने अपने पास बुलाया और पुछा कुछ खाओगे. उसके जवाब को सुने बिना ही मैंने दुकान वाले से कहाँ की भर पेट खिलाना दो भजिये पाव जो माँगे दे दो. पैसे मैं दूँगी. वह बालक रोकर मेरे पैर पकड़ लिये मेम साहेब में दो दिन से भूखा हूँ. आप की बड़ी कृपा होगी की ये खाना मैं घर ले जाकर मेरी माँ के साथ खाऊँ. वह भी भूखी है बीमार भी. आप की सारी मुरादें पुरी हो जायें. मेम साहेब यदि आप मुझे काम दे दें तो बहुत मेहरबानी होगी. आज तो आपने पेट भर दिया, कल क्या? मुझे काम दिला दीजिये. मैं क्या कहती सोच में पड़ गई. मेरी सहेली बोली खाना ले और जा. ये मैडम यहाँ नहीं मुम्बई में रहती है. काम तुम ढूंढो. पता नहीं क्यों निशा की बात मुझे अच्छी नहीं लगी. मैंने उसे चुप कराया और बोली निशा इस बच्चे की बात में सच्चाई है. ये कल क्या करेगा रुक मैं कुछ करती हूँ. निशा ने बुरा सा मुंह बनाया .

बोली जा मदर टेरेसा बन. मैं तेरे साथ धूप में कही नहीं जाने वाली. मैं काफ़ी देर सोचती रही. तब तक भजिये पाव आ गये थे. मैंने पैकेट लेकर उसको पैसे दिये और बोली आप इस बच्चे को काम पर रख लो. बेचारा बहुत परेशान है. काफ़ी सवाल जवाब के बाद आख़िर रेस्टोरेंट वाला मेरी ग्यारंटी पर मान गया. और कल से काम पर आने को बोल दिया. उस बच्चे के चेहरे पर हज़ारों सितारे जगमगा उठे. मुझे जिंदगी में कभी इतनी खुशी नहीं हुई जितनी आज यह काम कर. उस बच्चे की निगाहों में जो प्यार आदर झलक रहा था. वह अलौकिक अहसास करा मुझे मेरी ही नज़रों में महान बना गया

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दोस्ती

एक मेंढक और एक चूहा जंगल में मिले व उन दोनों की बहुत गहरी यारी हो गई. बड़े प्रेम से रहते. परन्तु बंदर मामा के पट में इन दोनों की यह दोस्ती हज़म नहीं हो रही थी. वह लगा था उनकी दोस्ती छुड़ाने में. तरकीब सोचता रहता. आख़िर उससे रहा न गया तो वह उनके पास गया और बोला आपकी दोस्ती देख मुझे घोर आश्चर्य हो रहा है. एक जलचर एक थलचर. चूहा बोला क्यों बेमेल बताओ जरा. हम लोग दोस्त है भाई-भाई जैसे हैं.

तब बंदर बोला इसका क्या प्रमाण है कि तुम दोनों पक्के दोस्त हो. बंदर उनके पीछे ही पड़ गया था !

तब मेंढक बोला इसमें प्रमाण की क्या बात है ! हम दोनों अभी एक दूसरे को रस्सी से बांध लेते हैं, ऐसा कह कर वह दोनों ने एक दूसरे को रस्सी से बाँध लिया.

अब दोनों जहाँ जहां जाते साथ ही जाते जाना भी पड़ता क्योंकि दोनों एक दूसरे से बँधे थे.

बँधे होने की मजबूरी थी. थोड़ी देर में दोनों नदी किनारे रेत में मस्ती कर रहे थे. अचानक कुछ बच्चों की टोली वहाँ आई पहले तो वह खेलते रहे परन्तु अचानक एक बच्चे को पता नहीं क्या सूझा एक बडा पत्थर उठाया व मेंढक पर दे मारा. घबराकर मेढक नदी में कूद गया और नदी में गहरे तक चला गया. मेँढक की छलाँग रस्सी से ज्यादा हो जाने से चूहा नदी में जा गिरा और थोड़ी देर में छटपटाकर मर गया !

और पानी के उपर उतराने लगा.

तभी अचानक आकाश से एक चील उड़ती हुई आई और मरे चूहे को आकाश में लेकर उड़ गई.

इधर चूहों के साथ बँधा मेढक भी साथ साथ आकाश में उड़ने लगा.

दोनों की दशा देख बंदर मामा खिलखिलाकर हँसा और बोला अलग-अलग जाति के प्राणी दोस्त नहीं बन सकते. परन्तु उन दोनों की दोस्ती पक्की थी. नदी किनारे के पेड. नदी की रेत और नदी का जल ये सभी साक्षी थे इस बात के की दोनों की दोस्ती व दोनों की दुर्दशा पर रो रहे थे व अपनी आंखों के सामने दोनों को मरते हुये देख रहे थे व रोये जा रहे थे.

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गाँव या शहर

मालती रसोई का काम करती जा रही थी और महक को आवाज़ दे रही थी. अरे महक उठ आज परीक्षा है तेरी जाना है कि नहीं. देर हो जायेगी उठ कुछ पढा ई कर ले. मैंने चाय बना दी है जल्दी कर !

महक अलसाई सी अँगड़ाई लेकर उठी और माँ पर ग़ुस्सा होकर बोली - माँ क्या होगा पढ़ कर पास होकर, गवर्नर तो बनूँगी नहीं. खामखां माँ आप भी परेशान होती हो.

अरे छोरी क्या बात कर रही है. पढ़ेगी तो ही अच्छा लड़का मिलेगा. शहर में शादी होगी मौज करेगी. नहीं तो किसान के घर व्याह दी जायेगी. रहना फिर गांव में गाय भैंसों का चारा पानी गोबर पाथना. मेरी तरह सारा दिन काम करना. न घूमना न होटल का खाना न पिक्चर यह कोई ज़िंदगी है. काम करो बस.

अरे माँ आप कौन सी दुनियाँ में रह रही हो. शहरों की हालत पता नहीं है आप को. आप बहुत सुखी हो. बड़े शहरों की हालत बहुत ख़राब है. माँ अभी मेरी सहेली कांता आयेगी. आप उससे पूछ लेना. वह शहर में रहती है. उसे यहाँ ही अच्छा लगता है.

माँ वह बता रही थी. एक कमरे में ही गुज़ारा करना पड़ता है. अमीरों के भी घर छोटे ही होते हैं. हवा भी शुद्ध नहीं मिलती. पानी भी ख़रीदना पड़ता है. हर चीज़ में मिलावट. कोई भी सब्ज़ी हो दूध हो माँ शुद्ध नहीं मिलता . भीड़ भाड़ भरी ज़िंदगी ऐसा लगता है नर्क की ज़िंदगी जी रहे हैं !

माँ हम बहुत अच्छे हैं, शुद्ध हवा भोजन आराम की ज़िंदगी. अपने हाथ से काम कर स्वस्थ रहते हैं जिम नहीं जाना पड़ता ।

रही बात गाय भैंसों की, तो हम गौ सेवा में कर लेते हैं, व ताज़ा व शुद्ध दूध व घी मिलता है, माँ शहरों में लोग गाय को ढूँढते घूमते हैं, पर नजर नहीं आती. मंदिरों के बहार कोई लाकर खड़ा करता है. उसे घास खिलाकर खुश होते हैं पुण्य कमा लिया.

माँ आप तो सारा दिन पुण्य कमाती रहती हो. आप का तो सह लोक व परलोक दोनों सुधर गये !

आपस में प्रेम स्नेह सुख की नींद खुला आसमान हमारी ज़िंदगी बहुत अच्छी है ! माँ कांता कह रही थी कि मैं तो किसी किसान के बेटे से ही शादी करुंगी, और गाँव की महिलाओं को कुछ रोज़गार व शिक्षण दूँगी. थोड़ी तकलीफ़ होगी परन्तु आरगेनिक खाने के नाम पर महँगी चीज़ें तो नहीं ख़रीदनी पड़ेगी. अपने खेत की भाजी व अनाज स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा मैं तो गाँव में ही शादी करना पसंद करुंगी !

बस कर छोरी बहुत बोलती है.

तुम बच्चे हो तुम को दुनिया दारी क्या मालूम चलो परीक्षा को देर हो जायेगी. बाकी बातें बाद में.

महक के जाने के बाद मालती सोच रही थी वाकई बिटिया ठीक ही बोल रही थी. शहरी चमक दमक में मज़ा न है

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कफ़न

दिसम्बर माह. कड़ाके की ठंड. उत्तर प्रदेश में शीतलहर के प्रकोप से पूरा कानपुर शहर के लोग कंपकंपा रहे थे. सूरज देवता के दर्शन चार दिन से नहीं हुये. कोहरा छाया हुआ था. कई जगह तो स्कूलों की छुट्टी हो गई थी.

पर नवजवानों को क्रिसमस की पार्टी मनाने का भूत सवार था. कालेज के कुछ लड़कों ने तय कर लिया था. इस साल बहुत धूमधाम से क्रिसमस की पार्टी मनाने के लिये सबसे पैसे इकट्ठा किया जा रहा था. किसन का पुश्तैनी मकान जो रामनगर में था. वह ख़ाली पडा रहता. कभी कभार किसन के पिता खेती के काम काज की वजह से जाते थे और एक दो दिन रह कर चले आते. किसन भी कई बार वहाँ पिता के साथ जाता था और उसे यह घर बहुत पंसद था. उस घर में उसे एक शाही घराने में रहने का अहसास होता था, क्योंकि यह पुश्तैनी घर महल नुमा था. बीस कमरे, दालान में पुरानी नक़्काशी झाड़ फ़ानूस लगे थे. बडा आँगन. आँगन में हैंडपम्प आलीशान रसोई यह सब किसन को एक राजकुमार होने का अहसास कराता. और वह यही शानशौकत अपने दोस्तों को दिखाना चाह रहा था. इस लिये उसने सबको मना लिया था क्रिसमस की पार्टी उसके पुश्तैनी घर में करने के लिये.

हर जगह नवयुवक क्रिसमस की पार्टी या कहें नये वर्ष की पार्टी की तैयारी में लगे थे.

केक की दुकानों में तरह तरह के केक व पेस्ट्री सज गये थे,

बडी बडी कम्पनियों के आफिसरों ने फ़ाइव स्टार होटल की बुकिंग कर रखी थी सब जगह न्यू ईयर की पार्टी मनाने का जोश नजर आ रहा था.

वही शहर का दूसरा तबक़ा ग़रीब इलाका शीतलहर के प्रकोप से मरे जा रहे थे. उन्हें एक एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था. हाडमांस का शरीर अकड़ कर रह गया था. झोपड़पट्टी में रहने वालों को तो कुछ सहारा था ठंड को झेल रहे थे.

परन्तु जिन के पास घर नहीं थे, जो फुटपाथ पर यह रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर अपनी रातें गुज़ारते हैं उनके लिये यह ठंड क़यामत ही लेकर आती है. ऐसे लोगों को एक ही आशा रहती है कि अग्निशखा मंच के लोग आकर उन्हें जरुर कम्बल या रज़ाइयाँ भेंट करेंगे. जैसा वो हर साल करते हैं. जिसकी वजह से उन्हें ठंड काटने में जरा सी राहत हो जाती है, साथ इन लोगों को तिल के लड्डू व राशन भी मिल जाता है. हर साल दिसम्बर के आखरी सप्ताह या जनवरी के पहले सप्ताह में अग्निशिखा मंच द्वारा फुटपाथ के लोगों व अनाथ लोगों को कम्बल बाटे जाते हैं. इसी फुटपाथ पर एक परिवार रामू का रहता था, जो हर साल ठंड में संस्था के लोगों का आने का इंतज़ार करता. वह ढेरों दुआयें देता था. वह मन को समझाता था कि यह ठंड भी हर वर्ष की तरह रो धो कर कट ही जायेगी.

उधर पैसे वाले बच्चे रामनगर के किसन के पुश्तैनी मकान में एकजुट होकर पार्टी की तैयारी में लग गये. ख़ूब लाइट सजाई गयी शराब. कबाब. का दौर नाच गाना सब नशे में धूत जीवन को महज मौज समझ रहे थे. उन्हें जीवन के दूसरे पहलू का जरा भी जानकारी नहीं थी कि ग़रीब बेचारा कैसे जीता है. हम पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं, वही किसी का परिवार भूख से मर रहा है. ठंड में तन ढकने के लिये कपड़ा तक नहीं है, यदि कोई दयालु मानवतावादी. संवेदनशील लोग नहीं आते हैं तो कई लोग ठंड में ठिठुर कर मौत के आग़ोश में सदा के लिये सो जाते हैं. उनके नसीब में कफ़न तक नहीं होता. रामू अक्सर सोचता भगवान ने लोगों के बीच इतना फ़र्क़ क्यों रखा है. कुछ लोग इतने अमीर क्यों हम इतने क़रीब क्यों ?

इस बार ठंड भी कुछ ज्यादा थी. सहन करना मुश्किल हो रहा था. उसे हर साल आने वाली मंच के सदस्यों पर भी ग़ुस्सा आ रहा था. कि आना है तो अभी आयें जब जरुरत है. हममें से कुछ लोग मर जायेंगे तब संस्था वाले जागेंगे तो क्या फ़ायदा. सब को नाम चाहिये जरा सा देंगे व ढेरों पब्लिसिटी.

आज रामू को संस्था के लोगों पर भी बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. आज हमें जरुरत है तब हेल्प नहीं मिलेगी तो बाद की सहायता का क्या करें. हम लोगों को नहीं चाहिये कोई ख़ैरात. मर ही जायेंगे न तो मर ही जाय तो अच्छा है. इस नारकीय जीवन से छुटकारा तो मिल जायेगा. मंच के लोग आये २००कम्बल. रज़ाइयाँ. स्वेटर. तिल के लड्डू व महीने का राशन व बच्चों के लिये चाकलेट, बिस्कुट और बहुत सा सामान सब को बांट कर जैसे ही रामू की तरफ़ बढ़े, रामू ने ज़ोर से दहाड़ लगाई - नहीं चाहिये तुम्हारी ख़ैरात. ले जाओ. दे सकते हो तो मेरे पिता मोहन को कफ़न दे जाओ, जो रात की ठंड बर्दाश्त नहीं कर सके व मौत को गले लगा लिया. आप कल आ जाते तो शायद मेरा बाप बच जाता. पर आप लोग तो किसी की मौत की ख़बर पढने के बाद ही आते हैं. अरे देना है तो दिखावा क्या. ठंड शुरु होने के पहले आकर दे दो तो हमारे काम भी आये ! रामू की ये बात सही थी. मंच के लोग शर्म से नीचे मुंह किये खड़े थे. वह रामू का दर्द समझ रहे थे.

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घुटन

बहुत देर से मैं बस स्टाप पर खड़ी बस का इंतज़ार कर रही थी. मेरी बग़ल में बहुत से यात्री थे. परन्तु एक परिवार के कई लोग थे और वो बडी अजीबो ग़रीब हरकतें कर रहे थे. व बहुत बातें भी. मुझे बस का बेसब्री से इंतज़ार था परन्तु आज उसने देर से आने की ठान ली थी.

मैंने बोरियत मिटाने के लिये उस परिवार पर ध्यान केन्द्रित किया तो समझ में आया कि एक साथ कई पीढियां सफर कर रही है.

दादी . दादा. माँ. बापू . बेटा. बहू शायद नई नई ही शादी के बंधन में बँधे थे. बेटा अपनी पत्नी को बहुत इशारे करता कमेंट कर रहा था. जो भी लोग निकलते बह कुछ न बोलता और पत्नी को देखता. पत्नी भी प्यार भरी नजर डाल मुस्करा देती. बस स्टाप पर धीरे-धीरे भीड़ बढती जा रही थी.

बह लड़का जो भी ट्रक जाता उसके पीछे लिखे स्लोगन पढता. वह भी ज़ोर से ताकि सब सुनें व प्रतिक्रिया दें। कुछ रोमांटिक बात होती तो पत्नी की तरफ़ देखकर ज़ोर ज़ोर से बोलता. बहू घुंघट थोड़ा सा उठाती, नीचे का होंठ दाँतो तले दबाती. सबकी नज़रें बचा कर और आंखें पति की तरफ तरेरती. पति को पत्नी की यह भाव भंगिमा बहुत रोमांचित करती. उसे पढने से ज्यादा पत्नी के हाव भाव में मज़ा आ रहा था. वह अब बस के इंतज़ार का मज़ा ले रहा था !

तभी मार्बल से लदा एक ट्रक आया जो ओवरलोड की वजह से बहुत आहिस्ता आहिस्ता चल रहा था. थोड़ा थोड़ा बोझ से दबा दबा कराहता हुआ पीछे देखा तो लिखा था (परिवार की लाड़ली )

बेटे ने कहा - देखो परिवार की लाड़ली जा रही है. अदाओं के साथ और बड़े प्यार से पत्नी को निहारा.

हुंह इतना तो बोझ लाद रखा है. ऊपर से घूंघट और परिवार की लाड़ली. पत्नी ने व्यंग्य किया.

सासु जो बहुत समय से सब देख सुन रही थी, इस बात पर बोलने से पहले अपने पति व सास पर नजर डाल बोली इतना बोझा लाद रखा है तभी तो परिवार की लाड़ली है वरना . . . . . .

मैंने महसूस किया की सास की आवाज़ इतना बोल घुट कर रह गई थी.

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क़द्र

मेरी माँ की अक्सर पिताजी से कहासुनी हो जाने पर कहती रहती थी. अभी आप को मेरी क़द्र नहीं है मरने के बाद पता चलेगी !

पर पिता जी को कहां मालूम था कि ऐसा होगा वो पहले चली जायेगी.

माँ की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गये. पहले तो सारा आक्रोश माँ पर निकाल लेते. अब अंदर ही अंदर घुटते. व अपने कमरे में टहलते रहते. अपने ग़ुस्सैल स्वभाव के कारण उनके दोस्त भी नहीं थे. न वह बग़ीचे वग़ैरा में टहलने जाते. जो हमउम्र के साथ हंस बोल ले तो वक्त कट जाये ! पर वो अपनी तौहीन समझते बूढों से बात करने में. अपने को जवान समझते थे !

उनसे भगवान का भजन कीर्तन भी नहीं होता था. बस अख़बार और वो एक कमरे में कैद हो गये थे. खाने पीने के बेहद शौक़ीन रोज पकवान चाहते थे. माँ उनकी पसंद का एक न एक चीज़ उनके लिये बड़े प्यार से बनाती रहती. परन्तु अब किससे कहें. जो मिल जाता चुपचाप खा लेते. आज सच में उन्हें माँ की कही बात याद आ रही थी कि जीते जी मेरी क़द्र नहीं है. आप मुझे हर बात पर गालियाँ देते हो. मरने के बाद पता चलेगी. आज वह यही सब सोच सोच कर रो रहे थे. मैंने बहुत सताया है उसे कभी उससे दो बोल प्यार से नहीं बोले हर काम में कमियां निकालता रहा.

एक वही तो थी जो बर्दाश्त करती थी मुझे. अभी कुछ कहो तो बेटे बहू झट से जवाब दे देते हैं मेरे लिये किसी को फ़ुरसत नहीं है.

वो उम्र के साथ बदलना नहीं चाहते हैं. आज भी अपने आप को जवान समझते हैं. जवान उनके साथ ज्यादा देर बैठते नहीं. अंकल चलता हूँ बूढों को वो पसंद नहीं करते. बच्चे उनके क्रोध से डर कर भागते हैं. वो आज अपनी जीवन संगनी को याद कर रो रहे हैं. पर मैं बूढ़ा हो गया हूँ. यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. आज भी वो उसी रुवाब से हुक्म चलाते हैं. कुछ खाने की फरमाईश करते झट बहू टोक देती है. पिता जी आप बुढ़ा गये हैं. हज़म नहीं होगा. हल्का खाना ही आपकी सेहत के लिये ठीक है. ऊल जलूल खाओगे बीमार पड़ जाओगे. देखना तो हमें ही पड़ेगा.

आप सादगी पूर्ण जीवन जियें, व भगवान का भजन करें. आज उनको अपनी पत्नी बहुत याद आ रही है पर अब समय निकल गया सिर्फ़ पश्चात्ताप ही साथ है.

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अलका पांडेय (अगनिशिखा मंच)

देविका रो हाऊस प्लांट न. ७४ सेक्टर १

कोपरखैराने नवि मुम्बई ४००७०९

ई मेल alkapandey74@gmail. com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अलका पांडेय की लघुकथाएँ
अलका पांडेय की लघुकथाएँ
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