कहानी - खिचड़ी - जयंत खतरी, अनुवाद- डा रानू मुखर्जी

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खिचड़ी - जयंत खतरी मूल गुजराती से अनुवाद - डा रानू मुखर्जी संघर्षमय जीवन के सोलहवें वर्ष पर खड़ी लखड़ी की जवानी अपने पूरे उफान पर खिलकर उभर ...

खिचड़ी -

जयंत खतरी


मूल गुजराती से अनुवाद-

डा रानू मुखर्जी

संघर्षमय जीवन के सोलहवें वर्ष पर खड़ी लखड़ी की जवानी अपने पूरे उफान पर खिलकर उभर आई थी। पर लखड़ी को इसका कोई आभास नहीं था। वह इतनी व्यस्त रहती थी कि उसे अपने बालों को संवारने तक की फुरसत नहीं थी। जवानी की उच्छवास, उमंग, आशा और जिंदगी की दी गई मजबूरियों में ही लखड़ी मस्त थी।

भोर की बेला में जब वह पानी भरने के लिए उठती तभी से लगातार एक के बाद एक होनेवाले पूरे दिन की रूप रेखा उसके मन में बनती रहती थी। ऐसे में भी वह किसी वृक्ष के कोने में से झांकती हुई प्रभात की कोमल किरण को देखने से वह नहीं चूकती थी। पल भर थमकर वह उस दृश्य का आनंद अवश्य उठा लेती थी।

किसी दिन अगर वह पौ फटने से पहले तलाव पर पहुँच गई होती तो तलाव के स्थिर निस्तब्ध स्तर को एकटक ताकती रहती जो आईना बना तलाव पर पड़ा होता। उस निर्जन स्थल पर शांत निर्मल स्थिर सतह को तितर-बितर करने का मन नहीं होता लखड़ी का। बिगाडते हुए उसका मन दयाभाव से भर उठता। उस आईने में अपने चेहरे को निहारते हुए लखड़ी के दिल की धड़कन रूक-रूक जाती और तभी लखड़ी, श्रृष्टि की शोभा और वातावरण के मूक संगीत में एक बदलाव का अनुभव करती।

पर कब तक?

उस आल्हाद से भरे मन पर उन्मादित हृदय पर जब जीवन के बोझ की फटकार पड़ती तब लखड़ी सब कुछ भूलकर उस स्थिर जल के स्तब्ध सपाटी को बिगाड़ देती और “बुद्बुद” करती हुई पानी गागर में भरती जाती तब सब कुछ भूलकर लखड़ी हंस पड़ती और उसकी हंसी में स्वर मिलाता हुआ समस्त जगत हंस उठता।

हास्य की इस करुणता को लखड़ी ने अब तक नहीं पहचाना था।

गाँव के घरों में पानी के घड़े को पहुँचाकर आते तक लखड़ी थक चुकी होती और उस समय तक लखड़ी के घर के मटके का पानी भी अपनी ताली को छू रहा होता। तब तक उसे आलस घेर चुका होता : “माँ आज इतने पानी से ही काम चला लो न? कहती हुई लखड़ी, नाक सुड़कती बैठी माँ की गोद में लाड़ करती हुई ढब से बैठ जाती, लेट जाती। फिर भी करने के लिए काम तो बाकी रह ही जाते – किसी के घर झाड़ू, कहीं कपड़े, कहीं बर्तन।

जीवन के न जाने कितने प्रपंच।

पर जब से लखड़ी थोड़ी बड़ी हुई, थोड़ी समझदार बनी तब से काम के प्रति उसका लगाव और स्वभाव के चिड्चिड़ेपन में थोड़ा बदलाव आया। इतना बदलाव कि काम के प्रति एक लगाव और काम की स्वाभाविकता को उसने स्वतः स्वीकार कर लिया। सारी झंखनाए खत्म हो गई और उसने इसे जीवन का एक अंग मान लिया।

इसलिए लखड़ी अपनी रौ में ही मस्त रहती। उसकी काम करने की क्षमता ने और जवानी के जोश ने उसे एक अलग ऊंचाई पर ही पहुंचा दिया था। अभिमान से भरी वह अक्सर डोलती फिरती कि मेरी व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि मुझे बाल बनाने की भी फुरसत नहीं मिलती है। अपने इस व्यक्तित्व के कारण लखड़ी काफी हिम्मती बन गई थी और दृढ निश्चयी भी। स्वभाव से वह थोड़ी लापरवाह थी और उतावलापन भी उसमें बहुत था। और बाकी सब जीवन के अंधेरे-उजाले अभी तो भविष्य के गर्भ में आकार ले ही रहे थे।

भूतकाल की ओर मुड़कर देखने की आदत लखड़ी में अब तक नहीं उपजी थी जिससे कि भविष्य को सँवारने की उत्कंठा जागे। लखड़ी जितनी सुंदर, जितनी सुगढ़ उतनी ही वास्तविकता के प्रति सचेत और कुछ हद तक कर्कशा भी थी।

दोपहर को जब वह खिचड़ी परोसने बैठती तो वह इस बात से वाकिफ रहती कि बनाई गई खिचड़ी में से खाने वाले सभी को अपना पेट भरना है। वह जितना परोसेगी उतनी ही, किसी को ऊपर से और मांगने का अधिकार नहीं होता है। उसके बड़े भाई के सिवाय और किसी को भी दुबारा मांगने की हिम्मत नहीं थी।

पर लखड़ी बड़ी चतुराई से काम लेती। उसका बाप जब खाने बैठता तब वह जानबूझ कर मिट्टी से बनी खिचड़ी की हंडी को एकदम से उसकी ओर कर देती। बार-बार पलकें झपकाती बुड्ढे की पनीली आँखें कुछ देर के लिए स्थिर हो जाती : “मुझे इतनी सारी खिचड़ी नहीं चाहिए लखड़ी। थोड़ा निकाल ले।“

“आपको तो कुछ पता ही नहीं चलता बाबा, हर रोज तो मैं ही आपको परोसकर खिलाती हूँ। इतना तो आप रोज ही खाते हो।“

“पर”

“बहुत हो गया, अब खाना शुरू करो।“

उसका बड़ा भाई विठ्ठल जब खाने बैठता तब वह हंसी मज़ाक और मसखरी करना शुरू कर देती पर उसकी नजर भाई की थाली पर टिकी रहती थी। इधर खिचड़ी खत्म हुई नहीं कि तुरंत वह धीरे से पानी से भरा लोटा थाली के नजदीक रख देती और पूछती “ये तो बताना विठ्ठलभाई कि शंकर सेठ ने जो नई नई सफ़ेद घोड़ी खरीदी है वह असली अरबी घोड़ी है क्या?”

“कौन जाने?” और बातों ही बातों में विठ्ठल थाली में हाथ धो बैठता “अरे वो जो इस्माइल टांगे में चलाता है वही?”

“हाँ, वही” – कहती हुई लखड़ी बगासे लेती हुई उठ खड़ी होती। “अब ऐसा करो न विट्ठलभाई आप बाहर चबूतरे पर जाकर आराम करो तब तक मैं और माँ खाना खा लेते हैं।“

फिर तो लखड़ी हँडिया में से बची खुची खिचड़ी को खुरच खुरचकर एक थाली में निकालती और तब माँ बेटी दोनों एक ही थाली में खाने बैठ जाते। अंतिम कौर पर संतुष्ट होने वाली माँ बेटी का सम्झौता गज़ब का होता था। दोनों में से कोई भी कुछ भी नहीं कहता था पर दो हाथ जब खीचड़ी के पहले कौर को लेते तभी दोनों में एक अव्यक्त फैसला हो गया होता कि आज किसे पेट भरकर खाना है और किसे भूखे पेट रहना है। ये निश्चित होने के पश्चात कोई भी न भावुक होता और न ही इस प्रसंग पर गौरान्वित होता था।

रोज रोज बनती और विकसित होती , जीवित रहने की यह एक कला थी और लखड़ी इस कला में विशारद बनती जा रही थी।

अगर लखड़ी के घर परिवार के बारे में जानना हो तो वह कुछ इस प्रकार का है – दोनों पैरों से कमजोर लंगड़ा बूढ़ा बाप। तेज तर्रार और शारीरिक श्रम से त्रस्त असमय ही बुढ़ापे से ग्रस्त माँ। जो हर समय खो-खो करती हुई अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है। एक जवान सशक्त आरी-भरत का काम करने वाला बड़ा भाई है, जो कि पूरे दिन की कमाई को रात को दारू के प्याले में, सिगरेट के धुएँ में उड़ा देता है। नीचे में के दो खंड, ऊपर का एक मंजिल, छोटा सा आँगन, एक लिमड़े की झाड़, कुछेक चूहे, एक पिल्ला। नजदीक ही शंकर सेठ का बड़ा सा मकान, उससे थोड़ी दूर पर छोटे-बड़े मकान, वहाँ पर ऐसे-वैसे लोग ही रहते हैं। उसके पीछे मंदिर, बीच में सिनेमा हाल और उसके पीछे मस्जिद और उसके भी पीछे जहां बगासे लेती हुई लखड़ी की आंखें खो जाती हैं वैसा ही रंग और मिजाज बदलता हुआ विस्तृत आकाश टंगा है।

इस छोटे से चित्र में जीवन के अद्भुत नाटक खेले जा रहे थे। यहाँ चूहे चुहचुहाते हुए छत पर दौड़ते रहते, भूख के मारे पिल्ले रास्ते पर मरे पड़े मिलते, मंदिर में आरती और मस्जिद के बांग की मिश्रित आवाज ओस भरे शबनमी बादल में घुल-मिल जाते और शाम मर जाती। तभी सिनेमा घरों में से इश्क मस्ती, भजन, शराब, संत, वैश्या, सती सज्जन और दुर्जन के अद्भुत कर्कश संगीत लाउड स्पीकर में से गरजते रहते। रेडियो, समाचार पत्र और बन्दरगाह पर देश विदेश की लड़ाइयों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था। महंगाई, भयंकर महंगाई, मंदी, बेकारी, गरीबी, दादगीरी, भूखमरी, लहूका व्यापार, चोरी, लूट, नाफाखोरी.....

“अरे रे” लखड़ी की माँ ऊपरी मंजिल के गवाक्छ पर बैठी बैठी कपूर की पुड़िया बनाती हुई अपनी जुबान से जलीकटी उगलती रही : “अरे ये लड़की है या अजूबा? सात बज गए अभी तक छोकरी का कोई पता ही नहीं ।“ और तभी कहीं से लखड़ी उड़कर उनके सामने आ खड़ी होती है। “कौन सी मुसीबत आ गई?” कहती हुई ज़ोर से सर पर की टोकरी को पछाड़ती हुई अपनी नाराजगी व्यक्त करती। दूसरे ही क्षण तिरछी नजर से देखती हुई मुस्कुराकर कहती “लो ये गेहूं रखो, सुबह पीसकर रखना।“ और बिल्ली की तरह दबे पांव से चुपचाप रसोईघर में घुस जाती।

उसके घर में घुसते ही उसकी माँ की जीभ जड़ हो जाती। पर कूदती-फाँदती दौड़ती-भागती फिसलती खिसकती लखड़ी का पीछा उसके बाप की मिच-मिचाती भीनी-भीनी आँखें लगातार करती रहती। लखड़ी खिचड़ी कमाती थी, खिचड़ी पकाती थी और खिचड़ी परोसती भी थी।

“लखड़ी है तो खिचड़ी है” उसका भाई एक दिन कह बैठा, “लखड़ी तो खुद ही खिचड़ी जैसी है – क्यों माँ?”

“मर मुआ, निट्ठल्ला कहीं का।“

सच में विठ्ठल तो निट्ठल्ला ही था। हर रोज दारू पीता था और अपने दिन की पूरी कमाई को दारु पर उड़ाकर ही घर लौटता था। उसके बाप को वह फूटी आँख नहीं सुहाता था। और माँ की गालियां तो वह निर्लज्ज भाव से पचा जाता था। नीम के पेड़ के नीचे लगे खाट पर पड़े पड़े वह चारों तरफ पान को पिचकारी की तरह थूकता और सिगरेट फूंकता रहता था। रात को घर के सारे काम निबटाकर लखड़ी विट्ठल की खाट के पैताने पर बैठकर गप्पे मारती थी। उनकी बातों में कोई दम नहीं होता था। किसी की खिल्ली उड़ाना, किसी की टांग खिंचना, बैलों की, घोड़ों की, ऊँट की, पिल्लों की बातें होती थी तो कभी माँ बापू की खिंचाई करते, हंसी ठट्टा करते। शंकर शेठ का रेडियो अंतिम समाचार सुनकर बंद हो जाता। सिनेमाघर भी अंतिम शो की कमाई कर बंद हो चुका होता। आसपास के सभी लोग और पत्थर के देवता भी सो जाते तो भी ये भाई-बहन दोनों अपनी बातों में मस्त हो एक-दूसरे में रमे रहते। विट्ठल दारू पीता था और पैसे उड़ा देता था इस बात को लखड़ी ने इतनी सरलता से मान लिया था कि भाई के इस कार्य के लिए उसके मन में कोई मलाल नहीं था।

लापरवाही और बेखबरी में जीवन की गाड़ी खींचती चली जा रही थी।

मौज और आनंद को भी जीवन में अपना-अपना खेल खेलना होता है। हास्य समाप्त नहीं होता प्र ऊँघता तो वो है ही। लखड़ी के बिखरे बालों की लट जब उसकी उनींदी आँखों को सताती तो वह बातों को रोककर उठ खड़ी होती : “मैं तो चली, मुझसे तो अब बैठा नहीं जा रहा है भाई, बहुत नींद आ रही है” और जवाब की आशा किए बगैर ही वह चल देती। उसे लचकते-लचकते आँगन को पार करके घर में प्रवेश करते हुए देखकर आसमान के जागनेवाले तारे भी उस पर मोहित हो जाते। और जीवन रूपी नाटक के एक दिन का समय पूरा होते ही नाटक का अंत हो जाता। और फिर दूसरे दिन वही आपाधापी, “अरे आज तो बहुत देर हो गई” की चिलल पों, दौड़ा दौड़ी, डर, मजबूरी, जुल्म और खिचड़ी। दिन व दिन खिचड़ी का परोसना और अधिक खतरनाक और संघर्षमय बनता जा रहा था । और फिर वही शाम, वही बंदरों का किकियाना, पिल्लों का रिरियाना, वही रात, वही चुप्पी, वही नींद भरी आंखें और मोहित होने के लिए जगे बैठे वही आकाश के तारे। प्रवेशांक पूरा। नाटक समाप्त । पटाक्षेप।

चक्र के लगातार घूमते रहने की इस प्रक्रिया में चक्र के दाँत घिसने लगे थे और घिसते घिसते वो इतने घिस गए थे कि यंत्र बिगड़ने की कगार पर आ खड़ा था। और बस उसके टूटकर बिखर जाने का ही इंतजार था।

लड़ाई, तंगी, महंगाई, नफाखोरी, गरीबी, भुखमरी सब बेशर्मों की तरह एक के बाद एक मुंह बाएँ खड़े हो गए।

लखड़ी के परिवार में मिट्टी की हांडी में पकनेवाली खिचड़ी दिन-ब-दिन कम पड़ती गई। और खिचड़ी परोसते समय जो अधिक मानसिक श्रम करना पड़ता था उससे वह पसीने पसीने हो जाती थी। उसका भाई जब खाने बैठता तब “अब क्या होगा” के डर से वो थरथरा जाती। बाप के खाने बैठते ही उसका मन भर आता था। और माँ पर तो दया आती थी उसे। अपनी बात तो क्या करती व किससे करती ? उसका भाई शाम को जल्दी घर आ जाता और जैसे बिल्ली दूध की देगची को नजर गडाऍ एकटक देखती रहती है वैसे ही रसोईघर की ओर घात लगाए बैठे रहता। ज्यों ही खिचड़ी की हांडी चूल्हे पर चढ़ती त्यों ही लखड़ी का बाप ऊपरी मंजिल के गवाक्ष में से खिसकते खिसकते बरामदे के किनारे पर आकर बैठ जाता और अपने लँगड़े पाँवों को नीचे लटकता रखकर अपनी उपस्थिति जताता रहता था। अंधेरा होते ही लखड़ी की माँ की आँखों के आगे लाल-पीले चकते दिखने लगते। इसलिए वह कपूर की पुड़िया बनाना बंद करके खाँसना शुरु कर देती। खाँसना अगर बंद होता तो उसका बड्बड़ाना शुरु हो जाता : “आज तो पेट में कुछ कुछ हो रहा है।“ या तो फिर : “मेरा पेट तो पाताल पर जाकर बैठ गया है। “

केवल लखड़ी चुप रहती, पर वह सब कुछ समझ जाती। सब समझती थी इसलिए अपने मिजाज को शांत रखती थी। पर वह अंदर ही अंदर घुटती रहती थी, सुलगती रहती थी।

लगातार खिचड़ी की हांडी के चारों ओर चक्कर लगाती रहती। अगर बैठी होती तो हांडी के नीचे जलती आग की लपटों को ताकती रहती और अनमने ही चिमटे से जमीन को कुरेदती रहती।

उसका अस्तित्व केवल खिचड़ी के कारण ही था और वही सबके लिए सबसे श्रेष्ठ था। इसलिए सभी उसके मुखापेक्षी थे उस पर आश्रित थे। लखडी का उसके परिवार के साथ केवल खिचडी तक का संबंध था ।

वेग-अति वेग गति से काल का चक्का घुम रहा था चक्र को किसी की भी कुछ भी परवाह नहीं थी।

उस दिन तो जो नहीं होना था वही हो गया। जिन लोगों के घर में वह सुबह-सबेरे पानी भर आई थी सभी ने उस दिन खुल्ले न होने के कारण कुछ दिन ठहरकर पैसे ले जाने का वादा किया। तो किसी ने जवाब दिया : “देर से क्यों आई? हमने दूसरे से पानी भरवा लिया।“

चेहरा लटकाकर लखड़ी शंकर सेठ के पास गई। “अरे रे रे, क्या करूँ आज तो जेब में एक भी पैसा नहीं है। ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ और क्या बताऊं चाबी भी तो घर पर सेठानी के पास है।“ कहता हुआ शंकर सेठ ने गद्दे के नीचे से अपना चश्मा निकाला और लखड़ी को सर से पांव तक निहारने लगा।

“अरी ओ लड़की.....

पर लखड़ी उसकी बातों को अनसुनी कर निकल आई।

शंकर सेठ के फाटक से निकलते ही उसे उसका भाई सीटी बजाता, बीड़ी फूंकता और गीत गाता हुआ मिला उसे देखते ही बोल पड़ा, “अरे तू अब तक घूम रही है? अभी तक चूल्हे पर खिचड़ी नहीं चड़ाई?”

लखड़ी को उसी समय उसे एक तमाचा जड़ देने का मन हुआ पर न जाने कैसे उसने खुद को रोक लिया।

“विठ्ठल” लखड़ी ने कहा, “मेरा एक काम कर दे।“ अपने हाथों पर से चांदी की आखरी जोड़ी चूड़ी को उतारा और उसे विठ्ठल के हाथ पर रखकर कहा, “इसे बेचकर खिचड़ी लेकर आ। देख जल्दी आना।“ जाते हुए भाई के कंधे को पकड़कर कहा, “जल्दी लौटकर आना विठ्ठल।“

उसे विश्वास था कि विठ्ठल तुरंत लौटेगा इसलिए उसने रसोईघर में जाकर हर रोज की तरह उठा पटक शुरू कर दी। लकड़ियों को इधर उधर करना, बर्तन की झनझनाहट, पानी की छलछलाह्ट सब सुनाई देने लगे । पर खिचड़ी तो अब तक दुकान पर ही थी। उसने बगासे लेते हुए, शरीर को तोड़ते-मरोड़ते हुए आलस को भगाते हुए, गीत गाते हुए समय को लंबाना शुरू किया। और तभी ऊपरी मंजिल के गवाक्ष का दरवाजा खड्का और दो लँगड़े पाँव सीढ़ियों पर से लटकने लगे। लखड़ी ने उन्हें देखा। लखड़ी ने यह भी देखा कि जिन पैरों में कोई ताकत नहीं थी वही पैर अब चलने को उतावले हो रहे थे।

और तभी माँ के खाँसने की आवाज सुनाई दी। वो किसी के साथ लड़ती हुई बड़बड़ा रही थी। “बदमाश कहीं का, केवल उसे ही पेट भर खाना मिलता है।“ लड़ती झगड़ती रसोई में पानी पीने आई। आते ही उसने खिचड़ी की हांडी में केवल पानी उबलते हुए देखा। बाल सँवारने बैठी लखड़ी उससे आँखें चुराने लगी। माँ का धीरज टूट गया, निर्लज्ज होकर कमर पर हाथ रखकर तन कर खड़ी रह गई। आंखे दिखाकर बोली, “हें“

लखड़ी सब कुछ समझ गई। उसने जवाब दिया, “विठ्ठल लेने गया है – अभी आ जाएगा।“ उसकी माँ ने बाल संवारते संवारते रूके हुए कंपकंपाते लखड़ी के हाथ देखे। हाथों में चूड़ियों को न देखकर वह सब समझ गई। उसका गुस्सा शांत हुआ। पर लखड़ी के बाप ने ऊपरी मंजिल से हांक लगाई : “क्या बात है लाखी – क्या हुआ?” फिर तो उसकी माँ की जुबान से धारदार तीर छूट निकला, “और होने को क्या धारा है? मेरा क्या? राह देखते रहो शाम तक।“

लखड़ी ने अच्छी तरह से बाल संवारा, घस घस कर चेहरा धोया, नहा भी लिया। धुले हुए कपड़ों को तह करके रखा। पूरे घर की अच्छी तरह झाड़ू मार कर सफाई की। न जाने कब दोपहर बीत गई। लखड़ी को डर लगने लगा कि अब तो शाम होने वाली है और विठ्ठल का कहीं अता-पता नहीं था। “ विठ्ठल कहाँ गया?” उसने खुद से ही सवाल पूछा। अंतर की गहराई से आवाज आई, पूरा आकाश सिगरेट के धुएँ से भरा । पान की पिचकारी के लाल रंग भरे संध्या की रुदन गाती चेहरे से दारू की बदबू जगत के सुकुमार फूलों को भी लजा रही थी।

लखड़ी के सदा मुस्कुराते चेहरे पर से मन मौजीपन खिलंदड़ापन गायब हो गया। वो रोने रोने को हो गई थी। पर परिस्थितियों ने उसे रोने से रोक रखा था। वह सुबह से लेकर दोपहर तक हास्य की वियोगन बनी बैठी थी, परंतु आज उनके मिलन का कोई योग नहीं लग रहा था। लखड़ी की ताकत और उसकी काबिलीयत उसके स्वभाव की कसौटी पर कस रहे थे। आँखों के कोरों पर आँसू की एक बूंद ‘आऊँ कि न आऊँ’ के द्वंद में हिचकाते हुए रूके हुए थे।

तभी उसके बाप ने उसे आवाज लगाई ---

“ऊपर तो आ लखी।”

लखड़ी फांसी के कटघरे चढ़ रही हो ऐसे ऊपर चढ़ी। बाप के लँगड़े पाँव के नजदीक निढाल होकर गीर पड़ी।

“क्या हुए बेटा।”

“विठ्ठल अभी तक नहीं लौटा।” लखड़ी ने कहा और उसके स्वभाव की कसौटी पर उसकी ताकत और काबिलियत दोनों खोटे निकले, सोने की जगह पित्तल निकला। और उसकी आँखों से आँसू झरझर बह निकले।

कुछ देर तक दोनों में से किसी ने भी कुछ नहीं कहा।

दूर से सिनेमाघर में से आवाजें आने लगी । शंकर सेठ के रेडियो में से मिलिटरी बैंड के बजने की आवाज आने लगी। आकाश के आईने में शाम की लालीमा फैलने लगी थी।

“लखड़ी मेरे सामने बैठ।” उसके बाप ने कहा। उसकी कमजोर आवाज में कडकाई थी। “तो आज तूने खिचड़ी नहीं कमाई क्यों?”

लखड़ी सर झुकाकर बैठी रही। बाप बोला “कल फिर से ऐसा नहीं होगा ये कौन बता सकता है? और इसमें मिलता भी कितना है? ऐसे कब तक चलाएँगे?”

लखड़ी खुद से भी यही प्रश्न पूछ रही थी। पूरे विश्व में, आज हर घर में यही प्रश्न मुंह बाएँ खड़ी है, “ऐसा कब तक चलाएँगे?”

कुत्ते नीचे भौंकने लगे थे। दूर सामने की गली में हल्ला गुल्ला शुरू हो गया। कहीं झगड़ा भी शुरू हो गया था। लखड़ी ने खिड़की में से झाँककर देखा।

“लखी” उसके बाप ने पुकारा, “मेरे सामने देख।“ चेहरा घूमाकर लखड़ी ने उनको देखा। बुड्ढे की आँखों में स्नेह का नामोनिशान नहीं था। मिचमिचाती आँखों की कोरें कही सुखी और कही आंसुओं से सिक्त थी। उसने लखड़ी को, उसके सँवारे हुए बालों को भरपूर नजर से देखा।

बुड्ढे का मुंह खुला रह गया। उसकी आंखे थम गई। वही आँखें धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी – लखड़ी की हाँफती छाती को छुकर वही थम गई, “लखड़ी तुझे अब भी खिचड़ी कमाना है।“ वे आंखें हद से अधिक भर जाने के कारण झड़प से मिचमिचा गई। “तेरे जैसों के लिए खिचड़ी कमाना तो बाएँ हाथ का खेल है रे – बहुत ही सहज है, समझी? समझ में आ रहा है तेरे कु?”

लखड़ी के सारे अंग कंपकंपा उठे। उसे किसी बात का ध्यान नहीं था। उसके शरीर में हलचल मची हुई थी। बड़ी गहराई से उसे यह सब अनुभव होने लगा। कांपती, थरथराती, निःसहाय लखड़ी लाल लाल होने लगी, सर झुकाकर बैठी रही।

“जो भी करना है – तुझे ही करना है” उसके बाप ने कहा। लखड़ी के फटे छिपते घाघरे पर उसकी नजर ऐसे चिपककर रह गई जैसे उसके हाड़ पिंजरवाले हाथ लखड़ी के जांघ को स्पर्श कर गए हो। और तभी लखड़ी लज्जा डर और शर्म से छिटकर तुरंत दूर हो जाती है। उसकी बेहोशी टूट जाती है और सजग होने पर उसकी आत्मा उसे फटकारने लगती है।

और वह चुपचाप उठकर सीढ़ियाँ उतरने लगती है और तभी उसका बाप उसे फिर बुलाता है, “लखी”

“अब और क्या है?”

बूढ़ी आँखें फिर से भरने लगती है और तेजी से खाली भी होने लगती है । उसके गाल की उभरी हुई हड्डियाँ भीग गई थी, “कुछ नहीं बेटा।“

लखड़ी नीचे तो उतर गई, पर रसोईघर में फैला पानी का घड़ा मटका और खिचड़ी की खाली हांडी के बीच वह पल भर के लिए स्थिर खड़ी रह गई। उसे सोच-विचार करने की आदत नहीं थी। परंतु अभी विचारों के मजबूत घेरे में से उसके निकलने का कोई रास्ता भी तो नहीं था। घेरे में से उसका निकलना असंभव था – घेरा टूटनेवाला नहीं था पर हास्य न जाने उस घेरे से कहाँ गुम हो गया था? वह हास्य जो लखड़ी को लखड़ी बनाता था जो उसकी पहचान थी।

होश में आते ही उसकी नजर खिचड़ी की हांडी पर पड़ी। उसने निश्चय कर लिया। उसके शरीर के स्नायुओं ने तनकर , उसे सुंदर बना दिया। लखड़ी खिचड़ी कमाने क लिए बाहर निकल पड़ी।

उस समय शाम अपने पूरे निखार पर थी। सज सँवरकर टहल रही थी। हल्की गुलाबी मादक पवन बह रही थी। धूल की हल्की परत हवा में फैल रही थी। और लखड़ी के फटे कपड़ों में से बड़े जतन से ढकी उसकी उभरती जवानी बाहर ताका झांकी कर रही थी। वह चलने लगी, जिधर उसके कदम उसे ले जा रहे थे बस उधर ही। और उसके कदम उसे गाँव के बाहर पनघट पर ले गए। तालाब का सुंदर किनारा, पीपल, आम, वट और केसूड़े के झाडों से घिरा पनघट । हर रोज श्रृङ्गार करती और हर रोज अपने को मृत्यु की गोद में विलीन कर देती संध्या। तालाब का मुग्ध वातावरण और स्तब्ध स्थिर जल।

लखड़ी तालाब के किनारे लगी लोहे की मेढ़ पर कोहनी टिकाकर खड़ी हो गई। भरी नजर से शाम की सुंदरता को देखने लगी। और उसी में खो गई। जीवन में पहली बार उसे दुनिया ने सोचना सिखाया। यह अनुभव उसके लिए एकदम नया था और उसे अप्रिय भी था। अब तक तो वह इतनी भोली और नादान थी कि उसे इन नायाब विचारों के जाल से उबरना भी नहीं आता था।

इसलिए अपने आपको उसने अति सहजता से इस मायाजाल में अधिक और अधिक गहराई से धंस जाने दिया। उसका यह बेसुधपन मूढ़ता की हद तक को पार कर गई। लखड़ी गहराई और अधिक गहराई तक धँसने लगी। इस गहराई में से कुछ नव निर्माण का होना अभी बाकी था। नई लखड़ी के जीवन का नया परिच्छेद उसका नवजन्म अभी होना था। हाय रे ! आज की विलीन होती इस संध्या के साथ-साथ प्राचीन लखड़ी की मौत भी करीब आ रही थी।

नव जन्म की दुःखद प्रक्रिया से गुजरती हुई लखड़ी के चेहरे पर अभी तक उसकी पुरानी हंसी की रेखाएँ खेल रही थी। उस पर अब रात के अंधेरे की हल्की छाया खेलने लगी थी।

लखड़ी पीछे मुड़ी। घर से दूर जाने की बात वह सोच रही थी।

“पर खिचड़ी ... खिचड़ी का क्या होगा?” इन विचारों ने उसके कदमों को जकड़ लिया। उसके पांव थम गए, हाथ कांपने लगे। गहराई तक धँसी अपने आप को ऊपर खींचकर लाने का भरसक प्रयत्न करते करते वह थक गई और तभी शंकर सेठ के ऊपरी मंजिल की बत्ती जल उठी। उस उजाले के समक्ष लखड़ी का उलझन से भरा चेहरा चमक उठा। उसकी उलझने झलमला उठी।

“ऐ छोकरी –ऐ लखड़ी, ऊपर आ” शंकर सेठ ने आवाज लगाई। शंकर सेठ की आवाज सुनकर वह चौंक गई।

बेहोशी की रौ में ही लखड़ी दनादन सीढ़ी चढ़ गई। उसने कुछ सोचा ही नहीं। वह केवल अपनी परेशानियों से भाग निकलने के लिए, एक भाव में से दूसरे भाव में परिवर्तित होने के लिए शंकर शेठ के बुलावे पर ऊपर चढ़ गई। “आज सेठानी नहीं है और कर्षन भी नहीं आया। लखड़ी इतना कर बस घर साफ कर दे।“

कुछ बोले बिना ही लखड़ी ने कोने पर पड़ी झाड़ू उठाया। “अरे नहीं, नहीं।“ शंकर सेठ ने कहा, इतना कहते हुए उसने चश्मा पहन लिया था : “पूरे घर की नहीं केवल ऊपरी मंजिल को ही साफ करना है। बिस्तर भी सफाई से लगाना है।“

लखड़ी ने ऊपर जाकर बत्ती जलायी। सफाई करने बैठी ही थी कि उसका पूरा शरीर झनझना उठा। उसके धड़कते हृदय ने एक भयंकर कुलांच भरी। हथभ्रम होकर लखड़ी ने दोनों हाथों को जमीन पर  टिका दिया।

“अरे ये क्या?” कहते हुए अचानक शंकर सेठ उसके पीछे आ खड़ा हुआ। उसने लखड़ी के फटे घाघरे में ऊंगली फंसाकर उसे और फाड़ दिया।

लखड़ी झट से खड़ी हो गई। उसके हाथ से झाड़ू छिटककर गिर पड़ा। उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। हाथ बढ़ाकर उसने दीवार का टेका लेने की कोशिश की और तभी “टप” करके बत्ती बंद हो गई। “आह” लखड़ी के मन ने कहा, “ये अंधेरा कितना सुखद है।“

प्रत्येक स्त्री की तरह लखड़ी के जीवन में भी यह प्रसंग पहली बार आया था। उसने स्वयं को उस प्रसंग की मधुरता में बह जाने दिया। अंततः वो थी तो स्त्री ही न – जवान और तंदुरूस्त।

बचपन से ही जमाने ने उसे ऐसे बेकल काम में लगा रखा था कि अच्छा बुरा, नीति-अनीति या धर्म-अधर्म के विषय में सोचने का उसे अवसर ही नहीं मिला था। अब तक तो उसे अपने जीवन की एक ही उपयोगिता का ख्याल था – खिचड़ी कमाना, खिचड़ी पकाना और खिचड़ी परोसना। आज उसे औरत होने का सुंदर और जवान होने का आलहादजनक अनुभव हुआ । जीवन में प्रथम बार उसने पुरूष के स्पर्श को अनुभव किया था। उसने जीवन को धन्य माना होता पर दूसरे ही क्षण उसे खिचड़ी का ख्याल आया। सीढ़ियों से लटकते दो लंगड़े पैर, धीमी, तालबद्ध और खंखारती हुई उसकी माँ की ख़ांसी की झंकार, उसके भाई के सिगरेट का धुआँ और दारू की बदबू....वो बिल्ली, पिल्ले, आँगन, नीम का पेड़.....वही वही चित्र। उसके तने हुए स्नायु शिथिल हो गए। ‘हाय खिचड़ी’ उसके दिल ने आह भरी। जीवन का यह प्रथम प्रसंग खिचड़ी के धधकते हांडी में होम हो गए। वह मीठी झनझनाहट विलीन हो गई। लखड़ी को लगा ये पलंग एक बहुत बड़ी हांडी है जिसमें वह खिचड़ी बन कर पक रही है। “लखड़ी खिचड़ी जैसी है – क्यों माँ?” उसके भाई के कहे शब्द उसके कान में बज रहे थे। लखड़ी में अब अधिक सहन करने की क्षमता नहीं थी। वह ज़ोर से बहुत ज़ोर से खुलकर रोने लगी और जोर की एक लात दिखाई। शंकर सेठ के प्रति उसके मन तिरस्कार से भर उठा।

“अरे अरे ये तू क्या कर रही है?” टप से बत्ती फिर से जल उठी। लखड़ी ने चादर से अपने को लपेट लिया। अंधेरे ने भी उसे जी भर कर रोने नहीं दिया। उजाला हो कर उसका दम घोंट दिया। सिसकियां भरती हुई वह वहीं पड़ी रही।

ऐसे ही शाम मर गई। रात का साम्राज्य फैल गया। उसके अंधेरे उजाले, शोरगुल, मौन सब शुरू हो गए। हर रोज के रात की तरह आज भी रात आई। लखड़ी के रहने न रहने से कोई उसमें कोई फरक नहीं पड़ने वाला था।

जब लखड़ी लौटी तब उसका बाप रसोई में बीछे पाटले बैठा था। उसकी माँ की खांसी थम गई थी। बिल्ली रसोई में खुले आम घूम रही थी। लखड़ी के रसोई में घुसते ही सभी ने उसकी ओर देखा। डरना छोडकर पिल्ला पूंछ हिलाता हुआ अंदर आकर खड़ा हो गया।

लखड़ी सुन्दर से-- अब और सुंदर हो गई थी। फटा हुआ घाघरा, गंदी सी ओढ़नी और गँधाती चोली का कहीं नामो निशान नहीं था। फूल छापवाले घाघरे पर उसने नई कोरी साड़ी पहनी थी और सेठानी के जैसी ‘ कट’ वाली चोली में वह तो अहंकार व्यंग और घमंड से खील उठी थी। उसने आते ही अपने हाथों में से मिठाई के दोनों डिब्बों को जमीन पर फिसलकर गिर जाने दिया ।बिल्ली ने तुरंत उस पर झपट्टा मारा और तभी उसके बाप ने एक कटोरे को फेंककर उसे मारा।

वह एक ऐसा पल था जब सभी को कुछ न कुछ तो कहना था पर किसी के पास कहने के लिऍ एक शब्द भी नहीं थे। मौन और शांति की वह घड़ी आवाज और गति से भी अधिक भयंकर थी।

लखड़ी ने धीरे से गिरी पड़ी मिठाई के डिब्बे को ठीक किया। अपने कपड़ों के मैले होने की चिंता किए बगैर ही लखड़ी धूल से भरी जमीन पर रसोईघर के दरवाजे का टेका लेकर बैठ गई।

झुककर लखड़ी के बाप ने मिठाई के डिब्बे को अपनी ओर खींच लिया। ऊपर के कागज को फाड़कर अंदर झांक कर देखा। माँ की आँखों से भी उसकी भूख झांकने लगी थी।

एक पल के लिए लखड़ी के मन पर इन लोगों के लिए, इस घर के लिए और इन सभी सजावट के लिए एक उत्कट वितॄष्णा ने घर कर लिया।

“परोस ना” उसके बाप ने कहा।

अनसुना कर लखडी हठीली बन बैठी रही।

हवा के झोंके से अचानक नीम का पेड़ कांप उठा, पक्षी चहचहा उठे।

“लखी, सुना बेटा?”

“हाँ, सुना” भावहीन होकर जवाब दिया। न उसकी पलकें झपकी न उसका सर हिला। “अब मुझे परोसने की क्या जरूरत है? सब खाओ पेट भर कर खाओ और जो बच जाए उसे कुत्तों को खिला दो। कल भी ऐसा ही होगा, जितना चाहिए उससे भी ज्यादा खाने को मिलेगा।“ कहते हुए उसका शरीर तन गया। दृढ़ निश्चयता से भर उसने बाप की ओर देखा। आँखों का वह तिरस्कार क्षणिक ही था। वह दौड़ती हुई बाहर निकल गई और नीम की छांव तले बिछे भाई की खाट पर पड़ गई।

उपर इस छोर से उस छोर तक तना हुआ भव्य जगमगाता आकाश और नजदीक ही झूमता गाता और सहलाता हुआ नीम का पेड़।

जीवन कभी इतना मुक्त, भव्य और उदार हो सकता है भला? लखड़ी में सजग होकर यह प्रश्न पूछने की क्षमता नहीं थी। पर उसके अंतर की गहराई में ये प्रश्न उठ रहे थे। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इसलिए वह घबरा रही थी और बेचैन थी। “ये दंश, ये तिरस्कार, ये दुःख का कोई महत्व है लखी?” पर ये आवाज बहुत कमजोर थे इस आवाज में इतना दम नहीं था कि वह लखड़ी पर असर डाल सके। कल की लखड़ी आज की दर्दभरी याद बन जाने की कगार पर आकर खड़ी थी।

“चल लखड़ी खाना खा लेते हैं” कहते हुए जब उसकी माँ उसे उठाने आई तब अलसाती हुई आनाकानी करती हुई उठकर रसोईघर में आ बैठी। उसकी माँ ने उसे एक ही थाली में परोसते हुए देखकर कुछ कहते-कहते रूक गई। और फिर तो दोनों औरतों ने एक ही साथ अपना अपना निवाला लिया, पर अब तो इसके बाद वाली समझ्दारी की कोई आवश्यकता नहीं थी। दोनों झेंप गए। पहले वाली उस रीति की अब कोई जरूरत थी?

“मुझे भूख नहीं है, मुझे नहीं खाना।“ कहती हुई जैसे तैसे मुंह के निवाले को गले से उतारकर रोती हुई लखडी उठ गई।

उसका भाई विठ्ठल देर रात को दारू के नशे में चूर होकर लौटा। लखड़ी दौड़ती हुई उसके पास गई और मिठाई से भरी थाल खटिया पर उसके सामने धर दी।

“निठल्ला कहीं का” कहती हुई दिन भर में पहली बार लखड़ी हँसती हुई दिखी। उसकी हंसी सुनकर ऊपरी मंजिल पर बैठे उसके बाप के चेहरे पर भी मुस्कान खिल गई। उसने अपना चादर से अपना ढक लिया।

जैसे कुछ हुआ ही न हो वैसे ही दोनों भाई बहन देर रात तक बातों में मशगूल रहे और रात झटपट सरकने लगी। आधी रात के बाद लखड़ी रसोईघर में बिछी बिछौने पर जाकर पड़ गई।

कुछ समय पूर्व की घटनाओं के अनुभवों के बारे में सोचती हुई लखड़ी उत्तेजित हो उठी, उसका मन विषाद से भर उठा। रसोईघर में बिछे एक इंच भर का गट्ठा उसे अब चुभने लगा था और अवचेतन अवस्था में उस पलंग की याद उसे खिचड़ी बनाकर पका रही थी। फिर भी लखड़ी खुली आँखों से, सपने देखती, कभी बीते हुए दिनों की, कभी भविष्य के संघर्ष की बातों में डूबती उभरती वर्तमान की ओर बढ्ती रहती। उसने अपने आपको परिस्थितियों के साथ बह जाने दिया । जब उसे रोना था वह जी भरकर रोई। था।

जब उसे शांत रहने का मन हुआ वह शांत रही और कभी कभी उसने अपने आपको भविष्य की बाहों में गुम हो जाने दिया। और फिर तारे, पवन, धूल, शोरगुल, मौन, जागृति और सुप्त हृदय के विविध कारनामों से भरी रातें गुजरती रही।

लखड़ी की एक अकेलीवाली लाजवाब अनोखी रातों की मौत हो गई और उसके साथ ही खिचड़ी परोसती हुई लखड़ी भी न जाने कहाँ गुम हो गई।

आलस छोड़कर दूसरे दिन उठते ही लखड़ी ने गंदे से छोटे से तकिये को लात मार कर दूर फेंक दिया और हंस पड़ी। उसकी वह हंसी नवीनता, चतुराई और निर्लज्जता से भरी थी।

वह दिन भी बीत गया। सप्ताह बीत गया – महीना पूरा हुआ।

भरे बाजार में लखड़ी अब बेधड़क घूमती रहती। उसके हाथ, पैर, कमर और गर्दन सब एक लयबद्ध तरीके से डोलते रहते , उसके कपड़े लहराते हुए इधर-उधर उड़ते हुए उसकी जवानी को ढंकने के बहाने ढूंढते रहते। अपनी हर अदा पर वह कारण अकारण मुसकुराती रहती, कभी हँसती हुई बिजली की सी तेज गति से इधर से उधर कुदती फांद्ती गुजर जाती।

वह जहां से अपनी उपस्थिति जताकर गुजर जाती वह कोना उसकी जवानी के झलमलाहट से चकाचौंध हो जाता। यह थी लखड़ी – यह लखड़ी की मोहिनी शक्ति थी।

देर रात को एक दिन लखड़ी के घर पुलिस आई। फौजदार से बाप की पुरानी जान पहचान थी।

“चाचा तुम?” लखड़ी ने पूछा

“क्या करूँ बहन विठ्ठल ने शराब के नशे में चूर होकर किसी को बुरी तरह जख्मी कर दिया है।“ कहता हुआ उसकी नजर चारों और ढूँढने लगी।

“कहाँ है वो?”

“वो रहा मुआ लिमड़े के नीचे खाट पर पड़ा है” खाँसते हुए माँ ने जवाब दिया।

“विठ्ठल” फौजदार ने उसे खींचकर उठाया।

“छोड़ो मुझे, छोड़ दो।“

“विठ्ठल”

“कौन?- - - चाचा तुम? आप मुझे......”

“हाँ अब शांत होकर तुझे जहां ये लोग लेकर जाएँ वहाँ जा, मेरे भाई।“

“ले जाओ इस मुए नीच को”- - - माँ ने चिड़कर जवाब दिया। “नीच कहीं का, बैठे बैठे बहन की कमाई......”

“माँ” खिड़की की सलाखों को पकड़कर बैठी लखड़ी नीचे कूदती हुई चींख उठी।

“ये क्या बक रही है तू?”

थोड़ी देर के लिए लखड़ी की आँखों में आसमान के बादल घिर आएँ “विठ्ठल को घसीटकर ले जाने की आवाज दूर-दूर तक फैल गई। आँगन में भयंकर मौन पसर गया। उसकी माँ की खांसी भी थम गई थी। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था और अब बोलने को रह भी क्या गया था?

फौजदार उस चुप्पी को तोड़ते हुए बोले “कैसे हो नत्थुभाई? आपके पैरों ने तो अब साथ छोड़ दिया आपका?”

लखड़ी के बाप की आँखें वैसी ही भरती छलकती और मिचमीचाती रही। उसका ध्यान किस ओर था क्या पता, उसने सुना होगा भी या नहीं? उसके होंठ कुछ कहने से पहले विचित्र रूप से फड़क गए। उसने कर्कश स्वर में पूछा, “फौजदार साहब, इस लड़ाई का अंत कब आएगा?”

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परिचय – पत्र

नाम - डॉ. रानू मुखर्जी

जन्म - कलकता

मातृभाषा - बंगला

शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय शिक्षा परिषद, यु.पी.)

लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।

प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शीघ्र प्रकाश्य)।

उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।

अन्य उपलब्धियाँ - आकाशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।

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संपर्क - डॉ. रानू मुखर्जी

17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,

एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.


Email – ranumukharji@yahoo.co.in.

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रचनाकार: कहानी - खिचड़ी - जयंत खतरी, अनुवाद- डा रानू मुखर्जी
कहानी - खिचड़ी - जयंत खतरी, अनुवाद- डा रानू मुखर्जी
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