कहानी - जोंक - हरीश कुमार ‘अमित’

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दिल को बार-बार तसल्ली दे रहा हूँ , मगर डर फिर भी लग रहा है. प्रदीप बस की लाइन में मेरे पीछे खड़ा स्त्री जाति की महानता पर लगातार बोले जा रहा ...

दिल को बार-बार तसल्ली दे रहा हूँ, मगर डर फिर भी लग रहा है. प्रदीप बस की लाइन में मेरे पीछे खड़ा स्त्री जाति की महानता पर लगातार बोले जा रहा है. मेरा जी चाह रहा है कि अब वह अपनी बक-बक बन्द करके चुपचाप अपने घर जाने वाली बस पकड़ने की फ़िक्र करे, लेकिन वह तो जैसे मुझसे चिपका ही हुआ है. उसकी बातें सुनने का उपक्रम करते हुए बीच-बीच में आँख उठाकर मैं बस आने वाले रास्ते की तरफ़ भी नज़र मार लेता हूँ. छह बीस पर बस आनी चाहिए. मैंने घड़ी की ओर देखा है - छह अट्ठारह हो गए हैं. बस अब किसी वक़्त भी आ सकती है.

मुझे डर लग रहा है कि कहीं यह प्रदीप का बच्चा मेरे साथ ही बस में न चढ़ जाए. अगर ऐसा हो गया तब तो ख़ैर नहीं. तब तो इसे घर ले ही जाना पड़ेगा. चाय-वाय पीने के बाद अगर इस साले ने उठ जाना हो, तब भी ग़नीमत है. मगर यह घोंचू तो बैठा रहेगा, बैठा ही रहेगा, दूसरे आदमी के सब्र का पैमाना छलक जाने के बाद भी. और फिर कहे बग़ैर ही रात को वहीं रूक जाने का फैसला भी अपने आप ही कर लेगा. कल और परसों तो हैं भी छुट्टी के दिन यानि कि सोमवार को दफ़्तर आने तक यह ख़ुदा का बन्दा साथ नहीं छोड़ने का.

माथे पर गीलापन-सा चुहचुहा आया है. हे भगवान, किस अशुभ घड़ी में आज शाम दफ़्तर के बाद इस प्रदीप के बच्चे के साथ थोड़ी देर कहीं बैठकर गपशप करते हुए चाय का कप पीने का प्रोग्राम बना बैठा. सुनील साथ होता, तब तो ऐसी बात होनी ही नहीं थी. तब तो इस स्टैंड तक इस लल्लू के मेरे साथ आने की बात भी कहाँ उठनी थी. शाम को कुछ देर कहीं बैठने की ऑफर तो सुनील को भी दी थी. मगर उसे कहीं जाना था इसलिए उसने माफ़ी मांग ली थी. फिर साढ़े पाँच के बाद प्रदीप और मैं ही केन्द्रीय टर्मिनल के पास सड़क के किनारे बनी स्टालनुमा चाय की दुकान पर आ गए थे.

यह प्रोग्राम कोई पहले से तय नहीं था. अचानक ही बन गया था. दफ़्तर छोड़ने से पहले मुँह-हाथ धोने के लिए बाथरूम जाते वक़्त सुनील और प्रदीप मुझे सामने से आते दीखे थे. दूर से उन्हें देखते ही अचानक मेरे दिल में शाम को कुछ देर कहीं बैठकर गपशप करने का ख़याल आ गया था. अगले दो दिन थी भी छुट्टी इसलिए घर ज़रा देर से पहुँचने पर पढ़ाई का हर्ज़ा होने की बात भी दिल में नहीं आई थी.

पर अब बहुत पछतावा हो रहा है कि मैंने ऐसा प्रस्ताव रखा ही क्यों. प्रदीप की आदत का तो मुझे पता ही था. बातें करना शुरू कर दे तो पीछा ही नहीं छोड़ता. जोंक की तरह चिपक जाता है. लेकिन मुझे क्या पता था कि सुनील ना कर देगा. वह साथ होता तब तो अपने-अपने घर जाने की बात आते ही वह उठ जाता. तब प्रदीप को भी उसके साथ जाने के लिए उठना पड़ता. वे दोनों ही सरोजनी नगर में रहते हैं.

सुनील के शाम को साथ न बैठ सकने से इन्कार करने पर प्रोग्राम तो किसी और दिन का भी बनाया जा सकता था, मगर न जाने किस झोंक में मैंने सिर्फ़ प्रदीप के साथ ही प्रोग्राम बना लिया था.

720 नम्बर की बस आती दिखी है. मैंने जल्दी से हाथ बढ़ाकर प्रदीप से कहा है,‘‘अच्छा भई, फिर मिलेंगे.’’

मगर वह कहने लगा है,‘‘मैं भी आपके साथ ही चलता हूं. धौला कुआँ पर उतरकर वहाँ से अपने घर की बस पकड़ लूँगा.’’

सुनकर मेरा डर और बढ़ गया है. अब क्या जवाब दूँ इस आलूबुख़ारे को. अनमनेपन से मैंने जेब से पैसे निकालकर दो टिकटें ले ली हैं - एक बी-वन ब्लाक जनकपुरी की और दूसरी धौलाकुआँ की. पैसे खर्चने के नाम पर तो नानी मरती है साले की. पेमेंट करने का मौका आते ही जेबों में हाथ डालकर यूँ खड़ा हो जाता है जैसे पैसे खर्चने का ठेका दूसरों ने ही ले रखा हो.

हम दोनों बस में साथ-साथ जा बैठे हैं. प्रदीप का भाषण अब भी जारी है. अब वह भक्ति साहित्य को ले बैठा है, जिसमें मेरी दिलचस्पी कतई नहीं है. मैं जबरदस्ती हां’ ‘हूँकर पा रहा हूं. जानबूझकर भी मैं कुछ नहीं बोल रहा, क्योंकि उसकी बातों में दिलचस्पी न दिखाकर प्रदीप को धौला कुआँ पर ही उतार देने में आसान रहेगी. नहीं तो वह बेशर्म आदमी है. कहीं धौला कुआँ पर उतरे ही न और ख़ुद ही मेरे घर तक चलने की बात करने लगे.

पहले एक बार ऐसी हालत से गुजर चुका हूँ, इसलिए इसकी आदतों से काफी हद तक वाकिफ हूँ. उन दिनों नौकरी लगने पर यह नागपुर से दिल्ली आया ही था. एक बार इसने दफ़्तर छूटने के बाद मेरे साथ मेरे घर तक चलने का प्रोग्राम बनाया. लेकिन शाम को साढ़े पाँच बजे जब हम मिले तो यह भलामानस यह कहकर कि एकाध घंटे का कोई सांस्कृतिक प्रोग्राम है, मुझे एक जगह घसीट ले गया था. लेकिन वह प्रोग्राम कहीं साढ़े आठ बजे जाकर ख़त्म हुआ. सदियाँ थीं तब. मैंने सोचा था कि बड़ी देर हो गयी है, अब तो यह मेरे कमरे तक क्या चलेगा, मगर यह चल पड़ा था. रात को पौने दस बजे के करीब हम लोग कमरे में पहुँचे थे. चाय पीते वक़्त इसने ख़ुद ही रात को वहीं रह जाने का प्रस्ताव रख दिया था, यह कहते हुए कि अब उसे घर जाने की बस पता नहीं मिले या न मिले. फिर अगले दिन यह मेरे साथ ही दफ़्तर आया था.

मगर फिर भी इतनी आगे तक तो वह आज तक कभी नहीं बढ़ा था. शुरू-शुरू के दिनों में दफ़्तर के बाद शाम को बातचीत करने के लिए उसने तीन-चार बार मुझे फाँस लिया था. तब उसकी बकवास सुनते-सुनते एक-दो बार तो रात के आठ-साढ़े आठ भी बज गए थे. इस दौरान चाय के जितने भी दौर चले थे, सभी ने मेरी ही जेब हल्की की थी. तब भी वह बिना कहे मेरे साथ मेरे स्टैंड की तरफ़ आ जाया करता था जबकि उसकी बस बिल्कुल दूसरी तरफ़ से मिलनी होती थी और हम दोनों के बस स्टैंड्स करीब एक फ़र्लांग के फासले पर थे. लेकिन मेरी बस आ जाने पर जब मैं उससे विदा माँगता था तो वह चुपचाप हाथ आगे कर दिया करता था. जिस दिन वह मेरे घर गया था, उस दिन भी उसने मेरे हामी भरने पर ही मेरे यहाँ आने का प्रोग्राम बनाया था. मगर आज तो उसने हद ही कर दी थी.

धौला कुआँ आने का इन्तज़ार इतनी बेसब्री से मैंने आज तक कभी नहीं किया था. आखिरकार धौला कुआँ से पहले वाला, मौर्य होटल का स्टॉप आया है. वहां से बस चलते ही मैंने प्रदीप को आगाह कर दिया है कि इससे अगला स्टॉप धौला कुआँ का है. पर वह बैठा रहा. फिर कुछ सैकण्ड्स के बाद कहने लगा, ‘‘मैं उससे अगले स्टॉप पर उतर जाऊँगा. एक स्टॉप चलकर पीछे आने में देर ही क्या लगनी है.’’

‘‘मगर धौला कुआँ के बाद तो बस दिल्ली कैंट की तरफ़ मुड़ जाएगी.’’ मैंने धौला कुआँ पर ही उससे पिंड छुड़ाने की गर्ज़ से कहा है.

‘‘लेकिन यार, मैं यह देखना चाहता हूं कि वह बस जाती किस तरफ से है.’’ बदले में उसने कहा है.

सुनकर मैं चुप हो गया हूं. ग़्ास्सा तो मुझे बहुत आ रहा है, पर किया भी क्या जा सकता है. धौला कुआँ के स्टॉप से बस चलते ही मैंने उससे कह दिया है, ‘‘अब अगले स्टॉप पर आपको उतरना है.’’

मगर मुझे वह जवाब मिला है जिसकी उम्मीद मुझे कतई नहीं थी, ‘‘बस चलने दीजिए गाड़ी.’’

सुनते ही मैं एकदम ग़्ास्से से भर उठा हूँ बस चलने दीजिए गाड़ी.का मतलब क्या हो सकता है? यही न कि वह बी-वन तक मेरे साथ ही जाएगा. वहाँ से मेरा घर है ही कितना दूर! मुश्किल से एक फ़र्लांग होगा. बस से उतरकर उसे घर चलने के लिए तो कहना ही पड़ेगा. कहा तो ठीक, नहीं तो वह ख़ुद ही उस तरफ चल देगा. घर पहुँचकर चाय-वाय पीने के बाद भी इसने कौन सा वहाँ से टल जाना है. फिर आठ-नौ बजे के करीब किसी बहाने से रात को वहीं रूक जाने की बात भी इसने कह देनी है. इस तरह आज की शाम और रात तो बरबाद होगी ही, शनि और इतवार के दोनों दिन और सोमवार की सुबह का भी ख़ून हो जाएगा. मेरी आँखों के आगे पिछले सारे हफ़्ते से बकाया वे सब काम तैरने लगे हैं जो मुझे आज शाम घर पहुँचने से लेकर सोमवार सुबह दफ़्तर के लिए चलने तक पूरे करने की जी-तोड़ कोशिश करनी है.

साला! हरामी!ये लफ़्ज़ मेरी ज़ुबान पर आते-आते रह गए हैं. लेकिन यह कहे बग़ैर मैं नहीं रह पाया हूँ,‘‘देखिए मिस्टर प्रदीप, मैं आपको अपने घर नहीं ले जा सकता. गले तक मैं काम में डूबा हुआ हूँ. हफ़्ते के बाकी दिनों में न किया जा सका सारा काम मैं शनि-इतवार के लिए ही रख देता हूँ. वैसे तो वक़्त मिलता नहीं.’’ यह सब कहते हुए यह एहसास मुझे बराबर हो रहा है कि इतना ज़्यादा स्पष्टवादी तो मुझे नहीं ही बनना चाहिए. मगर फिर भी बात मैंने पूरी कर ही दी है.

सुनकर वह बोला है,‘‘यार, मैं आपके घर तक जाने की बात नहीं सोच रहा हूँ. मैं बस वहीं तक जाऊंगा, जहां तक यह बस जाएगी. और फिर वहाँ से बस पकड़कर वापिस आ जाऊंगा.’’ आशा के विपरीत उसकी आवाज़ में नाराज़गी का पुट मामूली-भर ही है. पूरा ढीठ है. उसकी जगह मैं होता तो ऐसा कुछ सुनकर बस से उतर जाने के लिए कब का अगले दरवाज़े तक पहुँच गया होता.

‘‘ठीक है.’’ कहकर मैंने चुप्पी साध ली है और खिड़की की तरफ़ देखने लगा हूँ. बस जनकपुरी की तरफ भागती जा रही है.

एक-डेढ़ मिनट की चुप्पी के बाद ही प्रदीप ने फिल्मों में बढ़ती हिंसा की टांग घसीटी शुरू कर दी है. विषय मेरी दिलचस्पी का ज़रूरी है, पर इस वक़्त मुझे इतना ज्यादा ग़्ास्सा आ रहा है कि मैं जवाब में कुछ भी नहीं बोल पा रहा. उसके यह कह देने के बावजूद कि वह बी-वन पर उतरकर वापसी की बस ले लेगा, मुझे उस पर यक़ीन नहीं हो रहा. यह डर मुझे बराबर खाए जा रहा है कि बी-वन पर उतरकर वह कोई ऐसी बात कह देगा कि मुझे उसको अपने घर ले ही जाना पड़ेगा. और अगर एक बार वह घर में घुस गया तो फिर उसे बाहर करना बड़ी मुश्किल बात होगी.

बार-बार मुझे पछतावा हो रहा है कि आज का यह प्रोग्राम मैंने बनाया ही क्यों. प्रोग्राम तो बनाया था थोड़ी देर रिलेक्स करने के लिए, पर यहाँ तो इतना तनाव झेलना पड़ रहा है कि सिरदर्द-सा होने लगा है. चाय की दुकान पर भी यह लल्लूलाल बोले चले जा रहा था. बड़ी मुश्किल से इससे विदा लेने की बात कही थी, मगर यह मेरे साथ ही मेरे बस स्टैंड की तरफ चल पड़ा था.

आखिर बी-वन का स्टॉप आ गया है. उतरकर वह बड़े मुग्धभाव से जनकपुरी की बहुमंजिली इमारतों और ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को देखने लगा है. फिर एक अंगड़ाई लेकर बोला, ‘‘वाकई मज़ा आ गया यार सफ़र का!’’

मैं अच्छी तरह से समझ पा रहा हूँ कि जो कुछ वह कह रहा है, सब बकवास है. यह सब कहकर मुझे इस बात का यक़ीन दिलाना चाह रहा है कि वह सिर्फ़ बस का एक नया रूट देखने के लिए ही इधर आया है.

फिर वह मेरे साथ-साथ चलने लगा है. मैंने तय कर लिया है कि अगर उसने वापसी की बस के बारे में दिलचस्पी न दिखाई तो मैं खुद ही उसे बस मिलने वाली जगह पर ले जाऊँगा. लेकिन उसने सड़क के दूसरी ओर बस की इन्तज़ार में खड़े पाँच-सात लोगों की तरफ़ इशारा करते हुए मरी-मरी सी आवाज़ में मुझसे पूछ ही लिया है, ‘‘वो सामने से ही बस मिलेगी न यार?’’

‘‘हाँ. इधर से पाँच-दस मिनट में धौला कुआँ के लिए बस मिल जाएगी.’’ मैंने रूखाई से जवाब दिया है.

फिर सड़क पार करके मैंने अच्छा, फिर मिलेंगेकहते हुए उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया है. वैसे तो मेरे संस्कार इतनी बेरूख़ी बरतने की इजाज़त शायद मुझे कभी न देते, लेकिन मेरे सब्र का बाँध टूटता जा रहा है और उस आदमी को बर्दाश्त कर पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल बात होती जा रही है.

उसकी शिकायती नज़रों का सामना करते हुए मैंने उसके मरे-मरे-से हाथ से हाथ मिलाया है और फिर तेज़ी से सड़क का मोड़ मुड़कर अपने कमरे की तरफ जाने वाली सड़क पर चलने लगा हूँ. गुस्सा मुझे इतनी ज़ोर से आ रहा है कि मुड़ते वक़्त मैंने पलटकर उसकी तरफ़ देखा भी नहीं. इसकी वजह शायद मेरा यह डर भी है कि वह कहीं अब भी कोई बहाना बनाकर मेरे साथ ही न चल पड़े. वैसे मुझे पूरा विश्वास है कि इस वक़्त वह मेरी तरफ़ ही देख रहा होगा.

घर आने तक मेरी उत्तेजना में कोई ख़ास कमी नहीं आई. सीढ़ियाँ चढ़ ताला खोलकर कमरे में आ जाने पर कुछ आश्वस्त-सा ज़रूर हुआ हूँ. दरवाज़े के नीचे से अंदर सरकाई गई अपनी चिट्ठियों को देखा है. दो कहानियाँ वापिस आ गयी हैं. तनाव कुछ और बढ़ा है. मगर साथ ही एक लघुलेख का स्वीकृतिपत्र भी आया हुआ है. जानकर कुछ चैन पड़ा है. बस ये ही तो सीढ़ियाँ हैं. आज लघुलेख की स्वीकृति आई है. कल को कहानियों की भी आएगी. फिर सम्पादक लोग खुद चिट्ठियाँ लिख-लिखकर रचनाएं मँगवाया करेंगे. फिर... सोचते-सोचते ट्रांसिस्टर चला दिया है. उसके बाद बूट उतारने लगा हूं.

सिर अभी भी भारी-भारी-सा लग रहा है. ज़रा ज़्यादा पत्तीवाली चाय पीते हुए सोच रहा हूँ कि बस अब सोमवार की सुबह सात बज़कर दस मिनट पर दफ़्तर के लिए तैयार होने से पहले का सारा वक़्त तो अपने ही हाथ में है. तब तक जमकर काम करना है. ये और ये किताब ख़त्म कर देनी है. छांवलिखकर भेज देनी है. पत्रकारिता के भी कम-से-कम छह नोट्स तो पढ़ ही डालने हैं. इम्तहान पास आते जा रहे हैं. चिट्ठियाँ भी काफी पड़ी हैं लिखने को. तीन-चार हफ़्ते पहले के दो-तीन अख़बार भी अभी तक नहीं पढ़ पाया, उन्हें भी पूरा करना है. एक-दो पत्रिकाएं भी पढ़ लेनी हैं. मुझे मालूम है कि इतना सारा काम परसों सुबह तक हो नहीं पाएगा, मगर फिर भी प्लानिंग तो करनी ही चाहिए ना.

चाय पीने के बाद पढ़ने की ऐनक लगा एक किताब लेकर बैठ गया हूँ. लिखने का मूड तो फिलहाल कर नहीं रहा. थकावट-थकावट-सी महसूस हो रही है. कुछ देर पढ़ लूँ. फिर लिखूँगा.

किताब में बहुत रस आने लगा है. सोचा है कि खाना-वाना घर में बनाने की बजाय फटाफट जाकर किसी ढाबे से ही खा आऊंगा और किताब ख़त्म करके ही सोऊंगा.

तभी किसी के सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज़ सुनाई देने लगी है. आवाज़ अनजानी-सी लग रही है. किताब के पन्ने पर नज़रें जमाए हुए अभी इस बारे में अनुमान लगा रहा हूं कि दरवाज़े पर आवाज़ सुनाई पड़ी है,‘मिस्टर वर्मा, माफ़ी चाहता हूँ. मुझे आपके घर ही शरण लेनी पड़ी. दरअसल यार, पचास मिनट तक इन्तज़ार करने के बाद भी कोई बस मिली ही नहीं.

पढ़ने वाली ऐनक पहने हुए ही मैंने प्रदीप की ओर देखा है. धुंधला-धुंधला-सा दीखने के बावजूद उसके चेहरे पर नाचती मुस्कुराहट मैं साफ़-साफ़ महसूस कर पा रहा हूँ.

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संक्षिप्त परिचय

नाम हरीश कुमार ‘अमित’

जन्म मार्च, 1958 को दिल्ली में

शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा

प्रकाशन 800 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, एक विज्ञान उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्र‍काशित

एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित

प्रसारण लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.

पुरस्कार (क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994,

2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत

(ख) ‘जाह्नवी-टी.टी.’ कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत

(ग) ‘किरचें’ नाटक पर साहित्य कला परिष्‍द (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त

(घ) ‘केक’ कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त

(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत

(च) ‘गुब्बारे जी’ बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत

(छ) ‘ईमानदारी का स्वाद’ बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त

(ज) ‘कथादेश’ लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत

(झ) ‘राष्‍ट्रधर्म’ की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2017 में व्यंग्य पुरस्कृत

(ञ) ‘राष्‍ट्रधर्म’ की कहानी प्रतियोगिता, 2018 में कहानी पुरस्कृत

(ट) ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’लघुकथा संग्रह की पांडुलिपि पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, 2018 प्राप्त

सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त

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पता

304, एम.एस.4 केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)

ई-मेल harishkumaramit@yahoo.co.in

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: कहानी - जोंक - हरीश कुमार ‘अमित’
कहानी - जोंक - हरीश कुमार ‘अमित’
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