कहानी - मास्टरजी - डॉ. मंजरी शुक्ल

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मास्टरजी शब्दों से क्या होता है, वो तो मुँह से निकलते हैं और ब्रह्मांड में विलीन हो जाए हैं I अगर हम चाहे तो हम पर असर करते हैं वरना अगर हम ...

मास्टरजी

शब्दों से क्या होता है, वो तो मुँह से निकलते हैं और ब्रह्मांड में विलीन हो जाए हैं I अगर हम चाहे तो हम पर असर करते हैं वरना अगर हम कर्ण जैसा कवच बहरेपन का कस कर अपने कानों से चिपका ले तो मौज ही मौज हैं..आखिर बेचारा सामने वाला भी कितना बकर बकर करेगा , खुद ही चल देगा हार कर

"हाँ..सर, वैसे तो आप कभी कोई बात गलत नहीं कहते I पर कर्ण की तो छाती में कवच था और कानों में कुण्डल, और यहाँ आप कानों में कवच पहनने की बात बता रहे हैंI" सुरभि ने बड़े ही भोलेपन से पूछा तो कक्षा के सभी छात्र ठहाका मारकर हँस पड़ेI"

शर्मा सर हमेशा की तरह मेज पर हाथ मारकर हँसते हुए बोले-"बिटिया, अगर कानों में कुण्डल पहन लोगी तो हवा के साथ शब्द भी तो तुम्हारे मूढ़ में जाकर पालथी मारकर बैठ जाएंगेI"

"हाहाहाहा..सर, इसको तो ऐसे ही बीमारी हैं कुछ ना कुछ उल जुलूल पूछने की..."धीरज बोला, जो कि उनका बेटा था और उनकी बी.ए. तृतीय वर्ष की कक्षा का छात्र भी था I

पहले तो धीरज उन्हें क्लास में भी पापा ही कहता था पर आख़िर चार सालों की जूतम जुताई के बाद वह अपने इकलौते ढीठ सुपुत्र को रास्ते पे लाने में सफल हो ही गए थेI

जिस दिन भी धीरज उन्हें कक्षा में पापा बोलता, कक्षा में हँसी का फव्वारा छूट जाताI

आख़िर छूटे भी क्यों ना, कहाँ तो बेचारा दिया सलाई जैसा मरियल सा धीरज, जो बेचारा अपनी सुड़कती नाक के चश्मे के साथ, कमर के २० इंच के घेरे में अपनी ढीली ढाली पैंट को भी बड़ी मुश्किल से संभाल पाता था और कहाँ दूसरी तरफ शर्मा जी थे, जो दूर से उनकी गंजी खोपड़ी से लेकर पैर की एड़ी तक एक चलती फिरती बड़ी गेंद की तरह नज़र आते थेI

धीरज उनकी बुढ़ापे की औलाद था तो ज़ाहिर था कि सारे बसंत देखने के बाद ही वह ग्रीष्म ऋतु में पके आम सा उनकी गोदी में आ गिरा थाI

जब लोग धीरज को देखते जो अपनी उम्र से कम से कम पाँच साल कम लगता था , तो कल्पना ही नहीं कर पाते थे कि आख़िर शर्मा जी ने उसके हिस्से का गेंहू कहाँ छुपा दिया थाI पर बात यहीं तक सीमित नहीं थीI

दरअसल धीरज थोड़ा सा शर्मीला और दब्बू किस्म का बच्चा था जो किसी की तेज आवाज़ से ही काँप उठता था, वहीँ दूसरी ओर शर्मा जी थे जिनकी आवाज़ का गर्जन समुद्र की लहरों की भाँति पूरे स्कूल के छात्रों से लेकर बाग़ बगीचे की हरी भरी पतली लताओं को भी सिहरन से भर देता थाI

आज भी कक्षा में धीरज की जगह अगर कोई ओर छात्र सुरभि को लेकर चुहलबाजी करता तो उन्हें तनिक भी बुरा नहीं लगता पर वह सुरभि को फूटी आँखों से भी देखना नहीं पसंद करते थे क्योंकि वह उनके स्कूल में काम करने वाले दीनू माली की बेटी थी और बचपन से स्कॉलरशिप पर अपनी मेहनत और लगन से पढ़ती चली आ रही थीI

वह घंटों अकेले में बैठ कर सोचा करते थे कि उन जैसे प्रकाण्ड पंडित का बेटा पढ़ने में बिलकुल औसत दर्जे का, जिसके आगे अब डंडे और जूतों ने भी हार मार ली थी और दूसरी तरफ़ दीनू जैसे घास-फूस साफ़ करने वाले की बेटी जो सुन्दर, सभ्य होने के साथ साथ कुशाग्र बुद्धि की स्वामिनी थीI जैसे उसके सिर पर माँ सरस्वती का हाथ था, जहाँ बच्चों को कई बार बताने पर भी गणित और केमिस्ट्री के सवाल समझ में नहीं आते वहीँ झटपट वो अपने सवाल हल करके धीरज को समझाने बैठ जातीI

शर्मा जी हार कर फिर खुद ही मन में कहते...अरे मेरे इकलौते कुपुत्र..तू कब तक मिट्टी का लोंदा बना रहेगा रे..और फिर मानसिक शान्ति के लिए मन ही मन दुर्गा सप्तशती का पाठ दोहराते हुए सो जातेI .

दिन इसी तरह गुज़रते जा रहे थे, शर्मा जी का ब्लड प्रेशर नार्मल होने का नाम ही नहीं ले रहा थाI वह दुनिया भर के शान्ति पाठ का सस्वर पाठ करतेI मन में ओम का मंत्र भी जपते पर जैसे ही सुरभि को धीरज से हर बात में अव्वल आते देखते , उनके मस्तिष्क की कोई नस बेसुरे तबले की भाँती बजने लगती थीI

प्रत्यक्ष रूप में वह किसी को भी अपने मन के भाव नहीं पढ़ने देते थे और ना ही उनके तटस्थ चेहरे को कभी कोई पढ़ पाया था सिवा सुरभि के ... वह जानती थी कि मास्टर जी उससे बहुत नफ़रत करते थे और जहाँ वे कक्षा के सभी छात्रों को बड़े उदार भाव से नंबर देते वहीँ उसकी कॉपी जाँचते वक़्त तो मच्छर से भी अपना खून चुसवाने को तैयार रहते पर उनकी निगाहें गलतियां ढूँढने से नहीं हटतीI

जब कोई गलती नहीं निकाल पाते तब अपने मन से नंबर काट लेते और कहने के लिए उनके पास सौ बहाने होते -"दूसरों की कॉपी में ताका-झांकी कर रही थी या फिर देर से कॉपी जमा की, इसलिए नंबर मजबूरन काटना पड़ेI हालाँकि कहीं ना कहीं उनकी आत्मा ज़िंदा थी इसलिए वह कभी यह बात सुरभि की आँखों में आँखें डालकर नहीं कह पाए पर सुरभि ने कभी उनकी किसी बात का प्रतिरोध नहीं किया वह जानती थी उनके मन की पीड़ा और उनके गृहस्थ जीवन की लाचारियाँI

इस साल मास्टर साहब रिटायर होने वाले थे और अगर इस साल धीरज पास ना हो सका या कहीं नौकरी नहीं पा सका तो उनके घर में दो जून रोटी की दिक्कत हो जायेगीI

सुरभि बचपन से ही धीरज को बहुत पसन्द करती थी और बड़े होने पर उससे शादी के ख़्वाब भी देखती रहती थी पर वह जानती थी, उसके अरमान कपूर की भाँति है जो कब जल कर हवा में घुल कर अपने नामो निशान का कारवाँ लेकर गायब हो जाएँगे कोई जान ही नहीं पायेगाI

समय बीतता रहाI धीरज की सेहत पता नहीं कैसे निखरने लगी I वो दिनों दिन बेहद आकर्षक होता जा रहा था I शर्माजी खुद हैरान थे कि आखिर धीरज ने दुबारा संयमित जीवन कैसे जीना शुरू कर दिया Iकहाँ तो वो कालेज जाते वक्त बड़ी मुश्किल से अपनी तीन बहनों और माँ के प्यार मनुहार के बाद ऐसे उठता जैसे राजा महाराजा उठा करते होंगे और कहाँ बिना नागा अलार्म घड़ी की ट्रिन ट्रिन से ठीक पाँच बजे बिस्तर छोड़कर सैर पर निकल जाताI

ना खाने में नख़रा ना बोलने में झिझक...अब पहले की तरह लौकी देखकर उसे पहलवानों का मुगदर याद नहीं आता था और ना करेला देखकर मितली...ये सब कमाल सुरभि का ही था ये वह भली भांति जान चुके थेI

जो काम वह बरसों में नहीं कर पाये थे वो सुरभि ने कुछ ही समय में कर दिखाया था पर मास्टर साहब इस बात से भी खुश नहीं थे क्योंकि उन्हें लगता था कि कही सुरभि उनसे बदला लेने के लिए ही तो उनके इकलौते बेटे को अपने बस में नहीं कर रही हैंI

अकेले में बैठकर सोचते कि उन्होंने उम्र भर सुरभि की बेइज्जती की है और उसे बात-बात पर नीचे दिखाया इसलिए सुरभि अब उनसे उनका बेटा हथिया लेना चाहती हैं I रातों को नींद ना आती वो जितना इस ख्याल को झटकते, वो उन पर और ज्यादा हावी हो जातेI

कभी कभी नींद में उठकर बड़बड़ाने लगते कि बचाओ बचाओ..देखो वो धीरज को अपने साथ लिए जा रही हैI पत्नी, बेटियाँ और धीरज उन्हें घेरे खड़े रहते पर वह किसी की तरफ़ आँख उठाकर ना देखतेI जितना धीरज में आत्मविश्वास आ रहा था उतना ही शर्मा जी का मनोबल गिरता चला जा रहा थाI

जब उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता तो आधी रात में भी जाकर कुएँ से पानी भरकर नहाने लगतेI

पत्नी बेचारी अधपगला सी गई थी उसे लगता कि कहीं शर्मा जी किसी चिंता में डूबकर आत्महत्या ना कर ले, इसलिए उसकी नींद, चैन सब उड़ चुका था और वह बस चुपचाप उनके पीछे -पीछे चलती रहती I कुछ दिनों बाद नतीजा यह हुआ कि पत्नी की हालत ज्यादा खराब रहने लगी क्योंकि शर्मा जी तो कालेज से आने के बाद खा पीकर दिन में सो जाते थे पर पत्नी को तो कोल्हू के बैल की तरह दिन भर काम करना पड़ता था और रात में जाग- जागकर शर्मा जी की चौकसीI

धीरज भी उनसे हर तरह से पूछ कर थक चुका था पर शर्मा जी आख़िर बताते तो क्या बतातेI किसी के सद्गुणों से वह जले मरे जा रहे हैं या फिर धीरज को खो देने का डर उन्हें चौबीसों घंटे सता रहा हैंI समय तो अपनी घड़ी से मुस्कुराता हुआ चलता रहा पर शर्मा जी जरूर थक कर बैठ चुके थेI

परीक्षाओं के दिन नज़दीक आते जा रहे थे और कालेज की ज़िम्मेदारियों ने उन्हें आजकल इतना व्यस्त कर रखा था कि वह सुरभि पुराण अपने दिमाग में लाने से बच रहे थेI परीक्षाएँ हुई और हमेशा की तरह इस बार भी सुरभि ने पूरा कालेज टॉप किया पर आश्चर्य और ख़ुशी तो उन्हें इस बात की हुई कि बड़ी मुश्किल से पास होने वाला धीरज बस कुछ ही नंबरों से सुरभि से पीछे थाI

मास्टरजी को पहली बार अपने पुत्र की योग्यता पर घी के दिए जलाने का मन हुआ हाँ, ये बात और है कि घर पर उन्होंने उस दिन जरा सा घी डलवाकर खीर बनवाई और अपने हाथों से धीरज को खिलाईI उनकी पत्नी भी निहाल हुई जा रही थी वह खीर में जितनी ममता उड़ेल सकती थी उससे ज्यादा अपने हाथों की फुर्ती से उड़ेल रही थीI

बहनें आस पड़ोस में दौड़ दौड़ कर सबको अपने भाई की यशोगाथा का बखान कर आई थी पर जिस इंसान की वजह से ये दुष्कर कार्य संभव हुआ था वो हमेशा की तरह कहीं अकेली बैठी मौन थीI

दूसरे ही दिन शर्मा जी को कालेज में पता चला कि जिस छात्र के सबसे ज्यादा अंक आए हैं, उसे वहीँ पर संविदा नियुक्ति के तहत अध्यापक रख लिया जाएगा और अगर बाद में कोई संशोधन हुआ तो उसकी नौकरी पक्की भी हो सकती हैI

बस इतना सुनना था कि शर्मा जी को जैसे नाग ने डस लियाI

अब घास फूस उठाने वाली लड़की मास्टरनी बनेगी और उनका लड़का ...क्या होगा धीरज का ...ये सोच सोच कर उनके कलेजे पर साँप लौटने लगतेI जिस दिन नियुक्ति होनी थी उसके एक दिन पहले रात के समय धीरज उनसे बहुत ही दुखी स्वर में बोला-"सुरभि की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हैI बुखार के साथ उसे उल्टियाँ भी हो रही हैं तो उसने दीनू काका से कहलवाया हैं कि कल वो कालेज नहीं जा पाएगीI"

शर्मा जी जो कि सुबह से गुमसुम पड़े हुए थे, इतना जोर से उचककर जमीन पर बैठे जैसे बिजली का नंगा तार उन्हें छू गया होI

ऐसा लगा जैसे उनकी सारी पूजा पाठ आज सफ़ल हो गएI माँ दुर्गा की ऐसी अप्रत्याशित कृपा की तो उन्होंने परिकल्पना भी नहीं की थीI

वह धीरे से बोले-" पूजा पाठ सच ही है बेटा, कभी व्यर्थ नहीं जातीI"

धीरज अस्पष्ट स्वर ही सुन पाया इसलिए उसने दुबारा पूछा-"क्या कह रहे हैं पापा?"

"अरे, मैं तो यह कह रहा हूँ कि भगवान हैं ना वो उसे ठीक कर देंगेI तू परेशान मत होI"

और यह कहकर वो सालों बाद अपनी पत्नी को छेड़ते हुए बोले-" मेरे घर की अन्नपूर्णा , जरा मुझ भूखे को भी कुछ प्रसाद दे दोI"

पत्नी का मन इतने प्रेम भर शब्दों से गदगद हो गयाI उसके कान सालों से तरस गए थे, उनसे प्यार भरे दो बोल सुनने के लिएI

उसने सोचा कि पूछे- "आख़िर चंद मिनटों में ही ऐसा क्या हो गया कि उनकी तंदरूस्ती और मज़ाकिया अंदाज़ लौट आयाI" पर जैसे कमरे की हर वस्तु को मुस्कुराते देख वह प्रफुल्लित हो रही थी इसलिए सिर्फ़ मुस्कुरा दीI

शर्मा जी ने आज बरसों बाद पेट भर कर खाना खाया थाI वह जानते थे कि सुरभि के बीमार पड़ने के कारण उसके बाद वाले विद्यार्थी का चयन किया जाएगा जो नियमानुसार धीरज थाI बस यही सोचकर उनके चेहरे की मुस्कराहट जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थीI आधी रात के भयानक सन्नाटों में भी उनके कानों में जैसे शहनाइयाँ गूँज रही थीI"

ऐसी रात है जो लग रहा है, कभी कटेगी ही नहीं ...वह धीरे से बुदबुदायेI

पर सूरज को तो अपने समय से ही आना था तो वो नीले आसमान पर अपनी लालिमा बिखेरते आ ही गयाI शर्मा जी ने फटाफट धीरज को कालेज भेजा और उसके बाद इत्मीनान से दीनू के घर की ओर कुटिल मुस्कान के साथ चल पड़ेI वो सुरभि को कालेज में नौकरी ना कर पाने के दुःख में रोता बिलखता देखना चाहते थेI

आज जाकर मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगीI हमेशा मेरे लड़के से आगे रही आज देखता हूँ कैसे बिलख बिलख के रो रही होगी, मन ही मन शर्मा जी हँसते हुए बोले

वह दरवाजा खटखटाते, इससे पहले ही दीनू की आवाज़ उनके कानों में पड़ी -"बिटिया, ये क्या कर दियाI जिस दिन का सपना देखकर तूने दिए की लौ में इतने साल पढ़ाई की, आज तूने उसी नौकरी को हँसते हँसते ऐसे ठुकरा दिया जैसे वो सपना तेरी आँखों में कभी बसा ही नहींI"

हमेशा की तरह सुरभि की मधुर और धीमी आवाज़ सुनाई दी-"बापू, अगर धीरज ये नौकरी नहीं पाता तो मास्टर जी का घर परिवार कैसे चलताI उनकी तीन तीन बेटियाँ हैं जिनका ब्याह होना हैI मेरा क्या है बापू, मैं अगर फूल भी बेचूंगी तो सब कहेंगे कि माली की बेटी है फूल नहीं बेचती तो क्या करती, पर बापू, धीरज ...वो तो मास्टर जी का बेटा हैं ना ...कहते कहते सुरभि का गला रूंध गया और दीनू काका के दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ बाहर तक आई जो शर्मा जी के कलेजे को चीरते हुए निकल गईI उनका कलेजा हिल गया और उनका दिल इतने जोर से धड़कने लगा कि उन्हें एक एक धड़कन सुनाई देने लगीI उन्हें लगा, उनकी नस नाड़ियों का रक्त जैसे जम गया हैं और वह चाह कर भी हिल डुल नहीं पा रहे हैI

उनका दिल चीत्कार मार रहा था, आँखों से निकली बूँदें टप-टप करती सुरभि के घर की पवित्र मिट्टी को सींच रही थीI

उन्होंने काँपते हाथों से दरवाजा खोला और सुरभि के पास जाकर खड़े हो गए I दीनू हड़बड़ाकर उठ बैठा और गमछे से अपने आँसू पोंछने लगाI

सुरभि ने झुककर तुरंत उनके पैर छूएI उन्होंने बोलना चाहा-"मुझ जैसा पतित इंसान तुझे आशीर्वाद देने के लायक भी नहीं हैं बेटी...पर शब्द जैसे आँसुओं के साथ गुंथकर उनके गले में ही फंस गए I

अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्होंने सुरभि के सिर पर हाथ फेरा और उसे हज़ारों दुआएं देते हुए वे कमरे में आँसुओं की बड़ी बड़ी बूँदें गिराते हुए निकल गए ....

--

डॉ. मंजरी शुक्ला

# D-1433

इंडियन ऑयल कारपोरेशन लिमिटिड

रिफ़ाइनरी टाउनशिप विलेज एन्ड पोस्ट - बहोली

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रचनाकार: कहानी - मास्टरजी - डॉ. मंजरी शुक्ल
कहानी - मास्टरजी - डॉ. मंजरी शुक्ल
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